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वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 14 हिंदी में – Valmiki Ramayana Balakanda Chapter – 14

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महाराज दशरथ के द्वारा अश्वमेध यज्ञ का सांगोपांग अनुष्ठान

इधर वर्ष पूरा होनेपर यज्ञ सम्बन्धी अश्व भूमण्डल में भ्रमण करके लौट अया। फिर सरयू नदीके उत्तर तट पर राजा का यज्ञ आरम्भ हुआ॥ १ ॥ 

महामनस्वी राजा दशरथ के उस अश्वमेध नामक महायज्ञ में ऋष्यश्रृंग को आगे करके श्रेष्ठ ब्राह्मण यज्ञ सम्बन्धी कर्म करने लगे॥ २ ॥

यज्ञ कराने वाले सभी ब्राह्मण वेदों के पारंगत विद्वान् थे; अत: वे न्याय तथा विधिके अनुसार सब कर्मोंका उचित रीति से सम्पादन करते थे और शास्त्र के अनुसार किस क्रम से किस समय कौन-सी क्रिया करनी चाहिये, इसको स्मरण रखते हुए प्रत्येक कर्म में प्रवृत्त होते थे॥ ३ ॥

ब्राह्मणों ने प्रवर्ग्य (अश्वमेधके अंगभूत कर्मविशेष) का शास्त्र (विधि, मीमांसा और कल्पसूत्र) के अनुसार सम्पादन करके उपसद नामक इष्टिविशेष का भी शास्त्र के अनुसार ही अनुष्ठान किया। तत्पश्चात् शास्त्रीय उपदेश से अधिक जो अतिदेशत: प्राप्त कर्म है, उस सबका भी विधिवत् सम्पादन किया॥ ४ ॥ 

तदनन्तर तत्तत् कर्मों के अंगभूत देवताओं का पूजन करके हर्ष में भरे हुए उन सभी मुनिवरों ने विधि पूर्वक प्रात:सवन आदि (अर्थात् प्रात:सवन, माध्यन्दिनसवन तथा तृतीय सवन) कर्म किये॥ ५ ॥

इन्द्र देवता को विधिपूर्वक हविष्य का भाग अर्पित किया गया। पापनिवर्तक राजा सोम (सोमलता)1 क रस निकाला गया। फिर क्रमश: माध्यन्दिनसवनका कार्य प्रारम्भ हुआ॥ ६ ॥

तत्पश्चात् उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने शास्त्रसे देख-भालकर मनस्वी राजा दशरथ के तृतीय सवनकर्म का भी विधिवत् सम्पादन किया॥ ७ ॥

ऋष्यश्रृंग आदि महर्षियों ने वहाँ अभ्यास काल में सीखे गये अक्षरों से युक्त—स्वर और वर्णसे सम्पन्न मन्त्रों द्वारा इन्द्र आदि श्रेष्ठ देवताओं का आवाहन किया॥ ८ ॥

मधुर एवं मनोरम सामगान के लयमें गाये हुए आह्वान-मन्त्रोंद्वारा देवताओंका आवाहन करके होताओं ने उन्हें उनके योग्य हविष्य के भाग समर्पित किये॥ ९ ॥

उस यज्ञ में कोई  अयोग्य अथवा विपरीत आहुति नहीं पड़ी। कहीं कोई  भूल नहीं हुई—अनजान में भी कोई  कर्म छूटने नहीं पाया; क्योंकि वहाँ सारा कर्म मन्त्रोच्चारण-पूर्वक सम्पन्न होता दिखायी देता था। महर्षियोंने सब कर्म क्षेमयुक्त एवं निर्विघ्न परिपूर्ण किये॥ १० ॥

यज्ञ के दिनों में कोई  भी ऋत्विज् थका-माँदा या भूखा-प्यासा नहीं दिखायी देता था। उसमें कोई  भी ब्राह्मण ऐसा नहीं था, जो विद्वान् न हो अथवा जिसके सौसे कम शिष्य या सेवक रहे हों॥ ११ ॥

उस यज्ञमें प्रतिदिन ब्राह्मण भोजन करते थे (क्षत्रिय और वैश्य भी भोजन पाते थे) तथा शूद्रों को भी भोजन उपलब्ध होता था। तापस और श्रमण भी भोजन करते थे॥ १२ ॥

