ब्रह्म, ईश्वर, माया व जीव के स्वरूप
स्थल – बेलुड़ मठ
विषय – ब्रह्म, ईश्वर, माया व जीव के स्वरूप – सर्वशक्तिमान व्यक्त्ति विशेष के रूप ने ईश्वर की धारणा करके साधना में अग्रसर होकर धीरे धीरे उनका वास्तविक स्वरूप जाना जा सकता है – “अहं ब्रह्म” इस प्रकारज्ञान न होने पर मुक्ति नहीं होती – काम-कांचन-भोग की इच्छा छुटे बिनातथा महापुरुष की कृपा प्राप्त हुए बिना ऐसा नहीं होता। अन्तर्बहिः संन्यासद्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति – संशय भाव का त्याग करना – किस प्रकार केचिन्तन से आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है – मन का स्वरूप तथा मन का संयम किस प्रकार करना होता है – ज्ञानपथ का पथिक ध्यान के विषय के रूप मेंअपने यथार्थ स्वरूप का ही अवलम्बन करेगा। अद्वैत स्थिति लाभ का अनुभव – ज्ञान भक्ति योगरूपी सभी पथों का लक्ष्य है जीव को ब्रह्मज्ञ बनाना – अवतार तत्त्व – आत्मज्ञान प्राप्त करने में उत्साह देना – आत्मज्ञ पुरुष का कर्म जगत् के हित के लिए होता है।
इस समय स्वामीजी अच्छी तरह स्वस्थ हैं। शिष्य रविवार को प्रातःकाल मठ में आया है। स्वामीजी के चरणकमलों का दर्शन करने के बाद वह नीचे की मंजिल में आकर स्वामी निर्मलानन्द के साथ वेदान्त शास्त्र की चर्चा कर रहा है। इसी समय स्वामीजी नीचे उतर आये और शिष्य को देखकर बोले, “अरे, तुलसी के साथ क्या विचार-परामर्श हो रहा था?”
शिष्य – महाराज, तुलसी महाराज कह रहे थे, वेदान्त का ब्रह्मवाद केवल तू और तेरे स्वामीजी जानते हैं। हम तो जानते है – ‘कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्।’
स्वामीजी – तूने क्या कहा? शिष्य – मैंने कहा एक आत्मा ही सत्य है। कृष्ण केवल एक ब्रह्मज्ञ पुरुष थे। तुलसी महाराज भीतर से वेदान्त वादी हैं, परन्तु बाहर द्वैतवादी का पक्ष लेकर तर्क करते हैं, ईश्वर को व्यक्त्तिविशेष बताकर बात का प्रारम्भ करके धीरे धीरे वेदान्तवाद की नींव को सुदृढ़ प्रमाणित करना ही उनका उद्देश्य ज्ञात होता है। परन्तु जब वे मुझे ‘वैष्णव’ कहते हैं, तो मैं उनके सच्चे इरादे को भूल जाता हूँ और उनके साथ वादविवाद करने लग जाता हूँ।
स्वामीजी – तुलसी तुझसे प्रेम करता है न, इसीलिए वैसा कहकर तुझे चिढ़ाता है। तू बिगड़ता क्यों है? तू भी कहना, ‘आप शून्यवादी नास्तिक हैं।’
शिष्य – महाराज, उपनिषद् दर्शन आदि में क्या यह बात है कि ईश्वर कोई शक्तिमान् व्यक्त्तिविशेष है? लोग तो वैसे ही ईश्वर में विश्वास रखते हैं।
