वर्तमान भारत – स्वामी विवेकानंद
‘वर्तमान भारत’ बंगला का एक मौलिक ग्रंथ है। इस पुस्तक में स्वामी विवेकानंद ने भारतवर्ष के प्राचीन गौरव का सुन्दर चित्र खींचा है तथा उन बातों को भी सम्मुख रखा है जिनके कारण इस राष्ट्र की अवनति हुई। इस पुस्तक में स्वामीजी ने बड़ी विद्वत्ता के साथ भारतवर्ष के राष्ट्रीय ध्येयों की विवेचना की है तथा इस बात पर जोर दिया है कि यदि भारतवासियों को अपने राष्ट्र का पुनरुत्थान वांछित है तो उन्हें यह यत्न करना चाहिए कि उनमें निःस्वार्थ सेवाभाव तथा आदर्श चारित्र्य आ जाए।
प्राचीन भारत में पुरोहित-शक्ति
वैदिक पुरोहित मन्त्रबल1 से बलवान थे। उनके मन्त्रबल से देवता आहूत होकर भोज्य और पेय ग्रहण करते और यजमानों2 को वांछित फल प्रदान करते थे। इससे राजा और प्रजा दोनों ही अपने सांसारिक सुख के लिए इन पुरोहितों का मुँह जोहा करते थे। राजा सोम3 पुरोहितों का उपास्य था। इसीलिए सोमाहुति चाहनेवाले देवता, जो मन्त्र से ही पुष्ट होते और वह देते थे, पुरोहितों पर प्रसन्न थे। दैवबल के ऊपर मनुष्यबल कर ही क्या सकता है? मनुष्यबल के केन्द्र राजा लोग भी तो उन्हीं पुरोहितों की कृपा के भिखारी थे। उनकी कृपादृष्टि ही राजाओं के लिए काफी सहायता थी और उनका आशीर्वाद ही सर्वश्रेष्ठ राजकर था। पुरोहित लोग राजाओं को कभी डर दिखाकर आज्ञाएँ देते, कभी उनके मित्र बनकर सलाहें देते, और कभी चतुर नीति के जाल बिछाकर उन्हें फँसाते थे। इस प्रकार उन लोगों ने राजकुल को अनेक बार अपने वश में किया है। राजाओं को पुरोहितों से डरने का सब से मुख्य कारण यह था कि उनका यश और उनके पूर्वजों की कीर्ति पुरोहितों की ही लेखनी के अधीन थी। राजा अपनी जिन्दगी में कितना ही तेजस्वी और कीर्तिमान क्यों न हो, अपनी प्रजा का माँ-बाप ही क्यों न हो, पर उसकी वह अत्युज्ज्वल कीर्ति समुद्र में गिरी हुई ओस की बूँद की तरह कालसमुद्र में सदा के लिए विलीन हो जाती थी। केवल अश्वमेधादि बड़े बड़े याग-यज्ञों का अनुष्ठान करनेवाले तथा बरसात के बादलों की तरह ब्राह्मणों के ऊपर धन की झड़ी लगानेवाले राजाओं के ही नाम इतिहास के पृष्ठों में पुरोहित-प्रसाद से जगमगा रहे हैं। आज देवताओं के प्रिय ‘प्रियदर्शी धर्माशोक’4 का नाम केवल ब्राह्मणजगत् में रह गया है, पर परीक्षित्-पुत्र जनमेजय5 से बालक, युवा, वृद्ध – सभी भलीभाँति परिचित हैं।
राजा और प्रजा
राज्यरक्षा, अपने भोगविलास, अपने परिवार की पुष्टि और सब से बढकर पुरोहितों की तुष्टि के लिए राजा लोग सूर्य की भाँति अपनी प्रजा का धन सोख लिया करते थे। बेचारे वैश्य लोग ही उनकी रसद और दुधार गाय थे।
भारत में संगठित प्रजाशक्ति का अभाव
प्रजा को कर उगाहने या राज्यकार्य में मतामत प्रकट करने का अधिकार न हिन्दू राजाओं के समय में था और न बौद्ध शासकों के ही समय में। यद्यपि महाराज युधिष्ठिर वारणावत में वैश्यों और शूद्रों के घर गये थे, अयोध्या की प्रजा ने श्रीरामचन्द्र को युवराज बनाने के लिए प्रार्थना की थी तथा सीता के वनवास तक के लिए छिप-छिपकर सलाहें भी की थी, फिर भी प्रत्यक्ष रूप से किसी स्वीकृत राज्यनियम के अनुसार प्रजा किसी विषय में मुँह नहीं खोल सकती थी। वह अपने सामर्थ्य को अप्रत्यक्ष और अव्यवस्थित रूप से प्रकट किया करती थी। उस शक्ति के अस्तित्व का ज्ञान उस समय भी उसे नहीं था। इसी से उस शक्ति को संगठित करने का उसमें न उद्योग था और न इच्छा ही। जिस कौशल से छोटी छोटी शक्तियाँ आपस में मिलकर प्रचण्ड बल संग्रह करती है, उसका भी पूरा अभाव था
क्या यह नियमों के अभाव के कारण था? नहीं। नियम और विधियाँ सभी थीं। करसंग्रह, सैन्यप्रबन्ध, न्यायदान, दण्ड-पुरस्कार आदि सब विषयों के लिए सैकड़ों नियम थे, पर सब की जड़ में वही ऋषिवाक्य, दैवशक्ति अथवा ईश्वर की प्रेरणा थी। न उन नियमों में जरा भी हेरफेर हो सकता था, और न प्रजा के लिए यह सम्भव था कि वह ऐसी शिक्षा प्राप्त करती जिससे आपस में मिलकर लोकहित के काम कर सकती, अथवा राजकर के रूप में लिये हुए अपने धन पर अपना स्वत्व रखने की बुद्धि उसमें उत्पन्न होती, या यही कि उसके आय-व्यय के नियमन करने के अधिकार प्राप्त करने की इच्छा उसमें होती।
फिर ये सब नियम पुस्तकों में थे। और कोरी पुस्तकों के नियमों में तथा उनके कार्यरूप में परिणत होने में आकाश-पाताल का अन्तर होता है। सैकड़ों अग्निवर्णों6 के पश्चात् एक रामचन्द्र का जन्म होता है। जन्म से चण्डाशोकत्व दिखलानेवाले राजा अनेक होते हैं, पर धर्माशोकत्व7 दिखानेवाले कम होते हैं। औरंगजेब जैसे प्रजाभक्षकों की अपेक्षा अकबर जैसे प्रजारक्षकों की संख्या बहुत कम होती है।
रामचन्द्र, युधिष्ठिर, धर्माशोक अथवा अकबर जैसे राजा हों भी तो क्या? किसी मनुष्य के मुँह में यदि सदा कोई दूसरा ही अन्न डाला करता हो, तो उस मनुष्य की स्वयं हाथ उठाकर खाने की शक्ति क्रमशः लुप्त हो जाती है। सभी विषयों में जिसकी रक्षा दूसरों द्वारा होती है, उसकी आत्मरक्षा की शक्ति कभी स्फुरित नहीं होती। सदा बच्चों की भाँति पलने से बड़े बलवान युवक भी लम्बे कदवाले बच्चे ही बने रहते हैं। देवतुल्य राजा की बड़े यत्न से पाली हुई प्रजा भी कभी स्वायत्त-शासन (Self-Government) नहीं सीखती। सदा राजा का मुँह ताकने के कारण वह धीरे धीरे कमजोर और निकम्मी हो जाती है। यह पालन और रक्षण ही बहुत दिनों तक रहने से सत्यानाश का कारण होता है।
जो समाज महापुरुषों के अलौकिक, अतीन्द्रिय ज्ञान से उत्पन्न शास्त्रों के अनुसार चलता है, उसका शासन राजा-प्रजा, धनी-निर्धन, पण्डित-मूर्ख, सब पर कायम रहना विचार से तो सिद्ध होता है, पर यह कार्यरूप में कहाँ तक परिणत हो सका है, या होता है, यह ऊपर ही बताया जा चुका है। राजकार्य में प्रजा की अनुमति लेने की पद्धति – जो आजकल के पाश्चात्य जगत् का मूलमन्त्र है और जिसकी अन्तिम वाणी अमेरिका के घोषणापत्र में डंके की चोट पर इन शब्दों में सुनायी गयी थी कि “इस देश में प्रजा का शासन प्रजा द्वारा और प्रजा के हित के लिए होगा” – भारत में नहीं थी, यह बात भी नहीं है। यवन परिव्राजकों ने बहुत छोटे छोटे गणतन्त्र राज्य इस देश में देखे थे। बौद्ध ग्रन्थों में भी इस बात का उल्लेख कहीं कहीं पाया जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि ग्राम पंचायत में गणतान्त्रिक शासनपद्धति का बीज अवश्य था और अब भी अनेक स्थानों में है। पर वह बीज जहाँ बोया गया वहाँ अंकुरित नहीं हुआ। यह भाव गाँव की पंचायत को छोड़कर समाज तक बढ़ ही नहीं सका।
धर्म समाज के संन्यासियों में और बौद्ध भिक्षुओं के मठों में इस स्वायत्त शासनपद्धति का विशेष रूप से विकास हुआ था। इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। नागा संन्यासियों में प्रत्येक मनुष्य के साम्प्रदायिक अधिकार को, पंचों की प्रभुता और प्रतिष्ठा को और उस सम्प्रदाय में सहयोग-शक्ति के कामों को देखकर आज भी चकित होना पड़ता है।
बौद्ध युग में पुरोहित-शक्ति का ह्रास तथा राजशक्ति का विकास
बौद्ध विप्लव के साथ साथ पुरोहित-शक्ति का ह्रास और राजशक्ति का विकास हुआ।
बौद्ध काल के पुरोहित संसारत्यागी होते थे, मठों में वास करते थे तथा प्रपंच और झगड़ों से दूर रहा करते थे। राजाओं को शाप या बाहुबल से अपने वश में रखने का उत्साह या इच्छा इन पुरोहितों की नहीं थी। यदि थी भी तो वह पूरी नहीं हो सकती थी, क्योंकि आहुतिभोजी देवताओं की अवनति के साथ साथ उनकी प्रतिष्ठा घट रही थी। सैकड़ों ब्रह्मा और इन्द्र बुद्धत्व पाये हुए नरदेव के चरणों पर लोटते थे और इस बुद्धत्व में मनुष्य मात्र का ही अधिकार था।
इसलिए राज्यप्रभुत्वरूपी बलवान यज्ञाश्व की बाग अब पुरोहितों की सख्त मुट्ठी में नहीं रही, अब वह अश्व अपने बल से स्वच्छन्द विचरण करने लगा। इस युग में शक्ति का केन्द्र सामगान और यज्ञ करनेवाले पुरोहितों में नहीं रहा, और न राजशक्ति छोटी छोटी रियासतों पर राज्य करनेवाले भारत के बिखरे हुए क्षत्रिय राजाओं में ही रही। वे चक्रवर्ती सम्राट, जिनका राज्य देश के एक छोर से दूसरे छोर तक विस्तृत था और जिनकी आज्ञा का विरोध करनेवाला कोई नहीं था, वे ही अब मानवशक्ति के केन्द्र बने। इस समय समाज के नेता वशिष्ठ, विश्वामित्र आदि नहीं रहे, वरन् चन्द्रगुप्त, अशोक आदि हुए। बौद्ध काल के सार्वभौम राजाओं की तरह भारत का गौरव बढ़ानेवाले दूसरे कोई राजा भारत के सिंहासन पर नहीं बैठे। इस युग के अन्त में आधुनिक हिन्दू धर्म का और राजपूत आदि जातियों का अभ्युत्थान हुआ। इन लोगों के हाथ में भारत का राजदण्ड अपनी अखण्ड प्रतिष्ठा से गिरकर फिर टुकड़े टुकड़े हो गया। इस समय राजशक्ति के सहायक रूप में पुरोहित-शक्ति का फिर से अभ्युत्थान हुआ।
इस विप्लव के समय पुरोहित-शक्ति और राजशक्ति का वैदिक काल से चला आया और जैन-बौद्धों के विप्लव में बहुत बढ़े-चढ़े आकार में प्रकट हुआ वह पुराना वैर मिट गया। अब ये दोनों प्रबल शक्तियाँ एक दूसरे की सहायक हो गयी। परन्तु अब न ब्राह्मणों में वह तेज ही रहा और न क्षत्रियों में वह प्रचण्ड बल ही। एक दूसरे की स्वार्थसिद्धि में सहायता देने, विपक्षियों का सर्वनाश करने तथा बौद्धों का नाम तक मिटाने में ही ये दो सम्मिलित शक्तियाँ अपने बल को गँवाती रही और तरह तरह से बँटकर प्रायः नष्ट सी हो गयीं। दूसरों का रक्त चूसना, धन हरण करना, वैर चुकाना आदि इन लोगों का नित्य का काम था। ये प्राचीन राजाओं के राजसूय आदि यज्ञों की थोथी नकल किया करते, भाटों और चारणों आदि खुशामदियों के दल से घिरे रहते, और मन्त्र-तन्त्र के घोर शब्दजाल में फँसे थे। इसका फल यह हुआ कि ये लोग पश्चिम से आये हुए मुसलमान व्याधों के सहज शिकार बन गये।
मुसलमान राज्य में पहले से ही दुर्बल पुरोहित-शक्ति का सम्पूर्ण नाश
जिस पुरोहित-शक्ति की लड़ाई राजशक्ति के साथ वैदिक काल से ही चली आ रही थी, जिस शक्ति की प्रतिस्पर्धा को भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी अमानव प्रतिभा से अपने समय में प्रायः मिटा ही दिया था, जो पुरोहित-शक्ति जैन और बौद्ध विप्लव के समय भारत के कर्मक्षेत्र से प्रायः लुप्त सी हो गयी थी, अथवा जिसने उन प्रबल प्रतिस्पर्धी धर्मों की दासता स्वीकार कर किसी तरह अपने दिन काटे थे, जिस पुरोहित-शक्ति ने मिहिरकुल8आदि के भारतविजय करने पर कुछ दिन तक अपना पहला अधिकार फिर प्राप्त करने के लिए पूरा प्रयत्न किया था और इसके लिए मध्य एशिया से आयी हुई निष्ठुर बर्बर सेनाओं के अधीन होकर उनकी घृणित रीतिनीतियों को अपने देश में प्रचलित किया था, तथा साथ ही साथ जिस पुरोहित शक्ति ने उन निरक्षर बर्बरों को प्रसन्न रखने के लिए ठगने के सरल उपाय मन्त्र-तन्त्रादिक की शरण ली थी और इस कारण अपनी विद्या, बल और सदाचार को बिलकुल खोकर आर्यावर्त को कुत्सित, गन्दे बर्बराचार का एक बड़ा दलदल बनाया था एवं अन्धविश्वास और अनाचार के निश्चित फलस्वरूप जो निस्सार और अत्यन्त दुर्बल हो गयी थी, वही पुरोहित-शक्ति पश्चिम से आयी हुई मुसलमान आक्रमणरूपी आँधी के स्पर्शमात्र से चूर चूर होकर भूमि पर गिर गयी। अब फिर वह कभी उठेगी या नहीं, कौन जाने?
