धर्म

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 20 हिंदी में – Valmiki Ramayana Balakanda Chapter – 20

महर्षि वाल्मीकि कृत रामकथा पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – संपूर्ण रामायण हिंदी में

राजा दशरथ का विश्वामित्र को अपना पुत्र देने से इनकार करना और विश्वामित्र का कुपित होना

विश्वामित्र जी का वचन सुनकर नृपश्रेष्ठ दशरथ दो घड़ी के लिये संज्ञा शून्य-से हो गये। फिर सचेत होकर इस प्रकार बोले—॥ १ ॥

‘महर्षे! मेरा कमलनयन राम अभी पूरे सोलह वर्ष का भी नहीं हुआ है। मैं इसमें राक्षसोंके साथ युद्ध करने की योग्यता नहीं देखता॥ २ ॥

‘यह मेरी अक्षौहिणी सेना है, जिसका मैं पालक और स्वामी भी हूँ। इस सेना के साथ मैं स्वयं ही चलकर उन निशाचरों के साथ युद्ध करूँगा॥ ३ ॥

‘ये मेरे शूरवीर सैनिक, जो अस्त्रविद्या में कुशल और पराक्रमी हैं, राक्षसों के साथ जूझनेकी योग्यता रखते हैं; अत: इन्हें ही ले जाइये; राम को ले जाना उचित नहीं होगा॥ ४ ॥

‘मैं स्वयं ही हाथमें धनुष ले युद्ध के मुहाने पर रहकर आपके यज्ञ की रक्षा करूँगा और जबतक इस शरीरमें प्राण रहेंगे तबतक निशाचरों के साथ लड़ता रहूँगा॥ ५ ॥

‘मेरे द्वारा सुरक्षित होकर आपका नियमानुष्ठान बिना किसी विघ्न-बाधाके पूर्ण होगा; अत: मैं ही वहाँ आपके साथ चलूँगा। आप राम को न ले जाइये॥ ६ ॥

‘मेरा राम अभी बालक है। इसने अभीतक युद्धकी विद्या ही नहीं सीखी है। यह दूसरे के बलाबल को नहीं जानता है। न तो यह अस्त्र-बलसे सम्पन्न है और न युद्ध की कला में निपुण ही॥ ७ ॥

‘अत: यह राक्षसों से युद्ध करने योग्य नहीं है; क्योंकि राक्षस माया से—छल-कपटसे युद्ध करते हैं। इसके सिवा राम से वियोग हो जाने पर मैं दो घड़ी भी जीवित नहीं रह सकता; मुनिश्रेष्ठ! इसलिये आप मेरे रामको न ले जाइये। अथवा ब्रह्मन्! यदि आपकी इच्छा राम को ही ले जानेकी हो तो चतुरङ्गिणी सेना के साथ मैं भी चलता हूँ। मेरे साथ इसे ले चलिये॥ ८-९ /

‘कुशिकनन्दन! मेरी अवस्था साठ हजार वर्षकी हो गयी। इस बड़ी कठिनार्इसे मुझे पुत्रकी प्राप्ति हुई है, अत: आप राम को न ले जाइये॥ १० /

धर्म प्रधान राम मेरे चारों पुत्रों में ज्येष्ठ है; इसलिये उसपर मेरा प्रेम सबसे अधिक है; अत: आप राम को न ले जाइये॥ ११ /

‘वे राक्षस कैसे पराक्रमी हैं, किसके पुत्र हैं और कौन हैं? उनका डीलडौल कैसा है? मुनीश्वर! उनकी रक्षा कौन करते हैं? राम उन राक्षसोंका सामना कैसे कर सकता है? ॥ १२-१३ ॥

‘ब्रह्मन्! मेरे सैनिकों को या स्वयं मुझे ही उन मायायोधी राक्षसोंका प्रतीकार कैसे करना चाहिये? भगवन्! ये सारी बातें आप मुझे बताइये। उन दुष्टोंके साथ युद्ध में मुझे कैसे खड़ा होना चाहिये? क्योंकि राक्षस बड़े बलाभिमानी होते हैं’॥ १४ /

