धर्मस्वामी विवेकानंद

वेदान्त – स्वामी विवेकानंद का लाहौर में दिया भाषण

(१२ नवम्बर १८९७ को लाहौर में दिया गया व्याख्यान)

जगत् दो हैं जिनमें हम बसते हैं – एक बहिर्जगत् और दूसरा अन्तर्जगत्। अति प्राचीन काल से ही मनुष्य इन दोनों भूमियों में समानान्तर रेखाओं की तरह बराबर उन्नति करते आये हैं। खोज पहले बहिर्जगत् में ही शुरू हुई। मनुष्य ने पहले-पहल दुरूह समस्याओं के उत्तर बाह्य प्रकृति से पाने की चेष्टा की। प्रथमतः मनुष्यों ने अपने चारों ओर की वस्तुओं से सुन्दर और उदात्त की तृष्णा निवृत्त करनी चाही।

वे अपने को और अपने सभी भीतरी भावों को स्थूल भाषा में प्रकाशित करने के लिए प्रवृत्त हुए तथा उन्हें जो उत्तर मिले, ईश्वर-तत्त्व और उपासना-तत्व के जो अति अद्भुत सिद्धान्त उन्हें प्राप्त हुए, और उस शिव-सुन्दर का उन्होंने जो उच्छ्वासमय वर्णन किया, वे सभी वास्तव में अति अपूर्व हैं। बहिर्जगत से निस्सन्देह महान् भावों का आविर्भाव हुआ। परन्तु बाद में मनुष्यजाति के लिए जो अन्य जगत् उन्मुक्त्त हुआ, वह और भी महान्, और भी सुन्दर तथा अनन्त गुना विस्तृत था। वेदों के कर्मकाण्ड-भाग में हम धर्म के बड़े ही आश्चर्यमय तत्त्वों का वर्णन पाते हैं। वहाँ हम संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय करनेवाले विधाता के सम्बन्ध में अत्यन्त अद्भुत तत्त्वों को देखते हैं, ये सब हमारे सामने मर्मस्पर्शी भाषा में रखे गये हैं। तुममें से अनेकों को ऋग्वेदसंहिता का वह श्लोक, जो प्रलय के वर्णन में आया है, याद होगा। भावों को उद्दीप्त करनेवाला ऐसा उदात्त वर्णन शायद कभी किसी ने नहीं किया। इन सब के होते हुए भी हम देखते हैं कि इनमें केवल बहिर्जगत् की ही महत्ता का चित्रण किया गया है; यह वर्णन स्थूल का है, इसमें कुछ जड़त्व भी लगा हुआ है। तथापि हम देखते हैं, जड़ और ससीम भाषा में यह असीम का ही वर्णन है। यह जड़ शरीर के अनन्त विस्तार का वर्णन है, किन्तु मन का नहीं; यह देश के अनन्तत्व का वर्णन है, किन्तु विचार का नहीं। इसलिए वेदों के दूसरे भाग में, अर्थात् ज्ञानकाण्ड में, हम देखते हैं, एक बिल्कुल ही भिन्न प्रणाली का अनुसरण किया गया है। पहली प्रणाली थी बाह्य प्रकृति में विश्वब्रह्माण्ड के प्रकृत सत्य का अनुसन्धान; यह जड़ संसार से जीवन की सभी गम्भीर समस्याओं की मीमांसा करने की चेष्टा थी। ‘यस्यैते हिमवन्तो महित्वा’ – ‘यह हिमालय पर्वत जिनकी महत्ता बतला रहा है।’ यह बड़ा ऊँचा विचार है अवश्य, किन्तु फिर भी भारत के लिए यह पर्याप्त नहीं था। भारतीय मन को इस पथ का परित्याग करना पड़ा। भारतीय गवेषणा पूर्णतया बहिर्जगत् को छोड़कर दूसरी ओर मुड़ी – खोज अन्तर्जगत् में शुरू हुई। क्रमशः वे जड़ से चेतन में आये। चारों ओर से यह प्रश्न उठने लगा, ‘मृत्यु के पश्चात् मनुष्य का क्या हाल होता है?’ ‘अस्तीत्यैके नायमस्तीति चैके’1 – ‘किसी किसी का कथन है, कि मनुष्य की मृत्यु के बाद भी आत्मा का अस्तित्व रहता है, और कोई कोई कहते हैं कि नहीं रहता; हे यमराज, इनमें कौनसा सत्य है?’ यहाँ हम देखते हैं, एक दूसरी ही प्रणाली का अनुसरण किया गया है। भारतीय मन को बहिर्जगत् से जो कुछ मिलना था, मिल चुका था, परन्तु उससे इसे तृप्ति नहीं हुई। अनुसन्धान के लिए वह और आगे बढ़ा। समस्या के समाधान के लिए उसने अपने में ही गोता लगाया, तब यथार्थ उत्तर मिला।

वेदों के इस भाग का नाम है उपनिषद् या वेदान्त या आरण्यक या रहस्य। यहाँ हम देखते हैं, धर्म बाहरी दिखलावे से बिल्कुल अलग है; यहाँ हम देखते हैं, आध्यात्मिक विषयों का वर्णन जड़ की भाषा से नहीं हुआ, आत्मा की भाषा से हुआ है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्त्वों के लिए तदनुरूप भाषा का व्यवहार किया गया है। यहाँ और कोई स्थूल भाव नहीं है, यहाँ जगत् के विषयों से कोई समझौता नहीं है। हमारी आज की धारणा के परे, उपनिषदों के वीर तथा साहसी महामना ऋषि निर्भय भाव से बिना समझौता किये ही मनुष्यजाति के लिए ऊँचे से ऊँचे तत्त्वों की घोषणा कर गये हैं, जो कभी भी प्रचारित नहीं हुए। ऐ हमारे देशवासियों, मैं उन्हीं को तुम्हारे आगे रखना चाहता हूँ। वेदों का ज्ञानकाण्ड एक विशाल महासागर है, इसका थोड़ा ही अंश समझने के लिए अनेक जन्मों की आवश्यकता है। रामानुज ने उपनिषदों के सम्बन्ध में यथार्थ ही कहा है कि वेदान्त वेदों का मुकुट है, और सचमुच ही यह वर्तमान भारत की बाइबिल है। वेदों के कर्मकाण्ड पर हिन्दुओं की बड़ी श्रद्धा है, परन्तु हम जानते हैं, युगों तक श्रुति के नाम से केवल उपनिषदों का ही अर्थ लिया जाता था। हम जानते हैं, हमारे बड़े बड़े सब दर्शनकारों ने – व्यास हों, चाहे पतंजलि या गौतम, यहाँ तक कि सभी दर्शनशास्त्रों के जनकस्वरूप महापुरुष कपिल ने भी – जब अपने मत के समर्थन में प्रमाणों का संग्रह करना चाहा तब उनमें से हर एक को उपनिषदों में ही प्रमाण मिले हैं, और कहीं नहीं; क्योंकि शाश्वत सत्य केवल उपनिषदों में ही है।

कुछ सत्य ऐसे हैं जो किसी विशेष पथ से, विशेष विशेष अवस्थाओं और समयों के अनुकूल, किसी किसी निर्दिष्ट लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए होते हैं। युग की प्रथाओं के अनुसार उनकी प्रतिष्ठा होती है और वे किसी खास समय के लिए ही उपयोगी होते हैं। और कुछ सत्य ऐसे हैं जिनकी प्रतिष्ठा मानवप्रकृति पर हुई है। उनका अस्तित्व तब तक वर्तमान रहेगा, जब तक मनुष्यजाति का अस्तित्व रहेगा। यही पिछले सत्य सार्वजनीन और सार्वकालिक कहे जा सकते हैं; और भारत में बहुत कुछ परिवर्तन होने पर भी, हमारे खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा और उपासनाप्रणालियों के बहुत कुछ परिवर्तित हो जाने पर भी श्रुतियों के ये सार्वभौम सत्य, वेदान्त के ये अपूर्व तत्त्व, अपनी ही महिमा से अचल, अज्ञेय और अविनाशी बनकर आज भी विद्यमान हैं।

उपनिषदों में जो तत्त्व अच्छी तरह विकसित हो पाये हैं, उनके बीज पहले ही से कर्मकाण्ड में पाये जाते हैं। ब्रह्माण्ड-तत्त्व की धारणा, जिसका अस्तित्व सब सम्प्रदायों के वेदान्ती मानते हैं; यहाँ तक कि मनोविज्ञान-तत्त्व भी, जिसे भारत की सम्पूर्ण चिन्तनप्रणालियों का उद्गमस्थान कहना चाहिए, कर्मकाण्ड में वर्णित एवं संसार के सम्मुख प्रचारित हो चुके हैं। अतः वेदान्त के आध्यात्मिक भाग पर कुछ कहने के पहले मुझे कर्मकाण्ड के सम्बन्ध में कुछ कहना आवश्यक प्रतीत हो रहा है, और वेदान्त शब्द मैं किस अर्थ में प्रयोग करता हूँ, इसकी व्याख्या सर्वप्रथम करना चाहता हूँ।

दुःख की बात है कि आजकल हम लोग प्रायः एक विशेष भ्रम में पड़ जाते हैं। हम वेदान्त से केवल अद्वैतवाद समझ लेते हैं। परन्तु तुम लोगों को याद रखना चाहिए कि यदि सभी धार्मिक पन्थों का अध्ययन करना है तो भारत के वर्तमान समय में प्रस्थानत्रय पढ़ने की भी उतनी ही आवश्यकता है। सब से पहले हैं श्रुतियाँ अर्थात् उपनिषद्, दूसरे हैं व्याससूत्र जो अपने पहले के दर्शनों की समष्टि तथा चरम परिणतिस्वरूप होने के कारण इतर दर्शनों से बढ़कर समझे जाते हैं। और बात ऐसी नहीं कि ये दर्शन एक दूसरे के विरोधी हैं, बल्कि वे एक दूसरे के आधार-स्वरूप हैं – मानो सत्य की खोज करनेवाले मनुष्यों को सत्य का क्रमविकास दिखलाते हुए, व्याससूत्रों में उनकी चरम परिणति हो गयी है। व्याससूत्रों में वेदान्त के अद्भुत सत्यों को क्रमबद्ध किया गया है और उपनिषदों तथा व्याससूत्रों के मध्य में वेदान्त की दिव्य टीका के रूप में गीता वर्तमान है।

अतः भारत का हर एक धर्माभिमानी सम्प्रदाय – चाहे वह द्वैतवादी, अद्वैतवादी या वैष्णव हो – उपनिषद, गीता तथा व्याससूत्र को प्रामाणिक ग्रन्थ मानता है। ये ही तीनों प्रस्थानत्रय कहे जाते हैं। हम देखते हैं शंकराचार्य हों चाहे रामानुज, मध्वाचार्य हों चाहे वल्लभाचार्य, अथवा चैतन्य हों, जिस किसी ने एक नवीन सम्प्रदाय की नींव डाली है, उसे इन तीनों प्रस्थानों को ग्रहण करना ही पड़ा और उन पर एक नये भाष्य की रचना करनी पड़ी। अतः वेदान्त को उपनिषदों के किसी एक ही भाव में, द्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद या अद्वैतवाद के रूप में आबद्ध कर देना ठीक नहीं। जब कि वेदान्त से ये सभी मत निकले हैं तो उसे इन मतों की समष्टि ही कहना चाहिए। एक अद्वैतवादी को अपने को वेदान्ती कहकर परिचय देने का जितना अधिकार है, उतना ही रामानुजसम्प्रदाय के विशिष्टाद्वैतवादी को भी है। परन्तु मैं कुछ और बढ़कर कहना चाहता हूँ कि हिन्दू शब्द कहने से हम लोगों का वही अभिप्राय है जो वास्तव में वेदान्ती का है। मैं तुमसे कहता हूँ कि ये तीनों भारत में स्मरणातीत काल से प्रचलित हैं। तुम कदापि यह विश्वास न करो कि अद्वैतवाद के आविष्कारक शंकर थे। उनके जन्म के बहुत पहले ही से यह मत यहाँ था। वे केवल इसके अन्तिम प्रतिनिधियों में से एक थे। रामानुज के मत के लिए भी यही बात कहनी चाहिए। उनके भाष्य ही से यह सूचित हो जाता है कि उनके आविर्भाव के बहुत पहले से वह मत विद्यमान था। जो अद्वैतवादी सम्प्रदाय अन्य सम्प्रदायों के साथ साथ भारत में वर्तमान हैं, उन पर भी यही बात लागू होती है। और अपने थोड़ेसे ज्ञान के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि ये सब मत एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं।

जिस तरह हमारे षड्दर्शन महान् तत्त्वों के क्रमिक विकास मात्र हैं, जो संगीत की तरह पिछले धीमे स्वरवाले परदों से उठते हैं, और अन्त में समाप्त होते हैं अद्वैत की वज्रगम्भीर ध्वनि में, उसी तरह हम देखते हैं कि पूर्वोक्त तीनों मतों में भी मनुष्य-मन उच्च से उच्चतर आदर्श की ओर अग्रसर हुआ है और अन्त में सभी मत अद्वैतवाद के उच्चतम सोपान पर पहुँचकर एक अद्भुत एकत्व में परिसमाप्त हुए हैं। अतः ये तीनों परस्परविरोधी नहीं हैं। दूसरी ओर, मुझे यह कहना पड़ता है कि बहुत लोग इस भ्रम में पड़े हैं कि ये तीनों मत परस्परविरोधी हैं। हम देखते हैं, अद्वैतवादी आचार्य, जिन श्लोकों में अद्वैतवाद की ही शिक्षा दी गयी है, उन्हें तो ज्यों का त्यों रख देते हैं, परन्तु जिनमें द्वैत या विशिष्टाद्वैतवाद के उपदेश हैं, उन्हें जबरदस्ती अद्वैतवाद की ओर घसीट लाते हैं, उनका भी अद्वैतपरक अर्थ कर डालते हैं। उधर द्वैतवादी आचार्य अद्वैतात्मक श्लोकों का भी द्वैतपरक अर्थ लगाने की चेष्टा करते हैं। वे हमारे पूज्य आचार्य हैं, यह मैं मानता हूँ, परन्तु ‘दोषा वाच्या गुरोरपि’ भी एक प्रसिद्ध वाक्य है। मेरा मत है कि केवल इसी एक विषय में उन्हें भ्रम हुआ है। हमें शास्त्रों की विकृत व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है। धार्मिक विषयों में हमें किसी प्रकार की बेईमानी का सहारा लेकर धर्म की व्याख्या करने की जरूरत नहीं है। व्याकरण के दाँव-पेंच दिखाने से क्या फायदा! श्लोकों का अर्थ लगाने में हमें अपने ऐसे भाव रखने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए जो उनमें अभिप्रेत न थे। जब तुम अधिकारभेद का अपूर्व रहस्य समझोगे, तब श्लोकों का यथार्थ अर्थ सहज ही तुम्हारी समझ में आ जाएगा।

यह सच है कि सम्पूर्ण उपनिषदों का लक्ष्य एक है, ‘कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति’2 – ‘वह कौनसी वस्तु है जिसे जान लेने पर सम्पूर्ण ज्ञान करतलगत हो जाता है?’ आजकल की भाषा में अगर कहा जाए तो यही कहना चाहिए कि उपनिषदों का उद्देश्य चरम एकत्व के आविष्कार की चेष्टा है, और भिन्नत्व में एकत्व की खोज ही ज्ञान है। हर एक विज्ञान इसी नींव पर प्रतिष्ठित है। मनुष्यों का सम्पूर्ण ज्ञान भिन्नत्व में एकत्व की खोज पर ही प्रतिष्ठित है। और, यदि दृश्य जगत् की थोड़ीसी घटनाओं में ही एकत्व के अनुसन्धान की चेष्टा क्षुद्र मानवीय विज्ञान का कार्य हो तो इस अपूर्व विचित्रतासंकुल विश्व के भीतर, जिसे हम नाम और रूपों से सहस्रधा विभक्त देख रहे हैं, जहाँ जड़ और चेतन में भेद वर्तमान है, जहाँ सभी चित्तवृत्तियाँ एक दूसरी से भिन्न हैं, जहाँ कोई रूप किसी दूसरे से नहीं मिलता, जहाँ प्रत्येक वस्तु दूसरी वस्तु से पृथक् है, एकत्व का आविष्कार करने का हमारा उद्देश्य कितना कठिन है! परन्तु इन विभिन्न स्तरों और अनन्त लोकों के भीतर एकत्व का आविष्कार करना ही उपनिषदों का लक्ष्य है। दूसरी ओर हमें अरुन्धती न्याय का भी सहारा लेना चाहिए। यदि किसी को अरुन्धती नक्षत्र दिखलाना है तो पहले पासवाला उससे कोई बड़ा और उज्ज्वलतर नक्षत्र दिखलाकर उस पर देखनेवाले की दृष्टि स्थिर करनी चाहिए इसके बाद छोटे नक्षत्र अरुन्धती का दिखलाना आसान होगा। इसी तरह सूक्ष्मतम ब्रह्मतत्त्व को समझाने के लिए दूसरे कितने ही स्थूल भावों के उपदेश देकर ऋषियों ने उच्च तत्त्व को समझाया है। इस कथन को प्रमाणित करने के लिए मुझे ज्यादा कुछ नहीं करना है, केवल उपनिषदों को तुम्हारे सामने रख देना है, फिर तुम स्वयं समझ जाओगे। प्रायः प्रत्येक अध्याय द्वैतवाद या उपासना के उपदेश से आरम्भ होता है। पहले शिक्षा दी गयी है कि ईश्वर संसार का सृष्टिकर्ता है, संरक्षक है और अन्त में प्रत्येक वस्तु उसी में विलीन हो जाती है; वही हमारा उपास्य है, वही शासक है, वही बहिःप्रकृति और अन्तःप्रकृति का प्रेरक है, फिर भी वह मानो प्रकृति के बाहर है। एक कदम और बढ़कर हम देखते हैं, वे ही आचार्य बतलाते हैं कि ईश्वर प्रकृति के बाहर नहीं बल्कि प्रकृति में अन्तर्व्याप्त है। अन्त में ये दोनों भाव छोड़ दिये गये हैं, और जो कुछ है सब वही है – कोई भेद नहीं। ‘तत्त्वमसि श्वेतकेतो’ – ‘हे श्वेतकेतु, तुम वही (ब्रह्म) हो।’ अन्त में यही घोषणा की गयी कि जो समग्र जगत् के भीतर विद्यमान है वही मनुष्यों की आत्मा में भी विराजमान है। यहाँ किसी तरह की रियायत नहीं, यहाँ दूसरों के मतामत की परवाह नहीं की गयी। यहाँ सत्य, निरावरण सत्य निर्भीक भाषा में प्रचारित किया गया है। आज उस महान् सत्य का उसी निर्भीक भाषा में प्रचार करने में हमें हरगिज न डरना चाहिए, और ईश्वर की कृपा से मैं स्वयं तो कम से कम उसी प्रकार का एक निर्भीक प्रचारक होने की आशा रखता हूँ।

