वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 18 हिंदी में – Valmiki Ramayana Balakanda Chapter – 18
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राजाओं तथा ऋष्यश्रृंगको विदा करके राजा दशरथ का रानियों सहित पुरी में आगमन, श्रीराम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्नके जन्म, संस्कार, शील-स्वभाव एवं सद्गुण, राजा के दरबार में विश्वामित्र का आगमन और उनका सत्कार
महामना राजा दशरथ का यज्ञ समाप्त होनेपर देवतालोग अपना-अपना भाग ले जैसे आये थे, वैसे लौट गये॥ १ ॥
दीक्षा का नियम समाप्त होनेपर राजा अपनी पत्नियों को साथ ले सेवक, सैनिक और सवारियों सहित पुरी में प्रविष्ट हुए॥ २ ॥
भिन्न-भिन्न देशों के राजा भी (जो उनके यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये आये थे) महाराज दशरथ द्वारा यथावत् सम्मानित हो मुनिवर वसिष्ठ तथा ऋष्यश्रृंग को प्रणाम करके प्रसन्नता पूर्वक अपने-अपने देश को चले गये॥ ३ ॥
अयोध्यापुरी से अपने घर को जाते हुए उन श्रीमान् नरेशों के शुभ्र सैनिक अत्यन्त हर्ष मग्न होनेके कारण बड़ी शोभा पा रहे थे॥ ४ ॥
उन राजाओं के विदा हो जानेपर श्रीमान् महाराज दशरथने श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको आगे करके अपनी पुरीमें प्रवेश किया॥ ५ ॥
राजाद्वारा अत्यन्त सम्मानित हो ऋष्यश्रृंग मुनि भी शान्ता के साथ अपने स्थानको चले गये। उस समय सेवकों सहित बुद्धिमान् महाराज दशरथ कुछ दूरतक उनके पीछे-पीछे उन्हें पहुँचाने गये थे॥ ६ ॥
इस प्रकार उन सब अतिथियों को विदा करके सफल मनोरथ हुए राजा दशरथ पुत्रोत्पत्ति की प्रतीक्षा करते हुए वहाँ बड़े सुख से रहने लगे॥ ७ ॥
यज्ञ-समाप्तिके पश्चात् जब छ: ऋतुएँ बीत गयीं, तब बारह वें मास में चैत्रके शुक्लपक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र एवं कर्क लग्नमें कौसल्यादेवीने दिव्य लक्षणों से युक्त, सर्व लोकवन्दित जगदीश्वर श्रीरामको जन्म दिया। उस समय (सूर्य, मंगल, शनि, गुरु और शुक्र—ये) पाँच ग्रह अपने-अपने उच्च स्थान में विद्यमान थे तथा लग्न में चन्द्रमा के साथ बृहस्पति विराजमान थे॥
उस अमिततेजस्वी पुत्र से महारानी कौसल्या की बड़ी शोभा हुई, ठीक उसी तरह, जैसे सुरश्रेष्ठ वज्रपाणि इन्द्र से देवमाता अदिति सुशोभित हुई थीं॥ १२ ॥
तदनन्तर कैकेयी से सत्यपराक्रमी भरत का जन्म हुआ, जो साक्षात् भगवान् विष्णुके (स्वरूपभूत पायस— खीरके) चतुर्थांश से भी न्यून भाग से प्रकट हुए थे। ये समस्त सद्गुणों से सम्पन्न थे॥ १३ ॥
इसके बाद रानी सुमित्रा ने लक्ष्मण और शत्रुघ्न—इन दो पुत्रोंको जन्म दिया। ये दोनों वीर साक्षात् भगवान् विष्णुके अर्धभागसे सम्पन्न और सब प्रकारके अस्त्रोंकी विद्या में कुशल थे॥ १४ ॥
भरत सदा प्रसन्नचित्त रहते थे। उनका जन्म पुष्य नक्षत्र तथा मीन लग्नमें हुआ था। सुमित्रा के दोनों पुत्र आश्लेषा नक्षत्र और कर्कलग्नमें उत्पन्न हुए थे। उस समय सूर्य अपने उच्च स्थान में विराजमान थे॥ १५ ॥
