चंद्रप्रभ किसका पुत्र? – विक्रम बेताल की कहानी
“चंद्रप्रभ किसका पुत्र?” बेताल पच्चीसी की उन्नीसवीं कहानी है। राजा चंद्रप्रभ के तीन पिताओं में से उसका पिता वाक़ई कौन था–बेताल के इस प्रश्न का राजा विक्रमादित्य अपने तेज़ दिमाग़ से सही जवाब देता है। बेताल पच्चीसी की शेष कहानियाँ पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – विक्रम बेताल की कहानियाँ।
“यशोधन और बलधर में कौन अधिक चरित्रवान?” कहानी का सही उत्तर राजा विक्रम से प्राप्त कर बेताल पुनः उड़ गया। राजा विक्रमादित्य ने शिंशपा-वृक्ष से फिर बेताल को उतारा और उसे अपने कंधे पर डालकर चल पड़ा। चलते हुए बेताल ने पुनः कहा, “राजन! सुनो, मैं तुम्हें इस बार यह मनोहर कथा सुनाता हूं।”
बहुत पहले वक्रोलस नाम का एक नगर था। जहां इन्द्र के समान एक राजा राज्य करता था। उसका नाम था सूर्यप्रभ। राजा सूर्यप्रभ हर प्रकार से सुखी था किंतु उसे एक ही दुःख था कि बहुत-सी रानियों के होते हुए भी उसे कोई संतान नहीं हुई थी।
उस समय ताम्रलिप्ति नाम की एक महानगरी में धनपाल नाम का एक महाजन (सेठ) रहता था, जो उस क्षेत्र के सभी धनवानों में अग्रणी था। उसकी इकलौती पुत्री का नाम धनवती था। वह इतनी सुन्दर थी कि उसे देखकर किसी अप्सरा का भ्रम होता था।
जब वह कन्या युवती हुई, तब महाजन की मृत्यु हो गई। राजा का सहारा पाकर महाजन के संबंधियों ने उसका सारा धन हड़प लिया। महाजन की पत्नी हिरण्यवती किसी प्रकार अपने रत्न एवं आभूषणों को छिपाकर अपनी पुत्री सहित अपने संबंधियों के डर से वहां से भाग निकली। उसके हृदय में दुख का अंधेरा घिरा हुआ था। अपनी पुत्री का हाथ थामे वह बड़ी कठिनाई से नगर से बाहर निकली।
संयोगवश अंधकार में जाती हुई हिरण्यवती ने दिख न पाने के कारण सूली पर चढ़ाए गए एक चोर को अपने कंधे से धक्का दे दिया। वह चोर जीवित था। उसके कंधे के धक्के से वह तिलमिला उठा और कराहकर कह उठा, “हाय! मेरे कटे हुए जख्मों पर कौन नमक छिड़क रहा है?” इस पर उस महाजन की स्त्री ने क्षमायाचना करते हुए उस चोर से पूछा, “श्रीमंत, आप कौन हैं?”
तब उस चोर ने उत्तर दिया, “मैं एक कुख्यात चोर हूं। चोरी करने एक कारण मुझे सूली पर चढ़ाए जाने का दंड मिला है। लेकिन आर्या, आप बतलाएं कि आप कौन हैं और इस अंधकार में भटकती हुई कहां जा रही हैं?”
चोर के पूछने पर महाजन की पत्नी उसे अपना परिचय देने लगी, तभी चंद्र देव निकल आए और उनके प्रकाश में सारा क्षेत्र आलोकित हो गया। तब चोर ने देख लिया कि उस स्त्री के साथ चंद्रमा के मुख के समान एक कन्या भी वहां मौजूद थी। यह देखकर उसने उसकी माता से प्रार्थना की, “आर्ये, तुम मेरी एक प्रार्थना सुनो। मैं तुम्हें एक हजार स्वर्णमुद्राएं दूंगा। तुम अपनी कन्या मुझे दे दो।”
यह सुनकर धनवती की माता हंसी और चोर से पूछा, “तुम तो मरने वाले हो। सूली पर टंगे हुए तुम्हें मरने में विलम्ब नहीं होगा। फिर क्यों मेरी कन्या का हाथ मांगना चाहते हो?”
