धर्म

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 30 हिंदी में – Valmiki Ramayana Balakanda Chapter – 30

श्रीराम द्वारा विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा तथा राक्षसों का संहार

तदनन्तर देश और कालको जानने वाले शत्रुदमन राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण। जो देश और कालके अनुसार बोलने योग्य वचन के मर्मज्ञ थे, कौशिक मुनि से इस प्रकार बोले—॥ १ ॥

‘भगवन्! अब हम दोनों यह सुनना चाहते हैं कि किस समय उन दोनों निशाचरों का आक्रमण होता है? जब कि हमें उन दोनोंको यज्ञभूमि में आनेसे रोकना है। कहीं ऐसा न हो, असावधानी में ही वह समय हाथ से निकल जाय; अत: उसे बता दीजिये’॥ २ ॥

ऐसी बात कहकर युद्ध की इच्छासे उतावले हुए उन दोनों ककुत्स्थ वंशी राजकुमारों की ओर देखकर वे सब मुनि बड़े प्रसन्न हुए और उन दोनों बन्धुओं की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे॥ ३ ॥

वे बोले—‘ये मुनिवर विश्वामित्रजी यज्ञ की दीक्षा ले चुके हैं; अत: अब मौन रहेंगे। आप दोनों रघुवंशी वीर सावधान होकर आजसे छ: रातों तक इनके यज्ञ की रक्षा करते रहें’॥ ४ ॥

मुनियों का यह वचन सुनकर वे दोनों यशस्वी राजकुमार लगातार छ: दिन और छ: राततक उस तपोवन की रक्षा करते रहे; इस बीचमें उन्होंने नींद भी नहीं ली॥ ५ ॥

शत्रुओं का दमन करने वाले वे परम धनुर्धर वीर सतत सावधान रहकर मुनिवर विश्वामित्र के पास खड़े हो उनकी (और उन के यज्ञ की) रक्षा में लगे रहे॥ ६ ॥

इस प्रकार कुछ काल बीत जाने पर जब छठा दिन आया, तब श्रीराम ने सुमित्रा कुमार लक्ष्मण से कहा—‘सुमित्रानन्दन! तुम अपने चित्त को एकाग्र करके सावधान हो जाओ’॥ ७ ॥

युद्ध की इच्छा से शीघ्रता करते हुए श्रीराम इस प्रकार कह ही रहे थे कि उपाध्याय (ब्रह्मा), पुरोहित (उपद्रष्टा) तथा अन्यान्य ऋत्विजों से घिरी हुई यज्ञ की वेदी सहसा प्रज्वलित हो उठी (वेदीका यह जलना राक्षसों के आगमन का सूचक उत्पात था)॥ ८ ॥

इसके बाद कुश, चमस, स्रुक्, समिधा और फूलों के ढेर से सुशोभित होने वाली विश्वामित्र तथा ऋत्विजों सहित जो यज्ञ की वेदी थी, उसपर आहवनीय अग्नि प्रज्वलित हुई (अग्नि का यह प्रज्वलन यज्ञ के उद्देश्य से हुआ था)॥ ९ ॥

फिर तो शास्त्रीय विधि के अनुसार वेद-मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक उस यज्ञका कार्य आरम्भ हुआ। इसी समय आकाशमें बड़े जोर का शब्द हुआ, जो बड़ा ही भयानक था॥ १० ॥

जैसे वर्षाकाल में मेघों की घटा सारे आकाश को घेरकर छायी हुई दिखायी देती है, उसी प्रकार मारीच और सुबाहु नामक राक्षस सब ओर अपनी माया फैलाते हुए यज्ञ मण्डप की ओर दौड़े आ रहे थे। उनके अनुचर भी साथ थे। उन भयंकर राक्षसों ने वहाँ आकर रक्त की धाराएँ बरसाना आरम्भ कर दिया॥ ११-१२ ॥

रक्त के उस प्रवाह से यज्ञ-वेदी के आस-पास की भूमिको भीगी हुई देख श्री रामचन्द्रजी सहसा दौड़े और इधर-उधर दृष्टि डालने पर उन्होंने उन राक्षसोंको आकाश में स्थित देखा। मारीच और सुबाहु को सहसा आते देख कमलनयन श्रीराम ने लक्ष्मण की ओर देखकर कहा—॥ १३-१४ ॥