बूढ़े, रोगी, स्त्रियाँ तथा बच्चे भी यथेष्ट भोजन पाते थे। भोजन इतना स्वादिष्ट होता था कि निरन्तर खाते रहने पर भी किसी का मन नहीं भरता था॥ १३ ॥

‘अन्न दो, नाना प्रकारके वस्त्र दो’ अधिकारियों की ऐसी आज्ञा पाकर कार्यकर्ता लोग बारम्बार वैसा ही करते थे॥ १४ ॥

वहाँ प्रतिदिन विधिवत् पके हुए अन्नके बहुत-से पर्वतों-जैसे ढेर दिखायी देते थे॥ १५ ॥

महामनस्वी राजा दशरथ के उस यज्ञमें नाना देशोंसे आये हुए स्त्री-पुरुष अन्न-पानद्वारा भलीभाँति तृप्त किये गये थे॥ १६ ॥

श्रेष्ठ ब्राह्मण ‘भोजन विधिवत् बनाया गया है। बहुत स्वादिष्ट है’—ऐसा कहकर अन्नकी प्रशंसा करते थे। भोजन करके उठे हुए लोगोंके मुखसे राजा सदा यही सुनते थे कि ‘हम लोग खूब तृप्त हुए। आपका कल्याण हो’॥ १७ ॥

वस्त्र-आभूषणों से अलंकृत हुए पुरुष ब्राह्मणों को भोजन परोसते थे और उन लोगों की जो दूसरे लोग सहायता करते थे, उन्होंने भी विशुद्ध मणिमय कुण्डल धारण कर रखे थे॥ १८ ॥

एक सवन समाप्त करके दूसरे सवनके आरम्भ होनेसे पूर्व जो अवकाश मिलता था, उसमें उत्तम वक्ता धीर ब्राह्मण एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से बहुतेरे युक्तिवाद उपस्थित करते हुए शास्त्रार्थ करते थे॥ १९ ॥

उस यज्ञ में नियुक्त हुए कर्म कुशल ब्राह्मण प्रतिदिन शास्त्र के अनुसार सब कार्यों का सम्पादन करते थे॥ २० ॥

राजाके उस यज्ञमें कोई  भी सदस्य ऐसा नहीं था, जो व्याकरण आदि छहों अंगोंका ज्ञाता न हो, जिसने ब्रह्मचर्यव्रतका पालन न किया हो तथा जो बहुश्रुत न हो। वहाँ कोई  ऐसा द्विज नहीं था, जो वाद-विवादमें कुशल न हो॥ २१ ॥

जब यूप खड़ा करने का समय आया, तब बेलकी लकड़ीके छ: यूप गाड़े गये। उतने ही खैरके यूप खड़े किये गये तथा पलाश के भी उतने ही यूप थे, जो बिल्व निर्मित यूपों के साथ खड़े किये गये थे॥ २२ ॥

बहेड़े के वृक्ष का एक यूप अश्वमेध यज्ञके लिये विहित है। देवदारु के बने हुए यूप का भी विधान है; परंतु उसकी संख्या न एक है न छ:। देवदारु के दो ही यूप विहित हैं। दोनों बाँहें फैला देने पर जितनी दूरी होती है, उतनी ही दूरपर वे दोनों स्थापित किये गये थे॥ २३ ॥

यज्ञ कुशल शास्त्रज्ञ ब्राह्मणों ने ही इन सब यूपों का निर्माण कराया था। उस यज्ञकी शोभा बढ़ाने के लिये उन सबमें सोना जड़ा गया था॥ २४ ॥

पूर्वोक्त इक्कीस यूप इक्कीस-इक्कीस अरन्ति2 (पाँच सौ चार अङ्गुल) ऊँचे बनाये गये थे। उन सबको पृथक्-पृथक् इक्कीस कपड़ोंसे अलंकृत किया गया था॥ २५ ॥

कारीगरोंद्वारा अच्छी तरह बनाये गये वे सभी सुदृढ़ यूप विधिपूर्वक स्थापित किये गये थे। वे सब-के-सब आठ कोणोंसे सुशोभित थे। उनकी आकृति सुन्दर एवं चिकनी थी॥ २६ ॥