मुसलमानों के समय में इस शक्ति का फिर सिर उठाना असम्भव था। मुहम्मद साहब स्वयं इसके पूरे विरोधी थे। इसे समूल नष्ट करने के लिए वे नियम आदि भी बना गये हैं। मुसलमानों के राज्य में राजा स्वयं प्रधान पुरोहित रहा है। वही धर्मगुरु (खलीफा) रहा है और सम्राट् होने पर प्रायः सारे मुसलमान जगत् के नेता होने की आशा रखता है। मुसलमानों के लिए यहूदी या ईसाई अधिक घृणा के पात्र नहीं हैं, वे केवल अल्पविश्वासी ही हैं; पर हिन्दू लोग तो काफिर और मूर्तिपूजक होने से इस जीवन में बलिदान के, और मृत्यु के बाद अनन्त नरक के भागी समझे जाते हैं। इन्हीं काफिरों के धर्मगुरुओं अर्थात् पुरोहितों को किसी प्रकार जीवनधारण करने की आज्ञा मात्र मुसलमान राजा दया से दे सकते थे और वह भी कभी कभी; नहीं तो जहाँ राजा की धर्मप्रियता की मात्रा जरा भी बढ़ी कि काफिरों की हत्या रूपी महायज्ञ का आयोजन हो जाता था।
एक ओर राजशक्ति अब विधर्मी और भिन्न आचारवाले प्रबल राजाओं में आयी और दूसरी ओर पुरोहित-शक्ति अब समाज शासन के ऊँचे पद से एकदम गिर गयी। कुरान की दण्डनीति अब मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों के स्थान पर आ डटी! अरबी और फारसी भाषाओं ने संस्कृत की जगह ली। संस्कृत भाषा अब विजित और घृणित हिन्दुओं के धार्मिक कृत्यों के ही काम की रही और इसीलिए पुरोहितों के हाथ में किसी तरह जीवनयापन करने लगी। पुरोहित-शक्ति अब विवाह आदि संस्कार कराकर ही सन्तोष मानने लगी और वह भी मुसलमान राजाओं की कृपादृष्टि रहने तक ही!
पुरोहित-शक्ति तथा राजशक्ति के पारस्परिक संघर्ष का संक्षिप्त इतिहास
पुरोहित-शक्ति के दबाव के कारण राजशक्ति का विकास वैदिक काल में और उसके कुछ दिन बाद तक न हो सका था। हम लोग देख चुके हैं कि बौद्ध विप्लव के बाद किस प्रकार पुरोहित-शक्ति के विनाश के साथ ही भारत की राजशक्ति का पूर्ण विकास हुआ। बौद्ध साम्राज्य के पतन और मुसलमान साम्राज्य की स्थापना के बीच में राजपूतों ने राजशक्ति को पुनः स्थापित करने की जो चेष्टा की थी, वह इसलिए असफल हुई कि पुरोहित-शक्ति ने इस समय फिर नया जीवन पाने का प्रयत्न किया था।
मुसलमान राजा पुरोहित-शक्ति को दबाकर ही मौर्य, गुप्त, आन्ध्र, क्षत्रप9 आदि राजाओं की गौरवश्री की छटा फिर से दिखा सके थे।
इस प्रकार भारत की पुरोहित-शक्ति जिसका नियन्त्रण कुमारिल, शंकर, रामानुज आदि ने किया था, जिसकी रक्षा राजपूतों आदि के बाहुबल से हुई थी और जिसने बौद्धों और जैनों का संहार कर पुनर्जीवन प्राप्त करने की चेष्टा की थी, वही शक्ति मुसलमान काल में मानो सदा के लिए सो गयी। इस समय वैर-विरोध केवल राजा और राजा में ही रहा। इस काल के अन्त में जब हिन्दू शक्ति वीर मराठों या सिक्खों के हाथ आयी और ये हिन्दू धर्म को किसी अंश में पुनः स्थापित कर सके, तब भी पुरोहित-शक्ति का उससे विशेष सम्बन्ध ही था। सिक्ख लोग तो जब किसी ब्राह्मण को अपने सम्प्रदाय में लेते हैं, तब उससे स्पष्ट रूप से ब्राह्मणचिह्न का त्याग कराकर उसे अपने धर्मचिह्न से भूषित करते हैं।
इस प्रकार अनेक संघर्षों के बाद राजशक्ति की अन्तिम जयघोषणा विधर्मी राजाओं के नाम पर भारतगगन में कई शताब्दियों तक गूँजती रही, परन्तु इस युग के अन्त में एक नयी शक्ति धीरे धीरे इस देश में अपना प्रभाव फैलाने लगी।
भारत पर इंग्लैण्ड का अधिकार
यह शक्ति भारतवासियों के लिए ऐसी नयी है, और इसका जन्मकर्म इतना कम समझ में आता है तथा इसका प्रभाव इतना प्रबल है कि भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक इसके राज्य करते रहने पर भी थोड़े से ही भारतवासी समझते हैं कि यह शक्ति क्या है।
यह बात भारत पर इंग्लैण्ड के अधिकार की है। क्या इस देश का विशाल धन और हरी-भरी खेती विदेशियों के मन में बहुत पुराने समय से अधिकार की लालसा उत्पन्न करती आ रही है। भारतवासी विजातियों द्वारा बारम्बार पददलित हुए हैं। तो फिर हम लोग भारत पर इंग्लैण्ड के अधिकार को एक अपूर्व घटना क्यों मानते हैं?
वैश्यशक्ति का उदय
धर्म, मन्त्र और शास्त्र के बल से बलवान, शापरूपी अस्त्र से सज्जित तथा सांसारिक स्पृहाशून्य तपस्वियों के भ्रूभंग के सामने प्रतापी राजाओं का काँपना भारतवासी सनातन काल से देखते आये हैं। फिर सेना और शस्त्रों से सजे हुए वीर राजाओं के अकुण्ठित वीरत्व और एकाधिकार के सामने प्रजा का – सिंह के सामने बकरियों की भाँति – सिर झुकाए खड़ा रहना भी उन्होंने अवश्य देखा था। पर धनवान होकर भी जो वैश्य, राजाओ की कौन कहे, राजकुटुम्बियों तक के सामने सदा भयभीत हो हाथ जोड़े खड़े रहते थे, उन्हीं में से कुछ लोगों का साथ मिलकर व्यापार करने की इच्छा से नदियाँ और समुद्र पार कर यहाँ आना और अपनी बुद्धि और धनबल से धीरे धीरे चिरप्रतिष्ठित हिन्दू-मुसलमान राजाओं को अपने हाथ की कठपुतलियाँ बना लेना, यही नहीं, धन के बल से अपने देश के राजकुटुम्बियों तक से अपना दासत्व स्वीकार कराकर उनकी शूरता और विद्याबल को धन-उपार्जन करने का अपना साधन बना लेना, और जिस देश के महाकवि की दिव्य लेखनी द्वारा चित्रित गर्वित लॉर्ड एक साधारण व्यक्ति से कहता है कि “दूर हट नीच! तू एक सरदार के पवित्र शरीर को छूने का साहस करता है!” – उसी देश के उन्हीं प्रतापी सरदारों के वंशजों का थोड़े ही समय में ईस्ट इण्डिया कम्पनी नाम के वणिकदल के आज्ञाकारी दास बनकर भारत में आने को परम गौरव समझना भारतवासियों ने कभी नहीं देखा था!