राजा दशरथकी इस बातको सुनकर विश्वामित्र जी बोले—‘महाराज! रावण नाम से प्रसिद्ध एक राक्षस है, जो महर्षि पुलस्त्य के कुल में उत्पन्न हुआ है। उसे ब्रह्माजी से मुँहमाँगा वरदान प्राप्त हुआ है; जिससे महान् बलशाली और महापराक्रमी होकर बहुसंख्यक राक्षसों से घिरा हुआ वह निशाचर तीनों लोकोंके निवासियोंको अत्यन्त कष्ट दे रहा है। सुना जाता है कि राक्षसराज रावण विश्रवा मुनि का औरस पुत्र तथा साक्षात् कुबेर का भाई है॥१५ -१७॥

‘वह महाबली निशाचर इच्छा रहते हुए भी स्वयं आकर यज्ञ में विघ्न नहीं डालता (अपने लिये इसे तुच्छ कार्य समझता है); इसलिये उसीकी प्रेरणा से दो महान् बलवान् राक्षस मारीच और सुबाहु यज्ञों में विघ्न डाला करते हैं’॥ १८-१९ ॥

विश्वामित्र मुनि के ऐसा कहनेपर राजा दशरथ उनसे इस प्रकार बोले—‘मुनिवर! मैं उस दुरात्मा रावणके सामने युद्धमें नहीं ठहर सकता॥ २० ॥

‘धर्मज्ञ महर्षे! आप मेरे पुत्रपर तथा मुझ मन्दभागी दशरथपर भी कृपा कीजिये; क्योंकि आप मेरे देवता तथा गुरु हैं॥ २१ ॥

‘युद्धमें रावणका वेग तो देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, गरुड़ और नाग भी नहीं सह सकते; फिर मनुष्योंकी तो बात ही क्या है॥ २२ ॥

‘मुनिश्रेष्ठ! रावण समरांगण में बलवानों के बलका अपहरण कर लेता है, अत: मैं अपनी सेना और पुत्रोंके साथ रहकर भी उससे तथा उसके सैनिकों से युद्ध करनेमें असमर्थ हूँ॥ २३ /

‘ब्रह्मन्! यह मेरा देवोपम पुत्र युद्धकी कलासे सर्वथा अनभिज्ञ है। इसकी अवस्था भी अभी बहुत थोड़ी है; इसलिये मैं इसे किसी तरह नहीं दूँगा॥ २४ /

‘मारीच और सुबाहु सुप्रसिद्ध दैत्य सुन्द और उपसुन्दके पुत्र हैं। वे दोनों युद्ध में यमराज के समान हैं। यदि वे ही आपके यज्ञमें विघ्न डालनेवाले हैं तो मैं उनका सामना करनेके लिये अपने पुत्र को नहीं दूँगा; क्योंकि वे दोनों प्रबल पराक्रमी और युद्धविषयक उत्तम शिक्षासे सम्पन्न हैं॥ २५-२६ ॥

‘मैं उन दोनोंमें से किसी एकके साथ युद्ध करनेके लिये अपने सुहृदोंके साथ चलूँगा; अन्यथा—यदि आप मुझे न ले जाना चाहें तो मैं भाई-बन्धुओं सहित आपसे अनुनय-विनय करूँगा कि आप रामको छोड़ दें’॥ २७ ॥

राजा दशरथ के ऐसे वचन सुनकर विप्रवर कुशिकनन्दन विश्वामित्र के मनमें महान् क्रोध का आवेश हो आया, जैसे यज्ञशालामें अग्निको भलीभाँति आहुति देकर घीकी धारा से अभिषिक्त कर दिया जाय और वह प्रज्वलित हो उठे, उसी तरह अग्नितुल्य तेजस्वी महर्षि विश्वामित्र भी क्रोधसे जल उठे॥ २८ ॥

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में बीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ २०॥

सुरभि भदौरिया

सात वर्ष की छोटी आयु से ही साहित्य में रुचि रखने वालीं सुरभि भदौरिया एक डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी चलाती हैं। अपने स्वर्गवासी दादा से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों को पल्लवित करते हुए उन्होंने हिंदीपथ.कॉम की नींव डाली है, जिसका उद्देश्य हिन्दी की उत्तम सामग्री को जन-जन तक पहुँचाना है। सुरभि की दिलचस्पी का व्यापक दायरा काव्य, कहानी, नाटक, इतिहास, धर्म और उपन्यास आदि को समाहित किए हुए है। वे हिंदीपथ को निरन्तर नई ऊँचाइंयों पर पहुँचाने में सतत लगी हुई हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी पथ
error: यह सामग्री सुरक्षित है !!
Exit mobile version