राजा दशरथ के ये चारों महामनस्वी पुत्र पृथक्-पृथक् गुणों से सम्पन्न और सुन्दर थे। ये भाद्रपदा नामक चार तारोंके समान कान्तिमान् थे1॥ १६ ॥
इनके जन्म के समय गन्धर्वोंने मधुर गीत गाये। अप्सराओंने नृत्य किया। देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगीं तथा आकाशसे फूलोंकी वर्षा होने लगी॥ १७ ॥
अयोध्यामें बहुत बड़ा उत्सव हुआ। मनुष्योंकी भारी भीड़ एकत्र हुई। गलियाँ और सड़कें लोगोंसे खचाखच भरी थीं। बहुत-से नट और नर्तक वहाँ अपनी कलाएँ दिखा रहे थे॥ १८ ॥
वहाँ सब ओर गाने-बजानेवाले तथा दूसरे लोगोंके शब्द गूँज रहे थे। दीन-दु:खियोंके लिये लुटाये गये सब प्रकारके रन्त वहाँ बिखरे पड़े थे॥ १९ ॥
राजा दशरथने सूत, मागध और वन्दीजनोंको देने योग्य पुरस्कार दिये तथा ब्राह्मणों को धन एवं सहस्रों गोधन प्रदान किये॥ २० ॥
ग्यारह दिन बीतनेपर महाराज ने बालकों का नामकरण-संस्कार किया2। उस समय महर्षि वसिष्ठने प्रसन्नताके साथ सबके नाम रखे। उन्होंने ज्येष्ठ पुत्र का नाम ‘राम’ रखा। श्रीराम महात्मा (परमात्मा) थे। कैकेयी कुमार का नाम भरत तथा सुमित्रा के एक पुत्र का नाम लक्ष्मण और दूसरे का शत्रुघ्न निश्चित किया॥ २१-२२ ॥
राजाने ब्राह्मणों, पुरवासियों तथा जनपदवासियोंको भी भोजन कराया। ब्राह्मणोंको बहुत-से उज्ज्वल रन्तसमूह दान किये॥ २३ ॥
महर्षि वसिष्ठने समय-समयपर राजासे उन बालकोंके जातकर्म आदि सभी संस्कार करवाये थे। उन सबमें श्रीरामचन्द्र जी ज्येष्ठ होनेके साथ ही अपने कुलकी कीर्ति-ध्वजा को फहराने वाली पताका के समान थे। वे अपने पिता की प्रसन्नता को बढ़ाने वाले थे॥ २४ ॥
सभी भूतों के लिये वे स्वयम्भू ब्रह्माजीके समान विशेष प्रिय थे। राजाके सभी पुत्र वेदों के विद्वान् और शूरवीर थे। सब-के-सब लोकहितकारी कार्यों में संलग्न रहते थे॥ २५ ॥
सभी ज्ञानवान् और समस्त सद्गुणोंसे सम्पन्न थे। उनमें भी सत्यपराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी सबसे अधिक तेजस्वी और सब लोगोंके विशेष प्रिय थे। वे निष्कलङ्क चन्द्रमाके समान शोभा पाते थे। उन्होंने हाथी के कंधे और घोड़े की पीठ पर बैठने तथा रथ हाँकने की कलामें भी सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त किया था। वे सदा धनुर्वेदका अभ्यास करते और पिताजीकी सेवामें लगे रहते थे॥२६॥
लक्ष्मीकी वृद्धि करने वाले लक्ष्मण बाल्यावस्था से ही श्रीरामचन्द्रजीके प्रति अत्यन्त अनुराग रखते थे। वे अपने बड़े भाई लोकाभिराम श्री राम का सदा ही प्रिय करते थे और शरीर से भी उनकी सेवा में ही जुटे रहते थे॥२७ -२९॥
शोभासम्पन्न लक्ष्मण श्रीरामचन्द्रजीके लिये बाहर विचरनेवाले दूसरे प्राणके समान थे। पुरुषोत्तम श्रीरामको उनके बिना नींद भी नहीं आती थी। यदि उनके पास उत्तम भोजन लाया जाता तो श्रीरामचन्द्रजी उसमेंसे लक्ष्मणको दिये बिना नहीं खाते थे॥ ३० १/२ ॥