अब मैं पूर्वप्रसंग का अनुसरण करते हुए दो बातों को समझाता हूँ। एक है मनस्तात्त्विक पक्ष, जो सभी वेदान्तियों का सामान्य विषय है, और दूसरा है जगत्-सृष्टि पक्ष। पहले मैं जगत्-सृष्टि पक्ष पर विचार करूँगा। हम देखते हैं, आजकल आधुनिक विज्ञान के विचित्र विचित्र आविष्कार हमें आकस्मिक रूप से चकित कर रहे हैं, और स्वप्न में भी अकल्पनीय अद्भुत चमत्कारों को हमारे सामने रखकर हमारी आँखों को चकाचौंध कर दे रहे हैं। परन्तु वास्तव में इन आविष्कारों का अधिकांश बहुत पहले के आविष्कृत सत्यों का पुनराविष्कार मात्र है। अभी हाल की बात है। आधुनिक विज्ञान ने विभिन्न शक्तियों में एकत्व का आविष्कार किया है। उसने अभी अभी यह आविष्कृत किया कि ताप, विद्युत्, चुम्बक आदि भिन्न भिन्न नामों से परिचित जितनी शक्तियाँ है, वे एक ही शक्ति में परिवर्तित की जा सकती हैं; अतः दूसरे उन्हें चाहे जिन नामों से पुकारते रहें, विज्ञान उनके लिए एक ही नाम व्यवहार में लाता है। यही बात संहिता में भी पायी जाती है। यद्यपि वह एक प्राचीन ग्रन्थ है, तथापि उसमें भी शक्तिविषयक ऐसा ही सिद्धान्त मिलता है, जिसका मैंने उल्लेख किया है। जितनी शक्तियाँ हैं, चाहे तुम उन्हें गुरुत्वाकर्षण कहो, चाहे आकर्षण या विकर्षण कहो, अथवा ताप कहो या विद्युत, वे सब उसी शक्तितत्त्व के विभिन्न रूप हैं। चाहे मनुष्यों के बाह्य इन्द्रियों का व्यापार कहो या उनके अन्तःकरण की चिन्तनशक्ति ही कहो, हैं सब एक ही शक्ति से उद्भूत। उसे प्राणशक्ति कहते हैं। अब यह प्रश्न उठ सकता है कि प्राण क्या है? प्राण स्पन्दन या कम्पन है। जब सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का विलय इसके चिरन्तन स्वरूप में हो जाता है, तब ये अनन्त शक्तियाँ कहाँ चली जाती हैं? क्या तुम सोचते हो की इनका भी लोप हो जाता है? नहीं, कदापि नहीं। यदि शक्तिराशि बिल्कुल नष्ट हो जाए तो फिर भविष्य में जगत्तरंग का उत्थान कैसे और किस आधार पर हो सकता है। क्योंकि गति तो तरंगाकार संचरण है जो उठती है, गिरती है, फिर उठती है, फिर गिरती है। इसी जगत्-प्रपंच के विकास को हमारे शास्त्रों में ‘सृष्टि’ कहा गया है। परन्तु, ध्यान रहे, ‘सृष्टि’ अंग्रेजी का ‘क्रियेशन’ (creation) नहीं। अंग्रेजी में संस्कृत शब्दों का यथार्थ अनुवाद नहीं होता। बड़ी मुश्किल से मैं संस्कृत के भाव अंग्रेजी में व्यक्त करता हूँ। ‘सृष्टि’ शब्द का वास्तविक अर्थ है – प्रक्षेपण। प्रलय होने पर जगत्-प्रपंच सूक्ष्मातिसूक्ष्म होकर अपनी प्राथमिक अवस्था को प्राप्त होता है, कुछ काल उसी शान्त अवस्था में रहकर फिर विकसित होता है? यही सृष्टि है। अच्छा, तो फिर इन प्राणरुप शक्तियों का क्या होता है? वे आदिप्राण से मिल जाती हैं। यह प्राण उस समय बहुत कुछ गतिहीन हो जाता है, परन्तु इसकी गति बिल्कुल ही बन्द नहीं हो जाती। वैदिक सूक्त्तों के ‘आनीदवातम्’ – ‘वह गतिहीन भाव से स्पन्दित हुआ था’ – इस वाक्य से इसी तत्त्व का वर्णन किया गया है। वेदों के कितने ही पारिभाषिक शब्दों का अर्थनिर्णय करना अत्यन्त कठिन काम है। उदाहरण के रूप में हम यहाँ ‘वात’ शब्द को ही लेते हैं। कभी कभी तो इससे वायु का अर्थ निकलता है और कभी कभी गति सूचित होती है। इन दोनों अर्तों में बहुधा लोगों को भ्रम हो जाता है। अतएव इस पर ध्यान रखना चाहिए। अच्छा, तो उस समय भूतों की क्या अवस्था होती है? शक्तियाँ सर्वभूतों में ओतप्रोत हैं। वे उस समय आकाश में लीन हो जाती हैं, इस आकाश से फिर भूतसमूहों की सृष्टि होती है। यह आकाश ही आदिभूत है। यही आकाश प्राण की शक्ति से स्पन्दित होता रहता है, और प्रत्येक नयी सृष्टि के साथ ज्यों ज्यों प्राण का स्पन्दन द्रुत होता जाता है, त्यों त्यों आकाश की तरंगे क्षुब्ध होती हुरिअं चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र आदि के आकार धारण करती जाती है। हम पढ़ते हैं, ‘यदिदं किंच जगत् सर्वं प्राण एजति निःसृतम्।’3 – ‘इस संसार में जो कुछ है, प्राण के कम्पित होने से निःसृत होता है।’ यहाँ ‘एजति’ शब्द पर ध्यान दो; क्योंकि ‘एज्’ धातु का अर्थ है काँपना, ‘निःसृतम्’ का अर्थ है प्रक्षिप्त और ‘यदिदम् किंच’ का अर्थ है इस संसार में जो भी कुछ।

जगत्-प्रपंच की सृष्टि का यह थोड़ासा आभास दिया गया। इसके विषय में बहुतसी छोटी छोटी बातें कही जा सकती हैं। उदाहरणस्वरूप किस तरह सृष्टि होती है, किस तरह पहले आकाश की ओर आकाश से दूसरी वस्तुओं की सृष्टि होती है, आकाश में कम्पन होने पर वायु की उत्पत्ति कैसे होती है, आदि कितनी ही बातें कहनी पड़ेगी। परन्तु यहाँ एक बात पर ध्यान रखना चाहिए, वह यह कि सूक्ष्मतर तत्त्व से स्थूलतर तत्त्व की उत्पत्ति होती है, सब से पीछे स्थूल भूत की सृष्टि होती है। यही बाह्यतम वस्तु है, और इसके पीछे सूक्ष्मतर भूत विद्यमान हैं। यहाँ तक विश्लेषण करने पर भी, हमने देखा कि सम्पूर्ण संसार केवल दो तत्त्वों में पर्यवसित किया गया है, अभी तक चरम एकत्व पर हम नहीं पहुँचे। शक्तितत्त्व के एकत्व को प्राण, और जड़तत्त्व के एकत्व को आकाश कहा गया है। क्या इन दोनों में भी कोई एकत्व पाया जा सकता है? ये भी क्या एक तत्त्व में पर्यवसित किये जा सकते हैं? हमारा आधुनिक विज्ञान यहाँ मूक है, वह किसी तरह की मीमांसा नहीं कर सका। और यदि उसे इसकी मीमांसा करनी ही पड़े तो जैसे उसने प्राचीन पुरुषों की तरह आकाश और प्राणों का आविष्कार किया है, उसी तरह उनके मार्ग पर उसे आगे भी चलना होगा।

जिस एक तत्त्व से आकाश और प्राण की सृष्टि हुई है, वह सर्वव्यापी निर्गुण तत्त्व है, जो पुराणों में ब्रह्मा, चतुरानन ब्रह्मा, के नाम से परिचित है और मनस्तत्त्व के अनुसार जिसको ‘महत्’ भी कहा जाता है। यहीं उन दोनों तत्त्वों का मेल होता है। जिसे मन कहते हैं वह मस्तिष्कजाल में पँसा हुआ उसी महत् का एक छोटासा अंश है, और मस्तिष्कजाल में पँसे हुए संसार के सामूहिक मनों का नाम समष्टिमहत् है। परन्तु विश्लेषण को आगे भी अग्रसर होना है, यह अब भी पूर्ण नहीं है। हममें से हर एक मनुष्य मानो एक क्षुद्र ब्रह्माण्ड है और सम्पूर्ण जगत् बृहत् ब्रह्माण्ड है। जो कुछ व्यष्टि में हो रहा है वही समष्टि में भी होता है – ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे।’ यह बात सहज ही हमारी समझ में आ सकती है। यदि हम अपने मन का विश्लेषण कर सकते तो समष्टिमन में क्या होता है, इसका भी बहुत कुछ निश्चित अनुमान कर सकते। अब प्रश्न यह है कि यह मन है क्या चीज? इस समय पाश्चात्य देशों में भौतिक विज्ञान की जैसी द्रुत उन्नति हो रही है और शरीरविज्ञान जिस तरह धीरे धीरे प्राचीन धर्मों के एक के बाद दूसरे दुर्ग पर अपना अधिकार जमा रहा है, उसे देखते हुए पाश्चात्यवासियों को कोई टिकाऊ आधार नहीं मिल रहा है, क्योंकि आधुनिक शरीरविज्ञान में पद पद पर मन की मस्तिष्क के साथ अभिन्नता देखकर वे बड़ी उलझन में पड़ गये हैं; परन्तु भारतवर्ष में हम लोग यह तत्त्व पहले ही से जानते हैं। हिन्दू बालक को पहले ही यह तत्त्व सीखना पड़ता है कि मन जड़ पदार्थ है, परन्तु सूक्ष्मतर जड़ है। हमारा यह जो स्थूल शरीर है, इसके पश्चात् सूक्ष्म शरीर अथवा मन है। यह भी जड़ है, केवल सूक्ष्मतर जड़ है, परन्तु यह आत्मा नहीं।

मैं इस ‘आत्मा’ शब्द का अंग्रेजी में अनुवाद नहीं कर सकता; कारण, यूरोप में ‘आत्मा’ शब्द का द्योतक कोई भाव ही नहीं, अतएव इस शब्द का अनुवाद नहीं किया जा सकता। जर्मन दार्शनिक इस ‘आत्मा’ शब्द का सेल्फ (self) शब्द से अनुवाद करते हैं, परन्तु जब तक इस शब्द को सार्वभौम मान्यता प्राप्त न हो जाए, तब तक इसे व्यवहार में लाना असम्भव है। अतएव उसे सेल्फ कहो, चाहे कुछ और कहो, हमारी आत्मा के सिवा वह और कुछ नहीं है। यही आत्मा मनुष्य के भीतर का यथार्थ मनुष्य है। यही आत्मा जड़ को अपने यन्त्र के रूप में, अथवा मनोविज्ञान की भाषा में कहो तो अपने अन्तःकरण के रूप में चलाती-फिराती है, और मन अन्तरिन्द्रियों की सहायता से शरीर की दृश्यमान बाह्य इन्द्रियों पर काम करता है। अस्तु, यह मन है क्या? अभी हाल में ही पाश्चात्य दार्शनिक यह जान सके हैं कि नेत्र वास्तव में दर्शनेन्द्रिय नहीं हैं, किन्तु यथार्थ इन्द्रिय इनके पीछे वर्तमान है, और यदि यह नष्ट हो जाए तो सहस्रलोचन इन्द्र की तरह चाहे मनुष्य की हजार आँखे हों, पर वह कुछ देख नहीं सकता। तुम्हारा दर्शन यह स्वतःसिद्ध सिद्धान्त लेकर आगे बढ़ता है कि दृष्टि का तात्पर्य वास्तव में बाह्य दृष्टि से नहीं, यथार्थ दृष्टि अन्तरिन्द्रिय की, भीतर रहनेवाले मस्तिष्क के केन्द्रसमूहों की है। तुम चाहे जिस नाम से पुकारो, परन्तु इन्द्रिय शब्द से हमारी नाक, कान, आँखे नहीं सिद्ध होतीं। और इन इन्द्रियसमूहों की ही समष्टि, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के साथ मिलकर अंग्रेजी में माइण्ड (mind) नाम से पुकारी जाती है। और यदि आधुनिक शरीरवैज्ञानिक तुमसे आकर कहें कि मस्तिष्क ही माइण्ड (mind) है, और वह मस्तिष्क ही विभिन्न सूक्ष्म अवयवों से गठित है, तो तुम्हारे लिए डरने का कोई कारण नहीं। उनसे तुम तत्काल कह सकते हो कि हमारे दार्शनिक बराबर यह बात जानते हैं, यह हमारे धर्म के प्रथम मुख्य सिद्धान्तों में से एक है।

खैर, इस समय तुम्हें समझना होगा कि मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि शब्दों के क्या अर्थ है। सब से पहले हम चित्त की मीमांसा करें। चित्त वास्तव में अन्तःकरण का मूल उपादान है, यह महत् का ही अंश है। विभिन्न अवस्थाओं के साथ मन का ही एक साधारण नाम चित्त है। उदाहरणार्थ ग्रीष्मकाल की उस स्थिर और शान्त झील को लो जिस पर एक भी तरंग नहीं है। सोचो, किसी ने उस पर एक पत्थर फेंका। तो उससे क्या होगा? पहले, पानी पर जो आघात किया गया उससे एक क्रिया हुई, इसके पश्चात् पानी उठकर पत्थर की ओर प्रतिक्रिया करने लगा और उसी प्रतिक्रिया ने तरंग का आकार धारण किया। पहले-पहल पानी जरा काँप उठता है, उसके बाद ही तरंग के आकार में प्रतिक्रिया होती है। इस चित्त को झील की तरह समझो, और बाहरी वस्तुएँ उस पर फेंके गये प्रस्तरखण्ड हैं। जब कभी वह इन्द्रियों की सहायता से किसी बहिर्वस्तु के संस्पर्श में आता है, बहिर्वस्तुओं को भीतर ले जाने के लिए इन इन्द्रियों की जरूरत होती है, तभी एक कम्पन उत्थित होता है। वह मन है – संकल्प-विकल्पात्मक। इसके बाद ही एक प्रतिक्रिया होती है, वह निश्चयात्मिका बुद्धि है, और इस बुद्धि के साथ साथ अहंज्ञान और बाहरी वस्तु का बोध पैदा होता है। जैसे हमारे हाथ पर मच्छर ने बैठकर डंक मारा, संवेदना हमारे चित्त तक पहुँची, चित्त जरा काँप उठा – हमारे मनोविज्ञान के मत से वही मन है। इसके बाद एक प्रतिक्रिया उठी और साथ ही साथ हमारे भीतर यह भाव पैदा हुआ कि हमारे हाथ में मच्छर काट रहा है, इसे भगाना चाहिए। इसी प्रकार झील में पत्थर फेंके जाते हैं। परन्तु इतना जरूर समझना होगा कि झील पर जितने आघात होते हैं, सब बाहर से आते हैं, परन्तु मन की झील में बाहर से भी आघात आ सकते हैं और भीतर से भी। चित्त और उसकी इन भिन्न भिन्न अवस्थाओं का नाम ही अन्तःकरण है।

पहले जो कुछ कहा गया उसके साथ एक और भी बात समझनी होगी। उससे अद्वैतवाद समझने में हम लोगोंको विशेष सुविधा होगी। तुममें से हर एक ने मोती अवश्य ही देखा होगा, और तुममें से अनेक को मालूम भी होगा कि यह किस तरह बनता है। सीप (शुक्त्ति) के भीतर धूलि अथवा बालुका की कणिका पड़कर उसे उत्तेजित करती रहती है, और सीप इस उत्तेजना की प्रतिक्रिया करते हुए उस छोटीसी बालू की रज को अपने शरीर से निकले रस से ढकती रहती है। वही कणिका एक निर्दिष्ट आकार को प्राप्त कर मोती के रूप में परिणत होती है। यह मोती जिस तरह निर्मित होता है, हम सम्पूर्ण संसार को उसी तरह निर्मित करते हैं। बाहरी संसार से हम आघात भर पाते हैं। यहाँ तक कि उस आघात के प्रति सचेत होने में भी हमें अपने भीतर से ही प्रतिक्रिया करनी पड़ती है। जब हम प्रतिक्रियाशील होते हैं, तब वास्तव में हम अपने मन के अंशविशेष को ही उस आघात के प्रति प्रक्षेपित करते हैं और जब हमें उसकी जानकारी होती है तब वह और कुछ नहीं, उस आघात से आकारप्राप्त हमारा अपना मन ही होता है। जो लोग बहिर्जगत् की यथार्थता पर विश्वास करना चाहते हैं, उन्हें यह बात माननी पड़ेगी, और आजकल इस शरीरविज्ञान की उन्नति के दिनों में इस बात को बिना माने दूसरा उपाय ही नहीं है। यदि बहिर्जगत् को हम ‘क’ मान लें तो वास्तव में हम ‘क मन’ + को ही जानते हैं और इस जानकारी के भीतर मन का भाग इतना अधिक है कि उसने ‘क’ को सर्वांशतः ढक लिया है और उस ‘क’ का यथार्थ रूप वास्तव में सदैव अज्ञात और अज्ञेय है। अतएव यदि बहिर्जगत् के नाम से कोई वस्तु हो भी तो वह सदैव अज्ञात और अज्ञेय है। हमारे मन के द्वारा वह जिस साँचे में ढाल दी जाती है, जिस रूप में गठित होती है, हम उसको उसी रूप में जानते हैं। अन्तर्जगत् के सम्बन्ध में भी यही बात है। हमारी आत्मा के सम्बन्ध में भी यह बात बिल्कुल सच उतरती है। हम आत्मा को जानना चाहें तो उसे भी अपने मन के भीतर से समझेंगे; अतः हम आत्मा के सम्बन्ध में जो कुछ जानते हैं वह ‘आत्मा मन’ के सिवा और कुछ नहीं। अर्थात् मन ही के द्वारा आवृत, मन ही के द्वारा गठित आत्मा को हम जानते हैं। इस तत्त्व के सम्बन्ध में हम आगे चलकर कुछ और विवेचना करेंगे, यहाँ हमें इतना ही स्मरण रखना होगा।