उन्हें वस्त्रोंसे ढक दिया गया था और पुष्प-चन्दनसे उनकी पूजा की गयी थी। जैसे आकाशमें तेजस्वी सप्तर्षियों की शोभा होती है, उसी प्रकार यज्ञमण्डप में वे दीप्तिमान् यूप सुशोभित होते थे॥ २७ ॥

सूत्र ग्रन्थों में बताये अनुसार ठीक माप से इंट तैयार करायी गयी थीं। उन  र्इंटोंके द्वारा यज्ञ सम्बन्धी शिल्पि कर्म में कुशल ब्राह्मणोंने अग्निका चयन किया था॥ २८ ॥

राजसिंह महाराज दशरथ के यज्ञ में चयन द्वारा सम्पादित अग्निकी कर्मकाण्डकुशल ब्राह्मणों द्वारा शास्त्रविधि के अनुसार स्थापना की गयी। उस अग्निकी आकृति दोनों पंख और पुच्छ फैलाकर नीचे देखते हुए पूर्वाभिमुख खड़े हुए गरुड़की-सी प्रतीत होती थी। सोनेकी र्इंटोंसे पंखका निर्माण होनेसे उस गरुड़के पंख सुवर्णमय दिखायी देते थे। प्रकृत-अवस्थामें चित्य-अग्निके छ: प्रस्तार होते हैं; किंतु अश्वमेध यज्ञमें उसका प्रस्तार तीनगुना हो जाता है। इसलिये वह गरुड़ाकृति अग्नि अठारह प्रस्तारों से युक्त थी॥ २९ ॥

वहाँ पूर्वोक्त यूपोंमें शास्त्रविहित पशु, सर्प और पक्षी विभिन्न देवताओंके उद्देश्यसे बाँधे गये थे॥ ३० ॥

शामित्र कर्ममें यज्ञिय अश्व तथा कूर्म आदि जलचर जन्तु जो वहाँ लाये गये थे, ऋषियोंने उन सबको शास्त्र विधि के अनुसार पूर्वोक्त यूपों में बाँध दिया॥ ३१ ॥

उस समय उन यूपों में तीन सौ पशु बँधे हुए थे तथा राजा दशरथ का वह उत्तम अश्वरन्त भी वहीं बाँधा गया था॥ ३२ ॥

रानी कौसल्याने वहाँ प्रोक्षण आदिके द्वारा सब ओरसे उस अश्वका संस्कार करके बड़ी प्रसन्नताके साथ तीन तलवारोंसे उसका स्पर्श किया॥ ३३ ॥

तदनन्तर कौसल्या देवीने सुस्थिर चित्तसे धर्मपालनकी इच्छा रखकर उस अश्वके निकट एक रात निवास किया॥ ३४ ॥

तत्पश्चात् होता, अध्वर्यु और उद्गाताने राजाकी (क्षत्रियजातीय) महिषी ‘कौसल्या’, (वैश्यजातीय स्त्री) ‘वावाता’ तथा (शूद्रजातीय स्त्री) ‘परिवृत्ति’—इन सबके हाथसे उस अश्वका स्पर्श कराया3॥ ३५ ॥

इसके बाद परम चतुर जितेन्द्रिय ऋत्विक्ने विधिपूर्वक अश्वकन्दके गूदेको निकालकर शास्त्रोक्त रीतिसे पकाया॥ ३६ ॥

तत्पश्चात् उस गूदेकी आहुति दी गयी। राजा दशरथने अपने पापको दूर करनेके लिये ठीक समयपर आकर विधिपूर्वक उसके धूएँकी गन्धको सूँघा॥ ३७ ॥

उस अश्वमेध यज्ञके अंगभूत जो-जो हवनीय पदार्थ थे, उन सबको लेकर समस्त सोलह ऋत्विज् ब्राह्मण अग्निमें विधिवत् आहुति देने लगे॥ ३८ ॥

अश्वमेधके अतिरिक्त अन्य यज्ञोंमें जो हवि दी जाती है, वह पाकरकी शाखाओंमें रखकर दी जाती है; परंतु अश्वमेध यज्ञका हविष्य बेंतकी चटार्इमें रखकर देनेका नियम है॥ ३९ ॥