स्वामीजी – सर्वेश्वर कभी भी विशेष व्यक्ति नहीं बन सकते। जीव है व्यष्टि; और समस्त जीवों की समष्टि है, ईश्वर। जीव में अविद्या प्रबल है; ईश्वर विद्या और अविद्या की समष्टिरूपी माया को वशीभूत करके विराजमान है और स्वाधीन भाव से उस स्थावर-जंगमात्मक जगत् को अपने भीतर से बाहर निकाल रहा है। परन्तु ब्रह्म उस व्यष्टि-समष्टि से अथवा जीव-ईश्वर से परे है। ब्रह्म का अंशांश भाग नहीं होता। समझाने के लिए उनके त्रिपाद, चतुष्पाद आदि की कल्पना मात्र की गयी है। जिस पाद में सृष्टि-स्थितिलय का अभ्यास हो रहा है, उसी को शास्त्र में ‘ईश्वर’ कहकर निर्देश किया गया है। अपर पाद कूटस्थ है; जिसमें द्वैत कल्पना का आभास नहीं है, वही ब्रह्म है। इससे तू कहीं ऐसा न मान लेना कि ब्रह्म ही जीव-जगत् से कोई अलग वस्तु है। विशिष्टाद्वैतवादी कहते हैं, ब्रह्म ही जीव-जगत के रूप में परिणत हुआ है। अद्वैतवादी कहते हैं, ‘ऐसा नहीं, ब्रह्म में जीवजगत् अध्यस्त मात्र हुआ है।’ परन्तु वास्तव में उसमें ब्रह्म का किसी प्रकार परिणाम नहीं हुआ। अद्वैतवादी का कहना है कि जगत् केवल नामरूप ही है। जब तक नामरूप है, तभी तक जगत् है। ध्यान-धारणा द्वारा जब नाम रूप लुप्त हो जाता है, उस समय एकमात्र ब्रह्म ही रह जाता है। उस समय तेरी, मेरी अथवा जीव-जगत् की स्वतन्त्र सत्ता का अनुभव नहीं होता। उस समय ऐसा लगता है कि मैं ही नित्य-शुद्ध-बुद्ध प्रत्यक् चैतन्य अथवा ब्रह्म हूँ, जीव का स्वरूप ही ब्रह्म है। ध्यान-धारणा द्वारा नाम रूप आवरण हटकर यह भाव प्रत्यक्ष होता है, बस इतना ही। यही है शुद्धाद्वैतवाद का असल सार। वेद-वेदान्त, शास्त्र आदि इसी बात को नाना प्रकार से बार बार समझा रहे हैं।
शिष्य – तो फिर ईश्वर सर्वशक्तिमान् व्यक्त्तिविशेष है – यह बात कैसे सत्य हो सकती है?
स्वामीजी – मनरूपी उपाधि को लेकर ही मनुष्य है। मन के ही द्वारा मनुष्य को सभी विषय समझना पड़ रहा है। परन्तु मन जो कुछ सोचता है वह सीमित होगा ही। इसीलिए अपने व्यक्त्तित्व से ईश्वर के व्यक्त्तित्व की कल्पना करना जीव का स्वतःसिद्ध स्वभाव है, मनुष्य अपने आदर्श को मनुष्य के रूप में ही सोचने में समर्थ है। इस जरामृत्युपूर्ण जगत् में आकर मनुष्य दुःख की ताड़ना से ‘हा हतोऽस्मि’ करता है और किसी ऐसे व्यक्ति का आश्रय लेना चाहता है जिस पर निर्भर रहकर वह चिन्ता से मुक्त हो सके। परन्तु ऐसा आश्रय है कहाँ? निराधार सर्वज्ञ आत्मा ही एक मात्र आश्रयस्थल है। पहले पहले मनुष्य यह बात जान नहीं सकता। विवेक-वैराग्य आने पर ध्यान-धारणा करते करते धीरे धीरे यह जाना जाता है। परन्तु कोई किसी भी भाव से साधना क्यों न करे, सभी अपने अनजान में अपने भीतर स्थित ब्रह्मभाव को जगा रहे हैं। हाँ, आलम्बन अलग अलग हो सकता है। जिसका ईश्वर के