इसके पश्चात् हमें जो विषय समझना है, वह यह है कि यह देह एक निरवच्छिन्न जड़प्रवाह का नाम है। प्रतिक्षण हम इसमें नये नये पदार्थ जोड़ रहे हैं, फिर प्रतिक्षण इससे कितने ही पदार्थ निकलते जा रहे हैं। जैसे एक निरन्तर बहती हुई नदी है, उसकी सलिलराशि सदा ही एक स्थान से दूसरे स्थान को जा रही है, फिर भी हम अपनी कल्पना के बल से उसके समस्त अंशों को एक ही वस्तु मानकर उसे एक ही नदी कहते हैं। परन्तु वास्तव में नदी है क्या? प्रतिक्षण नया पानी आ रहा है, प्रतिक्षण उसकी तटभूमि परिवर्तित हो रही है, प्रतिक्षण सारा वातावरण परिवर्तित होता जा रहा है। तब नदी है क्या? वह इसी परिवर्तन-समष्टि का नाम है। मन के सम्बन्ध में भी यही बात है। बौद्धों ने इस सदा ही होनेवाले परिवर्तन को लक्ष्य करके महान् क्षणिकविज्ञानवाद की रचना की थी। उसे ठीक ठीक समझना बड़ा कठिन काम है। परन्तु बौद्ध दर्शनों में यह मत सुदृढ़ युक्त्तियों द्वारा समर्थित और प्रमाणित हुआ है। भारत में यह वेदान्त के किसी किसी अंश के विरोध में उठ खड़ा हुआ था। इस मत को निरस्त करने की जरूरत आ पड़ी, और हम आगे देखेंगे, इस मत का खण्डन करने में केवल अद्वैतवाद ही समर्थ हुआ और कोई मत नहीं। आगे चलकर हम यह भी देखेंगे कि अद्वैतवाद के सम्बन्ध में लोगों की अनेक विचित्र धारणाएँ होने पर भी और अद्वैतवाद से लोगों के भयभीत होने पर भी, वास्तव में संसार का कल्याण इसी से होता है, कारण इस अद्वैतवाद से ही सब प्रकार की समस्याओं का उत्तर मिलता है। द्वैतवाद और दूसरे जितने ‘वाद’ है उपासना आदि के लिए बहुत अच्छे हैं, उनसे मन को बड़ी तृप्ति होती है और हो सकता है कि उनसे मन के उच्च पथ पर बढ़ने में सहायता मिलती हो, परन्तु यदि कोई तर्कसंगत एवं धर्मपरायण होना चाहे तो उसके लिए एकमात्र गति अद्वैतवाद ही है। अस्तु, मन को भी देह की तरह किसी नदी के सदृश समझना चाहिए। वह भी सदा एक ओर खाली और दूसरी ओर पूर्ण हो रहा है। परन्तु वह एकत्व कहाँ है, जिसे हम आत्मा कहते हैं? हम देखते हैं कि हमारी देह और मन में इस तरह सदा ही परिवर्तन होने पर भी हमारे भीतर कोई ऐसी वस्तु है, जो अपरिवर्तनीय है, जिसके कारण हमारी वस्तु-विषयक धारणाएँ अपरिवर्तनीय हैं। जब विभिन्न दिशाओं से आलोकरश्मियाँ किसी यवनिका या दीवार अथवा किसी दूसरी अचल वस्तु पर पड़ती हैं, केवल तभी उनके लिए एकता-स्थापन सम्भव होता है, केवल तभी वे एक अखण्ड भाव का निर्माण कर सकती हैं। मनुष्य के विभिन्न शारीरिक अवयवों में वह एकत्व कहाँ है, जिस पर पहुँचकर विभिन्न भावराशियाँ एकत्व और पूर्ण अखण्डत्व को प्राप्त हो सकें? इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह वस्तु कभी मन नहीं हो सकती, क्योंकि वह परिवर्तनशील है। इसलिए अवश्य वह ऐसी वस्तु है जो न देह है, न मन है, जिसमें कभी परिवर्तन नहीं होता, जिसमें आकर हमारे समस्त भाव, बाहर के समस्त विषय एक अखण्ड भाव में परिणत हो जाते हैं – यही वास्तव में हमारी आत्मा है और जब कि हम देख रहे हैं कि सम्पूर्ण जड़पदार्थ – जिसे तुम सूक्ष्म जड़ अथवा मन, चाहे जिस नाम से पुकारो – परिवर्तनशील है, तो यह अपरिवर्तनीय वस्तु (आत्मा) कदापि जड़पदार्थ नहीं हो सकती, अतएव वह चेतनस्वभाव, अविनाशी और अपरिवर्तनशील है।

इसके बाद एक दूसरा प्रश्न उठता है। यह प्रश्न बहिर्जगत्-सम्बन्धी पुराने सृष्टिरचनावादों (Design Theories) से भिन्न है। इस संसार को देखकर किसने इसकी सृष्टि की, किसने जड़पदार्थ बनाया, आदि प्रश्नों से जिस सृष्टिरचनावाद की उत्पत्ति होती है, मैं उसकी बात नहीं कहता। मनुष्य की भीतरी प्रकृति से सत्य को जानना यही मुख्य बात है। आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में जिस तरह प्रश्न उठा था, यहाँ भी ठीक उसी तरह प्रश्न उठ रहा है। यदि यह ध्रुव सत्य माना जाए कि हर एक मनुष्य में शरीर और मन से पृथक् एक अपरिवर्तनीय आत्मा विद्यमान है, तो यह भी मानना पड़ता है कि इन आत्माओं के भीतर धारणा, भाव और सहानुभूति की एकता विद्यमान है। अन्यथा हमारी आत्मा तुम्हारी आत्मा पर कैसे प्रभाव डाल सकती है? परन्तु आत्माओं के बीच में रहनेवाली वह कौनसी वस्तु है जिसके भीतर से एक आत्मा दूसरी आत्मा पर कार्य कर सकती है? वह माध्यम कहाँ है, जिसके द्वारा वह क्रियाशील होती है। मैं तुम्हारी आत्मा के बारे में किस प्रकार कुछ भी अनुभव कर सकता हूँ? वह कौनसी वस्तु है, जो हमारी और तुम्हारी आत्मा में संलग्न है? अतः यहाँ एक दूसरी आत्मा के मानने की दार्शनिक आवश्यकता प्रतीत होती है; क्योंकि वह आत्मा सम्पूर्ण भिन्न भिन्न आत्माओं और जड़ वस्तुओं के भीतर से अपना कार्य करती है, वह संसार की असंख्य आत्माओं में ओतप्रोत भाव से विद्यमान रहती है; उसी की सहायता से दूसरी आत्माओं में जीवनीशक्ति का संचार होता है, एक आत्मा दूसरी आत्मा को प्यार करती है, एक दूसरे से सहानुभूति रखती है, या एक दूसरे के लिए कार्य करती है। इसी सर्वव्यापी आत्मा को परमात्मा कहते हैं। वह सम्पूर्ण संसार का प्रभु है, ईश्वर है। और जब कि आत्मा जड़पदार्थ से नहीं बनी, जब कि वह चेतनस्वरूप है, तो वह जड़ के नियमों का अनुसरण नहीं कर सकती – उसका विचार जड़ के नियमानुसार नहीं किया जा सकता। अतएव वह अजेय, अजन्मा, अविनाशी तथा अपरिणामी है।

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥ गीता २/२३२४

‘इस आत्मा को न आग जला सकती है, न कोई शस्त्र इसे छेद सकता है, न वायु इसे सुखा सकती है, न पानी गीला कर सकता है, यह आत्मा नित्य, सर्वगत, कूटस्थ और सनातन है।’ गीता और वेदान्त के अनुसार जीवात्मा विभु है, कपिल के मत में यह सर्वव्यापी है। यह सच है कि भारत में ऐसे अनेक सम्प्रदाय हैं जिनके मतानुसार यह जीवात्मा अणु है; किन्तु उनका यह भी मत है कि आत्मा का यथार्थ स्वरूप विभु है, केवल व्यक्त अवस्था में ही वह अणु है।

इसके बाद एक दूसरे विषय की ओर ध्यान देना चाहिए। बहुत सम्भव है, यह तुम्हें आश्चर्यजनक प्रतीत हो, परन्तु यह तत्त्व भी विशेष रूप से भारतीय है और हमारे सभी सम्प्रदायों में वह सामान्य रूप से विद्यमान है। इसीलिए मैं तुमसे इस तत्त्व की ओर ध्यान देने और उसे याद रखने का अनुरोध करता हूँ, कारण, यह सभी भारतीय विषयों की बुनियाद है। पाश्चात्य देशों में जर्मन और अंग्रेज विद्वानों द्वारा प्रचारित भौतिक विकासवाद का सिद्धान्त तुम लोगों ने सुना होगा। इस मत के अनुसार वास्तव में सभी प्राणियों के शरीर अभिन्न हैं। जो भेद हम देखते हैं वे एक ही श्रृंखला की भिन्न भिन्न अभिव्यक्तियाँ मात्र हैं, और क्षुद्रतम कीट से लेकर श्रेष्ठतम साधु तक सभी वास्तव में एक हैं, एक ही दूसरे में परिणत हो रहा है, तथा इसी तरह चलते हुए क्रमशः उन्नत होकर जीव पूर्णत्व प्राप्त कर रहे हैं। यह सिद्धान्त परिणामवाद के नाम से हमारे शास्त्रों में भी विद्यमान है। योगी पतंजलि कहते हैं, ‘जात्यन्तरपरिणामः प्रकृत्यापूरात्।’4 – ‘एक जाति, एक श्रेणी दूसरी जाति, दूसरी श्रेणी में परिणत होती है। ‘परिणाम’ का अर्थ है एक वस्तु का दूसरी वस्तु में परिवर्तित होना। परन्तु यहाँ यूरोपवालों से हमारा मतभेद कहाँ पर होता है? पतंजलि कहते हैं, ‘प्रकृत्यापूरात्’ – प्रकृति के आपूरण से। यूरोपीय कहते हैं कि प्रतिद्वन्द्विता, प्राकृतिक और यौननिर्वाचन आदि ही एक प्राणी को दूसरे प्राणी का शरीर ग्रहण करने के लिए बाध्य करते हैं। परन्तु हमारे शास्त्रों में इस ‘जात्यन्तरपरिणाम’ का जो कारण बतलाया गया है, उसे कहते हुए यही कहना पड़ता है कि यहाँवालों ने यूरोपीयों से और भी अच्छा विश्लेषण किया है – इन्होंने वहाँवालों से और भी गहरे पहुँचने की कोशिश की है। ये कहते है, ‘प्रकृत्यापूरात्’ – प्रकृति के आपूरण से। इसका क्या अर्थ है? हम यह मानते हैं कि जीवाणु क्रमशः उन्नत होते हुए बुद्ध बन जाता है किन्तु साथ ही हमारी यह भी दृढ़ धारणा है कि किसी यन्त्र में यदि किसी न किसी तरह की शक्ति यथोचित मात्रा में न भर दी जाए तो उस यन्त्र से तदनुरूप कार्य सम्भव नहीं हो सकता। उस शक्ति का विकास चाहे जिस किसी रूप में हो, पर शक्तिसमष्टि की मात्रा सदा एक ही रहती है। यदि तुम्हें एक प्रान्त में शक्ति का विकास देखना है तो दूसरे प्रान्त में उसका प्रयोग करना होगा – वह शक्ति किसी दूसरे आकार में प्रकाशित भले ही हो, परन्तु उसका परिणाम एक होना ही चाहिए। अतएव बुद्ध यदि परिणाम का एक प्रान्त हो तो दूसरे प्रान्त का जीवाणु अवश्य ही बुद्ध के सदृश होगा। यदि बुद्ध क्रमविकसित परिणत जीवाणु हो तो वह जीवाणु भी क्रमसंकुचित (अव्यक्त) बुद्ध ही है। यदि यह ब्रह्माण्ड अनन्त शक्ति का व्यक्त रूप हो तो जब इस ब्रह्माण्ड में प्रलय की अवस्था होती है, तब भी दूसरे किसी आकार में उसी अनन्त शक्ति की विद्यमानता स्वीकारनी पड़ेगी। इससे अन्यथा कुछ भी नहीं हो सकता। अतएव यह निश्चित है कि प्रत्येक आत्मा अनन्त है हमारे पैरों तले रेंगते रहनेवाले क्षुद्र कीट से लेकर महत्तम और उच्चतम साधु तक सब में वह अनन्त शक्ति, अनन्त पवित्रता और सभी गुण अनन्त परिमाण में मौजूद हैं। भेद केवल अभिव्यक्ति की न्यूनाधिक मात्रा में ही है। कीट में उस महाशक्ति का थोड़ा ही विकास पाया जाता है, तुममें उससे भी अधिक, और किसी दूसरे देवोपम पुरुष में तुमसे भी कुछ अधिक शक्ति का विकास हुआ है; भेद बस, इतना ही है, परन्तु है सभी में वही एक शक्ति। पतंजलि कहते है, ‘ततः क्षेत्रिकवत्’5 – ‘किसान जिस तरह अपने खेत में पानी भरता है।’ किसी जलाशय से वह अपने खेत का एक कोना काटकर पानी ला रहा है। जल के वेग से खेत के बह जाने के भय से वह नाली का मुँह बन्द रखता है। जब पानी की जरूरत पड़ती है, तब वह बाँध खोल देता है, और पानी अपनी ही शक्ति से उसमें भर जाता है। पानी आने के वेग को बढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि वह जलाशय के जल में पहले ही से विद्यमान है। इसी तरह हममें से हर एक के पीछे अनन्त शक्ति, अनन्त पवित्रता, अनन्त सत्ता, अनन्त वीर्य, अनन्त आनन्द का भाण्डार परिपूर्ण है, केवल यह द्वार – यही देहरूपी बाँध या द्वार – हमारे वास्तविक रूप के पूर्ण विकास में बाधा पहुँचाता है।

और इस देह का संगठन जितना ही उन्नत होता जाता है, जितना ही तमोगुण रजोगुण में और रजोगुण सत्त्वगुण में परिणत होता है, यह शक्ति और शुद्धता उतनी ही प्रकट होती रहती है। और इसीलिए भोजन-पान के सम्बन्ध में हम इतना सावधान रहते हैं। यह सम्भव है कि हम लोग मूलतत्त्व भूल गये हों, जैसे हम अपनी विवाहप्रथा के सम्बन्ध में कह सकते हैं। यह विषय यद्यपि यहाँ अप्रासंगिक है, फिर भी हम दृष्टान्त के तौर पर यहाँ इसका जिक्र कर सकते हैं। यदि कोई दूसरा अवसर मिलेगा तो मैं इन विषयों पर विशेष रूप से चर्चा करूँगा, परन्तु इस समय मैं तुमसे इतना ही कहता हूँ कि जिन मूल भावों से हमारी विवाहप्रथा का प्रचलन हुआ है, उनके ग्रहण करने से ही यथार्थ सभ्यता का संचार हो सकता है, किसी दूसरे उपाय से कदापि नहीं। यदि हर एक स्त्री-पुरुष को जिस किसी पुरुष या स्त्री को पति अथवा पत्नी के रूप में ग्रहण करने की स्वाधीनता दे दी जाए, यदि व्यक्तिगत सुख, पाशव प्रकृति की परितृप्ति, समाज में बिना किसी बाधा के संचारित होती रहे, तो उसका फल अवश्य ही अशुभ होगा। उससे दुष्ट प्रकृति और आसुर स्वभाव की सन्तान उत्पन्न होगी। प्रत्येक देश में एक ओर मनुष्य इस तरह की पशुप्रकृति की सन्तान उत्पन्न कर रहे हैं, दूसरी ओर इनके दमन के लिए पुलिस की संख्या बढ़ा रहे हैं। इस तरह की सामाजिक व्याधि के प्रतिकार की चेष्टा में कोई फल नहीं होता, बल्कि समाज में इन दोषों की उत्पत्ति को कैसे रोका जाए, सन्तानों की सृष्टि किस उपाय से रोकी जाए, यह समस्या उठ खड़ी होती है। और जब तक तुम समाज में हो, तब तक तुम्हारे विवाह का प्रभाव समाज के प्रत्येक मनुष्य पर अवश्य ही पड़ेगा; अतएव तुम्हें किस तरह विवाह करना चाहिए, किस तरह का नहीं इस पर तुम्हें आदेश देने का अधिकार समाज को है। भारतीय विवाहप्रथा के पीछे इसी तरह के ऊँचे भाव है। जन्मपत्रों में वर-कन्या के जो जाति, गण आदि लिखे रहते हैं, अब भी उन्हीं के अनुसार हिन्दू समाज में विवाह होते हैं और प्रसंग के अनुसार मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि मनु के मत में कामोद्भूत पुत्र आर्य नहीं है। गर्भाधान से लेकर मृत्युपर्यंत जिस सन्तान के संस्कार वैदिक विधि के अनुसार हों,वही वास्तव में आर्य है। आजकल सभी देशों में ऐसी आर्य सन्तान बहुत कम पैदा होती है, और इसी का फल है कि कलियुग नाम की दोषराशि की उत्पत्ति हो रही है। हम प्राचीन महान् आदर्शों को भूल गये हैं। यह सच है कि हम लोग इस समय इन भावों को पूर्ण रूप से कार्य में परिणत नहीं कर सकते; यह भी सम्पूर्ण सत्य है कि हम लोगों ने इन सब महान् भावों में से कुछ को हास्यास्पद बना डाला है। यह बिल्कुल सच है और शोक का विषय है कि आजकल प्राचीन काल के से पिता-माता नहीं हैं, समाज भी अब पहले जैसा शिक्षित नहीं है, और प्राचीन समाज में जिस तरह समाज के सभी लोगों के प्रति प्रेम रहता था, अब वैसा नहीं रहता; किन्तु व्यावहारिक रूप में दोषों के आ जाने पर भी वह मूलतत्त्व बड़े ही महत्त्व का है, और यदि उसका कार्यान्वित होना सदोष है, यदि इसके लिए कोई खास तरीका असफल हुआ है, तो उसी मूलतत्त्व को लेकर ऐसी चेष्टा करनी चाहिए, जिससे वह अच्छी तरह काम में आ सके। मूलतत्त्व के नष्ट करने की चेष्टा क्यों? भोजन-सम्बन्धी समस्या के लिए भी यही बात है। वह तत्त्व भी जिस तरह काम में लाया जा रहा है, वह निस्सन्देह बहुत ही खराब है; किन्तु इसमें उस तत्त्व का कोई दोष नहीं। वह सनातन है, वह सदा ही रहेगा, ऐसा पुनः प्रयत्न करो जिससे वह तत्त्व ठीक ठीक भाव से काम में लाया जा सके।