ब्राह्मणादि चतुर्वणों द्वारा यथाक्रम पृथ्वी का भोग
सत्त्व, रज आदि तीन गुणों के तारतम्य से ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि चार वर्ण उत्पन्न होते हैं और ये चारों वर्ण अनादि काल से सभी सभ्य समाज में विद्यमान हैं। कालप्रभाव से और देशभेद से किसी वर्ण की शक्ति या संख्या दूसरों की अपेक्षा बढ़ या घट सकती है, परन्तु संसार के इतिहास का अनुशीलन करने से प्रतीत होता है कि प्राकृतिक नियमों के वश ब्राह्मण आदि चारों वर्ण क्रम से पृथ्वी का भोग करेंगे।
चीनी, सुमेरी, बेबिलोनी, मिस्र, कैल्डियानिवासी, आर्य, ईरानी, यहूदी और अरबी आदि जातियों में समाज की बागडोर प्रथम युग में ब्राह्मण या पुरोहित के हाथ में थी। दूसरे युग में क्षत्रियों अर्थात् राजकुल या एकाधिकारी राजाओं का अभ्युत्थान हुआ।
वैश्यों के या वाणिज्य से धनवान होनेवाले सम्प्रदाय के हाथों में समाज का शासनसूत्र पहले-पहल इंग्लैण्ड आदि पाश्चात्य देशों में आया है।
यद्यपि प्राचीन ट्रॉय और कारथेज और उनकी अपेक्षा अर्वाचीन वेनिस और अन्य छोटे छोटे व्यापार करने वाले देश बड़े ही प्रतापशाली हुए थे, तो भी वैश्यों का यथार्थ अभ्युत्थान इन देशों में नहीं हुआ था।
पुराने समय में राजघराने के लोग ही नौकरों और अन्य साधारण लोगों द्वारा व्यापार कराते थे और उसका लाभ स्वयं प्राप्त करते थे। इन इने-गिने मनुष्यों को छोड़कर दूसरे किसी को देशशासन आदि के कामों में मुँह खोलने का अधिकार नहीं था। मिस्र आदि प्राचीन देशों में ब्राह्मणशक्ति थोड़ी ही समय तक प्रधानशक्ति रही। उसके बाद वह राजशक्ति के अधीन और उसकी सहकारी बनकर रहने लगी। चीन में कन्फ्यूशियस10 की प्रतिभा द्वारा गठी हुई राजशक्ति ढाई हजार वर्षों से अधिक पुरोहित-शक्ति को अपनी इच्छानुसार चलाती आ रही है। गत दो सौ वर्षों से तिब्बत के सर्वग्रासी लामा लोग राजगुरु होकर भी सब प्रकार से चीनी सम्राट के अधीन होकर दिन काट रहे हैं।
भारत में राजशक्ति की जय और उन्नति दूसरे पुराने सभ्य देशों से बहुत दिनों बाद हुई। इसीलिए मिस्री, बेबिलोनी और चीनी साम्राज्यों के बहुत दिनों बाद भारत-साम्राज्य स्थापित हुआ। एक यहूदी जाति में राज शक्ति अनेक प्रयत्न करने पर भी पुरोहित-शक्ति पर अपना अधिकार बिलकुल न जमा सकी। वैश्यों ने भी उस देश में कभी प्राध्यान्य नहीं पाया। प्रजा ने पुरोहितों के बन्धनों से छूटने की चेष्टा की थी। परन्तु भीतर ईसाई आदि धर्मसम्प्रदायों के संघर्ष से और बाहर बलवान रोम-साम्राज्य के दबाव से वह मृतप्राय हो गयी।
वर्तमान युग में वैश्यशक्ति का प्राधान्य
जिस प्रकार पुराने युग में राजशक्ति के सामने ब्राह्मणशक्ति को बहुत प्रयत्न करने पर भी हार माननी पड़ी, उसी प्रकार वर्तमान युग में हुआ। इस नयी वैश्यशक्ति के प्रबल आघात से कितने ही राजमुकुट धूल में जा मिले और कितने ही राजदण्ड सदा के लिए टूट गये। जो कोई सिंहासन सभ्य देशों में किसी तरह बच गया, वह इसलिए कि इससे इन्ही नमक, तेल, चीनी या सुरा बेचनेवालों को अपने कमाये प्रचुर धन से अमीर और सरदार बनकर अपना गौरव दिखाने का मौका मिला
वह नयी महाशक्ति जिसका राजपथ पहाड़ों जैसी ऊँची तरंगों वाला समुद्र है, जिसके प्रभाव से बिजली बात की बात में एक मेरु से दूसरे मेरु तक खबर ले जाती है, जिसके प्रबन्ध से एक देश का माल दूसरे देश में अनायास पहुँच जाता है और जिसके आदेश से सम्राट तक थरथर काँपते हैं, संसारसमुद्र के उसी सर्वजयी वैश्यशक्ति के अभ्युत्थानरूपी महातरंग की चोटीवाले सफेद झागों में इंग्लैण्ड का सिंहासन विराजमान है।
भारत पर इंग्लैण्ड की विजय का यथार्थ स्वरूप
इसलिए भारत पर इंग्लैण्ड की विजय, जैसे हम लोग बचपन में सुना करते थे, ईसा मसीह या बाइबिल की विजय नहीं है, और न पठान-मुगल आदि बादशाहों की विजय की भाँति ही है। ईसा मसीह, बाइबिल, राजप्रासाद, अनेक प्रकार से सजी-सजायी बड़ी बड़ी सेनाओं का सगर्व कूच तथा सिंहासन का विशेष आडम्बर आदि – इन सब के पीछे असली इंग्लैण्ड विद्यमान है। उस इंग्लैण्ड की ध्वजाएँ पुतलीधरों की चिमनियाँ हैं, उसकी सेना व्यापारी जहाज हैं, उसका लड़ाई का मैदान संसार का बाजार है और उसकी रानी स्वयं स्वर्णांगी लक्ष्मी है।
इसलिए ऊपर कहा है कि भारत पर इंग्लैण्ड का अधिकार एक बड़ी ही अपूर्व घटना है। इस नयी महाशक्ति के संघर्ष से भारत में कौन कौन नये विप्लव और उसके फल स्वरूप क्या क्या नये परिवर्तन होंगे, इसका भारत के पूर्वकालिक इतिहास से अनुमान करना भी कठिन है।
यह पहले कहा जा चुका है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – ये चारों ही वर्ण यथाक्रम पृथ्वी का भोग करते हैं। प्रत्येक वर्ण के प्रभुत्वकाल में कुछ हितकर और कुछ अहितकर काम हो जाया करते हैं।
पुरोहित-शक्ति के गुण-दोष
पुरोहित-शक्ति बुद्धिबल पर ही खड़ी है, न कि बाहुबल पर। इसलिए पुरोहितों के प्राधान्य के साथ साथ विद्या का प्रचार होता है। इन्द्रियों की जहाँ गति नहीं, उस आध्यात्मिक जगत् की बात जानने और वहाँ की सहायता पाने के लिए मनुष्य सदा व्याकुल रहते हैं। साधारण लोगों का वहाँ प्रवेश नहीं। संयमी, इन्द्रियों के पार देखने वाले और सत्त्वगुणी पुरुष ही उस राज्य में जाते हैं, वहाँ का समाचार लाते हैं और दूसरों को मार्ग दिखाते हैं। ये ही लोग पुरोहित हैं और मनुष्य समाज के प्रथम गुरु, नेता और परिचालक हैं
देवज्ञ पुरोहित देवता के समान पूजे जाते हैं। एड़ी-चोटी का पसीना एक कर उन्हें जीविका नहीं प्राप्त करनी पड़ती। सब भोगों में अग्रभाग देवताओं को प्राप्य है, और देवताओं के मुख पुरोहित हैं। समाज उन्हें जाने-अनजाने प्रचुर अवकाश देता है, और इससे वे लोग चिन्तनशील हुआ करते हैं। इसी कारण पहले-पहल विद्या की उन्नति पुरोहितों के प्राधान्यकाल में होती है। राजारूपी दुर्धर्ष सिंह और प्रजारूपी भयकम्पित अजाओं के बीच में पुरोहित ही खड़े रहते हैं। सिंह की सब कुछ नाश करने की इच्छा पुरोहितों के हाथ के अध्यात्मबल-रूपी डण्डे से रोकी जाती है। धन-जन के मद से मत्त राजाओं की यथेच्छाचाररूपी आग की लपट सब किसी को जला सकती है, परन्तु धनजनविहीन, तपोबलमात्र का भरोसा रखनेवाले पुरोहितों के वचनरूपी पानी से वह आग बुझ जाती है। इनके प्रभुत्वकाल में सभ्यता का प्रथम आविर्भाव, पशुत्व के ऊपर देवत्व की प्रथम विजय, जड़ के ऊपर चैतन्य का प्रथम अधिकार और प्रकृति के खिलौने, मिट्टी के लोंदे जैसे मनुष्यशरीर में छिपे हुए ईश्वरत्व का प्रथम विकास होता है। जड़ और चैतन्य को सर्वप्रथम अलग करनेवाले, इहलोक और परलोक को मिलानेवाले, देव और मनुष्य के दूर, एवं राजा और प्रजा के बीच के पुल यही पुरोहित हैं। कितने ही कल्याणों के अंकुर इन्हीं के तपोबल, इन्हीं के विद्याप्रेम, इन्हीं के त्याग और इन्हीं के प्राणसिंचन से पनपते हैं। इसीलिए सब देशों में पहली पूजा इन्हीं ने पायी है और इसीलिए उनकी स्मृति भी हम लोगों के लिए पवित्र है।
पर साथ ही दोष भी हैं। प्राणस्फूर्ति के साथ ही साथ मृत्युबीज भी बोया जाता है। अन्धकार और प्रकाश साथ ही साथ चलते हैं। बहुत से ऐसे प्रबल दोष हैं, जो यदि उचित समय पर दूर न किये जाएँ तो समाज के विनाश के कारण हो जाते हैं। स्थूल पदार्थों द्वारा शक्ति का विकास सब कोई देखते हैं। अस्त्र-शस्त्र का छेदना, अग्नि आदि का जलाना या दूसरी क्रिया – ये सब बातें स्थूल प्रकृति के प्रबल संघर्ष में आकर सब कोई देखते और समझते हैं। इनमें किसी को सन्देह नहीं होता है, मन में दुविधा तक नहीं रहती है। परन्तु जहाँ शक्ति का आधार या विकासस्थान केवल मानसिक है, जहाँ बल किसी शब्द में या उसके विशेष उच्चारण या जप में है अथवा किसी दूसरे मानसिक प्रयोग में हैं, वहाँ प्रकाश अन्धकार के साथ मिला रहता है। वहाँ विश्वास का घटना और बढ़ना स्वाभाविक है। प्रत्यक्ष में भी कभी कभी वहाँ सन्देह हो जाता है। जहाँ रोग, शोक और भय को दूर करने या वैर साधने के लिए साधारण प्रत्यक्ष स्थूल उपायों को छोड़कर केवल स्तम्भन, उच्चाटन, वशीकरण या मारण11 आदि का आश्रय लिया जाता है, वहाँ स्थूल और सूक्ष्म के बीच के इस कुहरे से ढके रहस्यमय जगत् में वास करनेवालों के मन में भी मानो आप से आप ही धुँधलाई छा जाती है। ऐसे मन के सामने सरल रेखा प्रायः पड़ती ही नहीं। यदि पड़ती भी है तो मन उसे टेढ़ी कर लेता है। इसका फल यह होता है कि कपटता, हृदय की घोर संकीर्णता, अनुदारता और सब से अधिक हानिकारक प्रचण्ड ईर्ष्या से पैदा हुई असहिष्णुता उनमें आ जाती है। पुरोहित के मन में यह विचार स्वाभाविक उठता है कि जिस बल से देवता मेरे वश में हैं, रोग आदि के ऊपर मेरा अधिकार है, भूत-प्रेतादि के ऊपर मेरी विजय है, और जिसके बदले मुझे संसार की सुख-स्वच्छन्दता और ऐश्वर्य प्राप्त हैं, उसे मैं दूसरों को क्यों दूँ? फिर यह बल बिलकुल मानसिक है। इसे छिपाने में सुविधा कितनी है! इस घटनाचक्र में पड़कर मनुष्य का स्वभाव जैसा हो सकता है वैसा ही हो जाता है! सदा आत्मगोपन का अभ्यास करते करते स्वार्थ और कपट आ जाता है और फिर, उनके विषैले फल। कुछ समय बाद इस आत्मगोपन की प्रतिक्रिया भी उन पर आ पड़ती है। बिना अभ्यास और वितरण के प्रायः सभी विद्याएँ नष्ट हो जाती हैं और जो बच भी जाती हैं, वे अलौकिक दैवी उपाय से प्राप्त समझी जाने के कारण उनके सुधारने का प्रयत्न भी व्यर्थ समझा जाता है, नयी विद्या सीखना तो अलग रहा। उसके बाद वह विद्याहीन, पुरुषार्थहीन और अपने पूर्वजों का नाम मात्र रखने वाला पुरोहितकुल अपने पैतृक अधिकार, पैतृक सम्मान और पैतृक आधिपत्य को बनाए रखने के लिए जिस-तिस उपाय से प्रयत्न करता है। इसीलिए उसका अन्य जातियों के साथ बड़ा विरोध होता है।
