अनंगमंजरी की आसक्ति – विक्रम-बेताल की कहानी
“चंद्रावलोक और ब्राह्मण-पुत्र” की कहानी का उत्तर जान बेताल पुनः उड़ गया। राजा विक्रमादित्य फिर उसी शिंशपा-वृक्ष के निकट पहुंचा। बेताल को वृक्ष से उतारा और उसे कंधे पर लादकर लौट पड़ा। मार्ग में बेताल ने फिर राजा को एक रोचक कथा सुनाई।
विशालपुर नाम की एक नगरी में पद्मनाम नामक एक महाप्रतापी राजा राज करता था। उसकी नगरी में अर्थदत्त नाम का एक व्यापारी भी रहता था, जिसने अपने वाणिज्य-कौशल से अकूत सम्पदा एकत्रित की हुई थी। अर्थदत्त की एक ही संतान थी–अनंगमंजरी नाम की एक अजीब सुन्दर कन्या।
अनंगमंजरी जब विवाह योग्य हुई तो उसके पिता ने ताम्रलिप्ति नगर के एक संभ्रान्त व्यापारी युवक मणिवर्मा से उसका विवाह कर दिया। अपनी पुत्री से अधिक स्नेह करने के कारण अर्थदत्त ने उसे उसकी ससुराल नहीं भेजा बल्कि अपने दामाद को वहीं रहने के लिए बुला लिया। जैसे किसी रोगी को कड़वी व तीखी दवाएं अप्रिय लगती हैं, उसी प्रकार अनंगमंजरी को अपना पति मणिवर्मा भी अप्रिय जान पड़ता था, लेकिन मणिवर्मा को अपनी पत्नी प्राणों से भी अधिक प्रिय थी। वह हर समय इसी प्रयास में लगा रहता था कि उसकी अतीव सुन्दर पत्नी को कोई कष्ट न होने पाये।
एक बार अपने माता-पिता से मिलने के लिए मणिवर्मा ताम्रलिप्ति चला गया और काफी दिन तक वहीं रहता रहा। उन्हीं दिनों एक बार जब अनंगमंजरी अपनी विश्वस्त सखियों के साथ अपने भवन के एक ऊंचे झरोखे में बैठी थी। उसने नीचे एक गली में एक सुन्दर और तरुण ब्राह्मण कुमार को आते देखा। उसके चेहरे का तेज देखकर वह उसकी ओर आकर्षित हो गई। वह राजपुरोहित का पुत्र था और उसका नाम था कमलाकर।
कमलाकर ने भी ऊंचे झरोखे में बैठी अनंगमंजरी को देखा तो वह उसके रूप पर मुग्ध हो गया। वह कुछ क्षण उसी की ओर टकटकी लगाए देखता रहा, फिर एक मनोहारी मुस्कान उसकी ओर फेंकता हुआ वह वहां से चला गया। अनंगमंजरी उसकी मधुर मुस्कान पर जैसे मर मिटी। कमलाकर उसके मन पर काम-बाण चला गया था। उस दिन से सारी सुध-बुध खोकर वह उसी की याद में विदग्ध रहने लगी। उसका खाना-पीना छूट गया और वह लज्जा, भय एवं विरहोन्माद में दुबली तथा पीली पड़ गई।
प्रिय मिलन बड़ा कठिन था। अनंगमंजरी निराश-सी हो गई थी। कमलाकर को पाने की लालसा में वह एक दिन इतनी व्याकुल हो गई कि उसने प्राण त्यागने का ही निश्चय कर डाला । एक रात वह चुपके से अपनी कुलदेवी चामुंडा माता के मंदिर में पहुंची और वहां देवी के सम्मुख हाथ जोड़कर विनती की, “हे देवी! इस जन्म में तो मैं कमलाकर को पति रूप में पा नहीं सकती किंतु मुझे आशीर्वाद दो कि अगले जन्मों में वह मेरा ही पति हो।”
देवी के सम्मुख ऐसा कहकर उसने अपनी पिछौरी से एक फंदा तैयार किया और उसे एक अशोक-वृक्ष की शाखा में लटका दिया। इसी बीच महल मे जब उसकी अंतरंग सखी मालतिका की नींद खुली और उसने अनंगमंजरी को वहां न देखा तो वह उसे ढूंढ़ने निकल पड़ी। मंदिर के समीप जब उसने अनंगमंजरी को अपनी गरदन में फंदा डालते देखा तो वह घबरा उठी और दौड़ती हुई उसके समीप जा पहुंची। उसने उसके गले में फांसी का फंदा निकाला और व्यग्र स्वर में अनंगमंजरी से पूछा, “सखी, ऐसी क्या बात हो गई जिसके कारण तुम अपनी जान देने पर तैयार हो गईं। देखो, मैं तुम्हारी सखी हूं, तुम्हारी हितैषी। मुझे अपना दुःख बता दो, मैं अपने प्रयास से तुम्हारा दुख दूर करने की कोशिश करूंगी।”
तब अनंगमंजरी ने अपने मन की सारी व्यथा सुनाकर उससे कहा, “सखी, मेरे हृदय में उस तरुण के न मिलने से विरह की अग्नि जल रही है। यदि तुम मुझे जीवित देखना चाहती हो तो मुझे मेरे प्रियतम से मिला दो।”