भारत में हमारे सभी सम्प्रदायों को आत्मा-सम्बन्धी इस तत्त्व पर विश्वास करना पड़ता है। केवल द्वैतवादी कहते हैं, जैसा हम आगे विचार करेंगे, असत् कर्मों से वह संकुचित हो जाती है, उसकी सम्पूर्ण शक्ति और स्वभाव संकोच को प्राप्त हो जाते हैं, फिर सत्कर्म करने से उस स्वभाव का विकास होता है। और अद्वैतवादी कहते हैं, आत्मा का न कभी संकोच होता है, न विकास, इस तरह होने की प्रतीति मात्र होती है। द्वैतवादी और अद्वैतवादियों में बस इतना ही भेद है; परन्तु यह बात सभी मानते हैं कि हमारी आत्मा में पहले ही से सम्पूर्ण शक्ति विद्यमान है, ऐसा नहीं कि कुछ बाहर से आत्मा में आए या कोई चीज इसमें आसमान से टपक पड़े। ध्यान देने योग्य बात है कि तुम्हारे वेद प्रेरित (inspired) नहीं है, ऐसे नहीं कि वे बाहर से भीतर जा रहे हैं, किन्तु अन्तःस्फुरित (expired) हैं, अर्थात् भीतर से बाहर आ रहे हैं – वे सनातन नियम हैं जिनकी अवस्थिति प्रत्येक आत्मा में है। चींटी से लेकर देवता तक सब की आत्मा में वेद अवस्थित हैं। चींटी को केवल विकसित होकर ऋषिशरीर प्राप्त करना है; तभी उसके भीतर वेद अर्थात् सनातन तत्त्व प्रकाशित होगा। इस महान् भाव को समझने की आवश्यकता है कि हमारी शक्ति पहले ही से हमारे भीतर मौजूद है – मुक्ति पहले ही से हममें है। उसके लिए इतना कह सकते हो कि वह संकुचित हो गयी है, अथवा माया के आवरण से आवृत हो गयी है, परन्तु इससे कुछ अन्तर नहीं पड़ता। पहले ही से वह वहीं मौजूद है, यह तुम्हें समझ लेना होगा। इस पर तुम्हें विश्वास करना होगा – विश्वास करना होगा कि बुद्ध के भीतर जो शक्ति है, वह एक छोटे से छोटे मनुष्य में भी है। यह हिन्दुओं का आत्मतत्त्व है।

परन्तु यहीं बौद्धों के साथ महाविरोध खड़ा हो जाता है। वे देह का विश्लेषण करके उसे एक जड़स्रोत मात्र कहते हैं और उसी तरह मन का विश्लेषण करके उसे भी एक दूसरा जड़प्रवाह बतलाते हैं। आत्मा के सम्बन्ध में वे कहते हैं, यह अनावश्यक है और उसके अस्तित्व की कल्पना करने की कोई आवश्यकता नहीं। किसी द्रव्य और उससे संलग्न गुणराशि की कल्पना का क्या काम? हम लोग शुद्ध गुण ही मानते हैं। जहाँ सिर्फ एक कारण मान लेने पर सब विषयों की व्याख्या हो जाती है, वहाँ दो कारण मानना युक्तिसंगत नहीं है। इसी तरह बौद्धों के साथ विवाद छिड़ा, और जो मत द्रव्यविशेष का अस्तित्व मानते थे, उनका खण्डन करके बौद्धों ने उनको धूल में मिला दिया। जो द्रव्य और गुण दोनों का अस्तित्व मानते हैं, जो कहते हैं – ‘तुममें एक अलग आत्मा है, हममें एक अलग, हर एक के शरीर और मन से अलग एक एक आत्मा है, हर एक का एक स्वतन्त्र व्यक्तित्व है’ – उनकी तर्कपद्धति में पहले ही से कुछ त्रुटि थी।

यहाँ तक तो द्वैतवाद का मत ठीक है, हम पहले ही देख चुके हैं कि यह शरीर है, यह सूक्ष्म मन है, यह आत्मा है और सब आत्माओं में है वह परमात्मा। यहाँ मुश्किल इतनी ही है कि आत्मा और परमात्मा दोनों ही द्रव्य बतलाये जा रहे हैं और देह-मन आदि तथाकथित द्रव्य उनसे गुणवत् संलग्न हैं, ऐसा स्वीकार किया जा रहा है। अब बात यह है कि किसी ने कभी जिस द्रव्य को नहीं देखा, उसके सम्बन्ध में वह कभी विचार नहीं कर सकता। अतः वे कहते हैं, ऐसी दशा में इस तरह के द्रव्य के मानने की जरूरत क्या है? तो फिर क्षणिकविज्ञानवादी क्यों नहीं हो जाते और क्यों नहीं कहते कि मानसिक तरंगों के सिवा और किसी भी वस्तु का अस्तित्व नहीं है? – उनमें से कोई एक दूसरी से मिली हुई नहीं, वे आपस में मिलकर एक वस्तु नहीं हुरिअं, समुद्र की तरंगों की तरह वे एक दूसरी के पीछे पीछे चली आ रही हैं, वे कभी भी सम्पूर्ण नहीं, वे कभी एक अखण्ड इकाई नहीं बनातीं। मनुष्य बस इसी तरह की तरंगपरम्परा है – जब तक तरंग चली जाती है, तब दूसरी तरंग पैदा कर जाती है, ऐसा ही चलता रहता है और इन्हीं तरंगों की निवृत्ति को निर्वाण कहते हैं। तुम देखते हो, इसके सामने द्वैतवाद मूक है; यह असम्भव है कि वह इसके विरुद्ध कोई युक्ति दे सके, और द्वैतवाद का ईश्वर भी यहाँ नहीं टिक सकता। जो सर्वव्यापी है तथा व्यक्तिविशेष है, बिना हाथों के संसार की सृष्टि कर रहा है, बिना पैरों के जो चल सकता है – इसी प्रकार और भी, कुम्भकार जिस तरह घट का निर्माण करता है, उसी तरह जो विश्व की सृष्टि करता है – उसके लिए बौद्ध कहते हैं, इस तरह की कल्पना बच्चों की जैसी है और यदि ईश्वर इस तरह का है तो वे उस ईश्वर के साथ विरोध करने को तैयार हैं, उसकी उपासना करने के अभिलाषी नहीं। यह संसार दुःख से परिपूर्ण है; यदि यह ईश्वर का काम हो तो बौद्ध कहते हैं, हम इस तरह के ईश्वर के साथ लड़ने को तैयार हैं। और दूसरे, इस तरह के ईश्वर का अस्तित्व अयौक्तिक और असम्भव है। सृष्टिरचनावाद (Design Theory) की त्रुटियों पर विचार करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि क्षणिकविज्ञानवादियों ने उनके सम्पूर्ण युक्तिजाल का खण्डन कर डाला है। अतएव वैयक्त्तिक ईश्वर नहीं टिक सकता।

सत्य, एकमात्र सत्य अद्वैतवादियों का लक्ष्य है। ‘सत्यमेव जयते नानृतम्। सत्येन पन्था विततो देवयानः’6 – ‘सत्य ही की विजय होती है, मिथ्या को कभी विजय नहीं मिलती, सत्य से ही देवयानमार्ग की प्राप्ति होती है।’ सत्य की पताका सभी उड़ाया करते हैं, किन्तु यह केवल दुर्बलों को पददलित करने के लिए। तुम अपने ईश्वरविषयक द्वैतवादात्मक विचार लेकर किसी बेचारे प्रतिमापूजक के साथ विवाद करने जा रहे हो; सोच रहे हो, तुम बड़े युक्तिवादी हो, उसे अनायास ही परास्त कर सकते हो; परन्तु यदि वह उल्टे तुम्हारे ही वैयक्त्तिक ईश्वर को उड़ा दे – उसे काल्पनिक कहे, तो फिर तुम्हारी क्या दशा हो? तब तुम धर्म की दुहाई देने लगते हो, अपने प्रतिद्वन्द्वी को नास्तिक नाम से पुकारकर चिल्ल-पों मचाने लगते हो, और यह तो दुर्बल मनुष्यों का सदा ही नारा रहा है – जो मुझे परास्त करेगा वह घोर नास्तिक है! यदि युक्तिवादी होना चाहते हो तो आदि से अन्त तक युक्तिवादी ही बने रहो, और अगर न रह सको तो तुम अपने लिए जितनी स्वाधीनता चाहते हो, उतनी ही दूसरे को भी क्यों नहीं देते? तुम इस तरह के ईश्वर का अस्तित्व कैसे प्रमाणित करोगे? दूसरी ओर, वह प्रायः अप्रमाणित किया जा सकता है। ईश्वर के अस्तित्व के सम्बन्ध में रंचमात्र प्रमाण नहीं, बल्कि नास्तित्व के सम्बन्ध में कुछ अति प्रबल प्रमाण हैं भी। तुम्हारा ईश्वर, उसके गुण, द्रव्यस्वरूप असंख्य जीवात्मा, प्रत्येक जीवात्मा का एक व्यष्टिभाव, इन सब को लेकर तुम उसका अस्तित्व कैसे प्रमाणित कर सकते हो? तुम व्यक्ति हो किस विषय में? देह के सम्बन्ध में तुम व्यक्ति ही नहीं, क्योंकि इस समय प्राचीन बौद्धों की अपेक्षा तुम्हें और अच्छी तरह मालूम है कि जो जड़राशि कभी सूर्य में रही होगी, वही तुममें आ गयी है, और वही तुम्हारे भीतर से निकलकर वनस्पतियों में चली जा सकती है। इस तरह तुम्हारा व्यक्तित्व कहाँ रह जाता है? तुम्हारे भीतर आज रात एक तरह का विचार है तो कल सुबह दूसरी तरह का। तुम उसी रीति से अब विचार नहीं करते जिस रीति से बचपन में करते थे; कोई व्यक्ति अपनी युवावस्था में जिस ढंग से विचार करता था, वैसे वृद्धावस्था में नहीं करता। तो फिर तुम्हारा व्यक्तित्व कहाँ रह जाता है? यह मत कहो कि ज्ञान में ही तुम्हारा व्यक्तित्व है – ज्ञान अहंकार मात्र है और यह तुम्हारे यथार्थ अस्तित्व के एक बहुत छोटे अंश में व्याप्त है। जब मैं तुमसे बातचीत करता हूँ, तब मेरी सभी इन्द्रियाँ काम करती रहती हैं, परन्तु उनके सम्बन्ध में मैं कुछ नहीं जान सकता। यदि वस्तु की सत्ता का प्रमाण ज्ञान ही हो तो कहना पड़ेगा कि उनका (इन्द्रियों का) अस्तित्व नहीं है, क्योंकि मुझे उनके अस्तित्व का ज्ञान नहीं रहता। तो अब तुम अपने वैयक्त्तिक ईश्वर-सम्बन्धी सिद्धान्तों को लेकर कहाँ रह जाते हो? इस तरह का ईश्वर तुम कैसे प्रमाणित कर सकते हो?

फिर और, बौद्ध खड़े होकर यह घोषणा करेंगे कि यह केवल अयौक्तिक ही नहीं, वरन् अनैतिक भी है, क्योंकि वह मनुष्य को कापुरुष बन जाना और बाहर से सहायता लेने की प्रार्थना करना सिखलाता है – इस तरह कोई भी तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता। यह जो ब्रह्माण्ड है इसका निर्माण मनुष्य ने ही किया है। तो फिर बाहर क्यों एक काल्पनिक व्यक्तिविशेष पर विश्वास करते हो जिसे न कभी किसी ने देखा, न जिसका कभी अनुभव किया अथवा जिससे न कभी किसी को कोई सहायता मिली? क्यों फिर अपने को कापुरुष बना रहे हो और अपनी सन्तानों को सिखलाते हो कि कुत्ते की तरह हो जाना मनुष्य की सर्वोच्च अवस्था है, और चूँकि हम कमजोर, अपवित्र और संसार में अत्यन्त हेय और अधम हैं, इसलिए इस काल्पनिक सत्ता के सामने घुटने टेककर बैठ जाना चाहिए? दूसरी ओर, बौद्ध तुमसे कहेंगे, तुम अपने को इस तरह कहकर केवल झूठ ही नहीं कहते, किन्तु तुम अपनी सन्तानों के लिए घोर पाप का संचय करते हो; क्योंकि, स्मरण रहे, यह संसार एक प्रकार का सम्मोहन है, मनुष्य जैसा सोचते हैं, वैसे ही हो जाते हैं। अपने सम्बन्ध में तुम जैसा कहोगे, वैसे ही बन जाओगे। भगवान् बुद्ध की पहली बात यह है – ‘तुमने अपने सम्बन्ध में जो कुछ सोचा है, तुम वही हुए हो; भविष्य में जो कुछ सोचोगे वैसे ही होगे।’ यदि यह सत्य है तो कभी यह मत सोचना कि तुम कुछ नहीं हो, या जब तक तुम किसी दूसरे की, जो यहाँ नहीं रहता, स्वर्ग में रहता है, सहायता नहीं पाते तब तक कुछ नहीं कर सकते। इस तरह सोचने से उसका फल यह होगा कि तुम प्रतिदिन अधिकाधिक कमजोर होते जाओगे। ‘हम महा अपवित्र हैं हे प्रभो, हमें पवित्र करो’ – इसका परिणाम होगा कि तुम अपने को हर प्रकार के पापों के लिए विवश कर दोगे। बौद्ध कहते हैं, प्रत्येक समाज में जिन पापों को देखते हो उसमें नब्बे प्रतिशत बुराइयाँ इसी वैयक्त्तिक ईश्वर की धारणा के कारण उत्पन्न हुई है, मनुष्यजीवन का, अद्भुत मनुष्यजीवन का, एकमात्र उद्देश्य एवं लक्ष्य अपने को कुत्ते की तरह बना डालना – यह मनुष्य की एक भयानक धारणा है। बौद्ध वैष्णवों से कहते हैं, यदि तुम्हारा आदर्श, तुम्हारे जीवन का लक्ष्य और उद्देश्य भगवान् के वैकुण्ठ नामक स्थान में जाकर अनन्त काल तक हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ा रहना ही है तो इससे आत्महत्या कर डालना अधिक अच्छा है। बौद्ध यहाँ तक कह सकते हैं कि इस भाव से बचने के लिए ही वे निर्वाण या विनाश की चेष्टा कर रहे हैं। मैं तुम लोगों के सामने ठीक बौद्ध की ही तरह ये बातें कह रहा हूँ; क्योंकि आजकल लोग कहा करते हैं कि अद्वैतवाद से लोगों में अनैतिकता घुस जाती है। इसलिए दूसरे पक्ष के लोगों का जो कुछ कहना है, वही मैं तुमसे कहने की चेष्टा कर रहा हूँ। हमें दोनों पक्षों पर निर्भीक भाव से विचार करना है।

