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बड़ा वीर कौन? – विक्रम और बेताल की कहानी

“बड़ा वीर कौन?” विक्रम-बेताल की रोचक कहानी है। इसमें राजा विक्रमादित्य की प्रतिभा और न्याय-कुशल बुद्धि का पता चलता है। यदि आप बेताल पच्चीसी की अन्य कहानियाँ पढ़ना चाहते हैं, तो कृपया यहाँ जाएँ – विक्रम बेताल की कहानियां

पिछली कहानी “कौन दुष्ट – पुरुष या स्त्रियाँ” का राजा विक्रम से उत्तर पाने के बाद बेताल फिर वृक्ष पर जाकर टंग गया। महाश्मशान के उस शिंशपा-वृक्ष से राजा विक्रमादित्य ने बेताल को फिर से नीचे उतारा और पहले की ही तरह उसे अपने कंधे पर डालकर वापस लौट चला।

कुछ आगे चलने पर बेताल ने फिर राजा से कहा, “राजन, उस दुष्ट भिक्षु के लिए तुम इतना परिश्रम क्यों कर रहे हो? इस निष्फल परिश्रम में तुम्हारा विवेक भी तो नहीं दीख पड़ता। फिर भी, मार्ग-विनोद के लिए तुम मुझसे यह कथा सुनो।”

वीरवर की कहानी

इस धरती पर अपने नाम को सच करने वाली शोभावती नाम की एक नगरी है। वहां शूद्रक नाम का राजा राज करता था। उसके राज्य में प्रजा हर प्रकार से सुखी थी। शूद्रक सच्चे अर्थों में प्रजापालक था। प्रजा को उस पर अटूट आस्था एवं विश्वास था।

वीरों पर प्रीति रखने वाले उस राजा के पास नौकरी करने की इच्छा से एक बार मालवा से वीरवर नाम का एक ब्राह्मण आया। वह बड़ा वीर था। उसके परिवार में तीन व्यक्ति थे—उसकी गर्भवती स्त्री धर्मवती, पुत्र सत्यवर तथा कन्या वीरवती। इसी तरह वे तीनों ही सेवा के लिए उसके सहायक थे जो कमर में कृपाण, एक हाथ में तलवार और दूसरे में ढाल लिए सदैव उसकी सेवा में तत्पर रहते थे।

वीरवर राजा शूद्रक के दरबार में पहुंचा और अपने आने का उद्देश्य कहा तो राजा ने उसके व्यक्तित्व से, बोलचाल के ढंग से प्रभावित होकर उसे दास रखना स्वीकार कर लिया। किंतु वीरवर ने जब पांच सौ स्वर्णमुद्राएं प्रतिदिन के हिसाब से पारिश्रमिक मांगा तो राजा कुछ हिचकिचाहट में पड़ गया।

उसने वीरवर को नौकरी तो दे दी किंतु गुप्त रूप से उसकी जांच कराने का भी निर्णय कर लिया। उसने अपने गुप्तचर को आदेश दे दिए कि वीरवर के बारे में अच्छी तरह छानबीन करके यह पता लगाएं कि उसका परिवार कितना बड़ा है और इतने पैसों का वह उपयोग किस प्रकार करता है।

वीरवर नित्यप्रति राजा से मिलकर, हाथों में हथियार लिए मध्याह्न तक उसके सिंहद्वार पर ही खड़ा रहता था और फिर राजा से प्राप्त वेतन में से प्रतिदिन सौ स्वर्णमुद्राएं अपनी पत्नी को घर के खर्च के लिए दे देता था। बाकी चार सौ स्वर्णमुद्राओं में से सौ स्वर्ण मुद्राओं से वस्त्र, आभूषण और ताम्बूल आदि खरीदता था। एक सौ स्वर्णमुद्राएं स्नान के पश्चात् विष्णु और शिव की पूजा में खर्च करता था, शेष दो सौ स्वर्ण मुद्राओं को वह ब्राह्मण और दरिद्रों को दान में देता था। इस प्रकार प्रतिदिन राजा से प्राप्त पांच-सौ स्वर्ण मुद्राओं का उपयोग करता था।