प्राकृतिक नियमों के अनुसार, जराजीर्ण शक्ति की स्थान पूर्ति करने के लिए नवजागृत शक्ति की स्वाभाविक प्रचेष्टा होती है, जिसके फल स्वरूप यह संग्राम आ उपस्थित होता है। इस संग्राम का फल ऊपर बताया जा चुका है।
उन्नति के समय में पुरोहितों का जो संयम, तप और त्याग सत्य की खोज में पूरा पूरा लगा था, वही अवनति के पूर्वकाल में केवल भोग्य के संग्रह करने तथा अधिकार के फैलाने में व्यय होने लगा। जिस शक्ति का आधार होने के कारण उनकी पूजा होती थी, वही शक्ति अब स्वर्ग से नरक को जा गिरी। अपने उद्देश को भूलकर पुरोहित-शक्ति रेशम के कीड़ों की तरह अपने ही जाल में आप फँस गयी। जो बेड़ी दूसरों के पैरों के लिए अनेक पीढ़ियों से बड़े यत्न से गढ़ी जा रही थीं, वही अब उन पुरोहितों की ही गति को सैकड़ों फेरों से रोकने लगी। बाह्य शुद्धि के लिए छोटे छोटे आचारों का जो जाल समाज को बुरी तरह फँसा रखने के लिए चारों ओर फैलाया गया था, उसी की रस्सियों में सिर से पैर तक फँसकर पुरोहित-शक्ति हताश-सी हो गयी है। उससे निकलने का कोई उपाय भी नहीं दिखता है। इस जाल को काटने से पुरोहितों की पुरोहिताई बचती नहीं। जो पुरोहित इस कठोर बन्धन में अपनी स्वाभाविक उन्नति की इच्छा को बहुत दबी हुई देखते हैं और इसलिए इस जाल को काटकर अन्य जातियों की वृत्ति का अवलम्बन कर धन-उपार्जन करते हैं, उनकी पुरोहिताई के अधिकार को समाज तुरन्त छीन लेता है। आधी यूरोपीय पोशाक और रहन-सहन तथा सँवारे हुए बाल रखनेवाले ब्राह्मणों के ब्राह्मणत्व में समाज को विश्वास नहीं है। फिर भारत में यह नवागत पाश्चात्य राज्य जहाँ जहाँ शिक्षा और धनार्जन की विभिन्न प्रणालियाँ फैला रहा है, वहीं अपने वंशगत पुरोहित-व्यवसाय को छोड़कर हजारों ब्राह्मण युवक अन्य जातियों की वृत्ति का अवलम्बन कर धनवान हो रहे हैं; साथ ही उन पुरोहित पूर्वजों के आचार-व्यवहार एकदम रसातल को जा रहे हैं।
गुजरात में ब्राह्मणों के प्रत्येक अवान्तर सम्प्रदाय में दो भाग हैं। एक पुरोहित-व्यवसायीयों का और दूसरा अन्य वृत्तिवालों का। पुरोहित-व्यवसायी सम्प्रदाय ही उस प्रान्त में ब्राह्मण कहलाता है। दूसरा सम्प्रदाय यद्यपि एक ही ब्राह्मणकुल से उत्पन्न हुआ है तो भी पुरोहित ब्राह्मण उससे वैवाहिक सम्बन्ध नहीं रखते। जैसे ‘नागर ब्राह्मण’, कहने से वे ही ब्राह्मण समझे जाते हैं जो भिक्षावृत्तिवाले पुरोहित हैं, और केवल ‘नागर’ कहने से वे जो राजकर्मचारी या वैश्यवृत्तिवाले हैं। परन्तु अब यह दिखाई दे रहा है कि उस प्रान्त में भी यह भेद बहुत कुछ ढीला पड़ गया है। नागर ब्राह्मणों के लड़के भी अब अंग्रेजी पढ़-पढ़कर राजकर्मचारी हो रहे हैं, या व्यापार आदि कर रहे हैं। संस्कृत चतुष्पाठियों के अध्यापक भी सब कष्ट सहकर अपने लड़कों को विश्वविद्यालयों में भेज रहे हैं और उनसे कायस्थों और वैश्यों की वृत्ति का अवलम्बन करा रहे हैं। यदि स्रोत इसी प्रकार बहता रहा तो वर्तमान पुरोहितजाति कितने दिनों तक इस देश में और ठहर सकेगी, यह सोचने का विषय है। जो लोग किसी विशेष व्यक्ति या सम्प्रदाय पर ब्राह्मणजाति को अधिकारच्युत करने का दोष मढ़ते हैं उन्हें भी जानना चाहिए कि ब्राह्मणजाति अटल प्राकृतिक नियमों के अनुसार ही अपना समाधिमन्दिर आप ही बना रही है। यही कल्याणकर है, क्योंकि प्रत्येक ऊँची जाति का अपने ही हाथों से अपनी चिता बनाना प्रधान कर्तव्य है।
शक्ति के एकत्रीकरण होने के सदृश ही उसके विकिरण की भी अत्यावश्यकता
शक्तिसंचय जितना आवश्यक है, शक्तिप्रसार भी उतना ही या उससे भी अधिक आवश्यक है। हृत्पिण्ड में रक्त का एकत्र होना तो आवश्यक है ही, पर उसका यदि सारे शरीर में संचालन न हुआ तो मृत्यु निश्चित है। समाज के कल्याण के लिए कुल तथा जातिविशेष में विद्या और शक्ति का एकत्र होना कुछ समय के लिए परम आवश्यक है, परन्तु वह शक्ति सर्वत्र फैलने के लिए ही एकत्र हुई है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो समाजशरीर अवश्य तुरन्त ही नष्ट हो जाएगा।
राजशक्ति के गुण-दोष
दूसरी ओर, राजा में पशुराज के सब गुण-दोष विद्यमान हैं। क्षुधातृप्ति के लिए सिंह के विकराल नख आदि घासपात खानेवाले पशुओं के कलेजों को फाड़ने में तनिक भी देर नहीं करते; फिर कवि कहता है कि भूखा और बूढ़ा होने पर भी सिंह अपने चरणों पर गिरे हुए सियार को कभी नहीं खाता। राजा की भोगेच्छा में बाधा डालने से ही प्रजा का सत्यानाश होता है। यदि वह विनीत होकर राजा की आज्ञाएँ शिरोधार्य करे तो वह सुरक्षित है। केवल यही नहीं, समस्त समाज के एक ही अभिप्राय और प्रयत्न होने का अथवा सार्वजनिक अधिकारों की रक्षा के लिए व्यक्तिगत स्वार्थत्याग का भाव किसी देश में प्राचीन समय में तो क्या, आज भी पूरी तरह उपलब्ध नहीं हुआ है। इसीलिए समाज ने राजारूपी शक्तिकेन्द्र की सृष्टि की। समाज की शक्ति उसी केन्द्र में एकत्र होती और वहीं से चारों ओर सारे समाज में फैलती है। जिस प्रकार ब्राह्मणों के प्राधान्यकाल में ज्ञानेच्छा का पहला उन्मेष और बचपन में उसका यत्नपूर्वक पालन हुआ, उसी प्रकार क्षत्रियों के प्रभुत्वकाल में भोगेच्छा की पुष्टि और उसकी सहायता करने वाली शिल्प कलाओं की सृष्टि तथा उन्नति हुई
महिमान्वित राजा क्या पर्णकुटियों में अपना ऊँचा सिर छिपाए रख सकता है, अथवा साधारण लोगों को मिलनेवाले भोज्यादि से क्या उसकी तृप्ति हो सकती है?
नरलोक में जिसकी महिमा की तुलना नहीं है और जिसमें देवत्व भी आरोपित है, उसके भोग की वस्तुओं की ओर ताकना भी साधारण लोगों के लिए महापाप है, उनके पाने की इच्छा की तो बात ही क्या? राजशरीर साधारण शरीर जैसा नहीं है, उसे अशौच आदि दोष नहीं लगते। अनेक देशों में तो यह विश्वास है कि उस शरीर की मृत्यु भी नहीं होती। ‘असूर्यम्पश्यरूपा’ राजमहिलाएँ भी परदों में रहा करती हैं, जिससे जनसाधारण की आँखें उन पर न पड़े।
इसी कारण पर्णकुटियों के स्थान पर अट्टालिकाएँ बनी और गँवारू कोलाहल की जगह कला-कौशलवाले मधुर संगीत का पृथ्वी पर आगमन हुआ। सुहावनी वाटिकाएँ, चित्त हरने वाले चित्र, सुन्दर मूर्तियाँ, महीन रेशमी कपड़े, ये सब धीरे धीरे प्राकृतिक जंगलों का स्थान लेने लगे। लाखों बुद्धिजीवी मनुष्य खेती के कठिन कामों को छोड़कर थोड़े शारीरिक श्रम से बननेवाली और सूक्ष्मबुद्धि का चमत्कार दिखाने वाली सैकड़ों कलाओं की ओर झुके। ग्राम का गौरव जाता रहा। नगर का आविर्भाव हुआ।
फिर भारत में अनेक राजा विषयभोग से ऊबकर अन्त में अरण्य में चले जाया करते थे और वहाँ रहकर अध्यात्मविषय की गम्भीर आलोचना किया करते थे। इतने भोगों के बाद वैराग्य अवश्य आएगा। उस वैराग्य और गम्भीर दार्शनिक चिन्तन से अध्यात्मतत्त्व में एकान्त अनुराग और मन्त्रबहुल क्रियाकाण्ड से अत्यन्त घृणा उत्पन्न होती थी, जिसका परिचय उपनिषद्, गीता एवं जैन और बौद्ध धर्मग्रन्थ अच्छी तरह देते हैं। यहाँ पर भी पुरोहित-शक्ति और राजशक्ति में भारी कलह उपस्थित हुआ। कर्मकाण्ड के लोप होने से पुरोहितों का व्यवसाय बैठ जाता है, इसीलिए प्राचीन रीतिनीतियों की प्राणपण से रक्षा करना सब युगों और देशों के पुरोहितों के लिए स्वाभाविक है। पर जनक जैसे बाहुबल और आध्यात्मिक-बल-सम्पन्न राजा उसके विरोध के लिए खड़े थे। उस बड़े संघर्ष की बात पहले कही जा चुकी है।
सामाजिक संघर्ष का मूलकारण
जिस प्रकार पुरोहित लोग सारी विद्याओं को अपने में ही एकत्र करना चाहते हैं, उसी प्रकार राजा लोग भी समस्त पार्थिव शक्तियों को अपने में ही केन्द्रित करने का यत्न करते हैं। इन दोनों ही से लाभ है। दोनों यथासमय समाज के कल्याण के लिए आवश्यक हैं; पर वह केवल समाज के बचपन में। जवानी के शरीर में समाज को बलपूर्वक लड़कपन के कपड़े पहनाने से वह या तो अपने तेजबल से उसे फाड़कर आगे बढ़ता है, अथवा उसमें यदि असमर्थ हुआ तो, फिर धीरे धीरे असभ्य अवस्था को प्राप्त हो जाता है।