एक वैयक्त्तिक ईश्वर ने संसार की सृष्टि की – इसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता। यह हमने सर्वप्रथम समझ लिया। क्या एक बालक भी आजकल इस बात पर विश्वास कर सकता है? चूँकि एक कुम्भकार ने घट का निर्माण किया, अतएव एक ईश्वर ने इस जगत् की सृष्टि की। यदि ऐसा ही हो तो ईश्वर भी तुम्हारा एक कुम्भकार ही हुआ। और यदि कोई तुमसे कहे कि सिर और हाथों के न रहने पर भी वह काम करता है, तो तुम उसे पागलखाने में रखने की ठानोगे। तुम्हारे ईश्वर ने – इस संसार के सृष्टिकर्ता वैयक्त्तिक ईश्वर ने, जिसके पास तुम जीवन भर चिल्ला रहे हो, क्या कभी तुम्हें कोई सहायता दी? आधुनिक विज्ञान तुम लोगों के सामने यह एक और प्रश्न पेश करके उसके उत्तर के लिए चुनौती दे रहा है। वे प्रमाणित कर देंगे कि इस तरह की जो सहायता तुम्हें मिली है, उसे तुम अपनी ही चेष्टा से प्राप्त कर सकते थे। इस तरह के रुदन से वृथा शक्तिक्षय करने की तुम्हारे लिए कोई आवश्यकता नहीं थी, इस तरह न रोकर तुम अपना उद्देश्य अनायास ही प्राप्त कर सकते थे। और भी, हम लोग पहले देख चुके हैं कि इस तरह के वैयक्त्तिक ईश्वर की धारणा से ही अत्याचार और पुरोहितप्रपंच का आविर्भाव हुआ। जहाँ यह धारणा विद्यमान थी, वहाँ अत्याचार और पुरोहितप्रपंच प्रचलित थे और बौद्धों का कथन है कि जब तक वह मिथ्या भाव जड़समेत नष्ट नहीं होता, तब तक यह अत्याचार बन्द नहीं हो सकता। जब तक मनुष्य सोचता है कि किसी दूसरे अलौकिक पुरुष के सामने उसे विनीत भाव से रहना होगा, तब तक पुरोहित का अस्तित्व अवश्य रहेगा; वे विशेष अधिकार या दावे पेश करेंगे, ऐसी चेष्टा करेंगे जिससे मनुष्य उनके सामने सिर झुकाए; और बेचारे असहाय व्यक्ति मध्यस्थता करने के लिए पुरोहितों के प्रार्थी बने रहेंगे। तुम लोग ब्राह्मणों को निर्मूल कर सकते हो, परन्तु इस बात पर ध्यान रखो कि जो लोग ऐसा करेंगे, वे ही उनके स्थान पर अपना अधिकार जमाएँगे, और वे फिर ब्राह्मणों की अपेक्षा अधिक अत्याचारी बन जाएँगे। क्योंकि ब्राह्मणों में फिर भी कुछ उदारता है, परन्तु ये स्वयंसिद्ध ब्राह्मण सदा से ही बड़े दुराचारी हुआ करते हैं। भिक्षुक को यदि कुछ धन मिल जाए तो वह सम्पूर्ण संसार को एक तिनके के बराबर समझता है। अतएव जब तक इस वैयक्त्तिक ईश्वर की धारणा बनी रहेगी, तब तक ये सब पुरोहित भी रहेंगे और समाज में किसी तरह की उच्च नैतिकता की आशा ही की नहीं जा सकेगी। पुरोहितप्रपंच और अत्याचार सदा एक साथ रहेंगे। क्यों लोगों ने इस वैयक्त्तिक ईश्वर की कल्पना की? कारण इसका यह है कि प्राचीन समय में कुछ बलवान मनुष्यों ने साधारण मनुष्यों को अपने वश में लाकर उनसे कहा था, तुम्हें हमारा आदेश मानकर चलना होगा, नहीं तो हम तुम्हारा नाश कर डालेंगे। यही इसका अर्थ और इति है। इसका कोई दूसरा कारण नहीं – ‘महद्भयं वज्रमुद्यतम्’ – एक ऐसा पुरुष है, जो हाथ में सदा ही वज्र लिये रहता है और जो उसकी आज्ञा का उल्लंघन करता है, उसका वह तत्काल विनाश कर डालता है।

इसके बाद बौद्ध कहते हैं, तुम्हारा यह कथन पूर्णतया युक्तिसम्मत है कि सब कुछ कर्मवाद का फल है। तुम लोग असंख्य जीवात्माओं के सम्बन्ध में विश्वास करते हो, और तुम्हारे मत में इस जीवात्मा का न जन्म है, न मृत्यु। यहाँ तक तो तुम्हारी बात बिल्कुल युक्तिपूर्ण रही, इसमें कोई सन्देह नहीं। कारण के रहने ही से कार्य होगा; वर्तमान समय में जो कुछ घटित हो रहा है, वह अतीत कारण का कार्य है, फिर वही वर्तमान भविष्य में दूसरा फल उत्पन्न करेगा। हिन्दू कहते हैं, कर्म जड़ है, चैतन्य नहीं; अतएव कर्म के फल का लाभ पाने के लिए किसी तरह का चैतन्य चाहिए। इस पर बौद्ध कहते हैं, वृक्ष से फल प्राप्त करने के लिए क्या किसी तरह के चेतन की जरूरत पड़ती है? यदि बीज बोकर पौधे को पानी से सींचा जाए तो उसके फल लगने में तो किसी तरह के चैतन्य की आवश्यकता नहीं होती। तुम कह सकते हो, ऐसे काम कुछ आदिचैतन्य की शक्ति से हुआ करते हैं, किन्तु जब कि जीवात्मा ही चैतन्य है तो अन्य चैतन्य मानने की क्या आवश्यकता है? जैन लोग कहते ही हैं – यदि जीवात्माओं में चैतन्य रहे तो ईश्वर को मानने की क्या आवश्यकता है? बौद्ध जीवात्मा के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते, जैन जीवात्मा पर विश्वास करते हैं, परन्तु ईश्वर नहीं मानते। अब कहो, तुम्हारी युक्ति और तुम्हारी नैतिकता की भित्ति कहाँ रह गयी? जब तुम अद्वैतवाद की आलोचना करते हो और डरते हो कि अद्वैतवाद से अनैतिकता की सृष्टि होगी तो तुम्हें चाहिए कि द्वैतवादी सम्प्रदायों ने भारत में क्या किया, इसे भी थोड़ासा पढ़कर देखो। यदि बीस हजार अद्वैतवादी बदमाश होंगे तो बीस हजार द्वैतवादी बदमाश भी होंगे। साधारणतः यह कहा जा सकता है कि द्वैतवादी बदमाशों ही की संख्या अधिक होगी, क्योंकि अद्वैतवाद समझने के लिए उनकी अपेक्षा कुछ अधिक बुद्धिसम्पन्न मनुष्यों की आवश्यकता होती है; और उन्हें भय दिखलाकर उनसे सहज ही कोई काम निकाल लेना जरा मुश्किल भी है। तो हिन्दुओं, अब तुम्हारे लिए रह क्या जाता है? बौद्धों के वारों से बचने के लिए कोई उपाय नहीं है। तुम वेदों के वाक्य उद्धृत कर सकते हो, परन्तु बौद्ध तो वेद मानते नहीं। वे कहेंगे, “हमारे त्रिपिटक कुछ और कहते हैं, वे अनादि और अनन्त हैं – यहाँ तक कि वे बुद्ध के लिखे भी नहीं, क्योंकि बुद्ध स्वयं कहते हैं कि हम उनकी आवृत्तिमात्र करते हैं, किन्तु हैं वे सनातन।” बौद्ध यह भी कहते हैं, “तुम्हारे वेद मिथ्या हैं, हमारे त्रिपिटक ही सच्चे वेद हैं; तुम्हारे वेद ब्राह्मण पुरोहितों द्वारा कल्पित है – उन्हें दूर करो।” अब तुम कैसे बच सकते हो?

बाहर निकलने का उपाय यह है। बौद्धों से जो दार्शनिक विरोध है, वह केवल द्रव्य और गुण को एक दूसरे से भिन्न मानने के कारण है। परन्तु अद्वैतवादी कहते हैं – “नहीं, वे परस्पर भिन्न नहीं हैं – द्रव्य और गुण में कोई भिन्नता नहीं है। तुम्हें ‘सर्प-रज्जु-भ्रम’वाला प्राचीन दृष्टान्त स्मरण होगा। जब तुम सर्प देखते हो, तब तुम्हें रज्जु बिल्कुल ही नहीं दीख पड़ती, उस समय रज्जु का अस्तित्व ही लुप्त हो जाता है। द्रव्य और गुण के रूप में किसी वस्तु के अलग अलग हिस्से करना दार्शनिकों के मस्तिष्क में एक दार्शनिक व्यापार मात्र है; क्योंकि द्रव्य और गुण के नामों से वास्तव में किसी पदार्थ का अस्तित्व नहीं है। यदि तुम एक साधारण मनुष्य हो तो तुम केवल गुणों को देखोगे, और यदि तुम कोई बड़े योगी हो तो तुम द्रव्य का ही अस्तित्व देखोगे; परन्तु दोनों को एक ही समय में तुम कदापि नहीं देख सकते। अतएव, हे बौद्ध, द्रव्य और गुण को लेकर तुम जो विवाद कर रहे हो, सच तो यह है कि वह बेबुनियाद है। परन्तु, यदि द्रव्य गुणरहित है तो केवल एक ही द्रव्य का अस्तित्व सिद्ध होता है। यदि तुम आत्मा से गुणों को हटा लो और यह सिद्ध करो कि गुणों का अस्तित्व मन में ही है, आत्मा पर उसका आरोप मात्र किया गया है, तो दो आत्मा भी नहीं रह जाती, क्योंकि एक आत्मा से दूसरी आत्मा की विशेषता गुणों ही की बदौलत सिद्ध होती है। तुम्हें कैसे मालूम होता है कि एक आत्मा दूसरी आत्मा से पृथक् है? – कुछ भेदात्मक लिंगों, कुछ गुणों के कारण। और जहाँ गुणों की सत्ता नहीं है, वहाँ कैसे भेद रह सकता है? अतः आत्मा दो नहीं, आत्मा ‘एक’ ही है, और तुम्हारा परमात्मा अनावश्यक है, वह आत्मा ही है। इसी एक आत्मा को परमात्मा कहते हैं, इसे जीवात्मा और दूसरे नामों से भी पुकारते हैं। और हे सांख्य तथा अपर द्वैतवादियों, तुम लोग कहते रहते हो – आत्मा सर्वव्यापी विभु है, इस पर तुम लोग किस तरह अनेक आत्माओं का अस्तित्व स्वीकार करते हो? असीम क्या कभी दो हो सकते है? एक होना ही सम्भव है। एक ही असीम आत्मा है, और सब उसी की अभिव्यक्तियाँ है। इसके उत्तर में बौद्ध मौन हैं, परन्तु अद्वैतवादी चुप नहीं रह जाते।

दुर्बल मतों की तरह केवल दूसरे मतों की समालोचना करके ही अद्वैतपक्ष निरस्त नहीं होता। अद्वैतवादी तभी उन मतों की समालोचना करते हैं, जब वे उसके बहुत निकट आ जाते हैं और उसके खण्डन की चेष्टा करते हैं। वह सिर्फ इतना ही करता है कि दूसरे मतों का निराकरण कर अपने सिद्धान्त को स्थापित करता है। एकमात्र अद्वैतवादी ही ऐसा है जो दूसरे मतों का खण्डन तो करता है, परन्तु दूसरों की तरह उसके खण्डन का आधार शास्त्रों की दुहाई देना नहीं है। अद्वैतवादियों की युक्ति इस प्रकार है : वे कहते हैं, तुम संसार को एक अविराम गतिप्रवाह मात्र कहते हो; ठीक है, व्यष्टि में सब गतिशील हैं भी, तुममें भी गति है और मेज में भी गति है, गति सर्वत्र है। इसलिए इसका नाम संसार है, इसलिए इसका नाम जगत् है – अविराम गति।* यदि यही है तो हमारे संसार में व्यक्तित्व के नाम से कुछ भी नहीं रह जाता; कारण व्यक्तित्व के नाम से ऐसा कुछ सूचित होता है, जो अपरिवर्तनशील है। परिवर्तनशील व्यक्तित्व हो ही नहीं सकता, यह स्वविरोधी वाक्य है। इसलिए हमारे इस क्षुद्र जगत् में व्यक्तित्व के नाम से कुछ भी नहीं रह जाता। विचार, भाव, मन, शरीर, जीव-जन्तु और वनस्पति – इनका सदा ही परिवर्तन होता रहता है। अस्तु। अब सम्पूर्ण विश्व को एक समष्टि की इकाई के रूप में ग्रहण करो। क्या यह परिवर्तित या गतिशील हो सकती है? कदापि नहीं। किसी अल्प गतिशील या सम्पूर्ण गतिहीन वस्तु से तुलना करने पर ही गति का निश्चय होता है। अतः समष्टि के रूप में विश्व गति और परिणाम से रहित है। यहाँ मालूम हो जाता है कि जब तुम अपने को सम्पूर्ण विश्व से अभिन्न समझोगे, जब ‘मैं ही विश्व-ब्रह्माण्ड हूँ’ यह अनुभव होगा, तभी – केवल तभी, तुम्हारे यथार्थ व्यक्तित्व का विकास होगा। यही कारण है कि अद्वैतवादी कहते हैं, जब तक द्वैत है, तब तक भय से छूटने का कोई उपाय नहीं है। जब कोई दूसरी वस्तु दिखलाई नहीं पड़ती, किसी भिन्न भाव का अनुभव नहीं होता, जब केवल एक ही सत्ता रह जाती है, तभी भय दूर होता है, तभी मनुष्य मृत्यु के पार जा सकता है। और तभी संसारबोध लुप्त हो जाता है। अद्वैतवाद हमें यह शिक्षा देता है कि मनुष्य का यथार्थ व्यक्तित्व है समष्टि-ज्ञान में, व्यष्टिज्ञान में नहीं। जब तुम अपने को सम्पूर्ण समझोगे, तभी तुम अमर होगे। तभी तुम निर्भय और अमृतस्वरूप हो सकोगे, जब विश्व-ब्रह्माण्ड के साथ एक हो जाओगे, और तब, जिसे तुम परमात्मा कहते हो, जिसे सत्ता कहते हो और जिसे पूर्ण कहते हो, वह विश्व-ब्रह्माण्ड से एक हो जाएगा। हम और हमारी तरह की मनोवृत्तिवाले लोग उस एक ही अखण्ड सत्ता को विविधतापूर्ण विश्व के रूप में देखते हैं। जो लोग कुछ और अच्छे कर्म करते हैं तथा उन सत्कर्मों के बल से जिनकी मनोवृत्तियाँ कुछ और उत्तम हो जाती है, वे मृत्यु के पश्चात् इसी ब्रह्माण्ड में इन्द्रादि देवों का स्वर्गलोक देखते हैं। उनसे भी ऊँचे लोग इसमें ही ब्रह्मलोक देखते हैं। और जो लोग पूर्ण सिद्ध हो गये हैं, वे पृथ्वी, स्वर्ग या कोई दूसरा लोक नहीं देखते; उनके लिए यह ब्रह्माण्ड अन्तर्हित हो जाता है, उसकी जगह एकमात्र ब्रह्म ही विराजमान रहता है।

क्या हम इस ब्रह्म को जान सकते है? मैंने तुमसे पहले ही संहिता में उपलब्ध अनन्त के वर्णन के विषय में कहा है। यहाँ हमको उसका ठीक विपरीत पक्ष मिलता है – यहाँ आन्तरिक अनन्त है। संहिता में बहिर्जगत् के अनन्त का वर्णन है। यहाँ चिन्तनजगत्, भावजगत् के अनन्त का वर्णन है। संहिता में अस्तिभावात्मक भाषा में अनन्त के वर्णन की चेष्टा हुई थी; यहाँ उस भाषा से काम नहीं निकला, अतः नास्तिभावात्मक या ‘नेति-नेति’ की भाषा में वर्णन का प्रयत्न किया गया। यह विश्व-ब्रह्माण्ड है, माना कि यह ब्रह्म है। पर क्या हम इसे जान सकते हैं? – नहीं, नहीं जान सकते। तुम्हें इस विषय को स्पष्ट रीति से फिर समझना होगा। तुम्हारे मन में बार बार इस सन्देह का आविर्भाव होगा कि यदि यह ब्रह्म है, तो किस तरह हम इसे जान सकते है। ‘विज्ञातारमरे केन विजानीयात्।’7 – ‘विज्ञाता को किस तरह जाना जाए?’ विज्ञाता को कैसे जान सकते हैं? आँखें सब वस्तुओं को देखती हैं, पर क्या वे स्वयं को भी देख सकती हैं? नहीं देख सकती। ज्ञान की क्रिया ही एक नीची अवस्था है। ऐ आर्यसन्तानों, तुम्हें यह विषय अच्छी तरह याद रखना चाहिए, क्योंकि इस तत्त्व में एक महान् तथ्य निहित है। तुम्हारे निकट पश्चिम के जो सारे प्रलोभन आया करते हैं, उनकी दार्शनिक बुनियाद एक यही है कि इन्द्रियज्ञान से बढ़कर दूसरा ज्ञान नहीं है; परन्तु पूर्व में हमारे वेदों में कहा गया है कि यह वस्तुज्ञान वस्तु की अपेक्षा नीचे दर्जे का है, क्योंकि ज्ञान का तात्पर्य सदा ससीम भाव से ही होता है। जब कभी तुम किसी वस्तु को जानना चाहते हो, तभी वह तुम्हारे मन के द्वारा सीमाबद्ध हो जाती है। पूर्वकथित दृष्टान्त में जिस तरह सीप से मोती बनता है, उस पर विचार करो, तभी तुम समझोगे कि ज्ञान का अर्थ सीमाबद्ध करना कैसे हुआ। जब तुम किसी वस्तु को जानते हो, तो उसे अपनी चेतना के घेरे में ले आते हो, उसको सम्पूर्ण भाव से जान नहीं पाते हो। यही बात समस्त ज्ञान के सम्बन्ध में है। यदि ज्ञान का अर्थ सीमाबद्ध करना ही हो तो क्या उस अनन्त के सम्बन्ध में भी तुम ऐसा कर सकते हो? जो सब ज्ञानों का उपादान (आधार) है, जिसे छोड़कर तुम किसी तरह का ज्ञान अर्जित नहीं कर सकते, जिसके कोई गुण नहीं है, जो सम्पूर्ण संसार और हम लोगों की आत्मा का साक्षीस्वरूप है, उसके सम्बन्ध में तुम वैसा कैसे कर सकते हो – उसे तुम कैसे सीमा में ला सकते हो? उसे तुम कैसे जान सकते हो? किस उपाय से उसे बाँधोगे? हर एक वस्तु, यह सम्पूर्ण संसार-प्रपंच, उस अनन्त के जानने की वृथा चेष्टा मात्र है। मानो यह अनन्त आत्मा अपने मुखावलोकन की चेष्टा कर रही है, और सर्वोच्च देवता से लेकर निम्नतम प्राणी तक सभी, मानो उसके मुख का प्रतिबिम्ब ग्रहण करने के दर्पण हैं। एक एक करके एक एक दर्पण में अपने मुख का प्रतिबिम्ब देखने की चेष्टा करके, उसे उपयुक्त न देख अन्त में मनुष्यदेह में आत्मा समझ पाती है कि यह सब ससीम है, और अनन्त कभी सान्त के भीतर अपने को प्रकाशित नहीं कर सकता। उसी समय पीछे की ओर हटने की यात्रा शुरू होती है, और इसी को त्याग या वैराग्य कहते हैं। इन्द्रियों से पीछे हट जाओ, इन्द्रियों की ओर मत जाओ, यही वैराग्य का मूलमन्त्र है, यही सब तरह की नैतिकताओं और निःश्रेयस् का मूलमन्त्र है, क्योंकि तुम्हें स्मरण रखना चाहिए कि त्याग-तपस्या से ही संसार की सृष्टि हुई है। और जितना ही पीछे की ओर तुम जाओगे उतने ही तुम्हारे सामने भिन्न भिन्न रूप, भिन्न भिन्न देह क्रमशः अभिव्यक्त होते रहेंगे और एक एक करके उनका त्याग होता जाएगा; अन्त में तुम वास्तव में जो कुछ हो, वही रह जाओगे। यही मोक्ष या मुक्ति है