व्यक्त्तिविशेष होने में विश्वास है, उसे उसी भाव को पकड़कर साधन-भजन आदि करना चाहिए। एकान्तिका आने पर उसीसे समय पर ब्रह्मरूपी सिंह उनके भीतर से जाग उठता है। ब्रह्मज्ञान ही जीव का एक मात्र प्राप्तव्य है। परन्तु अनेक पथ – अनेक मत हैं। जीव का पारमार्थिक स्वरूप ब्रह्म होने पर भी मनरूपी उपाधि में अभिमान रहने के कारण, वह तरह तरह के सन्देह, संशय, सुख, दुःख आदि भोगता है, परन्तु अपने स्वरूप की प्राप्ति के लिए आब्रह्मस्तम्ब पर्यन्त सभी गतिशील हैं। जब तक ‘अहं ब्रह्म’ यह तत्त्व प्रत्यक्ष न होगा, तब तक इस जन्ममृत्यु की गति के पंजे से किसी का छुटकारा नहीं है। मनुष्य जन्म प्राप्त करके मुक्ति की इच्छा प्रबल होने तथा महापुरुष की कृपा प्राप्त होने पर ही मनुष्य की आत्मज्ञान की आकांक्षा बलवान होती है; नहीं तो काम-कांचन में लिप्त व्यक्तियों के मन की उधर प्रवृत्ति ही नहीं होती। जिसके मन में स्त्री, पुत्र, धन, मान प्राप्त करने का संकल्प है, उसके मन में ब्रह्म को जानने की इच्छा कैसी होगी? जो सर्वस्व त्यागने को तैयार है, जो सुख, दुःख, भले-बुरे के चंचल प्रवाह में धीर-स्थिर, शान्त तथा दृढ़चित्त रहता है, वही आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए सचेष्ट है। वही ‘निर्गच्छति जगज्जालात् पिंजरादिव केसरी’ – महाबल से जगत्-रूपी जाल को तोडकर माया की सीमा को लांघ सिंह की तरह बाहर निकल जाता है।
शिष्य – महाराज, क्या संन्यास के बिना ब्रह्मज्ञान हो ही नहीं सकता?
स्वामीजी – क्या यह बार बार कहने का है? अन्तर्बाह्य दोनों प्रकार से संन्यास का अवलम्बन करना चाहिए, आचार्य शंकर ने भी उपनिषद् के ‘तपसो वाप्यलिंगात्’ – इस अंश की व्याख्या के प्रसंग में कहा है, ‘लिंगहीन अर्थात् संन्यास के बाह्य चिह्नों के रूप में गेरूआ वस्त्र, दण्ड, कमण्डलु आदि धारण न करके तपस्या करने पर कष्ट से प्राप्त करने योग्य ब्रह्मतत्त्व प्रत्यक्ष नहीं होता।’1 वैराग्य न आने पर – त्याग न होने पर – भोगस्पृहा का त्याग न होने पर क्या कुछ होना सम्भव है? – वे बच्चे के हाथ का लड्डू तो हैं नहीं जिसे भुलावा देकर छीन कर खा सकते हो।
शिष्य – परन्तु साधना करते करते धीरे धीरे त्याग आ सकता है न?
स्वामीजी – जिसे क्रम से आता है उसे आये। परन्तु तुझे क्यों बैठे रहना चाहिए? अभी से नाला काटकर जल लाने में लग जा। श्रीरामकृष्ण कहा करते थे, ‘हो रहा है, होगा, यह सब टालने का ढंग है।’ प्यास लगने पर क्या कोई बैठा रह सकता है? – या जल के लिए दौड़धूप करता है? प्यास नहीं लगी इसीलिए बैठा है। ज्ञान की इच्छा प्रबल नहीं हुई, इसीलिए स्त्री-पुत्र लेकर गृहस्थी कर रहा है!