इस पर उस चोर ने कहा, “यह सत्य है कि मेरी आयु समाप्त हो गई है, पर मैं पुत्रहीन हूं। शास्त्रों में लिखा है कि पुत्रहीन व्यक्ति की सद्गति नहीं होती। अतः यह यदि मेरी आज्ञा से किसी और के द्वारा पुत्र पैदा करेगी तो वह मेरा क्षेत्रज पुत्र होगा। इसी से मैं तुमसे यह निवेदन करता हूं कि मेरा मनोरथ पूरा करो।”
चोर की बात सुनकर महाजन की पत्नी के मन में लोभ पैदा हो गया। उसने चोर की बात स्वीकार कर ली।
तब वह महाजन की पत्नी कहीं से जल ले आई और यह कहकर उसने उस जल को चोर के हाथों पर डाल दिया कि ‘मैं अपनी यह कुंवारी कन्या तुम्हें देती हूं।’
तब उस चोर ने उस कन्या को अपना क्षेत्रज पुत्र उत्पन्न करने का आदेश दिया और अपनी सास से बोला, “सामने उस बरगद के विशाल वृक्ष को देखो। उस वृक्ष की जड़ के समीप जमीन खोदो तो वहां जमीन में दबी तुम्हें कुछ स्वर्णमुद्राएं मिलेंगी। वह स्वर्णमुद्राएं निकाल लो और मेरी मृत्यु के बाद विधिपूर्वक मेरा दाह-संस्कार करा देना। तत्पश्चात् मेरी अस्थियों का किसी तीर्थस्थान में विसर्जन करने के पश्चात् अपनी कन्या सहित वक्रोलस नगर में चली आना। वहां राजा सूर्यप्रभ के शासन में वहां के लोग सुखपूर्वक रहते हैं। मुझे आशा है तुम्हें वहां रहने के लिए किसी प्रकार की कठिनाई नहीं आएगी।”
यह कहकर उस प्यासे चोर ने हिरण्यवती द्वारा लाया हुआ जल पीया और सूली पर चढ़ाए जाने की पीड़ा के कारण अपने प्राण त्याग दिए।
हिरण्यवती ने चोर के निर्देशानुसार बरगद के वृक्ष के पास जाकर स्वर्णमुद्राएं निकालीं और किसी गुप्त मार्ग से अपने पति के किसी मित्र के यहां चली गई। वहां रहकर उसने युक्तिपूर्वक उस चोर की दाह-क्रिया करवाई और उसकी अस्थियों को किसी तीर्थ में प्रवाहित कराने आदि की भी व्यवस्था कर दी।
अगले दिन वह उस छिपे धन को लेकर अपनी कन्या के साथ वहां से निकल पड़ी और चलती-चलती क्रमशः वक्रोलस नगर में पहुंच गई। वहां उसने वसुदत्त नाम के किसी श्रेष्ठ वणिक से एक मकान खरीद लिया और पुत्री सहित उस मकान में रहने लगी। उन्हीं दिनों उस नगर में विष्णुस्वामी नाम के एक अध्यापक रहते थे। मनःस्वामी नाम का उनका एक ब्राह्मण-शिष्य बहुत रूपवान था।
यद्यपि वह ब्राह्मण-शिष्य उत्तम कुल का था तथापि यौवन के वशीभूत होकर हंसावली नाम की एक विलासिनी के प्रेम में फंस गया था। हंसावली शुल्क के रूप में पांच-सौ स्वर्णमुद्राएं मांगती थी और इतना धन उसके पास नहीं था इसलिए वह उसे पाने को दिन-रात बेचैन रहता था।
एक दिन उस महाजन की कन्या धनवती ने अपने मकान की छत पर से उस सुन्दर युवक को देखा। धनवती उसकी सुन्दरता पर मोहित हो गई। उसे अपने चोर पति की आज्ञा का स्मरण हो आया। तब उसने अपनी माता को बुलाया और उससे कहा, “माँ, नीचे खड़े उस ब्राह्मण युवक के रूप और यौवन को तो देखो। उसके नेत्र कितने सुन्दर हैं। इस वेश मे तो वह साक्षात् कामदेव जैसा दिखाई दे रहा है।”
यह सुनकर उसकी माता हिरण्यवती समझ गई कि धनवती को यह युवक पसंद आ गया है। तब उसने मन में सोचा, “पति की आज्ञा से पुत्र-प्राप्ति के लिए मेरी पुत्री को किसी पुरुष का वरण तो करना ही है, फिर क्यों न इसी युवक से अनुरोध किया जाए?” यह सोचकर उसने इच्छित संदेश के साथ भेद जानने वाली एक दासी को भेजा कि वह उस ब्राह्मण युवक को यहां ले आए।
