बूढ़ा तपस्वी क्यों हँसा और रोया – विक्रम-बेताल की कहानी
“बूढ़ा तपस्वी क्यों हँसा और रोया” बेताल पच्चीसी की तेईसवीं कहानी है। इसमें राजा विक्रम बेताल को बूढ़े तपस्वी के हँसने-रोने के कारण को बताता है। बेताल पच्चीसी की शेष कहानियाँ पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – विक्रम बेताल की कहानियाँ।
“चार ब्राह्मण भाइयों की कथा” में उत्तर पाने के बाद बेताल पुनः ग़ायब हो गया। भूत-प्रेतों से भरे उस महाश्मशान में राजा विक्रमादित्य फिर से उस शिंशपा-वृक्ष के नीचे पहुँचा। यद्यपि बेताल ने अपने अनेक रूप दिखलाए किंतु राजा ने उसे वृक्ष से नीचे उतार लिया और उसे अपने कंधे पर लादकर चुपचाप मार्ग पर चलते रहे। तब बेताल ने राजा विक्रमादित्य से कहा, “राजन, न करने योग्य इस काम में भी तुम्हारा ऐसा आग्रह है, जिसे रोका नहीं जा सकता। अतः मैं तुम्हारी थकावट दूर करने के लिए एक अन्य कथा सुनाता हूँ, सुनो।”
कलिंग देश में स्वर्गपुरी के समान भव्य नगरी थी, जहां उत्तम आचरण वाले लोग रहते थे। वहां ऐश्वर्य और पराक्रम के लिए प्रद्युम्न के समान ही प्रसिद्ध, प्रद्युम्न नाम का राजा शासन करता था। उस नगर के एक छोर पर यज्ञस्थल नाम का एक गांव था जिसे राजा प्रद्युम्न ने ब्राह्मणों को दान स्वरूप दिया था। उसी गांव मे यज्ञसोम नाम का एक वेदज्ञ ब्राह्मण भी रहता था, जो अत्यंत धनवान था। वह अग्निहोत्री था तथा अतिथि-देवों का सम्मान करने वाला था।
जब उस ब्राह्मण का यौवन बीत गया, तब सौ-सौ मनोरथों के बाद, उसके ही योग्य उसकी पत्नी के एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उत्तम लक्षणों वाला वह बालक पिता के घर में बढ़ने लगा। ब्राह्मणों ने विधिपूर्वक उसका नाम देवसोम रखा।
वह बालक, जिसने अपनी विद्या, विनय आदि गुणों से लोगों को वशीभूत कर लिया था, जब सोलह वर्ष का हुआ, तब अचानक ज्वर के कारण मृत्यु को प्राप्त हो गया। उसके पिता यज्ञसोम ने स्नेह के कारण अपनी पत्नी सहित उस मरे हुए पुत्र को आलिंगन मे बांधे रखा और बहुत देर तक उसके शव को दाह-क्रिया के लिए नहीं जाने दिया।
बाद में वहां इकट्ठे हुए बड़े-बूढ़ों ने उसे इस प्रकार समझाया, “ब्राह्मण, आप तो भूत और भविष्य को जानने वाले हैं। आप क्या जल के बबूले के समान क्षण-भंगुर इस संसार की गति नहीं जानते? इस संसार मे ऐसे भी राजा थे, जो उन मनोहर राजमहलों में रत्नजड़ित पलंगों पर बैठे, जहाँ संगीत की झंकार भरी रहती थी। अपने शरीर पर चन्दन का लेप करते थे और अपने को अमर समझकर उत्तम स्त्रियों से घिरे रहते और सुख भोगते थे। ऐसे महापराक्रमियों को भी काल ने अपना ग्रास बना लिया। वे भी अकेले ही उस श्मशान में पहुंचे जहाँ उनके अनुयायी और प्रेत रो रहे थे और आसपास शृगाल चीत्कार कर रहे थे। चिता पर सोये उनके शरीर का मांस भी पक्षी, पशुओं और अग्नि ने खा डाला। जब उन्हें भी मरने और नष्ट होने से कोई नहीं बचा सका, तब और की तो बात ही क्या है? अतः हे विद्वान! तुम यह बतलाओ कि कि इस शव को कलेजे से लगाए रखकर तुम क्या करोगे?”