शिष्य – वास्तव में मैं यह समझ नहीं सकता हूँ कि अभी तक मुझमें उस प्रकार की सर्वस्व त्यागने की बुद्धि क्यों नहीं आ सकी। आप इसका कोई उपाय कर दीजिये।
स्वामीजी – उद्देश्य और उपाय सभी तेरे हाथ में हैं। मैं केवल उस विषय में इच्छा को मन में उत्तेजित कर दे सकता हूँ। तू इन सब सत् शास्त्रों का अध्ययन कर रहा है – बड़े बड़े ब्रह्मज्ञ साधुओं की सेवा और सत्संग कर रहा है – इतने पर भी यदि त्याग का भाव नहीं आता, तो तेरा जीवन ही व्यर्थ हैं। परन्तु बिलकुल व्यर्थ नहीं होगा – समय पर इसका परिणाम जबरदस्ती निकल ही पड़ेगा।
शिष्य सिर झुकाये विषण्ण भाव से कुछ समय तक अपने भविष्य का चिन्तन करके फिर स्वामीजी से कहने लगा, “महाराज, मैं आपकी शरण में आया हूँ, मुक्ति प्राप्ति का मेरा रास्ता खोल दीजिये – मैं इसी जन्म में तत्त्वज्ञ बनना चाहता हूँ।”
स्वामीजी शिष्य की अवसन्नता को देखकर बोले, “भय क्या है? सदा विचार किया कर – यह शरीर, घर, जीव-जगत् सभी सम्पूर्ण मिथ्या है – स्वप्न की तरह है, सदा सोचा कर कि यह शरीर, एक जड़-यन्त्र मात्र है। इसमें जो आत्माराम पुरुष है, वही तेरा वास्तविक स्वरूप है। मनरूपी उपाधि ही उसका प्रथम और सूक्ष्म आवरण है; उसके बाद देह उसका स्थूल आवरण बना हुआ है। निष्कल, निर्विकार, स्वयंज्योति वह पुरुष इन सब मायिक आवरणों से ढका हुआ है इसलिए तू अपने स्वरूप को जान नहीं पाता है। रूप-रस की ओर दौड़ने वाले इस मन की गति को अन्दर की ओर लौटा देना होगा; मन को मारना होगा। देह तो स्थूल है – यह मरकर पंचभूतों में मिल जाती है; परन्तु संस्कारों की गठरी अर्थात् मन शीघ्र नहीं मरता। बीज की भाँति कुछ दिन रहकर फिर वृक्ष रूप में परिणत होता है; फिर स्थूल शरीर धारण करके जन्म मृत्यु के पथ में आया-जाया करता है। जब तक आत्मज्ञान नहीं हो जाता तब तक यही क्रम चलता रहता है इसीलिए कहता हूँ – ध्यान-धारणा और विचार के बल पर मन को सच्चिदानन्द समुद्र में डुबो दे। मन के मरते ही सभी गया समझ – बस फिर तू ब्रह्मसंस्थ हो जायगा।”
शिष्य – महाराज, इस उद्दाम उन्मत्त मन को ब्रह्म में डुबो देना बहुत ही कठिन है।
स्वामीजी – वीर के सामने फिर कठिन नाम की कोई भी चीज है क्या? कापुरुष ही ऐसी बातें कहा करते हैं! ‘वीराणामेव करतलगता मुक्तिः, न पुनः कापुरुषाणाम्।’ अभ्यास और वैराग्य के बल से मन को संयत कर। गीता में कहा है, ‘अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।’ चित्त मानो एक निर्मल तालाब है। रूपरस आदि के आघात से उसमें जो तरंग उठ रही है, उसी का नाम है मन। इसीलिए मन का स्वरूप संकल्प-विकल्पात्मक है। उस संकल्प-विकल्प से ही वासना उठती है। उसके बाद वह मन ही क्रिया शक्ति के रूप में परिणत होकर स्थूल देहरूपी यन्त्र के द्वारा कार्य करता है। फिर कर्म भी जिस प्रकार अनन्त है कर्म का फल भी वैसा ही अनन्त है। अतः अनन्त असंख्य कर्म फल रूपी तरंग में मन सदा झूला करता है। उस मन को वृत्तिशून्य बना देना होगा – और उसे स्वच्छ तालाब में परिणत करना होगा। जिससे उसमें फिर वृत्तिरूपी एक भी तरंग न उठ सके। तभी ब्रह्मतत्त्व प्रकट होगा। शास्त्रकार उसी स्थिति का आभास इस रूप में दे रहे हैं – ‘भिद्यते हृदय ग्रन्थिः’ आदि – समझा?
शिष्य – जी हाँ, परन्तु ध्यान तो विषयावलम्बी होना चाहिए न?
