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हरिस्वामी की मृत्यु – विक्रम बेताल की कहानी

हरिस्वामी की मृत्यु की कहानी बेताल पच्चीसी की तेरहवीं कथा है। इस कहानी में राजा विक्रमादित्य अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से बताते हैं कि हरिस्वामी की मृत्यु का पाप किसे लगेगा। बेताल पच्चीसी की शेष कहानियाँ पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – विक्रम बेताल की कहानियाँ

यशकेतु और उसके मंत्री की कहानी से जुड़े प्रश्न का उत्तर पाकर फिर वही हुआ जो हर बार होता है। बेता वापस शिंशपा के पेड़ पर आ टंगा। राजा विक्रमादित्य ने शिंशपा-वृक्ष से पहले ही की भांति बेताल को नीचे उतारा और उसे कंधे पर डालकर अपने गन्तव्य की ओर चल पड़ा। जाते हुए राजा से बेताल बोला, “राजन! इस बार तुम्हें एक छोटी-सी कथा सुनाता हूं, सुनो।”

वाराणसी नाम की एक नगरी है, जो भगवान शिव की निवास-भूमि है। वहां देवस्वामी नाम का एक ब्राह्मण रहता था। वहां का राजा उस ब्राह्मण का बहुत सम्मान करता था।

देवस्वामी धन-धान्य से बहुत सम्पन्न था। परिवार में सिर्फ तीन ही प्राणी थे, वह स्वयं, उसका पुत्र हरिस्वामी और उसकी अत्यंत उत्तम गुणों वाली पत्नी लावण्यवती। लावण्यवती सचमुच अपूर्व सुन्दरी थी। ऐसा लगता था जैसे तिलोत्तमा आदि स्वर्ग की अप्सराओं का निर्माण करके विधाता को जो कुशलता प्राप्त हुई थी, उसी के द्वारा उसने उस बहुमूल्य रूप-लावण्य वाली स्त्री को बनाया था।

एक बार रात्रि को हरिस्वामी जब अपनी पत्नी के साथ अपने भवन की छत पर सोया हुआ था, तभी मदनवेग नाम का एक इच्छाधारी विद्याधर आकाश से विचरण करता हुआ उधर से निकला। उसने पति के पास सोई हुई लावण्यवती को देखा, जिसके वस्त्र थोड़े खिसक गए थे और उसके अंगों की सुंदरता झलक रही थी। उसकी सुंदरता देखकर मदनवेग उस पर मोहित हो गया। उस कामांध ने सोई हुई लावण्यवती को उठा लिया और आकाश में उड़ गया।

क्षण भर बाद ही हरिस्वामी जाग उठा और अपनी पत्नी को अपने स्थान से गायब पाकर घबरा उठा। वह सोचने लगा, “अरे यह क्या हुआ? वह कहां गई? क्या वह मुझसे नाराज हो गई है अथवा कहीं छिपकर मेरे मनोभाव जानने के लिए परिहास कर रही है?”

ऐसी अनेक शंकाओं से विकल होकर वह रात में महल, अटारी और दूसरी छतों पर जहां-तहां उसे खोजने लगा। घर और बगीचे में ढूंढने के पश्चात भी जब लावण्यवती नहीं मिली, तब शोकाग्नि से संतप्त होकर वह आंखों में आंसू भरकर इस प्रकार विलाप करने लगा, “हे चंद्रबिम्ब बदने, हे ज्योत्सना गौरी, हे प्रिये! समान गुणवाली होने के द्वेष से ही क्या यह रात तुम्हें सहन नहीं कर सकी। तुमने अपनी कांति से चंद्रमा को जीत लिया था। इसी कारण वह डरता हुआ अपनी शीतल किरणों से मुझे सुख पहुंचाया करता था। लेकिन प्रिये, अब तुम्हारे न रहने पर मौका पाकर जलते अंगारों के समान तथा विष बुझे बाणों के सदृश अपनी उन्हीं किरणों से वह मुझे घायल कर रहा है।”

हरिस्वामी इसी प्रकार विलाप करता रहा। बड़ी कठिनाई से वह रात तो किसी तरह बीत गई, लेकिन उसकी विरह व्यथा नहीं मिटी। सवेरा होने पर सूर्य देव ने अपनी किरणों से संसार का अंधकार तो नष्ट कर दिया, किंतु वह हरिस्वामी के महान्धकार को दूर न कर सका। रात बीत जाने पर चक्रवाक के जोड़े की विछोह की अवधि बीत जाती है और चकवे का चीखना बंद हो जाता है, लेकिन रात बीतने पर भी हरिस्वामी के क्रंदन की ध्वनि कई गुना बढ़ गई, मानो चकवे के विलाप की शक्ति उसे मिल गई हो।

