जीमूतवाहन व शंखचूड़ की कथा – विक्रम बेताल की कहानी
“जीमूतवाहन व शंखचूड़ की कथा” बेताल पच्चीसी की सोलहवीं कथा है। इसमें राजा विक्रम बेताल के इस प्रश्न का समाधान करता है कि जीमूतवाहन और शंखचूड़ में कौन अधिक त्यागी था। बेताल पच्चीसी की शेष कहानियाँ पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – विक्रम बेताल की कहानियाँ।
शशिप्रभा की कहानी का उत्तर पाकर बेताल वहाँ से उड़ गया। उसे लेने के लिए राजा विक्रम पुनः वापस चल दिया। शिशंपा-वृक्ष के पास पहुंचकर विक्रमादित्य ने वृक्ष से बेताल को उतारा और पहले की तरह उसे कंधे पर डालकर मौनभाव से अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा। रास्ते में फिर मौन भंग करते हुए बेताल ने कहा, “राजन, इस बार मैं तुम्हें एक और दिलचस्प कथा सुनाता हूं, पर शर्त वही रहेगी।”
राजा के सहमति जताने पर बेताल ने इस बार यह कथा सुनाई।
बहुत पहले हिमवान पर्वत पर कंचनपुर नाम का एक नगर था। उस नगर का स्वामी जीमूतकेतु नामक एक पराक्रमी राजा था। राजा के महल के उद्यान में उसके पूर्वजों द्वारा देवताओ से प्राप्त एक कल्पवृक्ष था, जो उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण करता था। उस देववृक्ष के कारण राजा को धन-धान्य, ऐश्वर्य व वैभव की कोई कमी नहीं रहती थी। उस कल्पवृक्ष की कृपा से ही राजा को जीमूतवाहन नाम का एक पुत्र पैदा हुआ था, जो अब युवावस्था में प्रवेश कर चुका था। जीमूतवाहन बहुत दानी था। वह समस्त प्राणियों पर दयाभाव रखता था एवं गुरुजनों की सेवा के लिए सदैव तत्पर रहता था। जीमूतवाहन क्योंकि बोधिसत्व के अंश से पैदा हुआ था, अतः उसे अपने पूर्वजन्म का वृत्तांत भी ज्ञात था।
कुछ समय बाद जीमूतकेतु ने उसे अपना युवराज घोषित किया। प्रजा अपने युवराज को पाकर बहुत खुश हुई। एक दिन राजा के मंत्री ने आकर युवराज जीमूतवाहन से कहा, “युवराज, यह धन-धान्य, यह ऐश्वर्य सब कुछ कल्पवृक्ष के कारण ही है। अतः अपने कुल एवं प्रजा की समृद्धि के लिए इस देववृक्ष का सम्मान करना कभी मत भूलना, यह अजेय है। देवराज इन्द्र भी इसका महत्ता को स्वीकार करते हैं।”
युवराज जीमूतवाहन ने वैसा ही करने का वचन दिया। उसने मन ही मन सोचा, “मेरे पूर्वजों ने इस देववृक्ष का उचित लाभ नहीं उठाया। उन्होंने केवल इससे साधारण स्वार्थ की याचना करके इसे स्वयं तक ही सीमित रखा। इससे न केवल उनका (पूर्वजों का) अपितु इस महात्मा वृक्ष का स्थान बहुत छोटा कर दिया। आखिर संसार में और भी तो मानव रहते हैं। इस देववृक्ष का उपयोग समस्त प्राणिमात्र के कल्याण के लिए होना चाहिए।”
ऐसा सोचकर वह अपने पिता के पास पहुंचा और बोला, “पिताश्री, यह तो आप जानते ही हैं कि इस संसार-सागर में शरीर के साथ ही समस्त वस्तुएं लहरों की झलक के समान चंचल हैं। संध्या, बिजली और देवी लक्ष्मी तो विशेष रूप से क्षणस्थायी हैं। देखते-ही-देखते मिट जाने वाली हैं। इन्हें कब किसी ने स्थिर रहते देखा है?