‘लक्ष्मण! वह देखो, मांसभक्षण करने वाले दुराचारी राक्षस आ पहुँचे। मैं मानवास्त्र से इन सबको उसी प्रकार मार भगाऊँगा, जैसे वायु के वेग से बादल छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। मेरे इस कथन में तनिक भी संदेह नहीं है। ऐसे कायरों को मैं मारना नहीं चाहता’॥ १५ /

ऐसा कहकर वेगशाली श्रीराम ने अपने धनुष पर परम उदार मानवास्त्र का संधान किया। वह अस्त्र अत्यन्त तेजस्वी था। श्रीराम ने बड़े रोषमें भरकर मारीच की छाती में उस बाण का प्रहार किया॥ १६-१७ ॥

उस उत्तम मानवास्त्र का गहरा आघात लगने से मारीच पूरे सौ योजनकी दूरी पर समुद्र के जल में जा गिरा॥ १८ ॥

शीतेषु नामक मानवास्त्र से पीड़ित हो मारीच अचेत-सा होकर चक्कर काटता हुआ दूर चला जा रहा है। यह देख श्री राम ने लक्ष्मण से कहा—॥ १९ ॥

‘लक्ष्मण! देखो, मनु के द्वारा प्रयुक्त शीतेषु नामक मानवास्त्र इस राक्षसको मूर्छित करके दूर लिये जा रहा है, किंतु उसके प्राण नहीं ले रहा है॥ २० ॥

‘अब यज्ञ में विघ्न डालने वाले इन दूसरे निर्दय, दुराचारी, पापकर्मी एवं रक्तभोजी राक्षसोंको भी मार गिराता हूँ’॥ २१ ॥

लक्ष्मण से ऐसा कहकर रघुनन्दन श्रीराम ने अपने हाथ की फुर्ती दिखाते हुए-से शीघ्र ही महान् आग्नेयास्त्र का संधान करके उसे सुबाहुकी छाती पर चलाया। उसकी चोट लगते ही वह मरकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। फिर महायशस्वी परम उदार रघुवीरने वायव्यास्त्र लेकर शेष निशाचरों का भी संहार कर डाला और मुनियों को परम आनन्द प्रदान किया॥ २२-२३ ॥

इस प्रकार रघुकुलनन्दन श्रीराम यज्ञ में विघ्न डालने वाले समस्त राक्षसोंका वध करके वहाँ ऋषियों द्वारा उसी प्रकार सम्मानित हुए जैसे पूर्वकाल में देवराज इन्द्र असुरों पर विजय पाकर महर्षियोंद्वारा पूजित हुए थे॥ २४ ॥

यज्ञ समाप्त होने पर महामुनि विश्वामित्र ने सम्पूर्ण दिशाओंको विघ्न-बाधाओं से रहित देख श्रीरामचन्द्र जी से कहा—॥ २५ ॥

‘महाबाहो! मैं तुम्हें पाकर कृतार्थ हो गया। तुमने गुरुकी आज्ञाका पूर्ण रूप से पालन किया। महायशस्वी वीर! तुमने इस सिद्धाश्रम का नाम सार्थक कर दिया।’ इस प्रकार श्री रामचन्द्रजी की प्रशंसा करके मुनिने उन दोनों भाइयों के साथ संध्योपासना की॥ २६ ॥

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ३०॥

सुरभि भदौरिया

सात वर्ष की छोटी आयु से ही साहित्य में रुचि रखने वालीं सुरभि भदौरिया एक डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी चलाती हैं। अपने स्वर्गवासी दादा से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों को पल्लवित करते हुए उन्होंने हिंदीपथ.कॉम की नींव डाली है, जिसका उद्देश्य हिन्दी की उत्तम सामग्री को जन-जन तक पहुँचाना है। सुरभि की दिलचस्पी का व्यापक दायरा काव्य, कहानी, नाटक, इतिहास, धर्म और उपन्यास आदि को समाहित किए हुए है। वे हिंदीपथ को निरन्तर नई ऊँचाइंयों पर पहुँचाने में सतत लगी हुई हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी पथ
error: यह सामग्री सुरक्षित है !!
Exit mobile version