स्वामीजी – तू स्वयं ही अपना विषय बनेगा। तू सर्वव्यापी आत्मा है इसी बात का मनन और ध्यान किया कर। मैं देह नहीं हूँ – मन नहीं हूँ – बुद्धि नहीं हूँ – स्थूल नहीं हूँ – सूक्ष्म नहीं हूँ – इस प्रकार ‘नेति’ ‘नेति’ करके प्रत्यक् चैतन्य रूपी अपने स्वरूप में मन को डुबो दे। इस प्रकार मन की बार बार डुबो डुबो कर मार डाल। तभी ज्ञान स्वरूप का बोध या स्वस्वरूप में स्थिति होगी। उस समय ध्याता-ध्येय-ध्यान एक बन जायेंगे, – ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान एक बन जायेंगे। सभी अध्यासों की निवृत्ती हो जायेगी। इसी को शास्त्र में ‘त्रिपुटिभेद’ कहा है। इस स्थिति में जानने, न जानने का प्रश्न ही नहीं रह जाता। आत्मा ही जब एकमात्र विज्ञाता है, तब उसे फिर जानेगा कैसे? आत्मा ही ज्ञान – आत्मा ही चैतन्य – आत्मा ही सच्चिदानन्द है। जिसे सत् या असत् कुछ भी कहकर निर्देश नहीं किया जा सकता, उसी अनिर्वचनीय माया शक्ति के प्रभाव से जीवरूपी ब्रह्म के भीतर ज्ञाताज्ञेय-ज्ञान का भाव आ गया है। इसे ही साधारण मनुष्य चैतन्य या ज्ञान की स्थिति (Conscious state) कहते हैं। जहाँ यह द्वैतसंघात शुद्ध ब्रह्मतत्त्व में एक बन जाता है, उसे ही शास्त्र में समाधि या साधारण ज्ञान की भूमि से अधिक उच्च स्थिती (Superconscious state) कहकर इस प्रकार वर्णन किया है – ‘स्तिमितसलिलराशिप्रख्यमाख्याविहीनम्!’
इन बातों को स्वामीजी मानो ब्रह्मानुभव के गम्भीर जल में मग्न होकर ही कहने लगे।
स्वामीजी – इस ज्ञाता-ज्ञेय रूप सापेक्ष भूमिका से ही दर्शन, शास्त्र विज्ञान आदि निकले हैं; परन्तु मानव मन का कोई भी भाव या भाषा जानने या न जानने के परे की वस्तु को सम्पूर्ण रूप से प्रगट नहीं कर सकती है। दर्शन, विज्ञान आदि आंशिक रूप से सत्य है; इसलिए वे किसी भी तरह परमार्थ तत्त्व के सम्पूर्ण प्रकाशक नहीं बन सकते। अतएव परमार्थ की दृष्टि से देखने पर सभी मिथ्या ज्ञात होता है – धर्म मिथ्या, कर्म मिथ्या, मैं मिथ्या हूँ, तू मिथ्या है, जगत् मिथ्या है। उसी समय देखता है कि मैं ही सब कुछ हूँ, मैं ही सर्वगत आत्मा हूँ; मेरा प्रमाण मैं ही हूँ। मेरे अस्तित्व के प्रमाण के लिए फिर दूसरे प्रमाण की आवश्यकता कहाँ है? मैं – जैसा कि शास्त्रों में कहा है ‘नित्यमस्मत्प्रसिद्धम्’ हूँ। मैंने वास्तव में ऐसी स्थिति को प्रत्यक्ष किया है – उसका अनुभव किया है। तुम लोग भी देखो, अनुभव करो और जीवों को यह ब्रह्मतत्त्व सुनाओं जाकर। तब तो शान्ति पायेगा।