यह तत्त्व हमें समझ लेना चाहिए : ‘विज्ञातारमरे केन विजानीयात्’ – ‘विज्ञाता को कैसे जानोगे?’ ज्ञाता को कोई जान नहीं सकता, क्योंकि यदि वह समझ में आने योग्य होता, तो वह कभी ज्ञाता न रह जाता। और यदि तुम आइने में अपनी आँखों का बिम्ब देखो, तो तुम उन्हें अपनी आँखें नहीं कह सकते, वे कुछ और ही हैं, वे बिम्बमात्र हैं। अब बात यह है कि यदि यह आत्मा – यह अनन्त सर्वव्यापी पुरुष साक्षी मात्र हो, तो इससे क्या हुआ? यह हमारी तरह न चल-फिर सकता है, न जीता है, न संसार का उपभोग ही कर सकता है। यह बात लोगों की समझ में नहीं आती कि जो साक्षीस्वरूप है, वह किस तरह आनन्द का उपभोग कर सकता है। वे कहा करते हैं, “हे हिन्दुओं, तुम सब साक्षीस्वरूप हो, इस मत के कारण तुम लोग निष्क्रिय और अकर्मण्य हो गये हो।” उनकी इस बात का उत्तर यह है, ‘जो साक्षीस्वरूप है, वही वास्तव में आनन्दोपभोग कर सकता है।’ अगर कहीं कुश्ती लड़ी जाती है तो अधिक आनन्द किन्हें मिलता है? – जो लोग कुश्ती लड़ रहे हैं उन्हें या जो दर्शक हैं उन्हें? इस जीवन में जितना ही तुम किसी विषय में साक्षीस्वरूप हो सकोगे उतना ही तुम्हें उससे अधिक आनन्द मिलता रहेगा। यथार्थ आनन्द यही है और इस युक्ति से तुम्हारे लिए अनन्त आनन्द की प्राप्ति तभी सम्भव है, जब तुम इस विश्व-ब्रह्माण्ड के साक्षीस्वरूप हो सको। तभी तुम मुक्त पुरुष हो सकोगे। जो साक्षीस्वरूप है, वही निष्काम भाव से स्वर्ग जाने की इच्छा न रख, निन्दास्तुति को समदृष्टि से देखता हुआ कार्य कर सकता है। जो साक्षीस्वरूप है, वही आनन्द पा सकता है, दूसरा नहीं। अद्वैतवाद के नैतिक भाग की विवेचना करते समय उसके दार्शनिक तथा नैतिक भाग के अन्तर्गत एक और विषय आ जाता है, वह मायावाद है। अद्वैतवाद के अन्तर्गत एक एक विषय के समझने में ही वर्षों लग जाते हैं और व्याख्या करने में महीनों लग जाते हैं, इसलिए इसका मैं उल्लेख मात्र ही करूँगा। इस मायावाद को समझना सभी युगों में बड़ा कठिन रहा है। मैं तुमसे संक्षेप में कहता हूँ, मायावाद वास्तव में कोई वाद या मतविशेष नहीं है, वह देश, काल और निमित्त की समष्टि मात्र है – और इस देश-काल-निमित्त को आगे नाम-रूप में परिणत किया गया है। मान लो समुद्र में एक तरंग है। समुद्र से समुद्र की तरंगों का भेद सिर्फ नाम और रूप में है, और इस नाम और रूप की तरंग से पृथक् कोई सत्ता भी नहीं है, नाम और रूप दोनों तरंग के साथ ही है, तरंगें विलीन हो जा सकती है; और तरंग में जो नाम और रूप हैं, वे भी चाहे सदा के लिए विलीन हो जाएँ, पर पानी पहले की तरह सम मात्रा में ही बना रहेगा। इस प्रकार यह माया ही तुममें और हममें, पशुओं में और मनुष्यों में, देवताओं में और मनुष्यों में भेदभाव पैदा करती है। सच तो यह है कि यह माया ही है जिसने आत्मा को मानो लाखों प्राणियों में बाँध रखा है और उनकी परस्पर भिन्नता का बोध नाम और रूप से ही होता है। यदि उनका त्याग कर दिया जाए, नाम और रूप दूर कर दिये जाएँ, तो वह सदा के लिए अन्तर्हित हो जाएगी, तब तुम वास्तव में जो कुछ हो, वही रह जाओगे। यही माया है। और फिर यह कोई सिद्धान्त भी नहीं है, केवल तथ्यों का कथन मात्र है।

जब कोई यथार्थवादी कहता है कि इस मेज का अस्तित्व है, तब उसके कहने का अभिप्राय होता है कि उस मेज की अपनी एक खास निरपेक्ष सत्ता है, उसका अस्तित्व संसार की किसी भी दूसरी वस्तु पर अवलम्बित नहीं, और यदि यह सम्पूर्ण विश्व नष्ट हो जाए तो भी वह ज्यों की त्यों ही बनी रहेगी। कुछ थोड़ासा विचार करने पर ही तुम्हारी समझ में आ जाएगा कि ऐसा कभी हो नहीं सकता। इस इन्द्रियग्राह्य संसार की सभी चीजें एक दूसरी पर अवलम्बित हैं, वे एक दूसरी की अपेक्षा रखती हैं; वे सापेक्ष और परस्पर सम्बन्धित हैं – एक का अस्तित्व दूसरे पर निर्भर है। हमारे वस्तुज्ञान के तीन सोपान हैं। पहला यह है कि प्रत्येक वस्तु स्वतन्त्र है और एक दूसरी से अलग है; दूसरा यह कि सभी वस्तुओं में पारस्परिक सम्बन्ध है; और अन्तिम सोपान यह है कि वस्तु एक ही है, जिसे हम लोग अनेक रूपों में देख रहे हैं। ईश्वर के सम्बन्ध में अज्ञ मनुष्य की पहली धारणा यह होती है कि वह इस ब्रह्माण्ड के बाहर कहीं रहता है, जिसका मतलब है कि उस समय का ईश्वरविषयक ज्ञान पूर्णतः मानवीय होता है, अर्थात् जो कुछ मनुष्य करते हैं, ईश्वर भी वही करता है, भेद केवल यही है कि ईश्वर के कार्य अधिक बड़े पैमाने पर तथा अधिक उच्च प्रकार के होते हैं। हम लोग पहले समझ चुके हैं कि ईश्वर-सम्बन्धी ऐसी धारणा थोड़े ही शब्दों में कैसे अयौक्तिक और अपर्याप्त प्रमाणित की जा सकती है। ईश्वर के सम्बन्ध में दूसरी धारणा यह है कि वह एक शक्ति है, और उसी की सर्वत्र अभिव्यक्तियाँ हैं। इसे वास्तव में हम सगुण ईश्वर कह सकते हैं, ‘दुर्गासप्तशती’ में इसी ईश्वर की बात कही गयी है। परन्तु इस पर ध्यान रहे कि यह ईश्वर केवल सम्पूर्ण कल्याणकारी गुणों का ही आधार नहीं है। ईश्वर और शैतान – दो देवता नहीं रह सकते, एक ही ईश्वर का अस्तित्व मानना पड़ेगा और हिम्मत बाँधकर भला और बुरा उसी ईश्वर को मानना पड़ेगा, और यह युक्तिसम्मत सिद्धान्त मान लेने पर जो कुछ ठहरता है, उसे भी लेना होगा। हम ‘दुर्गासप्तशती’ में पढ़ते हैं, ‘जो देवी सभी प्राणियों में शान्ति के रूप में अवस्थित है, उसे हम नमस्कार करते हैं। जो देवी सभी प्राणियों में शुद्धिरूपा होकर स्थित है, उसे हम नमस्कार करते हैं।’8 उन्हें सर्वस्वरूप कहने से उसका फल चाहे जैसा हो, साथ ही उसे भी लेना होगा। ‘हे गार्गि, सब कुछ आनन्द है, इस संसार में जो कुछ आनन्द देख रही हो, सब उसी आध्यात्मिक तत्त्व का अंश है।’ इसकी सहायता से तुम हर एक काम कर सकते हो। मेरे सामने के इस प्रकाश में चाहे तुम किसी गरीब को हजार रुपये गिन दो और चाहे कोई दूसरा इसी प्रकाश में तुम्हारा जाली हस्ताक्षर करे, प्रकाश दोनों ही के लिए बराबर है। यह हुआ ईश्वरज्ञान का दूसरा सोपान। तीसरा सोपान यह है कि ईश्वर न तो प्रकृति के बाहर ही है और न भीतर ही; बल्कि ईश्वर प्रकृति, आत्मा, विश्व – ये सब पर्यायवाची शब्द हैं। दो वस्तुएँ वास्तव में हैं ही नहीं, कुछ दार्शनिक शब्दों ने ही तुम्हें धोखा दिया है। तुम सोच रहे हो, तुम शरीर भी हो और आत्मा भी हो, और एक साथ ही तुम शरीर और आत्मा बन गये हो। यह कैसे हो सकता है? मन ही मन इसकी जाँच करो। यदि तुम लोगों में कोई योगी होगा तो वह अपने को चैतन्यस्वरूप जानता होगा, उसके लिए शरीर है ही नहीं। यदि तुम साधारण मनुष्य होगे तो तुम अपने को देह सोचोगे, इस समय चैतन्य के सम्पूर्ण ज्ञान का लोप हो जाएगा। मनुष्य के देह है, आत्मा है, और भी बहुतसी चीजें हैं – इन सब दार्शनिक धाराओं के रहने के कारण तुम लोग सोचते होगे कि ये सब एक ही समय में मौजूद हैं, परन्तु ऐसा नहीं है। एक समय में एक वस्तु का अस्तित्व है। जब तुम जड़ वस्तु देख रहे हो, तब ईश्वर की चर्चा मत करो, क्योंकि तुम केवल कार्य ही देख रहे हो, उसका कारण तुम्हें नहीं दिखाई पड़ता। और जिस समय तुम कारण देखोगे उस समय कार्य का लोप हो जाएगा। तब यह संसार न जाने कहाँ चला जाता है, न जाने कौन इसका ग्रास कर लेता है।

‘समाधि-अवस्था में ज्ञानी के हृदय में अनिर्वचनीय, केवल आनन्दस्वरूप, उपमारहित, अपार, नित्यमुक्त्त, निष्क्रिय, असीम, आकाशतुल्य, अंशहीन, भेदरहित, पूर्णस्वरूप ऐसा ही ब्रह्म प्रकाशमान होता है।’

‘समाधि-अवस्था में ज्ञानी के हृदय में ऐसा पूर्ण ब्रह्म प्रकाशमान होता है, जो प्रकृति की विकृति से रहित है, अचिन्त्यस्वरूप है, समभाव होने पर भी जिसकी समता करनेवाला कोई नहीं है, जिसमें किसी तरह के परिणाम का सम्बन्ध नहीं है (जो अपरिमेय है), जो वेदवाक्यों द्वारा सिद्ध है और जो, हम जिसे अपनी सत्ता कहते हैं उसका सार है।’

‘समाधि-अवस्था में ज्ञानी के हृदय में ऐसा पूर्ण ब्रह्म प्रकाशमान होता है, जो जरा और मृत्यु से रहित है, जो अद्वय और अतुलनीय है, जो महाप्रलयकालीन जलप्लावन में निमग्न उस समस्त विश्व के सदृश निःस्तब्ध और शान्त है, जिसके ऊपर, नीचे, चारों तरफ जल ही जल है और जल की सतह पर तरंग की कौन कहे, एक छोटीसी लहर भी नहीं है, जहाँ समस्त दर्शन आदि का अन्त हो गया है, मूर्कों तथा ज्ञानियों के सभी लड़ाई-झगड़ों और युद्धों का सदा के लिए अन्त हो गया है।’9

मनुष्य की ऐसी अवस्था भी होती है, और जब यह अवस्था आती है तब संसार विलीन हो जाता है।

अब हमने देखा कि सत्यस्वरूप ब्रह्म अज्ञात और अज्ञेय है, परन्तु अज्ञेयवादियों की दृष्टि से नहीं। हम ‘उसे’ जान गये, यह कहना ही पाखण्डपूर्ण बात है; क्योंकि पहले ही से तुम वही (ब्रह्म) हो। हमने यह भी देखा है कि एक तरीके से ब्रह्म यह मेज नहीं है, फिर दूसरे तरीके से वह मेज है भी। नाम और रूप उठा लो, फिर जो सत्य वस्तु बची रहती है, वह वही है। वह हर एक वस्तु के भीतर सत्यस्वरूप है।

‘तुम्हीं स्त्री हो, पुरुष भी तुम्हीं हो, तुम कुमार, तुम्हीं कुमारी भी हो और तुम्हीं दण्ड का सहारा लिए हुए वृद्ध हो, विश्व में सर्वत्र तुम ही हो।’9

अद्वैतवाद का यही विषय है। इस सम्बन्ध में कुछ बातें और हैं। इस अद्वैतवाद से सभी वस्तुओं के मूलतत्त्व की व्याख्या मिल जाती है। हमने देखा है, तर्कशास्त्र और विज्ञान के आक्रमणों के विरोध में हम केवल इसी अद्वैतवाद को लेकर खड़े हो सकते हैं। अन्त में सारे तर्को को यहीं ठहरने की एक दृढ़ भूमि मिलती है। भारतीय वेदान्ती अपने सिद्धान्त के पूर्ववर्ती सोपानों पर कभी दोषारोपण नहीं करते, बल्कि वे अपने सिद्धान्त पर ठहरकर, उन पर नजर डालते हुए उनका समर्थन करते हैं; वे जानते हैं, वे सत्य हैं, सिर्फ वे गलत ढंग से उपलब्ध हुए हैं – भ्रम के आधार पर उनका वर्णन किया गया है। वे भी वही सत्य हैं, अन्तर इतना ही है कि वे माया के माध्यम से देखे गये हैं, कुछ विकृत होने पर भी वे सत्य – केवल सत्य ही है। वह ईश्वर, जिसे अज्ञ प्रकृति के बाहर किसी स्थान में अवस्थित देखता है, वह ईश्वर जिसे अल्पज्ञ संसार का अन्तर्यामी देखता है, तथा वह ईश्वर जिसका अनुभव ज्ञानी आत्मस्वरूप या सम्पूर्ण संसार के स्वरूप में करता है – यह सब एक ही वस्तु है। एक ही वस्तु भिन्न भिन्न भावों से दृष्टिगोचर हो रही है, माया के विभिन्न शीशों के भीतर से दिखाई दे रही है, विभिन्न मनों से दिखाई दे रही है, और पृथक् पृथक् मनों से दिखाई देने के कारण ही यह सब विभिन्नता है केवल इतना ही नहीं, उनमें से एक भाव दूसरे में ले जाता है। विज्ञान और सामान्य ज्ञान में क्या भेद है? रास्ते पर जब कभी कोई असाधारण घटना घट जाती है तो पथिकों में से किसी से उसका कारण पूछो। दस आदमियों में से कम से कम नौ आदमी कहेंगे, यह घटना भूतों की करामात है। वे बाहर सदा भूत-प्रेतों के पीछे दौड़ते हैं; क्योंकि अज्ञान का स्वभाव ही है कार्य के बाहर कारण की खोज करना। एक पत्थर गिरने पर अज्ञ कहता है, भूत या शैतान का फेंका हुआ पत्थर है। परन्तु वैज्ञानिक कहता है वह प्रकृति का नियम या गुरुत्वाकर्षण है।

विज्ञान और धर्म में सर्वत्र कौनसा विरोध है? प्रचलित धर्म जितने हैं, सभी बहिरागत व्याख्या द्वारा आच्छन्न हैं। सूर्य के अधिष्ठाता देवता, चन्द्र के अधिष्ठाता देवता – इस तरह के अनन्त देवता हैं; और जितनी घटनाएँ हो रही हैं, सब कोई न कोई देवता या भूत ही कर रहा है। इसका सारांश यही है कि किसी विषय के कारण की खोज उसके बाहर की जाती है, और विज्ञान का अर्थ यह है कि किसी वस्तु के कारण की व्याख्या उसी प्रकृति से की जाती है। धीरे धीरे विज्ञान ज्यों ज्यों प्रगति कर रहा है, त्यों त्यों वह प्राकृतिक घटनाओं की व्याख्या भूत-प्रेतों और देवदूतों के हाथ से छीनता जा रहा है। और चूँकि आध्यात्मिक क्षेत्र में अद्वैतवाद इसकी साधना कर चुका है, इसलिए यही सब से अधिक विज्ञानसम्मत धर्म है। इस जगत् को विश्व के बाहर के किसी ईश्वर ने नहीं बनाया, संसार के बाहर की किसी प्रतिभा ने इसकी सृष्टि नहीं की। यह आप ही आप सृष्ट हो रहा है, आप ही आप उसकी अभिव्यक्ति हो रही है, आप ही आप उसका प्रलय हो रहा है – एक ही अनन्त सत्ता ब्रह्म है। ‘तत्त्वमसि श्वेतकेतो’ – ‘हे श्वेतकेतो, तुम वही हो।’

