स्वामी विवेकानंद जी जीवन के अन्तिन दिनों में किस भाव से मठ में कहा करते थे
स्थान – बेलुड़ मठ
वर्ष – १९०२ ईसवी
विषय – स्वामीजी जीवन के अन्तिन दिनों में किस भाव से मठ में कहा करते थे – उनकी दरिद्रनारायणसेवा – देश के गरीब दुःखियों के प्रति उनकी जीती-जागती सहानुभूति।
पूर्व बंग से लौटने के बाद स्वामीजी मठ में ही रहा करते थे और मठ के घरेलू कार्यों की देख-रेख करते तथा कभी कभी कोई कोई काम अपने हाथ से ही करते हुए समय बिताते थे। वे कभी अपने हाथ से मठ की जमीन खोदते, कभी पेड़, बेल, फल-फूलों के बीज बोया करते, और कभी कभी यदि कोई नौकर-चाकर अस्वस्थ हो जाने के कारण किसी कमरे में झाडू न लगा सका तो वे अपने हाथ से ही झाडू लेकर उस कमरे की झाड-बुहार करने लगते थे। यदि कोई यह देखकर कहता, “महाराज, आप क्यों?” – तो उसके उत्तर में कहा करते थे, “इससे क्या? गन्दगी रहने पर मठ के सभी लोगों को रोग हो जायगा!’ उस समय उन्होंने मठ में कुछ गाय, हंस, कुत्ते और बकरियाँ पाल रखी थीं। एक बड़ी बकरी को ‘हंसी’ कहकर पुकारा करते थे और उसी के दूध से प्रातःकाल चाय पीते थे। बकरी के एक छोटे बच्चे को ‘मटरू’ कहकर पुकारते थे और उन्होंने प्रेम से उसके गले में घुँघरु पहना दिये थे। बकरी का वह बच्चा प्यार पाकर स्वामीजी के पीछे पीछे घूमा करता था और स्वामीजी उसके साथ पाँच वर्ष के बच्चे की तरह दौड़ कर खेला करते थे। मठ देखने के लिए नये नये आये हुए व्यक्ति विस्मित होकर कहा करते थे – “क्या ये ही विश्वविजयी स्वामी विवेकानन्द है!” कुछ दिन बाद ‘मटरू’ के मर जाने पर स्वामीजी ने दुःखी होकर शिष्य से कहा था – “देख, मैं जिससे भी जरा प्यार करने जाता हूँ वही मर जाता है।”
मठ की जमीन की सफाई तथा मट्टी खोदने और बराबर करने के लिए प्रति वर्ष ही कुछ स्त्री-पुरुष सन्थाल कुली आया करते थे। स्वामीजी उनके साथ कितना हँसते-खेलते रहते थे और उनके सुख-दुःख की बातें सुना करते थे। एक दिन कलकत्ते से कुछ विख्यात व्यक्ति मठ में स्वामीजी के दर्शन करने के लिए आये। उस दिन स्वामीजी उन सन्थालों के साथ बातचीत में ऐसे मग्न थे कि स्वामी सुबोधानन्द ने जब आकर उन्हे उन सब व्यक्तियों के आने का समाचार दिया, तब उन्होंने कहा, “मैं इस समय मिल न सकूँगा, इनके साथ बड़े मजे में हूँ।” और वास्तव में उस दिन स्वामीजी उन सब दीन-दुखी सन्थालों को छोड़कर उन व्यक्तियों के साथ मिलने न गये।
सन्थालों में एक व्यक्ति का नाम था ‘केष्टा’। स्वामीजी केष्टा को बड़ा प्यार करते थे। बात करने के लिए आने पर केष्टा कभी कभी स्वामीजी से कहा करता था, “अरे स्वामी बाप, तू हमारे काम के समय यहाँ पर न आया कर – तेरे साथ बात करने से हमारा काम बन्द हो जाता है और बूढ़ा बाबा आकर फटकार बताता है।” यह सुनकर स्वामीजी की आँखें भर आती थी और वे कहा करते थे, “नहीं, बूढ़ा बाबा (स्वामी अद्वैतानन्द) फटकार नहीं बतायेगा, तू अपने देश की दो बातें बता -” और यह कहकर उसके पारिवारिक सुख-दुःखों की बातें छेड़ देते थे।