अनन्तर, दैनिक कार्यों से निबटकर वह भोजन करता और फिर रात में राजा के सिंहद्वार पर जाकर, हाथ में तलवार लिए पहरा दिया करता था। राजा शूद्रक ने जब अपने गुप्तचरों से उसका प्रतिदिन का नियम सुना, तो वह मन-ही-मन बहुत संतुष्ट हुआ। राजा ने उसे पुरुषों में श्रेष्ठ और विशेष रूप से आदर के योग्य समझा तथा उसका पीछा करने वाले गुप्तचरों को रोक दिया।

इसी तरह दिन बीतते रहे। वीरवर ने कठोर धूपवाली गर्मी के दिन सहज ही बिता दिए। घनघोर वर्षा के कष्टदायी दिन भी वह उसी तरह अपने कर्तव्य हेतु अटल रहकर सिंहद्वार पर बिताता रहा। शूद्रक ने कई बार रातों में स्वयं जाकर उसकी जांच की, किंतु हर बार उसने वीरवर को अपनी नौकरी पर मुस्तैद पाया।

रोती स्त्री की आवाज़

एक बार जब राजा प्रजा का हालचाल जानने के उद्देश्य से रात को महल से बाहर निकल रहा था, तो उसने दूर कहीं से आती हुई किसी स्त्री के रोने की आवाज सुनी। उस आवाज में बहुत दर्द, करुणा और दुःख-विह्वलता भरी हुई थी। राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि ‘मेरे राज्य में न तो कोई सताया हुआ है, न ही कोई दरिद्र है और न ही कोई दुखी। तो फिर यह स्त्री कौन है और इस भयंकर रात्रि में, जब सर्वत्र घनघोर वर्षा हो रही हो, क्यों इस प्रकार करुण-रुदन कर रही है?’

राजा को उस पर बहुत दया आई। उसने वीरवर से कहा, “वीरवर, सुनो। दूर कोई स्त्री करुण स्वर में रुदन कर रही है। तुम जाकर पता लगाओ कि वह कौन है और क्यों रो रही है?” राजा की बात सुनकर वीरवर ने ‘जो आज्ञा’ कहा और अपनी कमर में कटार खोसकर हाथों में तलवार लिए तुरंत वहां से निकल पड़ा।

बाहर घनघोर वर्षा हो रही थी। रह-रहकर बिजली कौंध रही थी और बादल ऐसे गरज रहे थे जैसे फट पड़ने के लिए वे बेचैन हो रहे हों। वीरवर को इतनी कर्तव्यनिष्ठा के साथ ऐसे बुरे मौसम में भी राजाज्ञा का पालन करने के लिए जाते देख राजा को उस पर बहुत दया आई। उसे कौतूहल भी हुआ, इसलिए वह भी उसके पीछे-पीछे हाथ में तलवार लिए लुकता-छिपता हुआ चल पड़ा।

उसका अनुसरण करता हुआ वीरवर नगर के बाहर जा पहुंचा। वहां उसने एक सरोवर के किनारे एक स्त्री को विलाप करते देखा जो बार-बार “हा वीर, हा कृपालु, हा स्वामी, हा त्यागी, तुम्हारे बिना कैसे रहूंगी?” कहती वह हुई रो रही थी। वीरवर ने आश्चर्यचकित होकर पूछा, “हे सुभगे, तुम कौन हो और रात के इस प्रहर में इस प्रकार क्यों रो रही हो?”

तब वह स्त्री बोली, “हे वीरवर, मैं पृथ्वी हूं। इस समय मेरे स्वामी राजा शूद्रक हैं, जो धर्मात्मा हैं। आज से तीसरे दिन उनकी मृत्यु हो जाएगी। फिर, मैं उनके समान किस दूसरे राजा को अपने स्वामी के रूप में पाऊंगी? यही ग़म मुझे खाए जा रहा है। इसी शोक से दुःखी होकर मैं उनके तथा अपने लिए विलाप कर रही हूं।”

यह सुनकर वीरवर ने उससे कहा, “हे देवी! क्या कोई ऐसा उपाय है जिससे जगत के रक्षक उस राजा की मृत्यु को रोका जा सके?”

