धर्मस्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद का कलकत्ता जुबिली आर्ट एकेडेमी के अध्यापक श्री रणदाप्रसाद दासगुप्त के साथ शिल्प के सम्बन्ध में वार्तालाप

स्थान – बेलुड़ मठ

वर्ष – १९०१ ईसवी

विषय – स्वामीजी का कलकत्ता जुबिली आर्ट एकेडेमी के अध्यापक श्री रणदाप्रसाद दासगुप्त के साथ शिल्प के सम्बन्ध में वार्तालाप – कृत्रिमपदार्तों में मन के भाव को प्रकट करना ही शिल्प का लक्ष्य होना चाहिए -भारत के बौद्ध युग का शिल्प उक्त विषय में जगत् में सर्वश्रेष्ठ है – फोटोग्राफ की सहायता प्राप्त करके यूरोपीय शिल्प की भाव-प्रकाश सम्बन्धी अवनति – भिन्न भिन्न जातीय शिल्पों में विशेषता है – जड़वादी यूरोप और अध्यात्मवादी भारत के शिल्प में क्या विशेषता है – वर्तमान भारत में शिल्प की अवनति- देश में सभी विद्या व भावों में प्राण का संचार करने के लिए श्रीरामकृष्णदेव का आगमन।

कलकत्ता जुबिली आर्ट एकेडेमी के अध्यापक और संस्थापक बाबू रणदाप्रसाद दासगुप्त महाशय को साथ लेकर शिष्य बेलुड़ मठ में आया है। रणदा बाबू शिल्पकला में निपुण, सुपण्डित तथा स्वामीजी के गुणग्राही हैं। परिचय के बाद स्वामीजी रणदा बाबू के साथ शिल्प विज्ञान के सम्बन्ध में बातें करने लगे। रणदा बाबू को प्रोत्साहित करने के लिए एक दिन जुबिली आर्ट एकेडेमी में जाने की इच्छा भी प्रकट की, परन्तु कई असुविधाओं के कारण स्वामीजी वहाँ नहीं जा सके। स्वामीजी रणदा बाबू से कहने लगे, “पृथ्वी के प्रायः सभी सभ्य देशों का शिल्प-सौन्दर्य देख आया, परन्तु बौद्ध धर्म के प्रादुर्भाव के समय इस देश में शिल्पकला का जैसा विकास देखा जाता है, वैसा और कहीं भी नहीं देखा। मुगल बादशाहों के समय में भी इस विद्या का विशेष विकास हुआ था; उस विद्या के कीर्तिस्तम्भ के रूप में आज भी ताजमहल, जुम्मा मसजिद आदि आदि भारत वर्ष के वक्षःस्थल पर खड़े हैं।

“मनुष्य जिस चीज का निर्माण करता है उससे किसी एक मनोभाव को व्यक्त्त करने का नाम ही शिल्प है। जिसमें ऐसे भाव की अभिव्यक्त्ति नहीं होती, उसमें रंगबिरंगी चकाचौंध रहने पर भी उसे वास्तव में शिल्प नहीं कहा जा सकता। लोटा, कटोरे, प्याली आदि नित्य व्यवहार की चीजें भी उसी प्रकार किसी विशेष भाव व्यक्त्त करते हुए तैयार करनी चाहिए। पैरिस प्रदर्शनी में पत्थर की बनी हुई एक विचित्र मूर्ति देखी थी। मूर्ति के परिचय के रूप में उसके नीचे ये शब्द लिखे हुए थे – Art unvelling nature अर्थात् शिल्पी किस प्रकार प्रकृति के घूँघट को अपने हाथ से हटाकर भीतर के रूप सौन्दर्य को देखता है। मूर्ति का निर्माण इस प्रकार किया है मानो प्रकृति देवी के रूप का चित्र अभी स्पष्ट चित्रित नहीं हुआ है; जितना चित्रित हुआ है, उतने के ही सौन्दर्य को देखकर मानो शिल्पी मुग्ध हो गया है। जिस शिल्पी ने इस भाव को व्यक्त्त करने की चेष्टा की है, उसकी प्रशंसा किये बिना नहीं रहा जाता। आप ऐसा ही कुछ मौलिक भाव व्यक्त्त करने की चेष्टा कीजियेगा।”