जब श्रीरामचन्द्रजी घोड़े पर चढ़कर शिकार खेलनेके लिये जाते, उस समय लक्ष्मण धनुष लेकर उनके शरीरकी रक्षा करते हुए पीछे-पीछे जाते थे। इसी प्रकार लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न भरतजी को प्राणों से भी अधिक प्रिय थे और वे भी भरतजी को सदा प्राणों से भी अधिक प्रिय मानते थे॥ ३१-३२ १/२ ॥
इन चार महान् भाग्यशाली प्रिय पुत्रों से राजा दशरथ को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त होती थी, ठीक वैसे ही जैसे चार देवताओं (दिक्पालों) से ब्रह्माजी को प्रसन्नता होती है॥ ३३ १/२ ॥
वे सब बालक जब समझदार हुए, तब समस्त सद्गुणोंसे सम्पन्न हो गये। वे सभी लज्जाशील, यशस्वी, सर्वज्ञ और दूरदर्शी थे। ऐसे प्रभावशाली और अत्यन्त तेजस्वी उन सभी पुत्रों की प्राप्ति से राजा दशरथ लोकेश्वर ब्रह्माकी भाँति बहुत प्रसन्न थे॥ ३४-३५ १/२ ॥
वे पुरुष सिंह राजकुमार प्रतिदिन वेदोंके स्वाध्याय, पिता की सेवा तथा धनुर्वेद के अभ्यास में दत्त-चित्त रहते थे॥ ३६ १/२ ॥
एक दिन धर्मात्मा राजा दशरथ पुरोहित तथा बन्धु-बान्धवोंके साथ बैठकर पुत्रों के विवाहके विषय में विचार कर रहे थे। मन्त्रियों के बीच में विचार करते हुए उन महामना नरेश के यहाँ महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्र पधारे॥ ३७-३८ १/२ ॥
वे राजासे मिलना चाहते थे। उन्होंने द्वारपालोंसे कहा—‘तुमलोग शीघ्र जाकर महाराज को यह सूचना दो कि कुशिकवंशी गाधिपुत्र विश्वामित्र आये हैं’॥ ३९ १/२ ॥
उनकी यह बात सुनकर वे द्वारपाल दौड़े हुए राजा के दरबार में गये। वे सब विश्वामित्र के उस वाक्य से प्रेरित होकर मन-ही-मन घबराये हुए थे॥ ४० १/२ ॥
राजाके दरबारमें पहुँचकर उन्होंने इक्ष्वाकुकुल-नन्दन अवधनरेश से कहा—‘महाराज! महर्षि विश्वामित्र पधारे हैं’॥ ४१ १/२ ॥
उनकी वह बात सुनकर राजा सावधान हो गये। उन्होंने पुरोहितको साथ लेकर बड़े हर्ष के साथ उनकी अगवानी की, मानो देवराज इन्द्र ब्रह्माजी का स्वागत कर रहे हों॥ ४२ १/२ ॥
विश्वामित्रजी कठोर व्रतका पालन करनेवाले तपस्वी थे। वे अपने तेजसे प्रज्वलित हो रहे थे। उनका दर्शन करके राजाका मुख प्रसन्नता से खिल उठा और उन्होंने महर्षि को अर्घ्य निवेदन किया॥ ४३ १/२ ॥
राजाका वह अर्घ्य शास्त्रीय विधिके अनुसार स्वीकार करके महर्षिने उनसे कुशल-मंगल पूछा॥ ४४ १/२ ॥
धर्मात्मा विश्वामित्र ने क्रमश: राजा के नगर, खजाना, राज्य, बन्धु-बान्धव तथा मित्रवर्ग आदिके विषय में कुशलप्रश्न किया—॥ ४५ १/२ ॥
‘राजन्! आपके राज्य की सीमा के निकट रहने वाले शत्रु राजा आपके समक्ष नतमस्तक तो हैं? आपने उनपर विजय तो प्राप्त की है न? आपके यज्ञयाग आदि देवकर्म और अतिथि-सत्कार आदि मनुष्यकर्म तो अच्छी तरह सम्पन्न होते हैं न?’॥ ४६ १/२ ॥
इसके बाद महाभाग मुनिवर विश्वामित्रने वसिष्ठजी तथा अन्यान्य ऋषियों से मिलकर उन सबका यथावत् कुशल-समाचार पूछा॥ ४७ १/२ ॥
फिर वे सब लोग प्रसन्नचित्त होकर राजाके दरबारमें गये और उनके द्वारा पूजित हो यथायोग्य आसनोंपर बैठे॥ ४८ १/२ ॥