उस दासी ने जाकर उस ब्राह्मण युवक को एकांत में बुलाया और सारी बातें कहीं। उन्हें सुनकर वह व्यसनी ब्राह्मण युवक बोला, “यदि मुझे हंसावली के लिए पाँच सौ सोने की मोहरें दे, तो मैं एक रात के लिए वहां जा सकता हूं।”
उसके ऐसा कहने पर दासी ने यह बात महाजन की स्त्री से कही। महाजन की स्त्री ने उसी के हाथ उतना धन भेज दिया। वह धन लेकर मनःस्वामी उस दासी के साथ महाजन की कन्या उस धनवती के महल में गया, जो एक रात्रि के लिए उसे अर्पित कर दी गई थी।
वहां मनःस्वामी ने अत्यंत उत्कंठित उस कन्या को देखा, जिसने धरती को विभूषित कर रखा था। चकोर जिस प्रकार चांद को देखता है, वैसे ही वह धनवती को देखकर प्रसन्न हुआ। उसने धनवती के साथ समागम करते हुए वह रात बिताई। सवेरा होने पर जिस प्रकार से वह वहां आया था, उसी प्रकार वहां से निकलकर चला गया।
समय पाकर धनवती गर्भवती हुई और उसने मनःस्वामी के अंश-रूप एक सुन्दर बालक को जन्म दिया। बालक के लक्षण उसके उज्ज्वल भविष्य की सूचना दे रहे थे। पुत्र के रूप में उस बालक को पाकर धनवती बहुत संतुष्ट हुई। रात में भगवान शिव ने स्वप्न में उन्हें दर्शन देकर आदेश दिया कि “सहस्र स्वर्णमुद्राओं के साथ, पालने में लेटे हुए इस बालक को सवेरे राजा सूर्यप्रभ के दरवाजे पर छोड़ आओ। इससे इसका और तुम्हारा दोनों का कल्याण होगा।” शिवजी के ऐसा कहने पर वह वणिकपुत्री और उसकी माता जागकर आपस में विचार-विमर्श करने लगी और भगवान की बातों पर विश्वास पर वे राजा सूर्यप्रभ के सिंहद्वार पर उस बालक को स्वर्णमुद्राओं सहित छोड़ आई।
उधर भगवान शंकर ने पुत्र की चिंता में सदा दुःखी रहने वाले राजा सूर्यप्रभ को भी स्वप्न में आदेश दिया, “राजन! उठो, तुम्हारे सिंहद्वार पर किसी ने पालने में लेटे हुए एक सुंदर बालक को रख दिया है। उसे स्वीकार करो और उसका पुत्रवत् पालन करो।”
राजा की नींद खुली और उसने सिंहद्वार पर जाकर देखा तो उसे भगवान शिव के कथन की सत्यता का पता चला। बालक के साथ धनराशि भी रखी हुई थी और उसके हाथ-पैरों में छत्र, ध्वज आदि के चिन्हों की रेखाएं थीं। वह बालक बहुत ही सुंदर आकृति वाला था।
“भगवान शिव ने मेरे योग्य पुत्र ही मुझे दिया है।” ऐसा कहते हुए राजा ने उस बालक को अपने हाथों में उठा लिया और महल में चला गया। तब राजा ने पुत्र प्राप्ति के उपलक्ष्य में इतना धन गरीबों में लुटाया कि नगर में कोई दरिद्र ही न रहा। नृत्य-वाद्य आदि के साथ राजा ने विधिपूर्वक बालक को अपनाया और उसका नाम रखा चंद्रप्रभ। राजमहल में हर प्रकार के सुखों के साथ धीरे-धीरे राजकुमार बड़ा होने लगा। जब वह युवक हुआ तो राजा ने उसे राज्यभार सौंप दिया और वह तीर्थाटन के लिए भगवान शिव की नगरी वाराणसी चला गया।