रणदा बाबू – समय आने पर मौलिक (original) भाव की मूर्ति तैयार करने की मेरी भी इच्छा है। परन्तु इस देश में उत्साह नहीं पाता। धन की कमी, उस पर फिर हमारे देश के निवासी गुणग्राही नहीं है।

स्वामीजी – आप यदि दिल से एक भी नयी वस्तु तैयार कर सकें, यदि शिल्प में एक भी भाव ठीक ठीक व्यक्त्त कर सकें तो समय पर अवश्य ही उसका मूल्य होगा। जगत् में कभी भी सच्ची वस्तु का अपमान नहीं हुआ है। ऐसा भी सुना है कि किसी किसी शिल्पी के मरने के हजार वर्ष बाद उसकी कला का सम्मान हुआ।

रणदा बाबू – यह ठीक है। परन्तु हममें जो अकर्मण्यता आ गयी है, इससे घर का खाकर जंगल की भैंस चराने का साहस नहीं होता। इन पाँच वर्षों की चेष्टा से फिर भी मुझे कुछ सफलता मिली है। आशीर्वाद दीजिये कि प्रयत्न व्यर्थ न हो।

स्वामीजी – आप यदि हृदय से काम में लग जायें तो सफलता अवश्य ही प्राप्त होगी। जो जिस सम्बन्ध में मन लगाकर हृदय से परिश्रम करता है, उसमें उसकी सफलता तो होती है, पर उसके पश्चात् ऐसा भी हो सकता है कि उस कार्य को तन्मयता से करने पर ब्रह्मविद्या तक की प्राप्ति हो जाय। जिस कार्य में मन लगाकर परिश्रम किया जाता है, उसमें भगवान भी सहायता करते हैं।

रणदा बाबू – पश्चिम के देशों तथा भारतवर्ष के शिल्प में क्या आपने कुछ अन्तर देखा?

स्वामीजी – प्रायः सभी स्थानों में वह एकसा ही है, नवीनता का बहुधा अभाव रहता है। उन सब देशों में फोटो-यन्त्र (कैमेरा) की सहायता से आजकल अनेक प्रकार के चित्र खींचकर तस्वीरें तैयार कर रहे हैं। परन्तु यन्त्र की सहायता लेते ही नये नये भावों को व्यक्त्त करने की शक्ति लुप्त हो जाती है। अपने मन के भाव को व्यक्त्त नहीं किया जा सकता। पूर्व काल के शिल्पकार अपने अपने मस्तिष्क से नये नये भाव निकालने तथा उन्हीं भावों को चित्रों के द्वारा व्यक्त्त करने का प्रयत्न किया करते थे। आजकल फोटो जैसे चित्र होने के कारण मस्तिष्क के प्रयोग की शक्ति और प्रयत्न लुप्त होते जा रहे हैं। परन्तु प्रत्येक जाति की एक एक विशेषता है। आचरण में, व्यवहार में, आहार में, विहार में, चित्र में शिल्प में उस विशेष भाव का विकास देखा जाता है। उदाहरण के रूप में देखिये – उस देश के संगीत और नृत्य सभी में एक अजीब चुभाव (Pointedness) है। नृत्य में ऐसा जान पड़ता है मानो वे हाथ पैर पटक रहे हैं। वाद्यों की आवाज ऐसी है मानो कानों में छुरा भोंका जा रहा हो। गायन का भी यही हाल है। इधर इस देश का नृत्य मानो सजीव लहरों की थिरकन है। इसी प्रकार गीतों के गमक-मूर्च्छना में भी स्वरों का चक्र क्रमबद्ध सा (Rounded movement) चलता जान पड़ता है। वाद्य में भी वही बात है। तात्पर्य यह कि कला का पृथक् पृथक् जातियों में पृथक् पृथक् रूपों में विकास हुआ जान पड़ता है। जो जातियाँ बहुत ही जड़वादी तथा इहकाल को ही सब कुछ माननेवाली हैं, वे प्रकृति के नाम रूप को ही अपना परम उद्देश्य मान लेती हैं और शिल्प में भी उसी के अनुसार भाव को प्रकट करने की चेष्टा करती हैं, परन्तु जो जाति प्रकृति के अतीत किसी भाव की प्राप्ति को ही जीवन का परम उद्देश्य मान लेती है, वह उसी भाव को प्रकृतिगत शक्ति की सहायता से शिल्प में प्रकट करने की चेष्टा करती है। प्रथम श्रेणी की जातियों का प्रकृतिगत सांसारिक भावों का तथा पदार्थ समूह का चित्रण ही कला का मूलाधार है और द्वितीय श्रेणी की जातियों की कला के विकास का मूल कारण है प्रकृति के अतीत किसी भाव को व्यक्त्त करना। इसी प्रकार दो भिन्न भिन्न उद्देश्यों के आधार पर कला के विकास में अग्रसर होने पर भी, दोनों श्रेणियों का परिणाम प्रायः एक ही हुआ। दोनों ने ही अपने अपने भावानुसार कला में उन्नति की है। उन सब देशों के एक एक चित्र देखकर आपको वास्तविक प्राकृतिक दृश्य का भ्रम होगा। इस देश के सम्बन्ध में भी उसी प्रकार – प्राचीन काल में स्थापत्य-विद्या का जिस समय बहुत विकास हुआ था, उस समय की एक एक मूर्ति देखने से ऐसा प्रतीत होता है मानो वह आपको इस जड़ प्राकृतिक राज्य से उठाकर एक नवीन भाव-राज्य में ले जायगी। जिस प्रकार आजकल उस देश में पहले जैसे चित्र नहीं बनते, उसी प्रकार इस देश में भी नये नये भावों के विकास के लिए कलाकार प्रयत्नशील नहीं देखे जाते। यह देखिये न, आप लोगों के आर्ट स्कूल के चित्रों में मानो किसी भाव का विकास ही नहीं है। यदि आप लोग हिन्दुओं के प्रतिदिन के ध्यान करने योग्य मूर्तियों में प्राचीन भावों की उद्दीपक भावना को चित्रित करने का प्रयत्न करें तो अच्छा हो।