अनंगमंजरी के ऐसा कहने पर मालतिका ने उसे आश्वासन दिया, “सखी, आज तो बहुत रात हो गई है। सवेरा होने पर मैं कुछ प्रबंध करूंगी और तुम्हारे प्रियतम को इसी जगह बुला दूंगी। इस बीच तुम धीरज धरो और अपने घर जाओ।”
सवेरा होने पर मालतिका छिपती-छिपाती कमलाकर के पास पहुंची। वह उस समय बगीचे में एक वृक्ष के नीचे चन्दन जल से भीगे कमल-पत्रों की शय्या पर लेटा हुआ था। उसका एक घनिष्ठ मित्र, जो उसके सारे रहस्य जानता था, काम-ज्वाला में जलते हुए अपने मित्र को केले के पत्ते से हवा कर रहा था। यह दृश्य देखकर मालतिका ने सोचा कि ‘क्या मेरी सखी अनंगमंजरी के विरह में ही इसकी यह दशा हो रही है?’ ऐसा सोचकर वह सत्य का पता लगाने के लिए एक वृक्ष के पीछे छिप गई।
उसी समय कमलाकर के उस मित्र ने कहा, “मित्र, जरा देर तुम इस सुहावने बगीचे को देखकर अपना जी बहलाओ और अपने हृदय में जलती हुई विरह-वेदना की आग को ठंडा करने की कोशिश करो। मैं अभी आता हूं।”
ऐसा कहकर उसका मित्र जाने के लिए उद्यत हुआ लेकिन उसे रोककर कमलाकर ने कहा, “मित्र, कैसे बहलाऊं अपने मन को। उस व्यापारी की कन्या ने मेरे मन को चुराकर मुझे सूना कर दिया है। मेरे सूने हृदय को कामदेव ने अपने बाणों का तरकश बना दिया है। इसलिए तुम कोई ऐसा उपाय करो, जिससे मैं उसे पा सकूँ।”
कमलाकर की ऐसी बातें सुनकर मालतिका का संदेह जाता रहा। वह अपने छिपे स्थान से निकली और कमलाकर के समीप जाकर बोली, “भद्र, मुझे अनंगमंजरी ने आपके पास भेजा है। उसने संदेश दिया है कि यदि शीघ्र ही आप उससे न मिले तो वह अपने प्राण त्याग देगी। आपके विरह में उसकी बहुत बुरी दशा हो रही है। शरीर सूख गया है और उसके चेहरे की कांति आभाहीन हो गई है। यदि आप उसे बचाना चाहते हैं तो जैसा मै कहूँ वैसा ही करें।”
इस पर विरह की आग में जलते हुए कमलाकर पर मानो अमृत की वर्षा हो गई। उसने तुरंत उससे अपनी सहमति व्यक्त कर दी।
तब मालतिका ने कहा, “आज रात को मैं गुप्त रूप से अनंगमंजरी को उसके महल के बगीचे में ले आऊंगी। आप वहीं बाहर ठहरियेगा, उसके बाद मैं कोई उपाय करके आपको भी भीतर बुला लूंगी और इस तरह आप दोनों का मनचाहा मिलन हो सकेगा।”
इस प्रकार मालतिका ने अपनी बातों से उस ब्राह्मण-पुत्र को प्रसन्न किया। अपना काम पूरा करके वह वापस लौटी और उसने अनंगमंजरी को भी आनंदित किया।
उस रात जब वह कामी और उत्कंठित कमलाकर सज-धजकर अपनी प्रिया के गृहोद्यान के दरवाजे पर पहुंचा तो मालतिका उसे युक्तिपूर्वक उस उद्यान में ले गई। कमलाकर ने अनंगमंजरी को एक आम्रकुंज की छाया में बैठे हुए देखा।
बटोही जिस प्रकार छाया को देखकर खिल उठता है, वैसा ही कुछ हाल उस समय कमलाकर का हुआ। उसे देखकर कमलाकर का चेहरा खिल उठा। वह आगे बढ़ ही रहा था कि अनंगमंजरी ने उसे देख लिया। काम के आवेग ने उसकी लज्जा नष्ट कर दी थी। उसने दौड़कर कमलाकर को गले से लगा लिया, “कहां जाते हो? मैंने तुम्हें पा लिया है।” ऐसा कहकर अनंगमंजरी प्रलाप करने लगी। अत्यधिक प्रसन्नता के मारे उसकी सांस रुक गईं और उसके प्राण जाते रहे।
वायु से छिन्न लता के समान वह धरती पर गिर पड़ी। अहा! प्रेम का पंथ भी निराला है, जिसका परिणाम सदा दुःखदायी ही होता है। यह आकस्मिक और भयावह वज्रपात देखकर “हाय-हाय, यह क्या हो गया?” कहता हुआ कमलाकर भी मूर्छित होकर गिर पड़ा। कुछ क्षणों बाद जब उसे चेतना आई, तब उसने अपनी प्रिया को गोद में ले लिया और उसका आलिंगन तथा चुम्बन करता हुआ अनेक प्रकार से विलाप करने लगा।