नीति जानने वाला उसका पुत्र जब अपनी प्रजा पर धर्मपूर्वक शासन चला रहा था, तभी सूचना मिली कि वाराणसी में उसके पिता का देहान्त हो गया है। पिता की मृत्यु का संवाद पाकर राजा चंद्रप्रभ ने उसके लिए शोक किया तथा उसके लिए श्राद्ध आदि किए। फिर वह धर्मात्मा अपने मंत्रियों से बोला, “पिताजी से भला मैं किस प्रकार उऋण हो सकता हूं। फिर भी मैं अपने हाथों उनका एक ऋण चुकाऊंगा। मैं उनकी अस्थियां ले जाकर विधिपूर्वक गंगा नदी में प्रवाहित करूंगा तथा गया जाकर सभी पितरों को पिंडदान दूंगा। मैं इसी प्रसंग में पूर्व समुद्र तक की तीर्थयात्रा भी करूंगा।”
राजा के ऐसा कहने पर उसके मंत्री उससे बोले, “देव! आपको किसी प्रकार ऐसा नहीं करना चाहिए। आप यदि राज्य को इस प्रकार अरक्षित छोड़कर चले गए तो पीछे से शत्रुओं को राज्य पर आक्रमण करते देर न लगेगी। अतः आप पिता के संबंध में यह कार्य किसी और के हाथों करा लें। एक राजा के लिए प्रजापालन के अतिरिक्त और कोई बड़ा धर्म नहीं है।”
अपने मंत्रियों की बात सुनकर राजा चंद्रप्रभ ने कहा, “हम जो कुछ निश्चय कर चुके हैं, वह अटल है। पिता के लिए मुझे तीर्थयात्रा अवश्य करनी है। इस क्षणभंगुर शरीर का क्या विश्वास? पता नहीं कब पूज्य पिताजी की तरह मेरा साथ छोड़ दे। अतः मेरा आदेश है कि जब तक मैं इस तीर्थयात्रा से वापस न लौट आऊं, मेरे स्थान पर तुम लोग मेरे राज्य की रक्षा करोगे।”
राजा की यह आज्ञा सुनकर मंत्रिगण चुप ही रहे। तब वह राजा अपनी यात्रा की तैयारियां करने लगा। एक शुभ दिन स्नानादि करके उसने अग्निहोत्र की विधि सम्पन्न की और ब्राह्मणों का पूजन किया। फिर शांत वेश धारण करके जुते हुए रथ में बैठकर उसने नगर से प्रस्थान किया।
जो सामंत, राजपुत्र, नगरवासी तथा ग्रामीण आदि राजा को छोड़ने सीमान्त तक आए थे, उनकी इच्छा न होने पर भी राजा चंद्रप्रभ ने बड़ी कठिनता से उन्हें समझा-बुझाकर वापस लौटा दिया और मंत्रियों को राज्य-शासन का भार सौंपकर वाहनों पर आरूढ़ ब्राह्मणों तथा पुरोहितों के साथ वे आगे बढ़े।
विचित्र प्रकार के वेशों और भाषाओं को देख-सुनकर प्रसन्न होते तथा अनेक प्रकार के देशों को देखते हुए वे सब क्रमशः गंगा के तट पर जा पहुंचे। राजा ने उस गंगा नदी को देखा, जिसमें जल-कल्लोल से बनने वाली लहरियां, प्राणियों के स्वर्गारोहण के लिए बनाई जा रही सीढ़ियों के समान जान पड़ती थीं।
राजा ने रथ से उतरकर विधिपूर्वक पतित-पावनी गंगा में स्नान किया और राजा सूर्यप्रभ की अस्थियां उसमें दान देकर और श्राद्धादि सम्पन्न करके वह फिर रथ पर सवार होकर चल पड़ा और क्रमशः ऋषियों-मुनियों से वंदित प्रयाग में जा पहुंचा। राजा ने वहां उपवास रखकर स्नान, दान, श्राद्ध आदि सभी उत्तम क्रियाएं सम्पन्न कीं और उसके बाद वाराणसी गया।
वाराणसी में तीन दिन रुककर विधिपूर्वक सभी धार्मिक क्रियाएं सम्पन्न करके राजा ‘गयाशिर’ नामक स्थान पर पहुंचा। वहां राजा ने पर्याप्त दक्षिणा के साथ विधिपूर्वक श्राद्ध किया और फिर धर्मारण्य चला गया। गया कूप में जब वह पिंड देने लगा तो उस पिंड को लेने के लिए उस कुएं के भीतर से मनुष्य के तीन हाथ ऊपर निकले। यह देखकर राजा घबरा गया कि यह क्या बात है? उसने अपने ब्राह्मणों से पूछा, “इनमें से किस हाथ में मैं पिंड दूं?”