स्वजनों के सांत्वना देने पर भी वियोग की आग में जलते हुए उस ब्राह्मण को अपनी प्रियतमा के बिना धैर्य नहीं मिल सका। वह रो-रोकर यह कहता हुआ इधर-उधर घूमने लगा, “वह यहां बैठी थी, यहां उसने शृंगार किया था, यहां उसने स्नान किया था और यहां उसने विहार किया था।”

हरिस्वामी के इस प्रकार विलाप करने पर उसके मित्र एवं हितैषियों ने उसे समझाया, “वह मरी तो नहीं है, फिर तुम इतना रो-रोकर क्यों बेहाल हो रहे हो? तुम जीवित रहोगे तो कभी-न-कभी उसे अवश्य ही कहीं पा लोगे। इसलिए धीरज रखकर अपनी प्रियतमा की खोज करो, उसे ढूंढ़ो, उद्यमी पुरुषों के लिए संसार में कोई वस्तु अप्राप्य नहीं होती।”

हरिस्वामी के मित्रों, हितैषियों ने जब उसे इस प्रकार समझाया-बुझाया, तब कुछ दिनों बाद बड़ी कठिनाई से वह किसी प्रकार धैर्य धारण कर सका। उसने सोचा कि “मैं अपना सब कुछ ब्राह्मणों को दान करके संचित पापों को नष्ट कर दूंगा। पापों के नष्ट हो जाने पर फिर मैं घूमता-फिरता कदाचित अपनी प्रिया को पा सकूँगा।” अपनी तत्कालीन स्थिति से ऐसा सोचकर वह उठा और स्नानादि से निवृत हुआ।

अगले दिन उसने यज्ञ में ब्राह्मणो को विविध प्रकार का अन्न-पान कराया और अपना समस्त धन उन्हें दान दे दिया। अनन्तर, एकमात्र ब्रह्मणत्व-रूपी धन को साथ लेकर वह अपने देश से निकला और अपनी प्रिया को पाने की इच्छा से तीर्थों का भ्रमण करने के लिए निकल पड़ा।

भ्रमण के दौरान भयनाक ग्रीष्म ऋतु आ पहुंची। भयंकर गर्मी पड़ने लगी और अत्यंत गर्म हवाएँ चलने लगीं। धूप से जलाशयों का पानी भी सूख गया। उस भयंकर गर्मी में धूप और गर्मी से व्याकुल होकर रूखा, दुबला और मलिन हरिस्वामी किसी गांव में घूमता-घामता जा पहुंचा। वहां पद्मनाभ नाम का एक ब्राह्मण यज्ञ कर रहा था। हरिस्वामी भोजन की इच्छा से उसके घर पहुंचा।

उस घर के अंदर उसने बहुत-से ब्राह्मणों को भोजन करते देखा। वह दरवाजे की चौखट पकड़कर बिना कुछ बोले-चाले और हिले-डुले खड़ा हो गया। यज्ञ करने वाले उस ब्राह्मण पद्मनाभ की पत्नी ने जब उसे ऐसी अवस्था में देखा, तब उसे बड़ी दया आई। उस साध्वी ने सोचा, “हे मेरे प्रभु, यह भूख भी कैसी बलवती होती है। यह किसे छोटा नहीं बना देती। इस व्यक्ति को ही देखो, यह भूख से व्याकुल होकर कैसे द्वार पर सिर झुकाए खड़ा है। यह लम्बी राह तय करके आया है, स्नान कर चुका है किंतु भूख से इसकी इन्द्रियां शिथिल हो गई हैं। अतः यह निश्चित ही अन्न पाने का अधिकारी है।”

ऐसा सोचकर वह साध्वी घी और शक्कर के साथ पकी हुई खीर उसके लिए ले आई। खीर का पात्र हाथों में उठाकर उसे नम्रतापूर्वक देती हुई वह बोली, “कहीं किसी वापी (बावली) के तट पर जाकर तुम इसे खा लो। यह जगह तो ब्राह्मणों के भोजन के कारण अब जूठी हो गई है।”

“ऐसा ही करूंगा”, कहकर हरिस्वामी ने अन्न का वह पात्र ले लिया, फिर पास ही की बावली के किनारे जाकर उसने उस पात्र को वट-वृक्ष के नीचे रख दिया। उस बावली में हाथ-पैर धोकर, आचमन करके जब हरिस्वामी उस खीर को खाने ही जा रहा था कि इसी बीच एक बाज आकर उस वृक्ष पर बैठ गया। उस बाज ने अपने दोनों पंजों में एक काले सर्प को पकड़ रखा था। बाज जिस सर्प को पकड़कर लाया था वह मर चुका था, किंतु उसके मुख से जहरीली राल टपक रही थी। वह राल-वृक्ष के नीचे रखे उस अन्नपात्र में भी जा गिरी। हरिस्वामी ने यह सब नहीं देखा था, अतः उसने उस खीर को खा लिया।