पिताश्री, इस संसार मे एकमात्र परोपकार ही चिरस्थायी है, जो धैर्य और यश का जन्मदाता है तथा युगों तक उसका साक्षी बना रहता है। तब फिर ऐसे क्षणिक सुखों के लिए हमने ऐसे देवतुल्य परोपकारी कल्पवृक्ष को व्यर्थ ही क्यों रख छोड़ा है? जरा सोचिए पिताश्री, जिन हमारे पूर्वजो ने इसे ‘मेरा है, मेरा है’ कहते हुए रख छोड़ा था, आज वे कहाँ हैं? जबकि यह परोपकारी वृक्ष आज भी मौजूद है।”
“तुम क्या कहना चाहते हो, पुत्र?”, जीमूतवाहन की बात सुनकर उसके पिता ने भ्रमित होकर पूछा।
इस पर जीमूतवाहन ने कहा, “पिताश्री, यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं मनोरथ पूर्ण करने वाले इस देववृक्ष का उपयोग परोपकार की फल-सिद्धि के लिए करूं?”
पुत्र की इच्छा जानकर जीमूतकेतु ने उसे ऐसा करने की आज्ञा प्रदान कर दी। तब जीमूतवाहन ने उस कल्पवृक्ष के समीप जाकर कहा, “हे देव! तुमने हमारे पूर्वजों की सभी मनोकामनाएं पूरी की हैं, लेकिन मेरी भी एक मात्र मनोकामना पूरी कर दो। कुछ ऐसा करो जिससे मैं इस पृथ्वी को दरिद्रतारहित देख सकूँ। जाओ, तुम्हारा कल्याण हो। मैं धन की इच्छा रखने वालों के लिए तुम्हारा विसर्जन करता हूँ।”
युवराज ने हाथ जोड़कर जब यह कहा तो उस वृक्ष से आवाज आई, “तुम धन्य हो राजकुमार। तुम्हारे त्याग की मैं सराहना करता हूं। तुम्हारे पूर्वज मुझे देवताओं से मांगकर लाये थे, इसलिए मैं अब तक वचनबद्ध था। अब तुमने मेरा त्याग कर दिया है तो मैं जाता हूं। तुम्हारा कल्याण हो।”
पल-भर बाद ही वह वृक्ष आकाश में उड़ गया और उसने पृथ्वी पर इतना धन बरसाया कि वहां कोई भी ग़रीब न रहा। जीमूतवाहन के ऐसा करने से उसका यश तीनों लोकों में फैल गया। लोग उसके नाम की जय-जयकार करने लगे।
लेकिन जीमूतवाहन का कल्पवृक्ष को विसर्जन करना उसके बंधु-बांधवों का रास न आया। वे लोग उससे ईर्ष्या करने लगे। उन्होंने एकत्र होकर सोचा कि विपत्तियों का नाश करने वाला कल्पवृक्ष तो अब उनके पास रहा नहीं, उसे तो जीमूतवाहन ने लोक कल्याण के लिए दे डाला, अतः अब कंचनपुर पर सहज ही अधिकार किया जा सकता है। ऐसा सोचकर वे कंचनपुर को अधिकार में लेने के लिए युद्ध की तैयारियां करने लगे।
यह देखकर जीमूतवाहन ने अपने पिता से कहा, “पिताश्री, मैं आपके शौर्य को भली-प्रकार जानता हूं। विश्व में ऐसा कौन है जो शूरता में आपका सामना कर सके। किंतु सगे-संबधियों को मारकर इस पापमय और नाशवान शरीर से राजसुख का उपभोग करना सर्वथा अनुचित है। अतः हमें स्वेच्छा से इस राज्य को त्यागकर कहीं अन्यत्र चल देना चाहिए।”
इस पर उसके पिता ने कहा, “पुत्र, मैं तो तुम्हारे लिए ही इस राज्य की कामना करता था। जब तुम स्वयं ही इसके त्याग की बात कह रह हो तो मुझे राज्य का प्रलोभन कैसे हो सकता है। अतः जैसा तुम उचित समझो, वैसा ही करो।”
इस प्रकार जीमूतवाहन अपना राज्य छोड़कर अपने माता-पिता को साथ लेकर मलय पर्वत पर चला गया और चन्दनवन से ढके हुए एक झरने के पास वाली कंदरा में आश्रम बनाकर रहने लगा। वहां विश्वावसु नाम के सिद्धों के राजा रहते थे। उनके पुत्र मित्रावसु से जीमूतवाहन की मित्रता हो गई।