“हां, है”, स्त्री के रूप में धरती बोली, “और वह उपाय केवल तुम ही कर सकते हो, वीरवर।”

“तो देवी, मुझे वह उपाय शीघ्रता से बतलाइए, जिससे मैं उसे कर सकूँ। नहीं तो मेरे जीवन का कुछ भी अर्थ नहीं रह जाएगा।”

यह सुनकर पृथ्वी ने कहा, “वत्स! तुम्हारे समान वीर और स्वामिभक्त दूसरा कौन है? अतः तुम राजा के कल्याण का उपाय सुनो। यहां से कुछ दूर देवी चंडिका का एक मंदिर है। यदि तुम अपने पुत्र की बलि देवी चंडिका को दे दो, तो राजा की मृत्यु नहीं होगी, वह सौ वर्ष तक और जी सकेंगे। यदि तुम आज ही यह काम कर सको तो ठीक है, अन्यथा आज से तीसरे दिन राजा की मृत्यु अवश्यम्भावी है।”

वीरवर कर्तव्यनिष्ठ और बड़ा वीर था। उसने कहा, “देवी,अपने स्वामी का जीवन बचाने के लिए मैं कुछ भी करने को सदैव ही तत्पर हूं। मैं आज ही जाकर यह कार्य करता हूं।”

“तुम्हारा कल्याण हो वत्स”, तब ऐसा कहकर पृथ्वी अन्तर्ध्यान हो गई। छिपकर पास ही खड़े राजा ने उन दोनों का वार्तालाप सुना और वह ‘वीरवर आगे क्या करता है’ इसकी प्रतीक्षा करने लगा।

घर पहुंचकर वीरवर ने अपनी पत्नी धर्मवती को जगाया और राजा के लिए पुत्र की बलि देने के लिए धरती ने जो कुछ कहा था, वह उसे कह सुनाया। सुनकर उसकी पत्नी ने कहा, “नाथ, स्वामी का जीवन अवश्य बचाना चाहिए। आप इसी समय अपने पुत्र को बुलाकर उससे सारा वृत्तांत कहें।”

तब वीरवर ने अपने बालक सत्यवर को जगाकर सारा वृत्तांत उसे बताया और कहा, “बेटा, चंडिका देवी को तुम्हारी बलि दिए जाने पर ही हमारे स्वामी बच पाएंगे, नहीं तो आज से तीसरे दिन उनकी मृत्यु हो जाएगी।”

यह सुनते ही उस बालक ने अपने नाम को सार्थक करते हुए निर्भीक होकर कहा, “पिताजी, यदि मेरे प्राणों के बदले हमारे स्वामी का जीवन बचता है तो मैं इस कार्य को सहर्ष करने को तैयार हूं। मैंने जो उनका अन्न खाया है, मैं उससे उऋण हो जाऊंगा। आप तुरंत मेरी बलि का प्रबंध कीजिए, जिससे मुझे शांति मिल सके।”

सत्यवर के ऐसा कहने पर वीरवर ने कहा, “बेटा, तुम धन्य हो। तुम सचमुच ही मेरे पुत्र हो। मुझे तुम पर बहुत गर्व है।”

वीरवर के पीछे-पीछे आए हुए राजा ने ये सारी बातें सुनीं। उसने सोचा, “अरे, ये तो सभी एक ही जैसे वीर हैं।”

अनंतर, वीरवर ने अपने बेटे सत्यवर को कंधे पर उठा लिया। उसकी पत्नी धर्मवती ने अपनी बेटी वीरवती को ले लिया और रात के समय चंडिका के मंदिर में गए। राजा शूद्रक भी छिपकर उनके पीछे-पीछे गया।

वीरवर और उसके परिवार का त्याग

मंदिर में पहुंचकर वीरवर ने देवी के सम्मुख अपने बेटे को कंधे से उतारा। सत्यवर ने बड़े धैर्य से देवी को प्रणाम किया और कहा, ”हे देवी! मेरे मस्तक का उपहार स्वीकार करो, जिससे हमारे स्वामी राजा शूद्रक अगले सौ वर्षों तक जीवित रहकर निष्कंटक राज कर सकें।”

वीरवर ने पुत्र के ऐसा कहते ही, ‘धन्य-धन्य’ कहते हुए अपनी तलवार निकाली और उससे अपने पुत्र का मस्तक काटकर देवी चंडिका को अर्पण करते हुए कहा, “हे देवी, मेरे पुत्र के इस बलिदान से हमारे स्वामी सौ वर्ष तक जीवित रहें।”

उसी समय अंतरिक्ष से आकाशवाणी हुई, “हे वीरवर, तुम धन्य हो। तुम्हारे समान स्वामिभक्त और कोई नहीं है, जिसने अपने एकमात्र गुणी पुत्र का बलिदान देकर अपने राजा शूद्रक को जीवन दिया है।”