क्षणोपरांत ही वह विष की वेदना से तड़पने लगा। वह सोचने लगा कि “जब विधाता ही प्रतिकूल हो जाता है, तब सब कुछ ही प्रतिकूल हो जाता है। इसीलिए दूध, घी और शक्कर से बनी हुई यह खीर भी मेरे लिए विषैली हो गई।”

यह सोचकर गिरता-पड़ता वह यज्ञ करने वाले उस ब्राह्मण के घर जा पहुंचा और उसकी पत्नी से बोला, “देवी, तुम्हारी दी हुई खीर से मुझे जहर चढ़ गया है, अतः कृपा करके किसी ऐसे आदमी को शीघ्र बुलाओ जो जहर उतार सकता हो, अन्यथा तुम्हें ब्रह्म-हत्या का पाप लगेगा।” यह कहते ही हरिस्वामी की आंखें उतर गईं और उसके प्राण निकल गए। वह साध्वी भाव-विह्वल होकर सिर्फ इतना ही कह पाई, “अरे, यह क्या हुआ?”

यद्यपि वह स्त्री निर्दोष थी और उसने अतिथि का सत्कार भी किया था, फिर भी यज्ञ करने वाले उस ब्राह्मण ने अतिथि का वध करने के आरोप में क्रुद्ध होकर अपनी पत्नी को घर से निकाल दिया। उस साध्वी ने यद्यपि उचित कार्य किया था, फिर भी उसे झूठा कलंक लगा और उसकी अवमानना हुई। इसलिए वह तपस्या करने के लिए किसी तीर्थस्थान को चली गई।

अनन्तर, धर्मराज के सम्मुख इस बात पर बहस हुई कि सांप, बाज और खीर देने वाली उस स्त्री में से ब्राह्मण-वध का शाप किसे लगा, लेकिन कोई निर्णय नहीं हो सका।

यह कथा सुनाकर बेताल ने विक्रमादित्य से कहा, “राजन, धर्मराज की सभा में तो इस बात का निर्णय न हो सका, अतः अब तुम बताओ कि ब्रह्म-हत्या का पाप किसे लगा? जानते हुए भी तुम अगर नहीं बताओगे तो तुम्हें पहले वाला ही शाप लगेगा।”

शाप से भयभीत राजा ने जब बेताल की यह बात सुनी तो वह अपना मौन भंग करते हुए बोला, “हे बेताल, सर्प को तो वह पाप लग ही नहीं सकता क्योंकि वह तो स्वयं ही विवश था। उसका शत्रु बाज उसे खाने के लिए जा रहा था। खीर देने वाली उस ब्राह्मणी का भी कोई दोष नहीं था, क्योंकि वह धर्म कार्य में अनुराग रखती थी और उसने अतिथि-धर्म का पालन करते हुए खीर को निर्दोष समझकर ही हरिस्वामी को खाने के लिए दिया था। अतः मैं तो उस जड़बुद्धि हरिस्वामी को ही इसका दोषी मानता हूँ, जो खीर को बिना जांच किए, बिना उसका रंग देखे खा गया था। व्यक्ति को सामने परोसे भोजन की एक नजर जांच तो अवश्य ही करनी चाहिए कि वह कैसा है। इसीलिए तो बुद्धिमान लोग भोजन करने से पहले किसी कुत्ते को टुकड़ा डालकर उसकी परीक्षा करते हैं कि भोजन सामान्य है अथवा जज़हरीला। अतः मेरे विचार से तो हरिस्वामी ही अपनी मृत्यु का ज़िम्मेदार है।”

विक्रमादित्य ने बिल्कुल सही उत्तर दिया था, अतः बेताल संतुष्ट हुआ। किंतु राजा के मौन भंग करने के कारण फिर उसकी जीत हुई और वह विक्रमादित्य के कंधे से उतरकर पुनः शिंशपा-वृक्ष की ओर उड़ गया। धीर हृदय वाला राजा विक्रमादित्य फिर उसे लाने के लिए उस वृक्ष की ओर चल पड़ा।

राजा विक्रमादित्य बेताल को लाने के लिए पुनः शिंशपा वृक्ष के नीचे पहुँच गया। उसने बेताल को उतारकर अपने कंधे पर डाला और चलना शुरू किया। बेताल ने राजा विक्रम को फिर से यह कहानी सुनानी शुरू की – रत्नावती और चोर – विक्रम बेताल की कहानी

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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