तब उन ब्राह्मणों ने राजा से कहा, “राजन, इनमें से एक हाथ तो निश्चित ही किसी चोर का है क्योंकि लोहे की हथकड़ी पड़ी रहने का निशान उसकी कलाई में स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है। दूसरा हाथ किसी ब्राह्मण का है क्योंकि उसमें ‘पवित्री’ पड़ी हुई है। तीसरा उत्तम हाथ लक्षणों वाले किसी राजा का है क्योंकि उसकी उंगलियों में बहुमूल्य रत्नों से जड़ी कई अंगूठियां पड़ी हैं। अतः हम लोग यह समझ पाने में असमर्थ हैं कि आपको पिंडदान इन तीनों हाथों में से किस हाथ में दिलाएं।”
ब्राह्मणों के ऐसा कहने पर राजा अनिश्चय में घिर गया और कोई फैसला न कर सका।
राजा विक्रमादित्य के कंधे पर बैठा बेताल इतनी कथा सुनाकर राजा से बोला, “राजन, वे ब्राह्मण और राजा चंद्रप्रभ पिंडदान देने के विषय में कोई निर्णय हुए भी यदि तुम मेरे इस प्रश्न का उत्तर नहीं दोगे तो तुम्हें पहले वाला ही शाप लगेगा।”
धर्मज्ञ राजा विक्रमादित्य ने बेताल की यह बात सुनी। तब उसने मौन त्यागकर बेताल को यह उत्तर दिया, “हे योगेश्वर! राजा चंद्रप्रभ को उस चोर के हाथ में ही पिंड देना चाहिए क्योंकि वह उसी का क्षेत्रज पुत्र था, शेष दोनों का नहीं।
उसे जन्म देने वाले ब्राह्मण को उसका पिता नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसने तो धन लेकर एक रात के लिए स्वयं को बेच दिया था। राजा सूर्यप्रभ ने यद्यपि उसके जातकर्म संस्कार आदि कराए थे और उसका पालन-पोषण भी किया था, फिर भी वह उसका पुत्र नहीं माना जा सकता। कारण, जब राजा ने उस बालक को पाया था, तब बच्चे के सिर के पास पालने में जो स्वर्णमुद्राएं रखी हुई उसे मिली थीं, वह उस बालक का अपना ही धन था, जो उसके पालन-पोषण का मूल्य था।
अतः उसकी माता जल से संकल्प करके जिसको दी गई थी और जिसने उसे पुत्र उत्पन्न करके ही आज्ञा दी थी तथा अपना सारा धन उसे सौंप दिया था, राजा चंद्रप्रभ उस चोर का ही क्षेत्रज पुत्र था। मेरे विचार से चंद्रप्रभ का उसी के हाथ में पिंड देना उचित था।”
राजा के इस सटीक उत्तर से बेताल संतुष्ट हो गया और पहले की भांति उसके कंधे से उतरकर पुनः उसी शिंशपा-वृक्ष की ओर उड़ गया, जहां से राजा विक्रम उसे लाया था। राजा विक्रमादित्य भी पहले की भांति उसे वापस लाने के लिए उसी स्थान की ओर चल पड़ा।
राजा विक्रमादित्य बेताल को लाने के लिए पुनः शिंशपा वृक्ष के नीचे पहुँच गया। उसने बेताल को उतारकर अपने कंधे पर डाला और चलना शुरू किया। बेताल ने राजा विक्रम को फिर से यह कहानी सुनानी शुरू की – चंद्रावलोक और ब्राह्मण-पुत्र