रणदा बाबू – आपकी बातों से मैं बहुत ही उत्साहित हुआ हूँ। प्रयत्न करके देखूँगा – आपके कथनानुसार कार्य करने की चेष्टा करूँगा।

स्वामीजी फिर कहने लगे – “उदाहरणार्थ, माँ काली का चित्र ही ले लीजिये। इसमें एक साथ ही कल्याण कारी तथा भयावह भावों का समावेश है, पर प्रचलित चित्रों में इन दोनों भावों का यथार्थ विकास कहीं भी नहीं देखा जाता। पर इतना ही नहीं, इन दोनों भावों में से किसी एक को भी चित्रित करने का कोई प्रयत्न नहीं कर रहा है। मैंने माँ काली की भीषण मूर्ति का कुछ भाव ‘जगन्माता काली’ (Kali the Mother) नामक मेरी अंग्रेजी कविता में व्यक्त्त करने की चेष्टा की है। क्या आप उस भाव को किसी चित्र में व्यक्त्त कर सकते हैं?”

रणदा बाबू – किस भाव को?

स्वामीजी ने शिष्य की ओर देखकर अपनी कविता को ऊपर से ले आने को कहा। शिष्य के ले आने पर स्वामीजी उसे (The stars are blotted out etc.) पढ़कर रणदा बाबू को सुनाने लगे। स्वामीजी जब उस कविता का पाठ कर रहे थे, उस समय शिष्य को ऐसा लगा, मानो महाप्रलय की संहारकारी मूर्ति उनके कल्पनाचक्षु के सामने नृत्य कर रही है। रणदा बाबू भी उस कविता को सुनकर कुछ समय के लिए स्तब्ध हो गये। दूसरे ही क्षण उस चित्र को अपनी कल्पना की आँखों से देखकर रणदा बाबू ‘बाप रे’ कहकर भयचकित दृष्टि से स्वामीजी के मुख की ओर ताकने लगे।

स्वामीजी – क्यों, क्या इस भाव को चित्र में व्यक्त्त कर सकेंगे?