राजा अपनी प्रजा का माता-पिता है। प्रजा उसकी सन्तान है। प्रजा को पूरी तरह राजाश्रित रहना चाहिए और राजा को भी पक्षातीत भाव से प्रजा का अपनी सन्तान की तरह पालन करना चाहिए। परन्तु जो नीति घर-घर के लिए उपयुक्त है, वही सारे समाज पर भी लागू है। समाज घरों की समष्टि मात्र है। जब पुत्र सोलह वर्ष का हो जाए तब यदि पिता को उसके साथ मित्र की भाँति बर्ताव करना चाहिए, तो फिर समाजरूपी बच्चा क्या सोलह वर्ष की अवस्था कभी प्राप्त ही नहीं करता?12 इतिहास इस बात का साक्षी है कि प्रत्येक समाज किसी समय उसकी जवानी को अवश्य पहुँचता है, और सभी समाजों में शक्तिमान शासकों और जनता में कलह उपस्थित होता है। इसी युद्ध के परिणाम पर समाज का जीवन, उसका विकास और उसकी सभ्यता निर्भर है।
भारत में सामाजिक संघर्ष
यह विप्लव भारतवर्ष में भी बार बार हुआ करता है पर धर्म के नाम से, क्योंकि यह देश धर्मप्राण है; धर्म ही इसकी भाषा और सब उद्योगों का चिह्न है। चार्वाक, जैन और बौद्ध, शंकर, रामानुज और चैतन्य के पन्थ, तथा कबीर, नानक, ब्राह्मसमाज, आर्यसमाज आदि सभी सम्प्रदायों में धर्म की फेनमय, वज्र की भाँति गरजनेवाली तरंगे सामने हैं और सामाजिक अभावों की पूर्ति उनके पीछे है। यदि कुछ अर्थहीन शब्दों के उच्चारण से ही सारी कामनाएँ सिद्ध होती हैं, तो फिर अपनी इष्टसिद्धि के लिए कौन कष्टसाध्य पुरुषकार का सहारा लेगा? और यदि यह रोग सारे समाज शरीर में प्रवेश कर जाए तो समाज बिलकुल उद्यमहीन होकर विनष्ट हो जाएगा। इसीलिए प्रत्यक्षवादी चार्वाकों की चुभनेवाली चुटकियाँ शुरू हुई। पशुमेध, नरमेध, अश्वमेध आदि विस्तृत कर्म काण्ड के दम घोंटनेवाले भार से समाज का उद्धार सदाचारी और ज्ञानाश्रयी जैनों के अतिरिक्त और कौन कर सकता था? उसी तरह बलवान अधिकारी जातियों के दारुण अत्याचार से निम्नश्रेणियों के मनुष्यों को बौद्ध विप्लव के अतिरिक्त और कौन बचा सकता था? कुछ समय के बाद जब बौद्ध धर्म का महान् सदाचार घोर अनाचार में परिणत हुआ और साम्यवाद की अधिकता से उस सम्प्रदाय में आयी हुई विविध बर्बर जातियों के पैशाचिक नाच से समाज काँपने लगा, तब पूर्वभाव को यथासम्भव पुनः स्थापित करने के लिए शंकर और रामानुज ने प्रयत्न किया। फिर कबीर, नानक, चैतन्य, ब्राह्मसमाज और आर्यसमाज का यदि जन्म न होता, तो आज भारत में हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमान और ईसाइयों की संख्या निःसन्देह बहुत अधिक होती।
अनेक धातुओं द्वारा बने हुए इस शरीर तथा अनन्त भावतरंगवाले मन को बलिष्ठ बनाने के लिए पौष्टिक खाद्यपदार्थ के समान और दूसरी अच्छी चीज कौनसी है? पर जो खाद्य शरीररक्षा और मन की बलवृद्धि के लिए इतना आवश्यक है उसका शेषांश यदि उचित समय पर शरीर से बाहर न निकाल दिया जाए, तो वही सब अनर्थों का कारण हो जाता है।
व्यक्ति तथा समाज
समष्टि (समाज) के जीवन में व्यष्टि (व्यक्ति) का जीवन है; समष्टि के सुख में व्यष्टि का सुख है; समष्टि के बिना व्यष्टि का अस्तित्व ही असम्भव है, यही अनन्त सत्य जगत् का मूल आधार है। अनन्त समष्टि के साथ सहानुभूति रखते हुए उसके सुख में सुख और उसके दुःख में दुःख मानकर धीरे धीरे आगे बढ़ना ही व्यष्टि का एकमात्र कर्तव्य है। और कर्तव्य ही क्यों? इस नियम का उल्लंघन करने से उसकी मृत्यु होती है और उसका पालन करने से वह अमर होता है। प्रकृति की आँखों में धूल डालने का सामर्थ्य किसमें है? समाज की आँखों पर बहुत दिनों तक पट्टी नहीं बाँधी जा सकती। समाज के ऊपरी हिस्से में कितना ही कूड़ा-करकट क्यों न इकट्ठा हो गया हो, परन्तु उस ढेर के नीचे प्रेमरूप निःस्वार्थ सामाजिक जीवन का प्राणस्पन्दन होता ही रहता है। सब कुछ सहनेवाली पृथ्वी की भाँति समाज भी बहुत सहता है। परन्तु एक न एक दिन वह जागता ही है, और तब उस जागृति के वेग से युगों की एकत्र मलिनता तथा स्वार्थपरता दूर जा गिरती है।
अज्ञानी, पाशविक प्रकृति के हम मनुष्य हजारों बार ठगे जाकर भी इस महान सत्य में विश्वास नहीं रखते। हजारों बार ठगे जाकर भी हम लोग फिर ठगने की चेष्टा करते हैं। पागलों की तरह हम लोग सोचते हैं कि प्रकृति को हम धोखा दे सकते हैं। हम लोग अत्यन्त अल्पदर्शी हैं – समझते हैं कि स्वार्थ साधना ही जीवन का चरम उद्देश्य है।
विद्या, बुद्धि, धन, जन, बल, वीर्य जो कुछ प्रकृति हम लोगों के पास एकत्र करती है, वह फिर बाँटने के लिए है; हमें यह बात याद नहीं रहती; सौंपे हुए धन में आत्मबुद्धि हो जाती है, बस इसी प्रकार विनाश का सूत्रपात होता है।
राजशक्ति का मृत्युबीज कहाँ है
राजा जो प्रजासमष्टि का शक्तिकेन्द्र है, वह बहुत जल्दी भूल जाता है कि शक्ति उसमें इसलिए संचित हुई है कि वह फिर लोगों में हजार गुनी बँट जाए। राजा वेण13 की तरह वह सब देवत्व अपने में ही आरोपित कर दूसरों को हीन मनुष्य समझने लगता है। उसकी इच्छा का, चाहे वह भली हो या बुरी, विरोध करना ही महापाप है। इसलिए पालन की जगह पीड़न और रक्षण की जगह भक्षण आप ही आ जाता है। यदि समाज बलहीन रहा तो वह सब कुछ चुपचाप सह लेता है, और राजा-प्रजा दोनों ही हीन से हीनतर अवस्था को प्राप्त होकर शीघ्र ही किसी दूसरी बलवान जाति के शिकार बन जाते हैं। पर यदि समाजशरीर बलवान रहा, तो शीघ्र ही अत्यन्त प्रबल प्रतिक्रिया उपस्थित होती है – जिसकी चोट से छत्र, दण्ड, चँवर आदि बड़ी दूर जा गिरते हैं, और सिंहासन अजायबघर में रखी हुई पुरानी अनूठी वस्तुओं के सदृश हो जाता है
वैश्यशक्ति की विशेषताएँ
जिस शक्ति की भौंहे टेढ़ी होने पर महाराजा भी थरथर काँपते हैं, जिसके हाथ के सोने की थैली की आशा से राजा से रंक तक बगुलों की तरह पाँति बाँधे सिर झुकाए पीछे पीछे चलते हैं, उसी वैश्यशक्ति का विकास उपरोक्त प्रतिक्रिया का फल है।
ब्राह्मण ने कहा, “सब बलों का बल विद्या है, और वह विद्या मेरे अधीन है, इसलिए समाज मेरे शासन में रहेगा।” कुछ दिन ऐसा ही रहा। फिर क्षत्रिय ने कहा, “यदि मेरा अस्त्रबल न रहे तो तुम अपने विद्याबलसहित न जाने कहाँ चले जाओगे! मैं ही श्रेष्ठ हूँ।” म्यान में तलवार झनझना उठी, और समाज ने उसके सामने सिर झुका दिया। विद्योपासक ब्राह्मण सब से पहले राजोपासक बने। वैश्य कहता है, “पागल, जिसको तुम ‘अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्’ कहते हो, वही सर्वशक्तिमान मुद्रा है, और वह मेरे ही हाथों में हैं। देखो इसकी बदौलत मैं भी सर्वशक्तिमान हूँ। ब्राह्मण! तुम्हारा तप, जप, विद्या, बुद्धि मैं इसके प्रभाव से अभी मोल ले लेता हूँ। और महाराज, तुम्हारा अस्त्र, शस्त्र, तेज, वीर्य इसकी कृपा से मेरी कामनासिद्धि के लिए बरता जाएगा। ये जो बड़े बड़े पुतलीधर और कारखाने तुम देखते हो, वे मेरे मधु के छत्ते हैं। वह देखो, असंख्य शूद्ररूपी मक्खियाँ उसमें रातदिन मधु एकत्र करती हैं। परन्तु वह मधु कौन पियेगा? – मैं! ठीक समय पर उसकी एक एक बूँद मैं निचोड़ लूँगा।”
वैश्याधिकार के गुण-दोष
जिस प्रकार ब्राह्मणों और क्षत्रियों के उदयकाल में विद्या और सभ्यता का संचय हुआ था, उसी प्रकार वैश्यों के प्रभुत्वकाल में धन का संचय हुआ। जिस रुपये की झनक चारों वर्णों का मन हरण कर सकती है, वही रुपया वैश्यों का बल है। वैश्य को सदा इस बात का डर लगा रहता है कि कहीं उस धन को ब्राह्मण ठग न ले और क्षत्रिय जबरदस्ती छीन न ले। इसी कारण अपनी रक्षा के लिए वैश्य लोग सदा एकमत रहते हैं। सूदरूपी कोड़ा हाथ में लिये वैश्य सब के हृदय में धड़कन उत्पन्न करता है। अपने रुपये के बल से राजशक्ति को दबाए रखने के लिए वह सदा व्यस्त है। वह इस बात से सदा सचेत रहता है कि राजशक्ति उसे धन-धान्य संचय करने में बाधा न डाले। परन्तु उसकी यह इच्छा बिलकुल नहीं होती कि यह राजशक्ति क्षत्रियकुल से शूद्रकुल में चली जाए।
वणिक् किस देश में नहीं जाता? स्वयं अज्ञ होकर भी वह व्यापार के अनुरोध से एक देश की विद्या, बुद्धि और कलाकौशल दूसरे देश में ले जाता है। जो विद्या, सभ्यता और कलाकौशलरूपी रक्त ब्राह्मणों और क्षत्रियों के अधिकार में समाज के हृत्पिण्ड में जमा हुआ था, वही अब वैश्यों के बाजारों की ओर जानेवाले राजपथरूपी नसों द्वारा सर्वत्र फैल रहा है। वैश्यों का यह उत्थान यदि न होता, तो आज एक देश का भोज्यपदार्थ, सभ्यता, विलास और विद्या दूसरे देशों में कौन ले जाता?
श्रमजीवी शूद्रजाति
फिर जिनके शारीरिक परिश्रम पर ही ब्राह्मणों का आधिपत्य, क्षत्रियों का ऐश्वर्य और वैश्यों का धन-धान्य निर्भर हैं, वे कहाँ हैं? समाज का मुख्य अंग होकर भी जो लोग सदा सब देशों में ‘जघन्यप्रभवो हि सः’ कहकर पुकारे जाते हैं, उनका क्या हाल है? जिनके विद्यालाभ जैसे महान् अपराध के लिए भारत में ‘जिह्वाच्छेद, शरीरभेद’ आदि अनेक दण्ड प्रचलित थे, वे ही भारत के ‘चलमान श्मशान’ (चलते-फिरते मुरदे) और दूसरे देशों के ‘भारवाही पशु’ शूद्र किस दशा में हैं?