ऐसा कहते कहते स्वामीजी का मुख गम्भीर बन गया और उनका मन मानो किसी एक अज्ञात राज्य में जाकर थोड़ी देर के लिए स्थिर हो गया। कुछ समय के बाद वे फिर कहने लगे – “इस ‘सर्वमतग्रासिनी, सर्वमतसमंजसा’ ब्रह्मविद्या का स्वयं अनुभव कर और जगत् में प्रचार कर, उससे अपना कल्याण होगा, जीवों का भी कल्याण होगा। तुझे आज सार बात बता दी। इससे बढ़कर बात और दूसरी कोई नहीं है।”
शिष्य – महाराज, आप इस समय ज्ञान की बात कह रहे है; फिर कभी भक्ति की, कभी कर्म की तथा कभी योग की प्रधानता की बात कहते हैं। उससे हमारी बुद्धि में भ्रम उत्पन्न हो जाता है।
स्वामीजी – असल बात यही है कि ब्रह्मज्ञ बनना ही चरम लक्ष्य है – परम पुरुषार्थ है। परन्तु मनुष्य तो हर समय ब्रह्म में स्थित नहीं रह सकता? व्युत्थान के समय कुछ लेकर तो रहना होगा? उस समय ऐसा कर्म करना चाहिए जिससे लोगों का कल्याण हो। इसीलिए तुम लोगों से कहता हूँ, अभेदबुद्धि से जीव की सेवारूपी कर्म करो। परन्तु भैया, कर्म के ऐसे दाँवपेच हैं कि बड़े बड़े साधु भी इसमें आबद्ध हो जाते हैं। इसीलिए फल की आकांक्षा से शून्य होकर कर्म करना चाहिए। गीता में यही बात कही गयी है, परन्तु यह समझ ले कि ब्रह्मज्ञान में कर्म का अनुप्रवेश भी नहीं है। सत्कर्म के द्वारा बहुत हुआ तो चित्तशुद्धि होती है। इसीलिए भाष्यकार ने ज्ञानकर्मसमुच्चय के प्रति इतना तीव्र कटाक्ष – इतना दोषारोपण किया है। निष्काम कर्म से किसी किसी को ब्रह्मज्ञान हो सकता है। यह भी एक उपाय अवश्य है। परन्तु उद्देश्य है ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति। इस बात को भलीभाँति जान ले – विचारमार्ग तथा अन्य सभी प्रकार की साधना का फल है ब्रह्मज्ञता प्राप्त करना।
शिष्य – महाराज, अब भक्ति और राजयोग की उपयोगिता बताकर मेरे जानने की आकांक्षा की निवृत्ति कीजिये।
स्वामीजी – उन सब पथों में साधना करते करते भी किसी किसी को ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। भक्तिमार्ग के द्वारा धीरे धीरे उन्नति होकर देर में फल प्राप्त होता है – परन्तु मार्ग है सरल। योग में अनेक विघ्न हैं। सम्भव है कि मन सिद्धियों में चला जाय और असली स्वरूप में पहुँच न सके। एक मात्र ज्ञानमार्ग ही आशुफलदायक है और सभी मतों का संस्थापक होने के कारण सर्व काल में सभी देशों में समान रूप से सम्मानित है। परन्तु विचारपथ में चलते चलते भी मन ऐसे तर्कजाल में बद्ध हो सकता है, जिससे निकलना कठिन है। इसीलिए साथ ही साध ध्यान भी करते जाना चाहिए। विचार और ध्यान के बल पर उद्देश्य में अथवा ब्रह्मतत्त्व में पहुँचना होगा। इस प्रकार साधना करने से गन्तव्य स्थल पर ठीक ठीक पहुँचा जा सकता है। यही मेरी सम्मति में सरल तथा शीघ्र फलदायक मार्ग है।
शिष्य – अब मुझे अवतारवाद के सम्बन्ध में कुछ बतलाइये।
स्वामीजी – जान पड़ता है तू एक ही दिन में सभी कुछ मार लेना चाहता है!