इस तरह तुम देख रहे हो, यही, एकमात्र यही वैज्ञानिक धर्म बन सकता है, कोई दूसरा नहीं। और इस अर्धशिक्षित वर्तमान भारत में आजकल प्रतिदिन विज्ञान की जो बकवाद चल रही है, प्रतिदिन मैं जिस युक्त्तिवाद और विचारशीलता की दुहाई सुन रहा हूँ, उससे मुझे आशा है, तुम्हारे समस्त सम्प्रदाय अद्वैतवादी होंगे और बुद्ध के शब्दों में ‘बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय’ संसार में इस अद्वैतवाद का प्रचार करने का साहस करेंगे। यदि तुम ऐसा न कर सको, तो मैं तुम्हें डरपोक समझूँगा। यदि तुमने अपनी कायरता दूर नहीं की, यदि अपने भय को तुमने बहाना बना लिया, तो दूसरे को भी वैसी ही स्वाधीनता दो। बेचारे मूर्तिपूजक को बिल्कुल उड़ा देने की चेष्टा न करो, उसे शैतान मत कहो। जो तुम्हारे साथ पूर्णतया सहमत न हो, उसी के पास अपना मत प्रचार करने के लिए न जाओ। पहले यह समझो कि तुम खुद कायर हो और यदि तुम्हें समाज का भय है, यदि तुम्हें अपने ही प्राचीन अन्धविश्वासों का इतना भय है तो यह भी सोच लो कि जो लोग अज्ञ हैं, उन्हें अपने अन्धविश्वासों का और कितना अधिक भय और बन्धन होगा। अद्वैतवादियों की यही बात है। दूसरों पर दया करो। परमात्मा करे कल ही सम्पूर्ण संसार केवल मत में ही नहीं, अनुभूति के सम्बन्ध में भी अद्वैतवादी हो जाए! परन्तु यदि वैसा नहीं हो सकता तो हमको जो अच्छा करते बने, वही करना चाहिए। अज्ञजनों का हाथ पकड़कर उनकी शक्ति के अनुसार उन्हें धीरे धीरे आगे ले चलो, जितना वे आगे बढ़ सकते हैं। और समझो कि भारत में सभी धर्मों का विकास क्रमोन्नति के नियमानुसार धीरे धीरे हुआ है। बात ऐसी नहीं कि बुरे से भला हो रहा है, बल्कि भले से और भी भला हो रहा है।

अद्वैतवाद के नैतिक सम्बन्धों के विषय में कुछ और कहना आवश्यक है। हमारे लड़के आजकल निःसंकोच कहा करते हैं – यह उन लोगों ने किसी से सुना होगा, परमात्मा जाने किससे – कि अद्वैतवाद से लोग दुराचारी हो जाते हैं, क्योंकि अद्वैतवाद सिखलाता है कि हम सब एक हैं, सभी ईश्वर हैं, अतएव हमें अब सदाचार अपनाने की कोई आवश्यकता नहीं। इस बात के उत्तर में पहले तो यहाँ कहना है कि यह युक्ति पशुप्रकृति मनुष्य के मुख में शोभा देती है, कशाघात के बिना जिसके दमन करने का कोई दूसरा उपाय नहीं है। यदि तुम ऐसे ही हो तो इस तरह कशाघात द्वारा शासित करने योग्य मनुष्य कहलाने की अपेक्षा आत्महत्या कर लेना कदाचित् तुम्हारे लिए श्रेयस्कर होगा। कशाघात बन्द होते ही तुम लोग असुर हो जाओगे! यदि ऐसा ही हो तो इसी समय तुम्हारा अन्त कर देना उचित होगा। तुम्हारे लिए दूसरा उपाय और कोई नहीं। इस तरह तो सदा ही तुम्हें कोड़े और डण्डे के भय से चलना होगा और तुम्हारे उद्धार तथा निस्तार का रास्ता अब नहीं रह गया।

दूसरे अद्वैतवाद – केवल अद्वैतवाद – से ही नैतिकता की व्याख्या हो सकती है। हर एक धर्म यही प्रचार कर रहा है कि सब नैतिक तत्त्वों का सार दूसरों की हितसाधना ही है। पर क्यों हम दूसरों का हित करें? सब धर्म उपदेश देते हैं – निःस्वार्थ होना चाहिए। पर क्यों हमें निःस्वार्थ होना चाहिए। कोई देवता ऐसा कह गये है? वे देवता मेरे लिए मान्य नहीं है। शास्त्रों ने ऐसा कहा है? शास्त्र कहते रहें, क्यों हम उसे मानें? शास्त्र यदि ऐसा कहते हैं तो मेरे लिए उनका क्या महत्त्व है? संसार के अधिकांश आदमियों की यही नीति है कि वे अपना ही भला देखते हैं – हर एक व्यक्ति अपना अपना हित साधन करे, कोई न कोई सब से पीछे रहेगा। अतः किस कारण मैं नैतिक बनूँ? जब तक गीता में वर्णित इस सत्य को न जानोगे, तब तक तुम इसकी व्याख्या नहीं कर सकते : ‘जो महात्मा अपनी आत्मा को सब भूतों में स्थित देखता है और आत्मा में सब भूतों को अवस्थित देखता है, वह इस तरह ईश्वर को सर्वत्र सम भाव से अवस्थित देखता हुआ आत्मा द्वारा आत्मा की हिंसा नहीं करता।’11

अद्वैतवाद की शिक्षा से तुम्हें यह ज्ञान होता है कि दूसरों की हिंसा करते हुए तुम अपनी ही हिंसा करते हो, क्योंकि वे सब तुम्हारे ही स्वरूप हैं। तुम्हें मालूम हो या न हो, सब हाथों से तुम्हीं कार्य कर रहे हो, सब पैरों से तुम्हीं चल रहे हो, राजा के रूप में तुम्हीं प्रासाद में सुखों का भोग कर रहे हो, फिर तुम्हीं रास्ते के भिखारी के रूप में अपना दुःखमय जीवन बिता रहे हो। अज्ञ में भी तुम हो, विद्वान् में भी तुम हो, दुर्बल में भी तुम हो, सबल में भी तुम हो। इस तत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर तुम्हें सब के प्रति सहानुभूति रखनी चाहिए। चूँकि दूसरे को कष्ट पहुँचाना अपने ही को कष्ट पहुँचाना है, इसलिए हमें कदापि दूसरों को कष्ट नहीं देना चाहिए। इसीलिए यदि मैं बिना भोजन के मर भी जाऊँ तो भी मुझे इसकी चिन्ता नहीं, क्योंकि जिस समय मैं भूखा मर रहा हूँ उस समय मैं लाखों मुँह से भोजन भी कर रहा हूँ। अतएव यह ‘मैं’, ‘मेरा’ – इन सब विषयों पर हमें ध्यान ही नहीं देना चाहिए, यह सम्पूर्ण संसार मेरा ही है, मैं ही एक दूसरी रीति से संसार के सम्पूर्ण आनन्द का भोग कर रहा हूँ। और मेरा या संसार का विनाश भी कौन कर सकता है? इस तरह तुम देखते हो, अद्वैतवाद ही नैतिक तत्त्वों की एकमात्र व्याख्या है। अन्यान्य वाद तुम्हें नैतिकता की शिक्षा दे सकते हैं, परन्तु हम क्यों नीतिपरायण हों, इसका हेतुनिर्देश नहीं कर सकते। यह सब तो हुई व्याख्या की बात।

अद्वैतवाद की साधना में लाभ क्या है? उससे शक्ति प्राप्त होती है। तुमने जगत् पर सम्मोहन का जो पर्दा डाल रखा है उसे हटा दो। मनुष्य को दुर्बल मत सोचो, उसे दुर्बल मत कहो। समझ लो कि एक दुर्बलता शब्द से ही सब पापों और सम्पूर्ण अशुभ कर्मों का निर्देश हो जाता है। सारे दोषपूर्ण कार्यों की मूल प्रेरक दुर्बलता ही है। दुर्बलता के कारण ही मनुष्य दूसरों को कष्ट पहुँचाता है; दुर्बलता के कारण ही मनुष्य अपना सच्चा स्वरूप प्रकाशित नहीं कर सकता। सब लोग जानें कि वे क्या हैं? दिनरात वे अपने स्वरूप – ‘सोऽहम्’ (मैं वही हूँ) का जप करें। माता के स्तनपान के साथ ‘सोऽहम’ – इस ओजमयी वाणी का पान करें। ‘श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः’12 आदि। पहले इसका श्रवण करें। तत्पश्चात् इसका चिन्तन करें, और उसी चिन्तन, उसी मनन से ऐसे कार्य होंगे, जिन्हें संसार ने कभी देखा ही नहीं था। किस तरह यह काम में लाया जाए? कोई कोई कहते हैं – यह अद्वैतवाद कार्य में परिणत नहीं किया जा सकता, अर्थात् भौतिक धरातल पर उसकी शक्ति का प्रकाश नहीं हुआ। इस कथन में आंशिक सत्य अवश्य है। वेद की उस वाणी का स्मरण करो :

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म ओमित्येकाक्षरं परम्।
ओमित्येकाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्॥13

‘ॐ, यही ब्रह्म है। ॐ, यह परम सत्ता है। जो इस ओंकार का रहस्य जानते हैं, वे जो कुछ चाहते हैं, वही उन्हें मिलता है।’

अतएव पहले तुम इस ओंकार का रहस्य समझो। वह ओंकार तुम्हीं हो, इसका ज्ञान प्राप्त करो। इस ‘तत्त्वमसि’ महावाक्य का रहस्य समझो, तभी, केवल तभी, तुम जो कुछ चाहोगे, वह पाओगे। यदि भौतिक दृष्टि से बड़े होना चाहो तो विश्वास करो, तुम बड़े हो। मैं एक छोटा-सा बुलबुला हो सकता हूँ, तुम पर्वताकार ऊँची तरंग हो सकते हो, परन्तु यह समझ रखो कि हम दोनों के लिए पृष्ठभूमि अनन्त समुद्र ही है। अनन्त ब्रह्म हमारी सब शक्ति और वीर्य का भण्डार है, और हम दोनों ही क्षुद्र हों या महान्, उससे अपनी इच्छा भर शक्तिसंग्रह कर सकते हैं। अतएव अपने पर विश्वास करो। अद्वैतवाद का यह रहस्य है कि पहले अपने पर विश्वास करो, फिर अन्य सब पर। संसार के इतिहास में देखोगे कि केवल वे ही राष्ट्र महान् एवं प्रबल हो सके हैं, जो आत्मविश्वास रखते हैं। हर एक राष्ट्र के इतिहास में तुम देखोगे, जिन व्यक्तियों ने अपने पर विश्वास किया वे ही महान् तथा सबल हो सके, यहाँ, इस भारत में एक अंग्रेज आया था, वह एक साधारण क्लर्क था, रुपये-पैसे के अभाव से और दूसरे कारणों से भी उसने अपने सिर में गोली मारकर दो बार आत्महत्या करने की चेष्टा की, और जब वह उसमें असफल हुआ तब उसे विश्वास हो गया कि बड़े बड़े काम करने के लिए वह पैदा हुआ है – वही लॉर्ड क्लाइव इस साम्राज्य का प्रतिष्ठाता बन गया! यदि वह पादरियों पर विश्वास करके घुटने टेककर ‘हे प्रभु, मैं दुर्बल हूँ दीन हूँ’, ऐसा किया करता तो जानते हो उसे कहाँ जगह मिलती? निस्सन्देह उसे पागलखाने में रहना पड़ता। इस प्रकार की कुशिक्षाओं ने तुम्हें पागल बना डाला है। मैंने सारे संसार में देखा है, दीनता के उस उपदेश से, जो दौर्बल्य का पोषक है, बड़े अशुभ परिणाम हुए हैं – मनुष्यजाति को उसने नष्ट कर डाला है। हमारी सन्तानों को जब ऐसी ही शिक्षा दी जाती है, तब इसमें क्या आश्चर्य यदि वे अन्त में अर्धविक्षिप्त हो जाते हैं!

यह अद्वैतवाद के व्यावहारिक पक्ष की शिक्षा है। अतएव अपने पर विश्वास रखो। यदि तुम्हें भौतिक ऐश्वर्य की आकांक्षा हो तो इस अद्वैतवाद को उस ओर कार्यान्वित करो, धन तुम्हारे पास आएगा। यदि विद्वान् और बुद्धिमान होने की इच्छा है तो उसी ओर अद्वैतवाद का प्रयोग करो, तुम महामनीषी हो जाओगे। और यदि तुम मुक्तिलाभ करना चाहते हो तो आध्यात्मिक भूमि में इस अद्वैतवाद का प्रयोग करो, तुम परमानन्द-स्वरूप निर्वाण प्राप्त करोगे। इतनी ही भूल हुई थी कि आज तक इस अद्वैतवाद का प्रयोग आध्यात्मिकता की ओर ही हुआ था – बस। अब व्यावहारिक जीवन में उसके प्रयोग का समय आया है। अब उसे रहस्य मात्र या गोपनीय रखने से काम नहीं चलेगा, अब वह हिमालय की गुफाओं और जंगलों में साधु-संन्यासियों ही के पास बँधा नहीं रहेगा – अब लोगों के दैनिक जीवन के कार्यों में उसका प्रयोग अवश्य होना चाहिए। राजप्रसाद में, साधु-संन्यासियों की गुहा में, गरीबों की कुटियों में सर्वत्र, यहाँ तक कि रास्ते के भिखारी द्वारा भी वह कार्यान्वित होगा। अतएव चाहे तुम स्त्री हो, चाहे शूद्र, अथवा चाहे और ही कुछ हो, तुम्हारे लिए भय का अल्प मात्र भी कारण नहीं; कारण, श्रीकृष्ण कहते हैं, यह धर्म इतना महान् है कि इसका अल्प मात्र अनुष्ठान करने से भी महाकल्याण की प्राप्ति होती है।14

अतएव हे आर्यसन्तानों, आलसी होकर बैठे मत रहो – जागो, उठो और जब तक इस चरम लक्ष्य तक न पहुँच जाओ तब तक मत रुको। अब अद्वैतवाद का व्यावहारिक क्षेत्र में प्रयोग करने का समय आ गया है। उसे अब स्वर्ग से मर्त्य में ले आना होगा। इस समय विधाता का विधान यही है। हमारे प्राचीन काल के पूर्वजों की वाणी से हमें निर्देश मिल रहा है कि इस अद्वैतवाद को स्वर्ग से पृथ्वी पर ले जाओ। तुम्हारे उस प्राचीन शास्त्र का उपदेश सम्पूर्ण संसार में इस प्रकार व्याप्त हो जाए कि समाज के प्रत्येक मनुष्य की वह साधारण सम्पत्ति हो जाए, हमारी नस नस में, रुधिर के प्रत्येक कण में उसका प्रवाह हो जाए।

तुम्हें सुनकर आश्चर्य होगा कि हम लोगों से कहीं बढ़कर अमेरिकनों ने वेदान्त को अपने व्यावहारिक जीवन में चरितार्थ कर लिया है। मैं न्यूयार्क के समुद्रतट पर खड़ा खड़ा देखा करता था – भिन्न भिन्न देशों से लोग बसने के लिए अमेरिका आ रहे हैं। उन्हें देखकर मुझे यह मालूम होता था, मानो उनका हृदय झुलस गया है, वे पैरों तले कुचले गये हैं, उनकी आशा मुरझा गयी है, किसी से निगाह मिलाने की उनमें हिम्मत नहीं है, कपड़ों की एक पोटली मात्र उनका सर्वस्व है और वे कपड़े भी फटे हुए हैं, पुलिस का आदमी देखते ही वे भय से दूसरी ओर के फुटपाथ पर चलने की कोशिश करते हैं। और फिर छह ही महीने में उन्हें देखो, वे साफ कपड़े पहने हुए सिर उठाकर सीधे चल रहे हैं और डटकर लोगों की नजर से नजर मिला रहे हैं। ऐसा अद्भुत परिवर्तन किसने किया? सोचो, वह आदमी जिस आरमेनिया या किसी दूसरी जगह से आ रहा है, वहाँ कोई उसे कुछ समझते नहीं थे; सभी उसे पीस डालने की चेष्टा करते थे। वहाँ सभी उससे कहते थे – “तू गुलाम होकर पैदा हुआ है, गुलाम ही रहेगा।” वहाँ उसके जरा भी हिलने-डुलने की चेष्टा करने पर वह कुचल डाला जाता था। चारों ओर की सभी वस्तुएँ मानो उससे कहती थीं – “गुलाम, तू गुलाम है; जो कुछ है, तू वही बना रह; निराशा के जिस अँधेरे में पैदा हुआ था, उसी में जीवन भर पड़ा रह।” हवा भी मानो गूँजकर उससे कहती थी – “तेरे लिए कोई आशा नहीं, गुलाम होकर चिरकाल तू नैराश्य के अन्धकार में पड़ा रह।” वहाँ बलवानों ने पीसकर उसकी जान निकाल ली थी। और ज्योंही वह जहाज से उतरकर न्यूयार्क के रास्तों पर चलने लगा, उसने देखा कि अच्छे कपड़े पहने हुए किसी भले आदमी ने उससे हाथ मिलाया। एक तो फटे कपड़े पहने हुए था और दूसरा अच्छे अच्छे कपड़ों से सुसज्ज था। पर इससे कोई अन्तर नहीं पड़ा। और कुछ आगे बढ़कर भोजनालय में जाकर उसने देखा – सभ्यमण्डली जिस मेज के चारों ओर बैठी भोजन कर रही थी, उसी मेज के एक ओर उससे भी बैठने के लिए कहा गया। वह चारों ओर घूमने लगा – देखा, यह एक नया जीवन है। उसने देखा, ऐसी जगह भी है, जहाँ और चार आदिमियों में वह भी एक आदमी गिना जा रहा है। कभी मौका मिला तो वाशिंग्टन जाकर संयुक्त्तराज्य के राष्ट्रपति से हाथ मिला आया; वहाँ उसने देखा, दूर के गाँवों से मैले कपड़े पहने हुए किसान आकर राष्ट्रपति से हाथ मिला रहे हैं। तब उससे माया का पर्दा दूर हो गया। वह ब्रह्म ही है – मायावश इस तरह दुर्बलता तथा दासता के सम्मोह में पड़ा हुआ था। अब उसने फिर से जागकर देखा – मनुष्यों के संसार में वह भी एक मनुष्य है। हमारे इस देश में, इस वेदान्त की जन्मभूमि में हमारे जनसाधारण को शत शत वर्षों से सम्मोहित बनाकर इस तरह की हीन अवस्था में ड़ाल दिया गया है। उनके स्पर्श में अपवित्रता समायी है, उनके साथ बैठने से छूत समा जाती है। उनसे कहा जा रहा है, निराशा के अन्धकार में तुम्हारा जन्म हुआ है, सदा तुम इसी अँधेरे में पड़े रहो। और इसका परिणाम यह हुआ कि वे लगातार डूबते चले जा रहे हैं, गहरे अँधेरे से और गहरे अँधेरे में डूबते चले जा रहे हैं। अन्त में मनुष्य जितनी निकृष्ट अवस्था तक पहुँच सकता है, वहाँ तक वे पहुँच चुके हैं। क्योंकि, ऐसा देश कहाँ है जहाँ मनुष्य को जानवरों के साथ एक ही जगह पर सोना पड़ता हो? इसके लिए किसी दूसरे पर दोषारोपण न करो – अज्ञ मनुष्य जो भूल किया करते हैं, वही भूल तुम मत करो। कार्यकारण दोनों यहीं विद्यमान हैं। दोष वास्तव में हमारा ही है। हिम्मत बाँधकर खड़े हो जाओ – अपने ही सिर सब दोष ले लो। दूसरे पर दोष न मढ़ो। तुम जो कष्ट भोग रहे हो उसके एकमात्र कारण तुम्हीं हो।