कल्पसूत्र और ब्राह्मणग्रन्थोंके द्वारा अश्वमेधके तीन सवनीय दिन बताये गये हैं। उनमेंसे प्रथम दिन जो सवन होता है, उसे चतुष्टोम (‘अग्निष्टोम’) कहा गया है। द्वितीय दिवस साध्य सवनको ‘उक्थ्य’ नाम दिया गया है तथा तीसरे दिन जिस सवनका अनुष्ठान होता है, उसे ‘अतिरात्र’ कहते हैं। उसमें शास्त्रीय दृष्टिसे विहित बहुत-से दूसरे-दूसरे क्रतु भी सम्पन्न किये गये॥ ४०-४१ ॥

ज्योतिष्टोम, आयुष्टोम यज्ञ, दो बार अतिरात्र यज्ञ, पाँचवाँ अभिजित्, छठा विश्वजित् तथा सातवें-आठवें आप्तोर्याम—ये सब-के-सब महाक्रतु माने गये हैं, जो अश्वमेधके उत्तर कालमें सम्पादित हुए॥ ४२ ॥

अपने कुलकी वृद्धि करनेवाले राजा दशरथने यज्ञ पूर्ण होनेपर होताको दक्षिणारूपमें अयोध्यासे पूर्व दिशाका सारा राज्य सौंप दिया, अध्वर्युको पश्चिम दिशा तथा ब्रह्माको दक्षिण दिशाका राज्य दे दिया॥ ४३ ॥

इसी तरह उद्गाताको उत्तर दिशा की सारी भूमि दे दी। पूर्वकालमें भगवान् ब्रह्माजी ने जिसका अनुष्ठान किया था, उस अश्वमेध नामक महायज्ञमें ऐसी ही दक्षिणाका विधान किया गया है4॥ ४४ ॥

इस प्रकार विधिपूर्वक यज्ञ समाप्त करके अपने कुलकी वृद्धि करनेवाले पुरुषशिरोमणि राजा दशरथने ऋत्विजोंको सारी पृथ्वी दान कर दी॥ ४५ ॥

यों दान देकर इक्ष्वाकुकुलनन्दन श्रीमान् महाराज दशरथके हर्षकी सीमा न रही, परंतु समस्त ऋत्विज् उन निष्पाप नरेशसे इस प्रकार बोले—॥ ४६ ॥

‘महाराज! अकेले आप ही इस सम्पूर्ण पृथ्वीकी रक्षा करनेमें समर्थ हैं। हममें इसके पालनकी शक्ति नहीं है; अत: भूमिसे हमारा कोई  प्रयोजन नहीं है॥ ४७ ॥

‘भूमिपाल! हम तो सदा वेदोंके स्वाध्यायमें ही लगे रहते हैं (इस भूमिका पालन हमसे नहीं हो सकता); अत: आप हमें यहाँ इस भूमिका कुछ निष्क्रय (मूल्य) ही दे दें॥ ४८ ॥

‘नृपश्रेष्ठ! मणि, रन्त, सुवर्ण, गौ अथवा जो भी वस्तु यहाँ उपस्थित हो, वही हमें दक्षिणा रूप से दे दीजिये। इस धरती से हमें कोई  प्रयोजन नहीं है’॥ ४९ ॥

वेदोंके पारगामी विद्वान् ब्राह्मणोंके ऐसा कहनेपर राजाने उन्हें दस लाख गौएँ प्रदान कीं। दस करोड़ स्वर्णमुद्रा तथा उससे चौगुनी रजतमुद्रा अर्पित की॥ ५०॥

तब उस समस्त ऋत्विजोंने एक साथ होकर वह सारा धन मुनिवर ऋष्यश्रृंग तथा बुद्धिमान् वसिष्ठको सौंप दिया॥ ५१ /

तदनन्तर उन दोनों महर्षियोंके सहयोगसे उस धनका न्यायपूर्वक बँटवारा करके वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए और बोले—महाराज! इस दक्षिणासे हमलोग बहुत संतुष्ट हैं’॥ ५२ /

इसके बाद एकाग्रचित्त होकर राजा दशरथने अभ्यागत ब्राह्मणोंको एक करोड़ जाम्बूनद सुवर्णकी मुद्राएँ बाँटीं॥ ४३॥