इस तरह समझाने-बुझाने के बाद किसी तरह अपने मरे हुए पुत्र को छोड़ा और शव को नहलाया-धुलाया। तब उसे एक पालकी में रखकर, आंसू बहाते तथा रोते-पीटते वे बन्धु-बांधव, जो वहां इकट्ठे थे, श्मशान ले गए।
उस श्मशान में कुटिया बनाकर एक बूढ़ा तपस्वी रहता था। वह पाशुपत मत का बूढ़ा तपस्वी (अघोरी) था। अधिक अवस्था और कठोर तपस्या के कारण उसका शरीर अत्यंत कृश हो गया था। जब वह चलता था तो ऐसा लगता जैसे अब गिरा कि तब गिरा।
उसका नाम शिव था। उसका सारा शरीर भस्म लगे श्वेत रोमों से भरा हुआ था। उसका पीला जटाजूट बिजली के समान जान पड़ता था। वह स्वयं दूसरे भगवान शिव जैसा प्रतीत होता था।
वह बूढ़ा तपस्वी जिस कुटिया में रहता था, उसके साथ एक शिष्य भी रहता था। योगी ने कुछ ही देर पहले उसे बुरा-भला कहा था, जिससे वह चिढ़ा हुआ था। वह मूर्ख और दुष्ट था। ध्यान और योग आदि क्रियाओं में लगा रहने के कारण उसे अहंकार हो गया था। वह भीख में मिले हुए अन्न को खाकर निर्वाह करता था। बाहर दूर से आते हुए इस जन-कोलाहल को सुनकर योगी ने उससे कहा, “बाहर जाकर झटपट यह तो देखकर आओ कि इस श्मशान में ऐसा शोरगुल क्यों हो रहा है, जैसा इससे पहले कभी नहीं सुना गया।”
बूढ़ा तपस्वी जब ऐसा बोला तो शिष्य ने उत्तर दिया, “मैं नहीं जाऊंगा, आप ही जाइए। मेरी भिक्षा की बेला बीती जा रही है।”
यह सुनकर बूढ़ा तपस्वी बोला, “अरे पेटू, धिक्कार है तुझे। आधा दिन बीत जाने पर यह तेरी कैसी भिक्षा की बेला है?” इस पर उस क्रुद्ध तपस्वी ने कहा, “अरे बुड्ढे, धिक्कार मुझे नहीं तुझ पर है। आज से न तो मैं तेरा शिष्य हूं और न तू मेरा गुरु। मैं दूसरी जगह जा रहा हूं। तू संभाल अपना यह कमंडल।” यह कहकर वह उठा और उस तपस्वी के सम्मुख दंड-कमंडल रखकर वहां से चलता बना।
कुछ देर बाद वह बूढ़ा तपस्वी हँसता हुआ अपनी कुटिया से बाहर निकलकर वहां पहुंचा जहां ब्राह्मण-कुमार को दाह-कर्म के लिए लाया गया था। उसने देखा कि लोग तरुणाई के द्वार पर खड़े उस बालक के लिए शोक कर रहे हैं। बुढ़ापे से क्षीण उस योगी ने बालक के शरीर में प्रवेश करने का निश्चय किया। झटपट एकान्त में जाकर पहले तो वह जी खोलकर रोया, फिर अंगों के उचित संचालन के साथ शीघ्रता से नाचने लगा। पल-भर बाद यौवन की इच्छा रखने वाले उस तपस्वी ने अपना शरीर छोड़कर उस ब्राह्मण-पुत्र के शरीर में प्रवेश किया।
बात ही बात में सजाई हुई चिता पर वह बूढ़ा तपस्वी रूपी ब्राह्मण-पुत्र जीवित होकर जम्हाई लेता हुआ उठ बैठा। यह देखकर वहां उपस्थित सभी लोग आश्चर्यचकित रह गए। ब्राह्मण-पुत्र के शरीर में प्रविष्ट उस योगी ने, जो योगों का स्वामी था और अपने तमाम व्रतों को छोड़ना नहीं चाहता था, बातें बनाते हुए कहा, “मरकर जब मैं परलोक पहुंचा तो भगवान शंकर ने प्रकट होकर मुझे जीवनदान दिया और कहा कि तुम्हें पाशुपत (अघोरी) व्रत लेना है। मुझे इसी समय एकान्त में जाकर यह व्रत ग्रहण करना है। यदि मैं ऐसा नहीं करूंगा तो जीवित नहीं रहूंगा। इसलिए आप सब लोग वापस लौट जाइए, मैं जा रहा हूं।”
इस प्रकार उस तपस्वी ने, जिसने व्रत का दृढ़ निश्चय कर रखा था, वहां एकत्र हुए हर्ष और शोक से विह्वल सब लोगों को समझा-बुझाकर घर लौटा दिया। तत्पश्चात् उसने उस जगह जाकर, जहां उसका पहला शरीर पड़ा हुआ था, वह मृत शरीर एक गड्ढे में डाला और व्रत धारण करके युवा शरीर में वह महायोगी कहीं अन्यत्र चला गया।
राजा विक्रमादित्य को यह कथा सुनाकर बेताल ने उससे पुनः कहा, “राजन, अब तुम मुझे यह बतलाओ कि दूसरे शरीर में प्रवेश करने से पहले वह बूढ़ा तपस्वी क्यों रोया और फिर नाचने क्यों लगा? मुझे इस बात को जानने का बड़ा कौतूहल हो रहा है।”
बेताल की यह बात सुनकर शाप से आशंकित और बुद्धिमानों में श्रेष्ठ राजा ने मौन त्याग दिया और बेताल से कहा, “हे बेताल! इन बातों से वह बूढ़ा तपस्वी जो अभिप्राय रखता था, वह सुनो।
उस वृद्ध तपस्वी ने सोचा कि ‘इस बूढ़े शरीर के साथ बहुत दिनों तक मैं सिद्धियों की साधना करता रहा हूं। अब मैं इस शरीर का त्याग करने जा रहा हूं जिसे मां-बाप ने बचपन में लाड़-प्यार से पाला था।’
यही सोचकर वह बूढ़ा तपस्वी दुःखी हुआ और रोया था, क्योंकि शरीर का मोह छोड़ना बड़ा कठिन काम होता है। इसी प्रकार वह यह सोचकर प्रसन्नता से नाच उठा था कि अब वह नए शरीर में प्रवेश करेगा और इससे भी अधिक साधना कर सकेगा।”
शव के शरीर में बैठा हुआ वह बेताल, राजा की यह बातें सुनकर उसके कंधे से उतरकर पुनः उसी शिशपा-वृक्ष पर जा बैठा। राजा विक्रमादित्य ने और अधिक उत्साह से उसे ले आने के लिए फिर उसका पीछा किया।
राजा विक्रमादित्य बेताल को लाने के लिए पुनः शिंशपा वृक्ष के नीचे पहुँच गया। उसने बेताल को उतारकर अपने कंधे पर डाला और चलना शुरू किया। बेताल ने राजा विक्रम को फिर से यह कहानी सुनानी शुरू की – चंद्रावती की अनोखी कथा