एक बार घूमता-फिरता जीमूतवाहन उपवन में स्थित भवानी गौरी का मंदिर देखने के लिए गया। वहां उसने सखियों सहित एक उत्तम कन्या को देखा जो भगवती गौरी को प्रसन्न करने के लिए वीणा बजा रही थी। उस अप्सराओं को भी मात करने वाली कन्या का रूप-सौंदर्य देखकर जीमूतवाहन ठगा-सा रह गया। पहली ही निगाह में उस तन्वेगी (सुकुमारी) ने उसका हृदय चुरा लिया। वह कन्या भी कामदेव जैसे सुन्दर जीमूतवाहन को देखकर उस पर मोहित हो गई। वह एकटक उसी की ओर देखने लगी जिससे उसकी वीणा भी विकल आलाप करने लगी।
अनन्तर, जीमूतवाहन ने उसकी एक सखी से उस कन्या का नाम और उसका वंश पूछा। कन्या की सखी ने बताया कि उसका नाम मलयवती है और वह सिद्धों के राजा विश्वावसु की पुत्री तथा मित्रावसु की बहन है। तब उस सखी ने जीमूतवाहन से उसका नाम एवं वंश पूछा। यह जानने पर कि जीमूतवाहन विद्याधरों का राजा है, उसे बहुत खुशी हुई। उसने मलयवती के पास जाकर कहा, “सखी, विश्व में पूजे जाने योग्य महान विद्याधरों के राजा यहां पधारे हैं, तुम्हें आगे बढ़कर उनका स्वागत करना चाहिए।”
इस पर मलयवती मौन ही रही। लज्जावश उसके क़दम आगे न उठ सके। तब उस सखी ने जीमूतवाहन से कहा, “मेरी यह सखी लजा रही है, अतः आप मुझसे ही यह सत्कार ग्रहण करें।” ऐसा कहकर उसने एक पुष्पमाला जीमूतवाहन के गले में पहना दी।
तभी एक दासी ने उस सिद्धकन्या के पास आकर बताया, “राजकुमारी, आपकी माता जी आपको याद कर रही हैं। चलिए, विलम्ब मत कीजिए।” तब मलयवती अनमने-से भाव से जीमूतवाहन की ओर देखती हुई वहां से चल पड़ी। उसके कदमों से ऐसा लग रहा था जैसे जीमूतवाहन के पास से वह विवशता में ही जा रही हो।
जीमूतवाहन भी अपने आश्रम में लौट आया। उसका भी मन मलयवती में रमा हुआ था। घर आकर मलयवती अपनी माता से मिली और फिर अपने कक्ष में जाकर शय्या पर गिर पड़ी। उसके हृदय में कामाग्नि जल रही थी। उसकी आंखों में आंसू आ गए थे। उसकी सखियों ने उसके सन्ताप से भरे सारे शरीर पर चन्दन का लेप लगाया और कमल के पत्तों से पंखा झला। फिर भी, न तो वह सखियों की गोद में और न भूमि पर सोकर ही चैन पा सकी। रात-भर वह तड़पती ही रही। लज्जा के भय से उसने किसी दूत को भी जीमूतवाहन के पास नहीं भेजा। उसके जीवन की आशा टूट-सी रही थी। उधर, कामाग्नि से पीड़ित जीमूतवाहन का भी लगभग वैसा ही हाल था। वह भी रात मुश्किल से व्यतीत कर सका।
सुबह होने पर वह फिर से गौरी के मंदिर में पहुंचा, जहां उसने मलयवती को देखा था। उसका मित्र मुनिकुमार भी उसके पीछे-पीछे आया और उसे कामज्वाला से विह्वल देखकर आश्वासन देने लगा। उसने पाया कि मलयवती भी वहां उपस्थित थी। मुनिकुमार के आश्वासन पर उस सिद्ध कन्या की ओर बढ़ा जो उसकी ही तरफ निहार रही थी।
जब उसे विश्वास हो गया कि राजपुत्री उसका निवेदन ठुकराएगी नहीं, तो उसने फूलों की एक माला मलयवती के गले में डाल दी। मलयवती ने अपनी कोमल दृष्टि से जीमूतवाहन को देखते हुए एक नीलकमल की माला उसके गले में पहना दी। इस प्रकार आपस में एक शब्द बोले बिना ही उन दोनों ने स्वयंवर-विधि पूरी कर ली। तत्पश्चात वह जीमूतवाहन की ओर प्रेमपूर्ण नजरों से देखती हुई वहां से विदा हो गई। जीमूतवाहन भी, जिसका मन अभी भी राजपुत्री में रमा हुआ था, थके कदमों से वापस अपने आश्रम लौट आया।
अपने-अपने स्थान पर पहुंचकर दोनों ही विरह-वेदना से तड़पने लगे। उस रात भी न तो जीमूतवाहन को ही नींद आई और न मलयवती ही सो सकी।