एक दिन स्वामीजी ने केष्टा से कहा, “अरे तुम लोग हमारे यहाँ खाना खाओगे?” केष्टा बोला, “हम अब और तुम लोगों का छुआ नहीं खाते हैं, अब ब्याह जो हो गया है। तुम्हारा छुआ नमक खाने से जात जायगी रे बाप।” स्वामीजी बोले, “नमक क्यों खायगा रे? बिना नमक डालकर तरकारी पका देंगे, तब तो खायगा न?” केष्टा उस बात पर राजी हो गया। इसके बाद स्वामीजी के आदेश से मठ में उन सब सन्थालों के लिए पूरी, तरकारी, मिठाई, दही आदि का प्रबन्ध किया गया और वे उन्हें बिठाकर खिलाने लगे। खाते खाते केष्टा बोला, “हाँ रे स्वामी बाप, तुमने ऐसी चीजे कहाँ से पायी हैं – हम लोगों ने कभी ऐसा नहीं खाया।” स्वामीजी ने उन्हें सन्तोषपूर्वक भोजन कराकर कहा, “तुम लोग तो नारायण हो – आज मैंने नारायण को भोग दिया।” स्वामीजी जो दरिद्र-नारायण की सेवा की बात कहा करते थे, उसे वे इसी प्रकार स्वयं करके दिखा गये हैं।
भोजन के बाद जब सन्थाल लोग आराम करने गये, तब स्वामीजी ने शिष्य से कहा, “इन्हें देखा, मानो साक्षात् नारायण हैं – ऐसा सरल चित्त – ऐसा निष्कपट सच्चा प्रेम, कभी नहीं देखा था।”
इसके बाद मठ में संन्यासियों को सम्बोधित कर कहने लगे, “देखो, ये लोग कैसे सरल हैं। इनका दुःख थोड़ा बहुत दूर कर सकोगे? नहीं तो भगवे वस्त्र पहनने से फिर क्या हुआ? परहित के लिए सर्वस्व अर्पण – इसी का नाम वास्तविक संन्यास है। इन्हें कभी अच्छी चीजे खाने को नहीं मिली। मन में आता है – मठ आदि सब बेच दूँ, इन सब गरीब-दुखी दरिद्रनारायणों में बाँट दूँ। हमने वृक्षतल को ही तो आश्रयस्थान बना रखा है। हाय! देश के लोग पेट भर भोजन भी नहीं पा रहे हैं, फिर हम किस मुँह से अन्न खा रहे हैं? उस देश में जब गया था – माँ से कितना कहा, ‘माँ! यहाँ पर लोग फूलों की सेज पर सो रहे हैं, तरह तरह के खाद्य-पेयों का उपभोग कर रहे हैं, उन्होंने कौनसा भोग बाकी रखा है! – और हमारे देश के लोग भूखों मर रहे हैं – माँ, उनके उद्धार का कोई उपाय न होगा?’ उस देश में धर्मप्रचारार्थ जाने का मेरा एक यह भी उद्देश्य था कि मैं इस देश के लिए अन्न का प्रबन्ध कर सकूँ।
“देश के लोग दो वक्त्त दो दाने खाने को नहीं पाते, यह देखकर कभी कभी मन में आता है – छोड़ दे शंख बजाना, घण्टी हिलाना, छोड़ दे लिखना-पढ़ना और स्वयं मुक्त होने की चेष्टा – हम सब मिलकर गाँव गाँव में घूमकर चरित्र और साधना के बल पर धनिकों को समझाकर, धन संग्रह करके ले आयें और दरिद्र-नारायण की सेवा करके जीवन बिता दें।
“देश इन गरीब दुःखियों के लिए कुछ नहीं सोचता है रे? जो लोग हमारे राष्ट्र की रीढ़ हैं – जिनके परिश्रम से अन्न पैदा हो रहा है – जिन मेहतर डोमों के एक दिन के लिए भी काम बन्द करने पर शहर भर में हाहाकार मच जाती है – हाय! हम क्यों न उनके साथ सहानुभूति करें, सुख-दुःख में सान्त्वना दें! क्या देश में ऐसा कोई भी नहीं है रे! यह देखो न – हिन्दुओं की सहानुभूति न पाकर मद्रास प्रान्त में हजारो पेरिया ईसाई बने जा रहे हैं, पर ऐसा न समझना कि ये केवल पेट के लिए इसाई बनते हैं। असल में हमारी सहानुभूति न पाने के कारण वे इसाई बनते हैं। हम दिन रात उन्हे केवल यही कहते रहे हैं, ‘छुओ मत, छुओ मत।’ देश में क्या अब दया धर्म है भाई? केवल छूआछूत पन्थियों का दल रह गया है। ऐसे आचार के मुख पर मार झाडू, मार लात! इच्छा होती है तेरे छुआछूतपन्थ की सीमा को तोड़कर अभी चला जाऊँ – ‘जहाँ कहीं भी पतित, गरीब, दीन, दरिद्र हो आ जाओ’ यह कह कहकर, उन सभी को श्रीरामकृष्ण के नाम पर बुला लाऊँ। इन लोगों के बिना उठे माँ नहीं जागेंगी। हम यदि इनके लिए अन्न-वस्त्र की सुविधा न कर सके, तो फिर हमने क्या किया? हाय! ये लोग दुनियादारी कुछ भी नहीं जानते हैं, इसीलिए तो दिनरात परिश्रम करके भी अन्न-वस्त्र का प्रबन्ध नहीं कर पाते। आओ हम सब मिलकर इनकी आँखे खोल दें – मैं दिव्य दृष्टि से देख रहा हूँ, इनके और मेरे भीतर एक ही ब्रह्म – एक ही शक्ति विद्यमान है, केवल विकास की न्यूनाधिकता है। सभी अंगों में रक्त्त का संचार हुए बिना किसी भी देश को कभी उठते देखा है? एक अंग के दुर्बल हो जाने पर, दूसरे अंग के सबल होने से भी उस देह से कोई बड़ा काम फिर नहीं होता इस बात को निश्चित जान लेना।”
शिष्य – महाराज, इस देश के लोगों में कितने भिन्न भिन्न धर्म हैं, कितने विभिन्न भाव हैं – इन सब का आपस में मेल हो जाना तो बड़ा ही कठिन प्रतीत होता है।
स्वामीजी (कुछ रोषपूर्वक) – यदि किसी काम को कठिन मान लेगा तो फिर यहाँ न आना। श्रीरामकृष्ण की इच्छा से सब कुछ ठीक हो जायगा। तेरा काम है जाति-वर्ण का विचार छोड़कर दीन-दुखियों की सेवा करना। उसका परिणाम क्या होगा क्या न होगा यह सोचना तेरा काम नहीं है। तेरा काम है, सिर्फ काम करते जाना;फिर सब अपने आप ही हो जायगा। मेरे काम की पद्धति है गढ़कर तैयार करना। जो है, उसे तोड़ना नहीं। जगत् का इतिहास पढ़कर देख, एक एक महापुरुष एक एक समय में एक एक देश के मानों केन्द्र के रूप में खड़े हुए थे। उनके भाव से अभिभूत होकर सैकड़ों हजारों लोग जगत् का कल्याण कर गये हैं। तुम बुद्धिमान लड़के हो। यहां पर इतने दिनों से आ रहे हो, इस अवसर में तुमने क्या किया बोलो तो? दूसरों के लिए क्या एक जन्म भी नहीं दे सकते? दूसरे जन्म में आकर फिर वेदान्त आदि पढ़ लेना। इस जन्म में दूसरों की सेवा में यह देह दे जा, तब जानूँगा कि मेरे पास आना सफल हुआ है।
इन बातों को कहकर स्वामीजी फिर गम्भीर चिन्ता में मग्न हो गये। थोड़ा समय बीतने के बाद वे बोले, “मैंने इतनी तपस्या करके यही सार समझा है कि जीव जीव में वे अधिष्ठित हैं; इसके अतिरिक्त ईश्वर और कुछ भी नहीं है। जो जीवों के प्रति दया करता है वही व्यक्ति ईश्वर की सेवा कर रहा है।”
अब सन्ध्या हो गयी थी। स्वामीजी दूसरी मंजिल पर गये और बिस्तर पर लेटकर शिष्य से बोले, “दोनों पैरों को जरा दबा तो दे।” शिष्य आज की बातचीत से भयभीत और स्तम्भित होकर स्वयं आगे नहीं बढ़ रहा था। अतएव अब साहस पाकर बड़ी खुशी से स्वामीजी की चरणसेवा करने बैठा। थोड़ी देर बाद स्वामीजी ने उसे सम्बोधित कर कहा, “आज मैंने जो कुछ कहा है, उन बातों को मन में गूँथकर रखना। कही भूल न जाना।”