राजा शूद्रक छिपकर ये सारी बातें देख और सुन रहे थे। तभी वीरवर की कन्या वीरवती आगे बढ़ी और मरे भाई के मस्तक को आलिंगन करती हुई. शोक से विह्वल बुरी तरह से रोने लगी। तदनंतर उसने भी भाई के शोक में अपने प्राण त्याग दिए।

यह देखकर वीरवर की पत्नी ने कहा, “हे स्वामी! राजा का कल्याण तो हो गया। अब मैं भी आपसे कुछ कहती हूं। हमारा पुत्र चला गया, हमारी बेटी ने उसके शोक में अपने प्राण त्याग दिए। तो मैं भी अब जीकर क्या करूंगी? मुझ मूर्ख ने राजा के कल्याण के लिए पहले ही देवी को अपना मस्तक क्यों अर्पित नहीं किया? इसलिए अब मेरी आपसे यही प्रार्थना है कि मुझे भी आज्ञा दें कि मैं अपने बच्चों के शरीरों के साथ अग्नि में प्रवेश करूं।”

जब धर्मवती ने आग्रहपूर्वक ऐसा कहा तो वीरवर बोला, “हे मनस्विनी! ठीक है, तुम ऐसा ही करो। तुम्हारा कल्याण हो। एकमात्र बच्चों का शोक ही जिसके पास बच रहा है, ऐसे में तुमको अब जीवन से क्या अनुराग है? तुम्हें इस बात का दुख होना चाहिए कि मैंने पहले ही अपने प्राण क्यों नहीं त्याग दिए। यदि किसी और के मरने से राजा का कल्याण होता, तो मैं पहले ही अपना जीवन उत्सर्ग न कर देता? किंतु तुम थोड़ी देर ठहर जाओ, तब तक मैं तुम्हारी चिता हेतु कुछ लकड़ियों का प्रबंध कर देता हूं।”

यह कहकर वीरवर ने लकड़ियों की एक चिता तैयार की। अग्नि से उसे प्रज्ज्वलित किया और उस चिता पर दोनों बच्चों के शव रख दिए।

तब उसकी धर्मपरायण पत्नी उसके पैरों में जा गिरी। उस पतिव्रता ने देवी को प्रणाम करके कहा, “हे दवी, मुझे आशीर्वाद दीजिए कि अगले जन्म में भी यही आर्यपुत्र मेरे पति हों और यही राजा मेरे स्वामी। मेरे इस शरीर-त्याग से इनका कल्याण हो।”

यह कहकर वह साध्वी स्त्री भयानक लपटों वाली उस चिता की अग्नि में इस प्रकार कूद पड़ी, मानो जल में कूद पड़ी हो।

इसके बाद पराक्रमी वीरवर ने सोचा, “आकाशवाणी के अनुसार राजा का काम तो मैं पूरा कर चुका हूं। मैंने राजा का जो नमक खाया था, उससे उऋण हो गया। अब मुझ अकेले को ही अपने जीवन से मोह क्यों रखना चाहिए? जो मरण करने योग्य थे, प्यारे थे, उन सभी अपने कुटुंबीजनों का नाश करके, अकेला अपने को जीवित रखने वाला मुझ जैसा कौन अभागा व्यक्ति होगा? तो फिर मैं भी क्यों न अपने शरीर की बलि देकर देवी को प्रसन्न करूं?”

ऐसा सोचकर वह देवी को प्रसन्न करने के लिए उसकी स्तुति करने लगा,.”हे देवी, हाथों में शूल धारण करने वाली, महिषासुर-मर्दिनी, जगत-जननी तेरी जय हो। हे माता सर्वव्यापिणी! आप देवताओं को प्रसन्नता देने वाली हैं। तीनों लोकों को धारण करने वाली हैं। हे माता, सारा संसार तुम्हारे चरणों की वंदना करता है। अपने भक्तों की मुक्ति के लिए तुम ही शरण-रूप हो। तुम्हारी जय हो।

हे काली, जय कापालिनी, जय कंकालिनी, हे कल्याणमयी, आपको नमस्कार है। मेरे मस्तक का उपहार स्वीकार कर तुम राजा शूद्रक पर प्रसन्न हो।”