तीसरे दिन, जब वह बहुत व्याकुल हो गया तो इस आशा से कि शायद उधर, विरह की आग में जलती हुई मलयवती भी उससे मिलने वहां पहुंचेगी वह अपने मित्र मुनिकुमार के साथ उस गौरी माता के मंदिर जा पहुंचा। मलयवती भी वहां तभी पहुंची थी। माता गौरी के मंदिर में पहुंचकर, आंखों में आंसू भरकर मलयवती ने देवी से प्रार्थना की, “हे देवी माता, आपकी भक्ति से मैं इस जन्म में तो जीमूतवाहन को पति रूप में पा नहीं सकूंगी, अतः आपसे प्रार्थना करती हूं कि आप मुझे अगले जन्म में जीमूतवाहन को पति रूप में पाने का आशीर्वाद दीजिए।”
यह कहकर उसने अपने साथ लाई एक चादर से अपना गला घोंटना चाहा। तभी आकाशवाणी हुई—“बेटी, ऐसा दुस्साहस मत करो। विद्याधरों का राजा जीमूतवाहन ही चक्रवर्ती होकर तुम्हारा पति बनेगा।” अपने उस मुनिकुमार मित्र के साथ जीमूतवाहन ने भी वह आकाशवाणी सुनी। वे दोनों एक वृक्ष के पीछे खड़े हुए थे। आकाशवाणी सुनकर तत्काल दोनों मलयवती के पास पहुंच गए।
जीमूतवाहन के उस मित्र मुनिकुमार ने मलयवती से कहा, “’देखो, देवी का वर सचमुच तुमको इनके रूप में प्राप्त हो गया है। तुम्हारी मनोकामना भी पूरी हो गई। अब आत्महत्या करने की कोई जरूरत नहीं है।”
जब मुनिकुमार ऐसा कह रहा था, तभी जीमूतवाहन ने पास जाकर मलयवती के गले से फंदा निकाल दिया। लज्जा के कारण मलयवती आंखें झुकाकर जमीन खरचने लगी। तभी उसे ढूंढ़ती हुई उसकी सखी ने अचानक आकर प्रसन्नतापूर्वक कहा, “सखी, प्रसन्नता की बात है कि तुम्हारा मनोरथ पूरा हुआ। मेरे सामने ही आज कुमार मित्रावसु ने तुम्हारे पिताश्री महाराज विश्वासु से यह कहा है कि, ‘पिताजी, विद्याधरों के राजा के पुत्र संसार में सम्मानित और कल्पतरु का दान करने वाले जीमूतवाहन, जो अतिथिरूप में यहां उपस्थित हैं अपनी मलयवती के लिए उनके जैसा कोई और वर नहीं है। अतः आप मलयवती का विवाह उन्हीं के साथ करके कृतार्थ हों।’ महाराज विश्वासु ने भी कुमार की बात स्वीकार कर ली है इसलिए अब निश्चित है कि तुम्हारा विवाह जीमूतवाहन के साथ ही होगा। अतः अब तुम अपने घर चलो, और ये महाभाग भी अपने स्थान को जाएं।”
उस सखी के ऐसा कहने पर हर्ष और उत्कंठा से युक्त राजकुमारी बार-बार मुड़-मुड़कर देखती हुई वहां से चली गई। जीमूतवाहन भी अपने आश्रम की तरफ बढ़ चला। वहां उसने प्रतीक्षारत मित्रावसु से अपने अभीष्ट कार्य की बात सुनी और उसका समर्थन किया।
जीमूतवाहन को अपने पूर्वजन्म का स्मरण था। उसने मित्रावसु को बतलाया कि पूर्वजन्म में भी मित्रावसु उसका मित्र था और उसकी बहन उसकी पत्नी थी।
अनन्तर, मित्रावसु ने प्रसन्न होकर जीमूतवाहन के पिता को यह संवाद भेजा, जिससे वे संतुष्ट हुए। तत्पश्चात् अपने लक्ष्य में सफलता पाने वाले मित्रावसु ने जाकर अपने माता-पिता से भी यह संवाद कहा, तो उन्हें भी प्रसन्नता हुई।
उसी दिन मित्रावसु, जीमूतवाहन को अपने घर ले गया और अपनी क्षमता तथा वैभव के अनुसार आनंद-उत्सव की व्यवस्था करने लगा। उसने उस शुभ दिन में विद्याधरों के स्वामी जीमूतवाहन के साथ अपनी बहन मलयवती का विवाह कर दिया। बाद में जीमूतवाहन, जिसका मनोरथ पूरा हो गया था, अपनी नवविवाहिता पत्नी के साथ वहीं रहता रहा।
एक बार सहज कौतूहल से मित्रावसु के साथ घूमता हुआ जीमूतवाहन समुद्र तट के निकट एक वन में जा पहुंचा। वहां हड्डियों के बड़े-से ढेर को देखकर उसने मित्रावसु से पूछा कि हड्डियों के ये ढेर किन प्राणियों के हैं?