भारत की वर्तमान दुरवस्था
इस देश का हाल क्या कहा जाए? शूद्रों की बात तो अलग रही, भारत का ब्राह्मणत्व अभी गोरे अध्यापकों में है, और उसका क्षत्रियत्व चक्रवर्ती अँग्रेजों में। उसका वैश्यत्व भी अंग्रेजों की नस-नस में है। भारतवासियों के लिए तो केवल भारवाही पशुत्व अर्थात् शुद्रत्व ही रह गया है। घोर अन्धकार ने अब सब को समान भाव से ढँक लिया है। अब चेष्टा में दृढ़ता नहीं है, उद्योग में साहस नहीं है, मन में बल नहीं है, अपमान से घृणा नहीं है, दासत्व से अरुचि नहीं है, हृदय में प्रीति नहीं है और प्राण में आशा नहीं है। और है क्या – केवल प्रबल ईर्ष्या, स्वजातिद्वेष, दुर्बलों का जैसेतैसे करके नाश करने और कुत्तों की तरह बलवानों के चरण चाटने की विशेष इच्छा। इस समय तृप्ति, धन और ऐश्वर्य दिखाने में है, भक्ति स्वार्थ साधने में है, ज्ञान अनित्य वस्तुओं के संग्रह में है, योग पैशाचिक आचार में है, कर्म दूसरों के दासत्व में है, सभ्यता विदेशियों की नकल करने में, है, वक्तृत्व कटुभाषण में है और भाषा की उन्नति धनिकों की बेढंगी खुशामद में या जघन्य अश्लीलता के प्रचार में है। जब सारे देश में शूद्रत्व भरा हुआ है तो शूद्रों के विषय में अलग क्या कहा जाए! अन्य देशों के शूद्रकुल की नींद कुछ टूटी-सी है, पर उनमें विद्या नहीं है। उसके बदले है उनका साधारण जातिगुण – स्वजातिद्वेष। उनकी संख्या यदि अधिक ही है तो क्या? जिस एकता के बल से दस मनुष्य लाख मनुष्यों की शक्ति संग्रह करते हैं, वह एकता अभी शूद्रों से कोसों दूर है। इसलिए सारी शूद्रजाति प्राकृतिक नियमों के अनुसार पराधीन है।
शूद्रशक्ति का उदय
परन्तु फिर भी आशा है। काल के प्रभाव से ब्राह्मण आदि वर्ण भी शूद्रों का नीच स्थान प्राप्त कर रहे हैं, और शूद्रजाति ऊँचा स्थान पा रही है। शूद्रों से भरे, रोम के दास यूरोप ने क्षत्रियों का बल प्राप्त किया है। महाबलवान चीन हम लोगों के सामने ही बड़ी शीघ्रता से शूद्रत्व प्राप्त कर रहा है, और नगण्य जापान हवा की तरह शूद्रत्व को झाड़ता हुआ ऊँची जातियों का अधिकार ले रहा है। यहाँ पर आजकल के यूनान और इटली के क्षत्रियपद पर उत्थान का और तुर्क, स्पेन आदि के पतन का कारण भी सोचने का विषय है।
तो भी एक ऐसा समय आएगा जब शूद्रत्वसहित शूद्रों का प्राधान्य होगा, अर्थात् आजकल जिस प्रकार शूद्रजाति वैश्यत्व अथवा क्षत्रियत्व प्राप्त कर अपना बल दिखा रही है उस प्रकार नहीं, वरन् अपने शूद्रोचित धर्मकर्मसहित वह समाज में आधिपत्य प्राप्त करेगी। पाश्चात्य जगत् में इसकी लालिमा भी आकाश में दीखने लगी है, और इसके फलाफल का विचार कर सब लोग घबराये हुए हैं। सोशालिजम्14 अनार्किजम्15, नाइइलिजम्16 आदि सम्प्रदाय इस विप्लव की आगे चलनेवाली ध्वजाएँ हैं। युगों से पिसकर शूद्रमात्र या तो कुत्तों की तरह बड़ों के चरण चाटनेवाले या हिंस्र पशुओं की तरह निर्दय हो गये हैं। फिर सदा से उनकी अभिलाषाएँ निष्फल होती आ रही हैं। इसलिए दृढ़ता और अध्यवसाय उनमें बिलकुल नहीं है।
शूद्रजाति की उन्नति में घोर विघ्न
पाश्चात्य जगत् में विद्या का प्रचार होने पर भी वहाँ शूद्रों के उत्थान में एक बड़ी अड़चन रह गयी है। इसका कारण यह है कि वहाँ लोग गुणगत जाति मानते हैं। ऐसी ही गुणानुसार वर्णव्यवस्था इस देश में भी प्राचीनकाल में प्रचलित थी, जिसके कारण शूद्रजाति की उन्नति कभी हो ही नहीं सकती थी। एक तो शूद्रों को विद्या प्राप्त करने तथा धनसंग्रह करने का सुभीता बहुत कम था। दूसरे, यदि एक-दो असाधारण मनुष्य शूद्रकुल में कभी उत्पन्न भी होते, तो उच्चवर्ण तुरन्त उन्हें उपाधियाँ देकर अपनी मण्डली में खींच लेता था। उनकी विद्या का प्रभाव और धन का हिस्सा दूसरी जातियों के काम आता था। उनके सजातीय उनकी विद्या, बुद्धि और धन से कुछ भी लाभ नहीं उठा सकते थे। इतना ही नहीं, वरन् कुलीनों के निकम्मे मनुष्य कूड़ेकर्कट की तरह निकालकर शूद्रकुल में मिला दिये जाते थे।
वेश्यापुत्र वशिष्ठ17 और नारद18, दासीपुत्र सत्यकाम जाबाल19, धीवर व्यास20, अज्ञातपिता कृप21, द्रोण22 और कर्ण23 आदि सब ने अपनी विद्या या वीरता के प्रभाव से ब्राह्मणत्व या क्षत्रियत्व पाया था। परन्तु इससे वेश्या, दासी, धीवर या सारथि-कुल का क्या लाभ हुआ, यह सोचने का विषय है। फिर ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य-कुल से निकाले हुए मनुष्य सदा शूद्रकुल में जा मिलते थे।
आजकल के भारत में शूद्रकुल में उत्पन्न बड़े से बड़े या करोड़पति को भी अपना समाज छोड़ने का अधिकार नहीं है। इसका फल यह होता है कि उसकी विद्या-बुद्धि और धन का प्रभाव उसी जाति में रह जाता है तथा उसी समाज का कल्याण करने में प्रयुक्त होता है। इस प्रकार इस जन्मगत जाति की व्यवस्था से प्रत्येक जाति अपनी सीमा के बाहर जाने में असमर्थ होकर अपनी ही मण्डली के लोगों की धीरे धीरे उन्नति कर रही है। जब तक भारत में बिना जाति की परवाह किये दण्ड-पुरस्कार देनेवाला राजशासन रहेगा तब तक निम्न जातियों की इसी प्रकार उन्नति होती रहेगी।
प्रजाशक्ति का महत्त्व
समाज का नेतृत्व चाहे विद्याबल से प्राप्त हुआ हो, चाहे बाहुबल से अथवा धनबल से, पर उस शक्ति का आधार प्रजा ही है। शासकसमाज जितना ही इस शक्ति के आधार से अलग रहेगा, उतना ही वह दुर्बल होगा। परन्तु माया की ऐसी विचित्र लीला है कि जिनसे परोक्ष या प्रत्यक्ष रीति से, छल-बल-कौशल के प्रयोग से अथवा प्रतिग्रह द्वारा शक्ति प्राप्त की जाती है उनकी ही गणना शासकों के निकट शीघ्र समाप्त हो जाती है। जब पुरोहित-शक्ति ने अपनी शक्ति के आधार प्रजावर्ग से अपने को सम्पूर्ण अलग किया, तब प्रजा की सहायता पानेवाली उस समय की राजशक्ति ने उसे पराजित किया। फिर जब राजशक्ति ने अपने को सम्पूर्ण स्वाधीन समझकर अपने और अपनी प्रजा के बीच में एक गहरी खाई खोद डाली तब साधारण प्रजा की कुछ अधिक सहायता पानेवाले वैश्यकुल ने राजाओं को या तो नष्ट कर डाला, या अपने हाथ की कठपुतलियाँ बनाया। इस समय वैश्यकुल अपनी स्वार्थसिद्धि कर चुका है, इसीलिए प्रजा की सहायता को अनावश्यक समझकर वह अपने को प्रजावर्ग से अलग करना चाहता है। यहाँ इस शक्ति की भी मृत्यु का बीज बोया जा रहा है।
राष्ट्रभावना का मूल
साधारण प्रजा सारी शक्ति का आधार होने पर भी उसने आपस में इतना भेद कर रखा है कि वह अपने सब अधिकारों से वंचित है, और जब तक ऐसा भाव रहेगा तब तक उसकी यही दशा रहेगी।
समान कष्ट, घृणा या प्रीति आपस में सहानुभूति का कारण होती है। जिस नियम से हिंस्र पशु दलबद्ध हो शिकार करते फिरते हैं, उसी नियम से मनुष्य भी मिलकर रहते तथा जाति या राष्ट्र का संगठन करते हैं।
आत्यन्तिक स्वजातिप्रेम और परजातिविद्वेष राष्ट्र की उन्नति का एक प्रधान कारण है। इसी स्वजातिप्रेम और परजातिविद्वेष ने प्रतिद्वन्द्विता की सृष्टि करते हुए ईरानद्वेषी यूनान को, कारथेजद्वेषी रोम को, काफिरद्वेषी अरबजाति को, मूरद्वेषी स्पेन को, स्पेनद्वेषी फ्रांस को, फ्रांसद्वेषी इंग्लैण्ड और जर्मनी को तथा इंग्लैण्डद्वेषी अमेरिका को उन्नति के शिखर पर चढ़ाया है।
स्वार्थ ही स्वार्थत्याग का पहला शिक्षक है। व्यष्टि के स्वार्थों की रक्षा के लिए ही समष्टि के कल्याण की ओर लोगों का ध्यान जाता है। स्वजाति के स्वार्थ में अपना स्वार्थ है, और स्वजाति के हित में अपना हित। बहुत से काम कुछ लोगों की सहायता बिना किसी प्रकार नहीं चल सकते; आत्मरक्षा तक नहीं हो सकती। स्वार्थरक्षा के लिए यह सहकारिता सब देशों और जातियों में पायी जाती है। पर इस स्वार्थ की सीमा में हेर-फेर है। सन्तान उत्पन्न करने और किसी प्रकार पेट भरने का अवसर पाने से ही भारतवासियों की पूरी स्वार्थसिद्धि हो जाती है। हाँ, उच्च वर्णों के लिए इतना और है कि उनके धर्माचरण में कोई बाधा न पड़े। वर्तमान भारत में इससे बड़ी और महत्त्वाकांक्षा नहीं है। यही भारतजीवन का सर्वोच्च सोपान है।
भारत की शासनप्रणाली के गुण-दोष
भारत की वर्तमान शासनप्रणाली में कई दोष हैं, पर साथ ही कई बड़े गुण भी हैं। सब से बड़ा गुण तो यह है कि सारे भारत पर एक ऐसे शासनयन्त्र का प्रभाव है, जैसा इस देश में पाटलिपुत्र साम्राज्य के पतन के बाद कभी नहीं हुआ। वैश्याधिकार की जिस चेष्टा से एक देश का माल दूसरे देश में लाया जाता है, उसी चेष्टा के फलस्वरूप विदेशी भाव भी भारत की अस्थि-मज्जा में बलपूर्वक प्रवेश पा रहे हैं। इन भावों में कुछ तो बहुत ही लाभदायक हैं, कुछ हानिकारक हैं, और कुछ इस बात के परिचायक हैं कि विदेशी लोग इस देश का यथार्थ कल्याण करने में अज्ञ हैं।
जागृति के लक्षण
परन्तु इन गुण-दोषों के भीतर से भविष्य के अशेष मंगल का यह चिह्न भी दीखता है कि इस विजातीय और प्राचीन स्वजातीय भाव के संघर्ष से बहुत दिनों की सोयी हुई जाति धीरे धीरे जग रही है। उससे भूलें हों, तो भी कोई हानि नहीं। सभी कामों में भूल-भ्रम-प्रमाद ही हमारा उत्तम शिक्षक है। सत्य का पथ उसी को मिलता है जिससे भूलें होती हैं। वृक्ष से भूल नहीं होती, पत्थर को भ्रम नहीं होता, पशुओं में भी नियमविरुद्ध आचरण कम ही देखने में आते हैं, परन्तु यथार्थ ब्राह्मणों की उत्पत्ति भ्रम-प्रमाद से भरे मनुष्यकुल में ही होती है। हम लोगों के लिए यदि दूसरे लोग ही बचपन से मृत्यु तक के सब कर्म और उठने के समय से सोने तक की सारी चिन्ताएँ निश्चित कर दें और राजशक्ति का दबाव डालकर उन नियमों के कठोर बन्धन से हमें जकड़ दे, तो हम लोगों के लिए चिन्ता न करने का और विषय रहा ही क्या? मननशील होने के कारण ही तो हम लोग मनुष्य हैं, मनीषि हैं और मुनि हैं। चिन्तनशीलता का लोप होते ही तमोगुण का प्रादुर्भाव होता है और जड़त्व आ जाता है। इस समय भी प्रत्येक धर्मनेता और समाजनेता समाज के लिए नियम बनाने में ही व्यस्त है! देश में क्या नियमों की कमी है? नियमों से पिसकर, समाज जो अधोगति प्राप्त कर रहा है उसे कौन समझता है?