रणदा बाबू – जी, प्रयत्न करूँगा,1 परन्तु उस भाव की कल्पना से ही मेरा सिर चकरा जाता है।

स्वामीजी – चित्र तैयार करके मुझे दिखायेगा, उसके बाद उसे सर्वांग सुन्दर बनाने के लिए जो चाहिए, मैं आपको बता दूँगा।

इसके बाद स्वामीजी ने श्रीरामकृष्ण मिशन की मुहर के लिए साँप द्वारा घेरे हुए कमलदल विकसित हृद के बीच में हंस का जो छोटासा चित्र तैयार किया था, उसे मँगवाकर रणदा बाबू को दिखाया और उसके सम्बन्ध में उन्हें अपनी राय व्यक्त्त करने को कहा। रणदा बाबू पहले उसका मतलब समझने में असमर्थ होकर स्वामीजी से ही उसका अर्थ पूछने लगे। स्वामीजी ने समझा दिया कि चित्र का तरंगपूर्ण जलसमूह कर्म का, कमल भक्ति का और उदीयमान सूर्य ज्ञान का प्रतीक है। चित्र में जो साँप का घेरा है – वह योग और जाग्रत कुण्डलिनी शक्ति का द्योतक है। और चित्र के मध्य में जो हंस की मूर्ति है उसका अर्थ है परमात्मा। अतः कर्म, भक्ति और ज्ञान, योग के साथ सम्मिलित होने से ही परमात्मा का दर्शन प्राप्त होता है – यही चित्र का तात्पर्य है।

रणदा बाबू चित्र का यह तात्पर्य सुनकर स्तब्ध हो गये। उसके बाद वे बोले, “यदि मैं आपसे कुछ समय शिल्पकला सीख सकता तो मेरी वास्तव में कुछ उन्नति हो जाती”।

इसके बाद स्वामीजी ने भविष्य में श्रीरामकृष्ण-मन्दिर और मठ को जिस प्रकार तैयार करने की उनकी इच्छा है, उसका एक खाका (कच्चा नकशा) मँगवाया। इस खाके की स्वामीजी के परामर्श से स्वामी विज्ञानानन्द ने तैयार किया था। यह खाका रणदा बाबू को दिखाते हुए वे कहने लगे – “इस भावी मठ-मन्दिर के निर्माण में प्राच्य तथा पाश्चात्य की सभी शिल्पकलाओं का समन्वय करने की मेरी इच्छा है। मैं पृथ्वी भर में घूमकर गृहशिल्प के सम्बन्ध में जितने भाव लाया हूँ, उन सभी को इस मन्दिर के निर्माण में विकसित करने की चेष्टा करूँगा। बहुतसे सटे हुए स्तम्भों पर एक विराट प्रार्थनागृह तैयार होगा। उसकी दीवालों पर सैकड़ों खिले हुए कमल प्रस्फुटित होंगे। प्रार्थना गृह इतना बड़ा बनाना होगा, कि उसमें बैठकर हजार व्यक्ति एक साथ जप-ध्यान कर सकें। श्रीरामकृष्ण-मन्दिर तथा प्रार्थना गृह को इस प्रकार एक साथ तैयार करना होगा कि दूर से देखने पर ठीक ओंकार की धारणा होगी। मन्दिर के बीच में एक राजहंस पर श्रीरामकृष्ण की मूर्ति रहेगी। द्वार पर दोनों ओर दो मूर्तियाँ इस प्रकार रहेंगी – एक सिंह और एक भेड़ मित्रता से एक दूसरे को चाट रहे हैं – अर्थात् महाशक्ति और महानम्रता मानो प्रेम से एकत्र हो गये हैं। मन में ये सब भाव हैं। अब यदि जीवन रहा तो उन्हें कार्य में परिणत कर जाऊँगा। नहीं तो भविष्य की पीढ़ी के लोग उनको धीरे धीरे कार्य रूप में परिणत कर सकें तो करेंगे। मुझे ऐसा लगता है कि श्रीरामकृष्ण देश की सभी प्रकार की विद्या और भाव में प्राण संचालित करने के लिए ही आये थे। इसलिए श्रीरामकृष्ण के इस मठ को इस प्रकार संगठित करना होगा कि इस मठ-केन्द्र से धर्म, कर्म, विद्या, ज्ञान तथा भक्ति का संचार समस्त संसार में हो जाय। इस विषय में आप लोग मेरे सहायक बनें।”