तदनन्तर प्रसन्नचित्त परम उदार राजा दशरथ ने पुलकित होकर महामुनि विश्वामित्रकी प्रशंसा करते हुए कहा—॥ ४९ १/२ ॥
‘महामुने! जैसे किसी मरणधर्मा मनुष्य को अमृतकी प्राप्ति हो जाय, निर्जल प्रदेश में पानी बरस जाय, किसी संतान हीन को अपने अनुरूप पन्ती के गर्भ से पुत्र प्राप्त हो जाय, खोयी हुई निधि मिल जाय तथा किसी महान् उत्सवसे हर्ष का उदय हो, उसी प्रकार आपका यहाँ शुभागमन हुआ है। ऐसा मैं मानता हूँ। आपका स्वागत है। आपके मनमें कौन-सी उत्तम कामना है, जिसको मैं हर्ष के साथ पूर्ण करूँ? ५०—५२ ॥
‘ब्रह्मन्! आप मुझसे सब प्रकार की सेवा लेने योग्य उत्तम पात्र हैं। मानद! मेरा अहोभाग्य है, जो आपने यहाँतक पधारने का कष्ट उठाया। आज मेरा जन्म सफल और जीवन धन्य हो गया॥ ५३ ॥
‘मेरी बीती हुई रात सुन्दर प्रभात दे गयी, जिससे मैंने आज आप ब्राह्मण शिरोमणि का दर्शन किया। पूर्वकालमें आप राजर्षि शब्द से उपलक्षित होते थे, फिर तपस्या से अपनी अद्भुत प्रभा को प्रकाशित करके आपने ब्रह्मर्षि का पद पाया; अत: आप राजर्षि और ब्रह्मर्षि दोनों ही रूपोंमें मेरे पूजनीय हैं। आपका जो यहाँ मेरे समक्ष शुभागमन हुआ है, यह परम पवित्र और अद्भुत है॥
‘‘प्रभो! आपके दर्शनसे आज मेरा घर तीर्थ हो गया। मैं अपने-आपको पुण्य क्षेत्रों की यात्रा करके आया हुआ मानता हूँ। बताइये, आप क्या चाहते हैं? आपके शुभागमनका शुभ उद्देश्य क्या है?॥ ५६ ॥
‘उत्तम व्रत का पालन करनेवाले महर्षे! मैं चाहता हूँ कि आपकी कृपासे अनुगृहीत होकर आपके अभीष्ट मनोरथको जान लूँ और अपने अभ्युदयके लिये उसकी पूर्ति करूँ। ‘कार्य सिद्ध होगा या नहीं’ ऐसे संशयको अपने मनमें स्थान न दीजिये॥ ५७ ॥
‘आप जो भी आज्ञा देंगे, मैं उसका पूर्णरूपसे पालन करूँगा; क्योंकि सम्माननीय अतिथि होनेके नाते आप मुझ गृहस्थ के लिये देवता हैं। ब्रह्मन्! आज आपके आगमन से मुझे सम्पूर्ण धर्मों का उत्तम फल प्राप्त हो गया। यह मेरे महान् अभ्युदय का अवसर आया है’॥ ५८ ॥
मनस्वी नरेशके कहे हुए ये विनययुक्त वचन, जो हृदय और कानों को सुख देने वाले थे, सुनकर विख्यात गुण और यशवाले, शम-दम आदि सद्गुणों से सम्पन्न महर्षि विश्वामित्र बहुत प्रसन्न हुए॥ ५९ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में अठारहवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ १८॥
- प्रोष्ठपदा कहते हैं—भाद्रपदा नक्षत्रको। उसके दो भेद हैं—पूर्वभाद्रपदा और उत्तरभाद्रपदा। इन दोनोंमें दो-दो तारे हैं। यह बात ज्यौतिषशास्त्रमें प्रसिद्ध है। (रा० ति०)
- रामायणतिलकके निर्माताने मूलके एकादशाह शब्दको सूतकके अन्तिम दिनका उपलक्षण माना है। उनका कहना है कि यदि ऐसा न माना जाय तो ‘क्षत्रियस्य द्वादशाहं सूतकम्’ (क्षत्रियको बारह दिनोंका सूतक लगता है) इस स्मृतिवाक्यसे विरोध होगा; अत: रामजन्मके बारह दिन बीत जानेके बाद तेरहवें दिन राजाने नामकरण-संस्कार किया—ऐसा मानना चाहिये।