तत्पश्चात् देवी की स्तुति करके वीरवर ने झटपट तलवार से अपना मस्तक काट डाला।

शूद्रक की महानता

वहां छिपकर शूद्रक ये सारी बातें देख रहा था। दुःख से विकल होकर उसने आश्चर्य-पूर्वक सोचा, “हे भगवान, मेरे लिए इस सज्जन पुरुष और इसके परिवार ने यह कैसा दुष्कर कार्य कर डाला। ऐसा तो न कहीं देखा अथवा सुना गया। वीरवर और उसका परिवार बड़ा वीर है। इस विचित्र संसार में इसके जैसा धीर-वीर पुरुष और कहां मिलेगा जो बिना कहे-सुने परोक्ष में अपने स्वामी के लिए अपने प्राणों तक अर्पित कर दे। यदि इसके उपकार का प्रत्युपकार मैं न कर सकूँ तो मेरे राजा होने का अर्थ ही क्या रह गया? फिर तो मेरे और एक पशु के जीवन में कोई अंतर ही नहीं है।”

ऐसा सोचकर राजा शूद्रक ने अपनी तलवार म्यान से निकाली और देवी की प्रतिमा के सामने प्रार्थना की, “हे भगवती, मैं आपकी शरण में आ रहा हूं। अतः आप मेरे मस्तक का उपहार लेकर प्रसन्न हों और मुझ पर कृपा करें। वीरवर और उसका परिवार बड़ा वीर है। अपने नाम के अनुरूप आचरण करने वाले इस वीरवर ने मेरे लिए ही अपने प्राणों का त्याग किया है, अतः मेरे प्राण लेकर आप प्रसन्न हों और वीरवर तथा उसके पुत्र-पुत्री एवं पत्नी को पुनर्जीवित कर दें।”

यह कहकर राजा ने ज्योंही तलवार से अपना मस्तक काटना चाहा, तभी आकाशवाणी हुई, “हे राजन, तुम ऐसा दुस्साहस मत करो। मैं तुम्हारी वीरता से प्रसन्न हूं। मेरा आशीर्वाद है कि यह ब्राह्मण तत्काल अपने परिवार सहित जीवित हो जाएगा।”

इतना कहकर आकाशवाणी मौन हो गई। वीरवर भी अपने पुत्र, कन्या तथा पत्नी सहित अक्षत-शरीर होकर जी उठा। यह दृश्य देखकर राजा फिर छिप गया और प्रसन्नता के आंसुओं से भरी आंखों से उन्हें देखता रहा।

वीरवर ने अपने बच्चों तथा स्त्री सहित अपने को भी सोता हुआ-सा देखा और उसका मन भ्रांत हो गया। वीरवर ने अपनी पत्नी और बच्चों को अलग-अलग ले जाकर पूछा- “तुम लोग तो आग में जलकर भस्म हो गए थे, फिर जीवित कैसे हो गए? और मैंने भी तो अपना मस्तक काट डाला था, मैं भी जीवित बचा हूं। यह मेरी भ्रांति है या देवी ने सचमुच हम पर कृपा की है?”

वीरवर के ऐसा कहने पर उसकी पत्नी एवं बच्चों ने कहा, “पिताश्री, हम लोग सचमुच जीवित हो गए हैं। यह देवी का अनुग्रह है। यद्यपि हम अभी तक यह बात जान नहीं पाए हैं।”

वीरवर ने भी यही समझा कि ऐसी ही बात है। पर उसका काम पूरा हो चुका था, अतः वह अपनी स्त्री एवं बच्चों सहित अपने घर लौट आया। घर पर स्त्री एवं बच्चों को छोड़कर, उसी रात वह पहले की तरह फिर से राजा की ड्योढ़ी पर पहुंचा और अपनी नौकरी पर मुस्तैद हो गया। यह देखकर राजा शूद्रक भी, सबकी आंखें बचाकर, फिर अपने महल की छत पर जा चढ़ा।

वहां से राजा ने पुकारकर पूछा, “ड्योढ़ी पर कौन है?” तब वीरवर ने कहा, “स्वामी, यहां मैं हूं। आपकी आज्ञा से मैं उस स्त्री को देखने गया था। पर, मेरे देखते ही देखते वह गायब हो गई।”