कठोर दुख की अधिकता से वह इतना विकल हो गया कि पलक झपकते ही उसका हृदय फट गया और उसकी भी मृत्यु हो गई। मृत्यु को प्राप्त हुए दोनों प्रेमियों के लिए मालतिका जब शोक कर रही थी, तब मानो शोक के कारण ही रात भी समाप्त हो गई।
सवेरा होने पर, बगीचे के रखवालों से सारा समाचार जानकर उन दोनों के परिवार के लोग लज्जा, आश्चर्य, दुख और मोह से विकल होते हुए वहां आए। खेद से मस्तक झुकाए दोनों पक्ष के लोग बहुत देर तक इस दुविधा में पड़े रहे कि अब क्या करना चाहिए। सच है, बुरी स्त्रियां कुल को बिगाड़ने वाली और सन्तापदायक ही होती हैं।
इसी बीच उसका पति मणिवर्मा अनंगमंजरी के लिए उत्कंठित, ताम्रलिप्ति से लौट आया।
पत्नी को याद करता हुआ वह भी बगीचे में जा पहुंचा। वहां उसने अपनी स्त्री को पर-पुरुष के निकट मरी हुई देखा। फिर भी उस पर अत्यंत अनुराग होने के कारण हृदय में शोक की अग्नि जल उठी और उसने भी वहीं पर अपने प्राण त्याग दिए।
तत्पश्चात्, वहां इकट्ठे हुए लोगों की चीख-पुकार सुनकर नगर के सभी लोगों को सारा वृत्तांत मालूम हो गया और वे विस्मित होते हुए वहां आ पहुंचे। अनंगमंजरी के पिता ने चामुंडा देवी का जो मंदिर बनवाया था, वह निकट ही था। यह दृश्य देखकर गणों ने देवी से निवेदन किया, “हे देवी! अर्थदत्त ने ही यहां आपकी प्रतिष्ठा की है। यह व्यापारी सदा से ही आपका भक्त रहा है। अतः इस दुःख के समय इस पर दया करें।”
गणों की प्रार्थना सुनकर देवी ने उन्हें पुनर्जीवित होने का आशीर्वाद प्रदान कर दिया। देवी की कृपा से वे तीनों ही इस प्रकार जीवित हो उठे मानो सोते से जाग पड़े हों। अब उनके काम-विकार भी नष्ट हो चुके थे।
यह आश्चर्यजनक घटना देखकर वहां उपस्थित सभी लोग बहुत आनंदित हुए। कमलाकर लज्जा से मस्तक झुकाकर अपने घर चला गया। अर्थदत्त भी लजाई हुई अपनी कन्या को उसके पति सहित घर ले गया।
उस रात को मार्ग में जाते हुए बेताल ने यह कथा सुनाकर पृथ्वीपति विक्रमादित्य से पुनः पूछा, “राजन, अब तुम मेरी इस शंका का समाधान करो कि प्रेम में अंधे बने हुए उन तीनों में से किसकी आसक्ति अधिक थी? अनंगमंजरी को कमलाकर की अथवा अनंगमंजरी के पति मणिवर्मा की? यदि जानते हुए भी तुमने मेरी शंका का समाधान नहीं किया तो मेरा वही शाप तुम पर फट पड़ेगा।”
बेताल की यह बातें सुनकर राजा ने उत्तर दिया, “हे बेताल! मुझे तो इन तीनों में से मणिवर्मा ही अधिक मोहान्ध जान पड़ता है। कारण यह कि शेष दोनों तो एक-दूसरे के प्रति अनुरक्त थे और समय पाकर उनकी आसक्ति पक्की हो चुकी थी। अतः उन दोनों ने प्राण त्याग दिए, तो ठीक ही था; लेकिन मणिवर्मा तो बहुत ही मोहान्ध था। उसको तो पर-पुरुष के प्रति आसक्त अपनी पत्नी पर क्रोध करना चाहिए था। लेकिन ऐसा न करके उसकी प्रीति के कारण शोक से उसने अपने प्राण ही त्याग दिए थे। अतः सबसे ज्यादा मोहान्ध वही हुआ। उसी की आसक्ति सबसे अधिक थी।”
राजा का उत्तर बिल्कुल सटीक था, अतः बेताल संतुष्ट हो गया और पहले की ही भांति अपनी माया से राजा के कंधे से उतरकर अन्तर्ध्यान हो गया। तत्पश्चात् फिर वह उसी शिंशपा-वृक्ष पर जाकर उलटा लटक गया। दृढ़ निश्चयी राजा विक्रमादित्य भी पुनः उसे लाने के लिए उस शिंशपा-वृक्ष की ओर दौड़ चला।
राजा विक्रमादित्य बेताल को लाने के लिए पुनः शिंशपा वृक्ष के नीचे पहुँच गया। उसने बेताल को उतारकर अपने कंधे पर डाला और चलना शुरू किया। बेताल ने राजा विक्रम को फिर से यह कहानी सुनानी शुरू की – चार ब्राह्मण भाइयों की कथा