अनियमित राजशक्ति तथा प्रजानियमित राजशक्त्ति की शासनप्रणालियों की तुलना
सम्पूर्ण स्वाधीन स्वेच्छाचारी राजा के अधीन विजित जाति विशेष घृणा का पात्र नहीं होती है। शक्तिशाली सम्राट की सब प्रजाएँ समान अधिकार रखती हैं – अर्थात् किसी भी प्रजा को राजशक्ति के नियमन करने का अधिकार तनिक भी नहीं है। ऐसी दशा में ऊँची जातियों को विशेष अधिकार कम ही रहते हैं। परन्तु जहाँ प्रजानियमित राजा या प्रजातन्त्र विजित जाति पर राज्य करता है, वहाँ विजयी और विजितों के बीच बड़ा अन्तर हो जाता है, और जो शक्ति विजितों के हितसाधन में पूरी तरह लगायी जाने पर थोड़े ही समय में उनका परम कल्याण कर सकती है, उसी शक्ति का बहुतसा हिस्सा विजित जाति को वश में रखने की चेष्टा में व्यय किया जाता है और इस प्रकार वह व्यर्थ नष्ट हो जाता है। इसी कारण रोम के प्रजातन्त्र-शासन की अपेक्षा सम्राटों के शासनकाल में विजातीय प्रजा को अधिक सुख था। इसी कारण ईसाई धर्मप्रचारक सेन्ट पॉल ने विजित यहूदी वंश में जन्म लेकर भी रोम के सम्राट सीजर के पास अपने पर लगाये गये आरोपों की जाँच कराने की आज्ञा पायी थी।
यदि कोई अंग्रेज हम लोगों को ‘काला आदमी’ या ‘नेटिव’ अर्थात् असभ्य कहकर घृणा करे, तो इससे क्या? हम लोगों में तो उससे कहीं अधिक जातिगत घृणाबुद्धि है। यदि ब्राह्मणों को किसी मूर्ख क्षत्रिय राजा की सहायता मिल जाए, तो यह कौन कह सकता है कि फिर वे शूद्रों का ‘जिह्वाच्छेद, शरीरभेद’ आदि करने की चेष्टा न करेंगे। पूर्वीय आर्यावर्त में सब जातियाँ जो सामाजिक उन्नति के लिए आपस में कुछ सद्भाव रखती दीख पड़ती हैं और महाराष्ट्र देश में ब्राह्मण जो ‘मराठा’ जाति की स्तुति करने लगे हैं, उसे छोटी जातियों के लोग अभी तक निःस्वार्थ भाव का फल नहीं समझते हैं।
अंग्रेजों की भारत पर अधिकार जमाए रखने की व्यर्थ चेष्टा
परन्तु अंग्रेजों के मन में यह धारणा होने लगी है कि भारतसाम्राज्य यदि उनके हाथों से निकल जाए तो अंग्रेजजाति का विनाश हो जाएगा। इसलिए भारत में इंग्लैण्ड का अधिकार किसी न किसी प्रकार जमाए रखना ही होगा। और इसका प्रधान उपाय अँग्रेजजाति का ‘गौरव’ भारतवासियों के हृदय में सदा जागृत रखना समझा गया है। इस बुद्धि की प्रबलता और उसके अनुसार चेष्टा की अधिकाधिक वृद्धि देखकर हर्ष और खेद दोनों होते हैं। भारत में रहनेवाले अंग्रेज शायद यह भूलते हैं कि जिस वीरता, अध्यवसाय और आत्यन्तिक स्वजातिप्रेम के बल से उन्होंने इस राज्य को लिया है, और सदा सचेत तथा विज्ञान का सहारा पानेवाली जिस वाणिज्यबुद्धि से उन्होंने भारत जैसे सब प्रकार के धन उत्पन्न करनेवाले देश को भी अंग्रेजी माल का बाजार बना रखा है, उन सब गुणों का जब तक उनके जातीय जीवन से लोप न होगा, तब तक उनका सिंहासन अचल रहेगा। जब तक ऐसे गुण अँग्रेजों में विद्यमान रहेंगे तब तक भारत जैसे सैकड़ों राज्य चले भी जाएँ तो क्या, फिर सैकड़ों राज्य प्राप्त हो जाएँगे। परन्तु इन गुणों के प्रवाह का वेग यदि घट जाए, तो व्यर्थ ‘गौरव’ की चिल्लाहट से क्या साम्राज्य पर शासन हो सकेगा? इसलिए इन गुणों की प्रबलता रहने पर भी अर्थहीन ‘गौरवरक्षा’ के लिए इतनी शक्ति नष्ट करना व्यर्थ है। वह शक्ति यदि प्रजा के हित के कामों में लगा दी जाए, तो वह राजा और प्रजा दोनों का ही कल्याण करेगी।
प्राच्य और पाश्चात्य
ऊपर कहा जा चुका है कि परदेशियों के संघर्ष से भारत धीरे धीरे जग रहा है। इस थोड़ीसी जागृति के फलस्वरूप स्वतन्त्र विचार का थोड़ाबहुत उदय भी होने लगा है। एक ओर आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान है जिसका शक्तिसंग्रह सब की आखों के सामने उसे प्रमाणित कर रहा है, और जिसकी चमक सैकड़ों सूर्यों की ज्योति की तरह आंखों से चकाचौंध पैदा कर देती है। दूसरी ओर हमारे पूर्वजों की अपूर्व वीरता, अमानवी प्रतिभा और देवदुर्लभ अध्यात्मज्ञान की वे परम्पराएँ हैं, जिन्हें अनेक स्वदेशी और विदेशी विद्वानों ने प्रकट किया है, जो युगयुगान्तर की सहानुभूति के कारण समस्त शरीर में, जल्दी दौड़ जाती हैं और बल तथा आशा प्रदान करती हैं। एक ओर जड़विज्ञान, प्रचुर धन-सम्पत्ति, प्रभूत बलसंचय और उत्कट इन्द्रियसुख विदेशी साहित्य में कोलाहल मचा रहे हैं, दूसरी ओर इस कोलाहल को फोड़ता हुआ, क्षीण परन्तु मर्मभेदी स्वर से युक्त पूर्वीय देवताओं का आर्तनाद सुनाई पड़ता है। एक समय हमारे सामने ये दृश्य आते हैं – सुन्दर, बढ़िया तथा ठीक ढंग से सजाया हुआ भोजन, उमदा पेय, बहुमूल्य पोशाक, ऊँचे-ऊँचे बड़े-बड़े महल तथा नये-नये ढंग की गाड़ियाँ-सवारियाँ आदि, नयेनये अदब-कायदे तथा नये-नये फैशन जिनके अनुसार सज-धजकर हमारे सामने आजकल की विदुषी नारी काफी निर्लज्जतापूर्ण स्वतन्त्रता से घूमती फिरती है। ये सब सामग्रियाँ न जाने कितनी नयी-नयी इच्छाएँ तथा वासनाएँ उत्पन्न करती हैं। परन्तु फिर यह दृश्य बदलकर इसके स्थान में एक दूसरा गम्भीर दृश्य आ जाता है और वह है सीता, सावित्री, व्रत-उपवास, तपोवन, जटाजूट, वल्कल तथा गैरिक वस्त्र, कौपीन, समाधि एवं आत्मोपलब्धि की सतत चेष्टा। एक ओर पाश्चात्य समाज की स्वार्थकेन्द्रित स्वाधीनता है, और दूसरी ओर आर्यों का कठोर आत्मबलिदान। इस विषम संघर्ष से समाज जो डगमगा उठेगा, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? पाश्चात्य जगत् का उद्देश्य व्यक्तिगत स्वाधीनता है, भाषा अर्थकारी विद्या है और उपाय राजनीति है। भारत का उद्देश्य मुक्ति है, भाषा वेद है और उपाय त्याग है। वर्तमान भारत मानो एक बार सोचता है कि भविष्य के सन्दिग्ध पारमार्थिक हित के मोह में पड़कर मैं इस लोक का व्यर्थ नाश कर रहा हूँ; फिर मन्त्रमुग्ध की तरह सुनता है – “इति संसारे स्फुटतरदोषः। कथमिह मानव तव सन्तोषः॥” – “संसार में ये सब दोष भरे पड़े हैं। ऐ मनुष्यों, यहाँ तुम्हें सन्तोष कैसे हो सकता है?”
एक ओर नया भारत कहता है कि हमको पति-पत्नी चुनने में पूरी स्वतन्त्रता चाहिए, क्योंकि जिस विवाह पर हमारे भविष्य जीवन का सारा सुख-दुःख निर्भर है, उसका हम अपनी इच्छा से चुनाव करेंगे। दूसरी ओर प्राचीन भारत की आज्ञा होती है कि विवाह इन्द्रियसुख के लिए नहीं, वरन् सन्तानोत्पत्ति के लिए है। इस देश की यही धारणा है। सन्तान उत्पन्न करके समाज के भावी हानि-लाभ के तुम कारण हो, इसलिए जिस प्रणाली से विवाह करने में समाज का सब से अधिक कल्याण होना सम्भव है, वही प्रणाली समाज में प्रचलित है। तुम समाज के सुख के लिए अपने सुखभोग की इच्छा त्यागो।
एक ओर नया भारत कहता है कि पाश्चात्य भाव, भाषा, खान-पान और वेश-भूषा का अवलम्बन करने से ही हम लोग पाश्चात्य जातियाँ की भाँति शक्तिमान हो सकेंगे। दूसरी ओर प्राचीन भारत कहता है कि मूर्ख! नकल करने से भी कहीं दूसरों का भाव अपना हुआ है? बिना उपार्जन किये कोई वस्तु अपनी नहीं होती। क्या सिंह की खाल पहनकर गधा कहीं सिंह हुआ है?
एक ओर नवीन भारत कहता है कि पाश्चात्य जातियाँ जो कुछ कर रही हैं, वही अच्छा नहीं है तो वे ऐसे बलवान कैसे हुए? दूसरी ओर प्राचीन भारत कहता है कि बिजली की चमक तो खूब होती है, पर क्षणिक होती है। बालक! तुम्हारी आँखें चौंधिया रही है, सावधान!
हम पाश्चात्य जगत् से सीखें
तो क्या हमे पाश्चात्य जगत् से कुछ भी सीखने को नहीं हैं? क्या हमें चेष्टा या प्रयत्न करने की जरूरत ही नहीं है? क्या हम सब प्रकार पूरे हैं? क्या हमारा समाज पूर्णतया निश्छिद्र है? नहीं, सीखने को बहुत कुछ है। प्रयत्न तो हमें जीवन भर करना चाहिए। प्रयत्न ही मनुष्यजीवन का उद्देश्य है। श्रीरामकृष्णदेव कहा करते थे, “जब तक जीऊँ, तब तक सीखूँ।” जिस व्यक्ति या समाज को कुछ सीखना नहीं है, वह मृत्यु के मुँह में जा चुका। सीखने को तो है, परन्तु भय भी है।
परन्तु पाश्चात्य का अन्धानुकरण न करें
एक कम बुद्धिवाला लड़का श्रीरामकृष्णदेव के सामने सदा शास्त्रों की निन्दा किया करता था। उसने एक बार गीता की बड़ी प्रशंसा की। इस पर श्रीरामकृष्णदेव ने कहा, “किसी अंग्रेज विद्वान् ने गीता की प्रशंसा की होगी, इसीलिए यह भी उसकी प्रशंसा कर रहा है!”
ऐ भारत! यही विकट भय का कारण है। हम लोगों में पाश्चात्य जातियों की नकल करने की इच्छा ऐसी प्रबल होती जाती है कि भले-बुरे का निश्चय अब विचारबुद्धि, शास्त्र या हिताहित ज्ञान से नहीं किया जाता। गोरे लोग जिस भाव और आचार की प्रशंसा करें, वही अच्छा है और वे जिसकी निन्दा करें, वही बुरा! अफसोस! इससे बढ़कर मूर्खता का परिचय और क्या होगा?