[सारा धन दे देने के बाद जब कुछ नहीं बच रहा, तब] एक दरिद्र ब्राह्मण ने आकर राजासे धनकी याचना की। उस समय उन रघुकुलनन्दन नरेशने उसे अपने हाथका उत्तम आभूषण उतारकर दे दिया॥ ५४ /

तत्पश्चात् जब सभी ब्राह्मण विधिवत् संतुष्ट हो गये, उस समय उनपर स्नेह रखनेवाले नरेशने उन सबको प्रणाम किया। प्रणाम करते समय उनकी सारी इन्द्रियाँ हर्षसे विह्वल हो रही थीं॥ ५५ / पृथ्वीपर पड़े हुए उन उदार नरवीरको ब्राह्मणोंने नाना प्रकारके आशीर्वाद दिये॥ ५६ /

तदनन्तर उस परम उत्तम यज्ञका पुण्यफल पाकर राजा दशरथके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुर्इ। वह यज्ञ उनके सब पापोंका नाश करनेवाला तथा उन्हें स्वर्गलोकमें पहुँचानेवाला था। साधारण राजाओं के लिये उस यज्ञ को आदि से अन्त तक पूर्ण कर लेना बहुत ही कठिन था॥५७॥

यज्ञ समाप्त होनेपर राजा दशरथने ऋष्यश्रृंगसे कहा—‘उत्तम व्रतका पालन करनेवाले मुनीश्वर! अब जो कर्म मेरी कुलपरम्पराको बढ़ानेवाला हो, उसका सम्पादन आपको करना चाहिये’॥ ५८ /

तब द्विजश्रेष्ठ ऋष्यश्रृंग ‘तथास्तु’ कहकर राजा से बोले—‘राजन्! आपके चार पुत्र होंगे, जो इस कुलके भारको वहन करनेमें समर्थ होंगे’॥ ५९ ॥

उनका यह मधुर वचन सुनकर मन और इन्द्रियोंको संयम में रखने वाले महामना महाराज दशरथ उन्हें प्रणाम करके बड़े हर्षको प्राप्त हुए तथा उन्होंने ऋष्यश्रृंगको पुन: पुत्र प्राप्ति कराने वाले कर्म का अनुष्ठान करने के लिये प्रेरित किया॥ ६० ॥

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें चौदहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ १४॥


  1. इस विषयमें सूत्रकारका वचन है—सोमं राजानं दृषदि निधाय……दृषद्भिरभिहन्यात् अर्थात् ‘राजा सोम (सोमलता) को पत्थरपर रखकर……..पत्थरसे कूँरुचे।
  2. तथा च सूत्रम्—‘चतुर्विंशत्यङ्गुलयोऽरन्ति:’ अर्थात् एक अरन्ति चौबीस अङ्गुलके बराबर होता है।
  3. जातिके अनुसार नाम अलग-अलग होते हैं। दशरथके तो कौसल्या, कैकेयी और सुमित्रा तीनों क्षत्रिय जातिकी ही थीं।
  4.  ‘प्रजापतिरश्वमेधमसृजत (प्रजापतिने अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान किया।)’ इस श्रुतिके द्वारा यह सूचित होता है कि पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने इस महायज्ञका अनुष्ठान किया था। इस में दक्षिणा रूप से प्रत्येक दिशाके दान का विधान कल्पसूत्रद्वारा किया गया है। यथा—‘प्रतिदिशं दक्षिणां ददाति प्राची दिग्धोतुर्दक्षिणा ब्रह्मण: प्रतीच्यध्वर्योरुदीच्युद्गातु:’॥

सुरभि भदौरिया

सात वर्ष की छोटी आयु से ही साहित्य में रुचि रखने वालीं सुरभि भदौरिया एक डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी चलाती हैं। अपने स्वर्गवासी दादा से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों को पल्लवित करते हुए उन्होंने हिंदीपथ.कॉम की नींव डाली है, जिसका उद्देश्य हिन्दी की उत्तम सामग्री को जन-जन तक पहुँचाना है। सुरभि की दिलचस्पी का व्यापक दायरा काव्य, कहानी, नाटक, इतिहास, धर्म और उपन्यास आदि को समाहित किए हुए है। वे हिंदीपथ को निरन्तर नई ऊँचाइंयों पर पहुँचाने में सतत लगी हुई हैं।

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