शिष्य – महाराज, मन का सन्देह एक ही दिन में मिट जाय तो बार बार फिर आपको तंग न करना पड़ेगा।
स्वामीजी – जिस आत्मा की इतनी महिमा शास्त्रों से जानी जाती है, उस आत्मा का ज्ञान जिनकी कृपा से एक मुहूर्त में प्राप्त होता है, वे ही हैं सचल तीर्थ – अवतार पुरुष। वे जन्म से ही ब्रह्मज्ञ हैं और ब्रह्म तथा ब्रह्मज्ञ में कुछ भी अन्तर नहीं है – ‘ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति।’ आत्मा को तो फिर जाना नहीं जाता, क्योंकि यह आत्मा ही जाननेवाला और जनन करनेवाला बना हुआ है – यह बात पहले ही मैंने कही है। अतः मनुष्य का जानना उसी अवतार तक है – जो आत्मसंस्थ हैं। मानवबुद्धि ईश्वर के सम्बन्ध में जो सब से उच्च भाव (highest ideal), ग्रहण कर सकती है, वह वहीं तक है। इसके बाद और जानने का प्रश्न नहीं रहता। उस प्रकार के ब्रह्मज्ञ कभी कभी ही जगत् में पैदा होते हैं। उन्हें कम लोग ही समझ पाते हैं। वे ही शास्त्रवचनों के प्रमाणस्थल हैं – भवसागर के आलोकस्तम्भ हैं। इन अवतारों के सत्संग तथा कृपादृष्टि से एक क्षण में ही हृदय का अन्धकार दूर हो जाता है – एकाएक ब्रह्मज्ञान का स्फुरण हो जाता है। क्यों होता है अथवा किस उपाय से होता है, इसका निर्णय किया नहीं जा सकता, परन्तु होता अवश्य है। मैंने होते देखा है। श्रीकृष्ण ने आत्मसंस्थ होकर गीता कही थी। गीता में जिन जिन स्थानों में ‘अहम्’ शब्द का उल्लेख है – वह ‘आत्मपर’ जानना। ‘मामेकं शरणं व्रज’ अर्थात् ‘आत्मसंस्थ बनो।’ यह आत्मज्ञान ही गीता का अन्तिम लक्ष्य है। योग आदि का उल्लेख उसी आत्मतत्त्व की प्राप्ति की आनुषंगिक अवतारणा है। जिन्हें यह आत्मज्ञान नहीं होता वे आत्मघाती हैं। ‘विनिहन्त्यसद्ग्रहात्।’ रूपरस आदि की फाँसी लगकर उनके प्राण निकल जाते हैं। तू भी तो मनुष्य है – दो दिनों के तुच्छ भोग की उपेक्षा नहीं कर सकता है? ‘जायस्वम्रियस्व’ के दल में जायगा? ‘श्रेय’ को ग्रहण कर – ‘प्रेय’ का त्याग कर! यह आत्मतत्त्व चाण्डाल आदि सभी को सुना। सुनाते सुनाते तेरी बुद्धि भी निर्मल हो जायगी। ‘तत्त्वमसि’ ‘सोऽहमस्मि’ ‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’ आदि महामन्त्र का सदा उच्चारण कर और हृदय में सिंह की तरह बल रख। भय क्या है? भय ही मृत्यु है – भय ही महापातक है। नररूपी अर्जुन को भय हुआ था – इसलिए आत्मसंस्थ होकर भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें गीता का उपदेश दिया; फिर भी क्या उसका भय चला गया था? अर्जुन जब विश्वरूप का दर्शन कर आत्मसंस्थ हुए तभी वे ज्ञानाग्निदग्धकर्मा बने और उन्होंने युद्ध किया।
शिष्य – महाराज, आत्मज्ञान की प्राप्ति होने पर भी क्या कर्म रह जाता है?
स्वामीजी – ज्ञानप्राप्ति के बाद साधारण लोग जिसे कर्म कहते हैं वैसा कर्म नहीं रहता। उस समय कर्म ‘जगद्धिताय’ हो जाता है. आत्मज्ञानी की सभी बातें जीव के कल्याण के लिए होती हैं। श्रीरामकृष्ण को देखा है – ‘देहस्थोऽपि न देहस्थः’ – यह भाव! वैसे पुरुषों के कर्म के उद्देश्य के सम्बन्ध में केवल यही कहा जा सकता है – ‘लोकवतु लीलाकैवल्यम्’।2
- मुण्डक उपनिषद् ३।२।४ का भाष्य देखिए।
- वेदान्तसूत्र २।१।३३