पाश्चात्य स्त्रियाँ स्वाधीन भाव से घूमती हैं, इसलिए वही चाल अच्छी है; वे अपने लिए वर आप चुन लेती हैं, इसलिए वही उन्नति का सर्वोच्च सोपान है; पाश्चात्य पुरुष हम लोगों की वेश-भूषा, खान-पान को घृणा की दृष्टि से देखते हैं, इसलिए हमारी ये चीजे बहुत बुरी हैं; पाश्चात्य लोग मूर्तिपूजा को खराब कहते हैं; तो वह भी बड़ी खराब होगी, क्यों न हो?
पाश्चात्य लोग एक ही देवता की पूजा को कल्याणप्रद बताते हैं, इसलिए अपने देव-देवियों को गंगा में फेंक दो। पाश्चात्य लोग जातिभेद को घृणित समझते हैं, इसलिए सब वर्णों को मिलाकर एक कर दो। पाश्चात्य लोग बाल्यविवाह को सब अनर्थों का कारण कहते हैं, इसलिए वह भी अवश्य ही बड़ा खराब होगा।
यहाँ पर हम इस बात का विचार नहीं करते कि ये प्रथाएँ चलनी चाहिए अथवा रुकनी चाहिए। परन्तु यदि पाश्चात्य लोगों की घृणादृष्टि के कारण ही हमारे रीति-रिवाज बुरे साबित होते हो, तो उसका प्रतिवाद अवश्य होना चाहिए।
वर्तमान लेखक को पाश्चात्य समाज का कुछ प्रत्यक्ष ज्ञान है। इसी से उसका विश्वास है कि पाश्चात्य समाज और भारतसमाज की मूल गति और उद्देश्य में इतना अन्तर है कि पाश्यात्यों के अनुकरण पर गठित समाज इस देश में किसी काम का नहीं होगा। जो लोग पाश्चात्य समाज में नहीं रहे हैं, और वहाँ की स्त्रियों की पवित्रता की रक्षा के लिए स्त्रियों और पुरुषों के आपस में मिलने के जो नियम और बाधाएँ प्रचलित हैं, उन्हें बिना जाने जो अपनी स्त्रियों को पुरुषों से बिना रोक-टोक के मिलने देते हैं, उन लोगों से हमारी रत्तीभर भी सहानुभूति नहीं है।
पाश्चात्य देशों में भी मैंने देखा है कि दुर्बल जातियों की सन्तान जब इंग्लैण्ड में जन्म लेती है तो अपने को वह स्पेनिश, पोर्तुगीज, यूनानी आदि – जो वह हो – न बताकर अंग्रेज ही बताती है। बलवान की ओर सब कोई दौड़ता है। दुर्बलमात्र की यह इच्छा रहती है कि बड़े लोगों के गौरव की छटा उसके शरीर में कुछ लग जाए। भारतवासियों को जब मैं अंग्रेजी वेश-भूषा में देखता हूँ, तब समझता हूँ कि ये लोग शायद पददलित, विद्याहीन, दरिद्र भारतवासियों के साथ अपनी सजातीयता स्वीकार करने में लज्जित होते हैं। चौदह सौ वर्ष तक हिन्दुओं के रक्त से पलकर भी पारसी लोग अब ‘नेटिव’ नहीं हैं! जातिहीन और अपने को ब्राह्मण बतानेवाली जातियों के जात्यभिमान के निकट बड़े बड़े कुलीन ब्राह्मणों तक का जात्यभिमान कपूर की तरह उड़कर लुप्त हो जाता है। फिर पाश्चात्यों ने अब हमें यह भी सिखलाया है कि यह जो केवल कमर में ही कपड़ा लपेटनेवाली मूर्ख नीच जाति है वह अनार्य है! इसलिए वे लोग हम लोगों के बन्धु नहीं हैं!!
भारत को आह्वान
ऐ भारत! क्या दूसरों की ही हाँ में हाँ मिलाकर, दूसरों की ही नकल कर, दूसरों का ही मुँह ताककर इस दासों की-सी दुर्बलता, इस घृणित, जघन्य निष्ठुरता से ही तुम बड़े बड़े अधिकार प्राप्त करोगे? क्या इसी लज्जास्पद कापुरुषता से तुम वीरभोग्य स्वाधीनता प्राप्त करोगे? ऐ भारत! तुम मत भूलना कि तुम्हारी स्त्रियों का आदर्श सीता, सावित्री, दमयन्ती हैं; मत भूलना कि तुम्हारे उपास्य सर्वत्यागी उमानाथ शंकर हैं; मत भूलना कि तुम्हारा विवाह, धन और तुम्हारा जीवन इन्द्रियसुख के लिए – अपने व्यक्तिगत सुख के लिए – नहीं है; मत भूलना कि तुम जन्म से ही ‘माता’ के लिए बलिस्वरूप रखे गये हो; मत भूलना कि तुम्हारा समाज उस विराट् महामाया की छाया मात्र है; तुम मत भूलना कि नीच, अज्ञानी, दरिद्र, चमार और मेहतर तुम्हारा रक्त और तुम्हारे भाई हैं। ऐ वीर! साहस का आश्रय लो। गर्व से बोलो कि मैं भारतवासी हूँ और प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है; बोलो की अज्ञानी भारतवासी, दरिद्र भारतवासी, ब्राह्मण भारतवासी, चाण्डाल भारतवासी, सब मेरे भाई हैं; तुम भी केवल कमर में ही कपड़ा लपेट गर्व से पुकारकर कहो कि भारतवासी मेरा भाई है, भारतवासी मेरे प्राण हैं, भारत की देवदेवियाँ मेरे ईश्वर हैं, भारत का समाज मेरी शिशुसज्जा, मेरे यौवन का उपवन और मेरे वार्धक्य की वाराणसी है। भाई, बोलो कि भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है, भारत के कल्याण में मेरा कल्याण है; और रातदिन कहते रहो कि – “हे गौरीनाथ! हे जगदम्बे! मुझे मनुष्यत्व दो। माँ, मेरी दुर्बलता और कापुरुषता दूर कर दो, माँ मुझे मनुष्य बना दो।”
- यज्ञ करते समय देवताओं के आह्वान के लिए पुरोहित वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करता था।
- यज्ञ करनेवाला पुरोहित यजमान कहलाता है।
- सोमलता का वेदों में आया हुआ नाम। पुरोहित यज्ञ के समय देवताओं को सोम की आहुति देते थे।
- बौद्ध धर्म ग्रहण करने पर अशोक का दूसरा नाम।
- महाभारत में उल्लिखित सर्पयज्ञ जनमेजय ने ही सम्पादित किया था।
- अग्निवर्ण एक सूर्यवंशी राजा था। यह अपनी प्रजा से मिलता नहीं था। रातदिन अन्तःपुर में ही रहा करता था। अत्यधिक इन्द्रियपरायणता के कारण उसे यक्ष्मारोग हो गया और उसी से उसकी मृत्यु हुई।
- भारत का एकच्छत्र सम्राट् अशोक। इसने ईसा से करीब तीन सौ वर्ष पहले राज्य किया था। भ्रातृहत्या इत्यादि नृशंस कार्यों के द्वारा राजसिंहासन प्राप्त करने के कारण यह पहले चण्डाशोक के नाम से प्रसिद्ध था। कहा जाता है कि सिंहासनप्राप्ति के करीब नौ वर्ष बाद बौद्ध धर्म ग्रहण करने पर इसके स्वभाव में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ। भारत तथा अन्यान्य देशों में बौद्ध धर्म का बहुल प्रचार इसी के द्वारा सम्पन्न हुआ। भारत, काबुल, ईरान तथा पैलेस्टाइन आदि देशों में अब तक जो स्तूप, स्तम्भ एवं पर्वतों पर अंकित आदेश आदि आविष्कृत हुए हैं, उनसे इस बात का प्रचुर प्रमाण मिलता है। इस धर्मानुराग और प्रजावात्सल्य के कारण ही यह बाद में ‘देवानां पियो पियदशी’ (देवताओं का प्रिय प्रियदर्शन) धर्माशोक के नाम से विख्यात हुआ।
- हूनजातीय राजा।
- आर्यावर्त और गुजरात के फारस से आये हुए सम्राट्।
- चीन देश के एक प्राचीन धर्म और नीति-संस्कारक।
- इन तान्त्रिक प्रयोगों से किसी व्यक्ति की शक्तियों को विजड़ित किया जाता था, उसके मन को किसी वस्तु या व्यक्ति से हटा दिया जाता था, उसको अपने वश में किया जाता था अथवा उसकी मृत्यु को ही बुलाया जाता था।
- चाणक्य के राजनीतिसम्बन्धी ग्रन्थ में कहा गया है – “बच्चे का, पाँच वर्ष की अवस्था तक लालन और फिर दस वर्ष तक ताड़न किया जाना चाहिए, और जब लड़का सोलह वर्ष का हो, तो उससे मित्र के समान व्यवहार किया जाना चाहिए।”
- राजा वेण की कथा भागवत में आयी है। यह अपने को ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवताओं से भी श्रेष्ठ बतलाता था। उसने यह आज्ञा दे रखी थी कि पूजा मेरी ही हो। एक समय ऋषि लोग इसे कुछ सदुपदेश देने आये, जिससे उसका अहंकार दूर हो; पर इस मदान्ध राजा ने उनका तिरस्कार किया और उन्हें भी अपनी पूजा करने की आज्ञा दी। इस पर उन ऋषियों को बड़ा क्रोध आया और उसी क्रोधानल में पड़कर राजा पंचत्व को प्राप्त हुआ। महाराज पृथु, जो भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं, इसी वेण राजा के बाहुमन्थन से उत्पन्न हुए थे।
- सोशालिजम् (Socialism) – इसकी उत्पत्ति १८३५ ई. में यूरोप में हुई थी। इसका प्रचार अब यहाँ के सब देशों में हो रहा हैं। अर्थशास्त्र के ऊपर ही इस मत की प्रधान भित्ति स्थापित है। इस मत के कई भेद हैं। इसके माननेवालों का मुख्य उद्देश्य यह है कि देश के मूलधन और भूमि का स्वामी समाज ही, न कि व्यक्तिविशेष। श्रमजीवी भले ही पूँजीपति न बनें, किन्तु उनका वेतन बढ़े और उनके जीवनस्तर का मान उन्नत हो – यह सोशालिजम् का एक प्रधान उद्देश्य है।
- अनार्किजम् (Anarchism) – इस सम्प्रदाय के प्रथम प्रवर्तक बकुनिन कहे जा सकते हैं, जिनका जन्म १८१४ ई. में हुआ था। बाह्य कर्तृत्व या शासन के विरुद्ध आचरण करना इस मत का निचोड़ है। इस मत के माननेवाले कहते हैं कि यदि मनुष्य अपनी प्रकृति के नियमों के अनुसार चले तो राजशासन या कानून की आवश्यकता नहीं है। इस मत के अनुसार गणतान्त्रिक समूहों का ऐच्छिक सम्मिलन ही समाज का आदर्श है और तत्काल इस अवस्था के सर्जन के लिए यथाशक्ति चेष्टा करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है।
- नाइइलिजम् (Nihilism) – यह मत अनार्किजम् के ही समान है। कुछ साधारण अन्तर दोनों में है। इसका जन्म रूस देश में १८६२ ई. में हुआ था। वहीं इसका अधिक प्रचार है। इस मत के अनुसार तीन चीजें मिथ्या हैं – ईश्वर, शासन और विवाह।
- वशिष्ठ के पिता ब्रह्मा और माता अज्ञात थीं। – महाभारत, आदिपर्व, अध्याय १७४ एवं ऋग्वेद ॥७।३३।११-१३॥
- नारद की माता एक दासी और पिता अज्ञात थे। – श्रीमद्भागवत॥१।६॥
- सत्यकाम जाबाल की माता एक दासी और पिता अज्ञात थे। – छान्दोग्योपनिषद्॥४।४॥
- व्यास के पिता ब्रह्मर्षि पराशर और माता एक धीवर की कन्या थीं। – महाभारत, आदिपर्व, अध्याय १०५॥
- २२. २३. महाभारत, आदिपर्व, अध्याय १०५, १३०॥
- २२. २३. महाभारत, आदिपर्व, अध्याय १०५, १३०॥
- २२. २३. महाभारत, आदिपर्व, अध्याय १०५, १३०॥