अतः लाहौर के युवको, निश्चयपूर्वक समझो इस आनुवंशिक तथा राष्ट्रीय महापाप के लिए हमीं लोग उत्तरदायी हैं। बिना इसे दूर किये हमारे लिए कोई दूसरा उपाय नहीं है। तुम चाहे हजारों समितियाँ गढ़ लो, चाहे बीस हजार राजनीतिक सम्मेलन करो, चाहे पचास हजार संस्थाएँ स्थापित करो, इसका कोई फल नहीं होगा, जब तक तुम्हारे भीतर वह सहानुभूति, वह प्रेम नहीं आएगा, जब तक तुम्हारे भीतर वह हृदय नहीं आएगा, जो सब के लिए सोचता है। जब तक फिर से भारत को बुद्ध का हृदय प्राप्त नहीं होता और भगवान् कृष्ण की वाणी व्यावहारिक जीवन में परिणत नहीं की जाती, तब तक हमारे लिए कोई आशा नहीं। तुम लोग यूरोपियनों और उनकी सभा-समितियों का अनुकरण कर रहे हो, परन्तु उनके हृदय के भावों का तुमने क्या अनुकरण किया है? मैं तुमसे एक आँखों देखा किस्सा कहूँगा। यहाँ के यूरोपियनों का एक दल कुछ बर्मी लोगों को लेकर लन्दन गया, बाद में पता चला कि वे यूरेशियन थे। वहाँ उन्होंने उन लोगों की एक प्रदर्शनी खोलकर खूब धनोपार्जन किया। अन्त में सब धन आपस में बाँटकर उन्होंने उन लोगों को यूरोप के किसी दूसरे देश में ले जाकर छोड़ दिया। ये गरीब बेचारे यूरोप की किसी भाषा का एक शब्द भी नहीं जानते थे। लेकिन आस्ट्रिया के अंग्रेज वैदेशिक प्रतिनिधि ने इन्हें लन्दन भेज दिया। वे लोग लन्दन में भी किसी को नहीं जानते थे, अतएव वहाँ जाकर भी निराश्रय अवस्था में पड़ गये। परन्तु एक अंग्रेज महिला को इसकी सूचना मिली। वे इन बर्मी विदेशियों को अपने घर ले गयीं तथा अपने कपड़े, अपने बिछौने तथा जो कुछ आवश्यक हुआ, सब देकर उनकी सेवा करने लगीं और समाचारपत्रों में उन्होंने इनका हाल प्रकाशित कर दिया। देखो, उसका फल कैसा हुआ! उसके दूसरे ही दिन मानो सारा राष्ट्र सचेत हो गया। चारों ओर से उनकी सहायता के लिए रुपये आने लगे। अन्त में वे बर्मा वापस भेज दिये गये। उनकी राजनीतिक और दूसरी जितनी सभासमितियाँ हैं वे ऐसी ही सहानुभूति पर प्रतिष्ठित है, कम से कम अपने लिए उनकी दृढ़ नींव प्रेम पर आधारित है। वे सम्पूर्ण संसार को चाहे प्यार न कर सकें, बर्मी चाहे उनके शत्रु भले ही हों, परन्तु इतना तो निश्चय ही है कि अपनी जाति के लिए उनका प्रेम अगाध है और अपने द्वार पर आये हुए विदेशियों के साथ भी वे सत्य, न्याय और दया का व्यवहार करते हैं। पश्चिमी देशों के सभी स्थानों में उन्होंने किस तरह मेरा आतिथ्य-सत्कार और खातिरदारी की थी, इसका यदि मैं तुमसे उल्लेख न करूँ तो यह मेरी अकृतज्ञता होगी। यहाँ वह हृदय कहाँ है, जिसकी बुनियाद पर इस जाति की दीवार उठायी जाएगी? हम चार आदमी मिलकर एक छोटीसी सम्मिलित पूँजी की कम्पनी खोलते हैं। कुछ दिनों के अन्दर ही हम लोग आपस में एक दूसरे को पट्टी पढ़ाना शुरू कर देते हैं, और अन्त में सब कारोबार नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है। तुम लोग अंग्रेजों के अनुकरण की बात कहते हो और उनकी तरह विशाल राष्ट्र का संगठन करना चाहते हो, परन्तु तुम्हारे पास वह नींव कहाँ है? हमारी नींव बालू की है, इसीलिए उस पर जो घर उठाया जाता है, वह थोड़े ही दिनों में ढहकर ध्वस्त हो जाता है।

अतः, हे लाहौर के युवको, फिर अद्वैत की वही प्रबल पताका फहराओ, क्योंकि और किसी आधार पर तुम्हारे भीतर वैसा अपूर्व प्रेम नहीं पैदा हो सकता। जब तक तुम लोग उसी एक भगवान् को सर्वत्र एक ही भाव से अवस्थित नहीं देखते, तब तक तुम्हारे भीतर वह प्रेम पैदा नहीं हो सकता – उसी प्रेम की पताका फहराओ। उठो, जागो, जब तक लक्ष्य पर नहीं पहुँचते तब तक मत रुको। उठो, एक बार उठो, क्योंकि त्याग के बिना कुछ हो नहीं सकता। दूसरे की यदि सहायता करना चाहते हो, तो तुम्हें अपने अहंभाव को छोड़ना होगा। ईसाइयों की भाषा में कहता हूँ – तुम ईश्वर और शैतान की सेवा एक साथ ही नहीं कर सकते। चाहिए वैराग्य। तुम्हारे पूर्वजों ने बड़े बड़े कार्य करने के लिए संसार का त्याग किया था। वर्तमान समय में ऐसे अनेक मनुष्य हैं, जिन्होंने अपनी ही मुक्ति के लिए संसार का त्याग किया है। तुम सब कुछ दूर फेंको – यहाँ तक कि अपनी मुक्ति का विचार भी दूर रखो – जाओ, दूसरों की सहायता करो। तुम सदा बड़ी बड़ी साहसिक बातें करते हो, परन्तु अब तुम्हारे सामने यह व्यावहारिक वेदान्त रखा गया है। तुम अपने इस तुच्छ जीवन की बलि देने के लिए तैयार हो जाओ। यदि यह जाति बची रहे तो तुम्हारे और हमारे जैसे हजारों आदमियों के भूखों मरने से भी क्या हानि होगी? यह जाति डूब रही है। लाखों प्राणियों का शाप हमारे सिर पर है, सदा ही अजस्र जलधारवाली नदी के समीप रहने पर भी तृष्णा के समय पीने के लिए हमने जिन्हें नाबदान का पानी दिया, उन अगणित लाखों मनुष्यों का, जिनके सामने भोजन के भाण्डार रहते हुए भी जिन्हें हमने भूखों मार डाला, जिन्हें हमने अद्वैतवाद का तत्त्व सुनाया और जिनसे हमने तीव्र घृणा की, जिनके विरोध में हमने लोकाचार का आविष्कार किया, जिनसे जबानी तो यह कहा कि सब बराबर हैं, सब वही एक ब्रह्म हैं, परन्तु इस उक्त्ति को काम में लाने का तिलमात्र भी प्रयत्न नहीं किया। ‘मन में रखने ही से काम हो जाएगा, परन्तु व्यावहारिक संसार में अद्वैतवाद को घसीटना? – हरे! हरे!!’ अपने चरित्र का यह दाग मिटा दो। उठो, जागो। यदि यह क्षुद्र जीवन चला भी जाए तो क्या हानि है? सभी मरेंगे – साधु या असाधु, धनी या दरिद्र – सभी मरेंगे। चिरकाल तक किसी का शरीर नहीं रहेगा। अतएव उठो, जागो और सम्पूर्ण रूप से निष्कपट हो जाओ। भारत में घोर कपट समा गया है। चाहिए चरित्र, चाहिए इस तरह की दृढ़ता और चरित्र का बल जिससे मनुष्य आजीवन दृढ़वत बन सके। ‘नीतिनिपुण मनुष्य चाहे निन्दा करें चाहे स्तुति, लक्ष्मी आए या चली जाए, मृत्यु आज ही हो चाहे शताब्दी के पश्चात्, जो धीर हैं वे न्यायमार्ग से एक पग भी नहीं हिलते।’15 उठो, जागो, समय बीता जा रहा है और व्यर्थ के वितण्डवाद में हमारी सम्पूर्ण शक्ति का क्षय होता जा रहा है। उठो, जागो, छोटे छोटे विषयों और मत-मतान्तरों के लेकर व्यर्थ का विवाद मत करो। तुम्हारे सामने सब से महान् कार्य पड़ा हुआ है – लाखों आदमी डूब रहे हैं, उनका उद्धार करो। इस बात पर अच्छी तरह ध्यान दो कि मुसलमान जब भारत में पहले-पहल आये थे, तब भारत में कितने अधिक हिन्दू रहते थे। आज उनकी संख्या कितनी घट गयी है। इसका कोई प्रतिकार हुए बिना यह दिन दिन और घटती ही जाएगी; अन्ततः वे पूर्णतः विलुप्त हो जाएँगे। हिन्दु जाति लुप्त हो जाए तो होने दो, लेकिन साथ ही – उनके सैकड़ों दोष रहने पर भी, संसार के सम्मुख उनके सैकड़ों विकृत चित्र उपस्थित करने पर भी – अब तक वे जिन जिन महान् भावों के प्रतिनिधिस्वरूप हैं, वे भाव भी लुप्त हो जाएँगे। और उनके लोप के साथ साथ सारे अध्यात्मज्ञान का शिरोभूषण अपूर्व अद्वैततत्त्व भी लुप्त हो जाएगा। अतएव उठो, जागो, संसार की आध्यात्मिकता की रक्षा के लिए हाथ बढ़ाओ। और पहले अपने देश के कल्याण के लिए इस तत्त्व को काम में लाओ। हमें आध्यात्मिकता की उतनी आवश्यकता नहीं, जितनी इस भौतिक संसार में अद्वैतवाद को थोड़ा कार्य में परिणत करने की। पहले रोटी और सब धर्म चाहिए। गरीब बेचारे भूखों मर रहे हैं, और हम उन्हें आवश्यकता से अधिक धर्मोपदेश दे रहे हैं। मत-मतान्तरों से पेट नहीं भरता। हमारे दो दोष बड़े ही प्रबल हैं : पहला दोष हमारी दुर्बलता है और दूसरा है घृणा करना, हृदयहीनता। तुम लाखों मत-मतान्तरों की बात कह सकते हो, करोड़ों सम्प्रदाय संगठित कर सकते हो, परन्तु जब तक उनके दुःख का अपने हृदय में अनुभव नहीं करते, वैदिक उपदेशों के अनुसार जब तक स्वयं नहीं समझते कि वे तुम्हारे ही शरीर के अंश हैं, जब तक तुम और वे – धनी और दरिद्र, साधु और असाधु सभी – उसी एक अनन्त पूर्ण के, जिसे तुम ब्रह्म कहते हो, अंश नहीं हो जाते, तब तक कुछ नहीं होगा।

सज्जनो, मैंने तुम्हारे सामने अद्वैतवाद के कुछ प्रधान भावों को व्यक्त करने की चेष्टा की और अब इसे काम में लाने का समय आ गया है। केवल इसी देश में नहीं, सब जगह। आधुनिक विज्ञान के लोहे के मुद्गरों की चोट खाकर द्वैतवादात्मक धर्मों की मजबूत दीवार चूर चूर हो रही है। ऐसा नहीं कि द्वैतवादी सम्प्रदाय केवल यहीं शास्त्रों का अर्थ खींच-खींचकर कुछ का कुछ कर रहे हैं। (खींचातानी की हद हो गयी है – कहाँ तक खींचातानी हो – श्लोक कोई रबर तो हैं नहीं।) ऐसा नहीं कि केवल यहीं ये द्वैतवादी आत्मरक्षा के लिए अँधेरे के किसी कोने में छिपने की चेष्टा कर रहे हैं; नहीं, यूरोप और अमेरिका में तो यह प्रयत्न और भी ज्यादा है। और वहाँ भी भारत के इस अद्वैतवाद का कुछ अंश जाना चाहिए। वह वहाँ पहुँच भी गया है। वहाँ दिनदिन उसका प्रचार बढ़ाना चाहिए। पश्चिमी सभ्यता की इससे रक्षा होगी। कारण, पश्चिमी देशों में पहले का भाव उठ गया है और एक नया ढोंग – कांचन की पूजा के रूप में शैतान की पूजा – प्रवर्तित हुआ है। इस आधुनिक धर्म अर्थात् पारस्परिक प्रतियोगिता और कांचन की पूजा की अपेक्षा तो पहले के अपरिमार्जित धर्म की राह अच्छी थी। कोई भी राष्ट्र हो, चाहे वह कितना ही प्रबल क्यों न हो, ऐसी बुनियाद पर कभी नहीं टिक सकता। और संसार का इतिहास हमसे कह रहा है, जिन किन्हीं लोगों ने ऐसी बुनियाद पर अपने समाज की प्रतिष्ठा की, वे विनष्ट हो गये। भारत में कांचनपूजा की यह तरंग न आ सके, इसकी ओर पहले ही से नजर रखनी होगी। अतएव सब में यह अद्वैतवाद प्रचारित करो, जिससे धर्म आधुनिक विज्ञान के प्रबल आघातों से भी अक्षत बना रहे। केवल इतना ही नहीं, तुम्हें दूसरों की भी सहायता करनी होगी – तुम्हारे विचार यूरोप और अमेरिका के सहायक होंगे; परन्तु सब से पहले तुम्हें याद दिलाता हूँ कि व्यावहारिक कार्य की आवश्यकता है; और उसका प्रथमांश यह है कि घोर से घोरतम दारिद्र्य और अज्ञानतिमिर में डूबे हुए साधारण लाखों भारतीयों की उन्नतिसाधना के लिए उनके समीप जाओ और उनको अपने हाथ का सहारा दो। और भगवान् कृष्ण की यह वाणी याद रखो :

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः॥ गीता ५/१९

‘जिनका मन इस साम्य भाव में अवस्थित है, उन्होंने इस जीवन में ही संसार पर विजय प्राप्त कर ली है। चूँकि ब्रह्म निर्दोष और सब के लिए सम है, इसलिए वे ब्रह्म में अवस्थित हैं।’


  1. कठोपनिषद् १।१२०॥
  2. मुण्डकोपनिषद् १।३॥
  3. ऋग्वेद १०।१२९।२॥
  4. पातंजल योगसूत्र ४/२
  5. पातंजल योगसूत्र ४।३॥
  6. मुण्डकोपनिषद् ३।१।६॥
  7. बृहदारण्यकोपनिषद् २/४/१४
  8. या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
    या देवी सर्वभूतेषु शुद्धिरूपेण संस्थिता।
    नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥दुर्गासप्तशती, ५/४७-९; ५/७४-६
  9. किमपि सततबोधं केवलानन्दरूपं निरुपममतिवेलं नित्यमुक्त्तं निरीहम्।
    निरवधिगगनाभं निष्कलं निर्विकल्पं हृदि कलयति विद्वान् ब्रह्म पूर्णं समाधौ॥
    प्रकृतिविकृतिशून्यं भावनातीतभावं समरसमसमानं मानसम्बन्धदूरम्।
    निगमवचनसिद्धं नित्यमस्मत्प्रसिद्धं हृदि कलयति विद्वान् ब्रह्म पूर्णं समाधौ॥
    अजरममरमस्ताभाववस्तुस्वरूपं स्तिमितसलिलराशिप्रख्यमाख्याविहीनम्।
    शमितगुणविकारं शाश्वतं शान्तमेकं हृदि कलयति विद्वान् ब्रह्म पूर्णं समाधौ॥विवेकचूड़ामणि ४०८-४१०॥
  10. त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी।
    त्वं जीर्णो दण्डेन वंचसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः॥श्वेताश्वतरोपनिषद् ४/३
  11. सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि॥गीता ६/२९
    समं पश्यन् हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
    न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्॥गीता १३/२८
  12. बृहदारण्यकोपनिषद् २/४/५
  13. कठोपनिषद् १/२/१६
  14. स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥गीता २।४०॥
  15. निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्अ
    द्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥ नीतिशतकम् ७४॥

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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