रणदा बाबू तथा उपस्थित संन्यासी और ब्रह्मचारी स्वामीजी की बातों को सुनकर विस्मित होकर बैठे रहे। जिनका महान् एवं उदार मन सभी विषयों के सभी प्रकार के महान् भावसमूह की अदृष्टपूर्व क्रीडाभूमि था उन स्वामीजी की महिमा का को हृदयंगम कर सब लोग एक अव्यक्त्त भाव में मग्न हो गये। कुछ समय के बाद स्वामीजी फिर बोले, “आप शिल्पविद्या की यथार्थ आलोचना करते हैं, इसलिए आज उस विषय पर चर्चा हो रही है। शिल्प के सम्बन्ध में इतने दिन चर्चा करके आपने उस विषय का जो कुछ सार तथा उच्च भाव प्राप्त किया है वह अब मुझे सुनाइये।”

रणदा बाबू – महाराज, मैं आपको नयी बात क्या सुनाऊँगा? आपने ही आज उस विषय में मेरी आँखे खोल दी हैं। शिल्प के सम्बन्ध में इस प्रकार ज्ञानपूर्ण बातें इस जीवन में इससे पूर्व कभी नहीं सुनी थीं। आशीर्वाद दीजिये कि आपसे जो भाव प्राप्त किये हैं, उन्हें कार्य रूप में कर सकूँ।

फिर स्वामीजी आसन से उठकर मैदान में इधर-उधर टहलते हुए शिष्य से बोले, “यह युवक बड़ा तेजस्वी है।”

शिष्य – महाराज, आपकी बात सुनकर वह विस्मित हो गया है।

स्वामीजी शिष्य की इस बात का कोई उत्तर न देकर मन ही मन गुनगुनाते हुए श्रीरामकृष्ण का एक गीत गाने लगे – “परम धन वह परश मणि” (संयत मन परम धन है जो अपनी सब इच्छाएँ पूर्ण करता है, इत्यादि)।

इस प्रकार कुछ समय तक टहलने के बाद स्वामीजी हाथ मुँह धोकर शिष्य के साथ ऊपर की मंजिल के अपने कमरे में आये और उन्होंने अंग्रेजी विश्वकोष (Encyclopaedia Britannica) के शिल्प सम्बन्धी अध्याय का कुछ समय तक अध्ययन किया। अध्ययन समाप्त करने पर पूर्व बंगाल की भाषा तथा उच्चारण प्रणाली के विषय में शिष्य के साथ साधारण रूप से हँसी करने लगे।


  1. शिष्य उस समय रणदा बाबू के साथ ही रहता था। उसे ज्ञात है कि रणदा बाबू ने घर पर लौटकर दूसरे ही दिन उसे (प्रलय ताण्डव में उन्मत्त चण्डी की मूर्ति) चित्रित करना आरम्भ कर दिया था। आज भी वह अर्थ चित्रित मूर्ति रणदा बाबू के आर्ट स्कूल में मौजूद है परन्तु स्वामीजी को वह फिर दिखायी नहीं गयी।

सुरभि भदौरिया

सात वर्ष की छोटी आयु से ही साहित्य में रुचि रखने वालीं सुरभि भदौरिया एक डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी चलाती हैं। अपने स्वर्गवासी दादा से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों को पल्लवित करते हुए उन्होंने हिंदीपथ.कॉम की नींव डाली है, जिसका उद्देश्य हिन्दी की उत्तम सामग्री को जन-जन तक पहुँचाना है। सुरभि की दिलचस्पी का व्यापक दायरा काव्य, कहानी, नाटक, इतिहास, धर्म और उपन्यास आदि को समाहित किए हुए है। वे हिंदीपथ को निरन्तर नई ऊँचाइंयों पर पहुँचाने में सतत लगी हुई हैं।

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