वीरवर की यह बात सुनकर राजा को बड़ा विस्मय हुआ, क्योंकि उसने तो सारा हाल अपनी आंखों के सामने देखा था। वह सोचने लगा, “यह कैसा मनस्वी पुरुष है जो धीर-वीर एवं समुद्र के समान गंभीर है। अभी-अभी इसने जो कुछ किया है, उसका एक शब्द भी अपने मुंह पर लाना नहीं चाहता। धन्य है वीरवर। ऐसे वीर पुरुष सौभाग्य से ही किसी-किसी को नसीब हुआ करते हैं।”

इसी तरह की बातें सोचता हुआ राजा चुपचाप महल की छत से उतर आया। बाकी की रात उसने अन्तःपुर में जाकर बिता दी।

सवेरे वीरवर राजदरबार में राजा के दर्शन करने गया। उसके कार्यों से प्रसन्न राजा ने पिछली रात का सारा विवरण अपने मंत्रियों से कह सुनाया। सुनकर वे सभी आश्चर्य के सागर में डूब गए।

राजा ने प्रसन्न होकर वीरवर तथा उसके पुत्र को कर्णाट का राज्य दे दिया। राज्य पाकर अब वे दोनों समान वैभव वाले तथा एक-दूसरे का फल चाहने वाले बन गए। इस प्रकार राजा शूद्रक और राजा वीरवर दोनों ही सुखपूर्वक रहने लगे।

बेताल का प्रश्न – बड़ा वीर कौन?

बेताल ने यह अद्भुत कथा सुनाकर राजा विक्रमादित्य से पूजा, “हे राजन! यह बतलाओ कि उन दोनों में से बड़ा वीर कौन था? जानते हुए भी यदि तुम नहीं बताओगे तो तुम्हें पहले की तरह ही शाप लगेगा।”

यह सुनकर राजा ने बेताल को उत्तर दिया, “हे बेताल, उन दोनों में से बड़ा राजा शूद्रक ही था।”

बेताल बोला, “राजन, सबसे बड़ा वीर क्या वीरवर नहीं था? उसने तो स्वयं राजा के कल्याण हेतु अपना मस्तक तक काट डाला था। या फिर उसकी पत्नी, उसने भी तो अपना बलिदान दिया था। उसके पुत्र सत्यवर ने भी कौन-सा कम वीरता का काम किया था। वह भी बड़ा वीर था। राजा के कल्याण हेतु उसने भी तो सहर्ष मां चंडिके को अपना मस्तक अर्पण कर दिया था। वह तो बालक होने पर भी वीरता का उत्कर्ष था। तब फिर तुम शूद्रक को सबसे बड़ा वीर किसलिए कर रहे हो?”

बेताल के इस कथन पर विक्रमादित्य बोला, “हे बेताल! ऐसी बात नहीं है। वीरवर निश्चय ही बड़ा वीर था। वीरवर का जन्म ऐसे कुल में हुआ था, जिसके बालक अपने प्राण, अपनी स्त्री और अपने बच्चों की बलि देकर भी स्वामी की रक्षा अपना परम धर्म मानते हैं। वीरवर की पत्नी भी कुलीन वंश की थी, वह पतिव्रता थी। वह पति को ही अपना एकमात्र देवता मानती थी। पति के मार्ग पर चलने के अतिरिक्त उसका कोई दूसरा कार्य नहीं था। उनसे उत्पन्न सत्यवर भी उन्हीं के समान था। जाहिर है जैसा सूत होगा, वैसा ही कपड़ा भी तैयार होगा। लेकिन, जिन चाकरों से राजा लोग अपने जीवन की रक्षा करवाते हैं, राजा शूद्रक उन्हीं के लिए अपने प्राण त्यागने को उद्यत हो गया था। अतः उन सब में वही विशिष्ट और बड़ा वीर था।”

राजा का उत्तर सुनकर कि ‘बड़ा वीर कौन है’ बेताल अपनी माया के द्वारा, अचानक उसके कंधे से उतरकर फिर गायब हो गया और पुनः अपने स्थान पर जा पहुंचा। राजा विक्रमादित्य भी उसे फिर से ले आने का निश्चय करके वापस शिंशपा-वृक्ष की ओर चल पड़ा।

राजा विक्रमादित्य बेताल को लाने के लिए पुनः शिंशपा वृक्ष के नीचे पहुँच गया। उसने बेताल को उतारकर अपने कंधे पर डाला और चलना शुरू किया। बेताल ने राजा विक्रम को फिर से यह कहानी सुनानी शुरू की – सोमप्रभा की कथा

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