तब मित्रावसु ने दयालु जीमूतवाहन से कहा, “सुनो, मैं इसका सारा वृत्तांत तुम्हें संक्षेप में सुनाता हूं।”
प्राचीन काल में सर्पों की माता कद्रू ने गरुड़ की माता विनता को बाजी लगाकर धोखे से हरा दिया और अपनी दासी बना लिया था। बाद में बलवान गरुड़ ने यद्यपि अपनी माता को स्वतंत्र करा लिया फिर भी, उस बैर के कारण वह कद्रू के पुत्र सर्पों से द्वेष रखते हुए उनका भक्षण करने लगा। अक्सर वह पाताल लोक में जाकर कुछ सापों को मार डालता और कुछ भय के कारण स्वयं ही मर जाते थे। तब, नागों के राजा वासुकि को यह चिन्ता हुई कि इस तरह से तो सर्पकुल का विनाश ही हो जाएगा। अतः उसने विनयपूर्वक गरुड़ के सामने एक योजना रखी, “हे पक्षीराज, इस दक्षिण समुद्र के किनारे तुम्हारे भोजन के लिए मैं प्रतिदिन एक सर्प भेज दिया करूंगा, किंतु तुम किसी प्रकार, किसी भी समय पाताल में नहीं आओगे; क्योंकि एक साथ ही सब सर्पों के नष्ट हो जाने से तुम्हें भी कुछ लाभ नहीं होगा।”
गरुड़ ने भी इसमें अपना लाभ देखा और वासुकि की बात स्वीकार कर ली। पक्षीराज गरुड़ इस तट पर वासुकि द्वारा भेजे हुए एक सर्प को प्रतिदिन खाया करता है। यह उसी के द्वारा खाये गए सर्पों की हड्डियां हैं, जो समय पाकर बढ़ते-बढ़ते अब पर्वत शिखर के समान हो गई हैं।
दया और धैर्य के सागर जीमूतवाहन ने मित्रावसु के मुख से जब यह वृत्तांत सुना तो उसके मन को भारी कष्ट पहुंचा। उसने कहा, “शोक करने के योग्य तो सर्पों का राजा वासुकि है जो ऐसा कायर है कि प्रतिदिन अपनी प्रजा को शत्रु को भेंट कर देता है। हजार मुखवाला यह वासुकि अपने एक मुख से भी यह क्यों नहीं कह सका कि ‘गरुड़, पहले तुम मुझे ही खा लो।’ प्रतिदिन नगरपत्नियों का विलाप सुनकर भी उस निर्दयी वासुकि ने अपने कुल का नाश करने वाले गरुड़ से प्रार्थना क्यों की? अरे, मोह भी कैसा गाढ़ा होता है ! यद्यपि गरुड़ महर्षि कश्यप का पुत्र है, वीर है और भगवान विष्णु का वाहन होने के कारण पवित्र है, फिर भी ऐसा पाप करता है।”
ऐसा कहकर परम पराक्रमी जीमूतवाहन ने मन-ही-मन निश्चय किया कि ‘इस नाशवान शरीर से मैं अमरता प्राप्त करूंगा। मैं आज ही अपना शरीर देकर गरुड़ के पंजे से कम-से-कम एक ऐसे सर्प की रक्षा करूंगा जो हितैषियों से रहित तथा डरा हुआ है।’
जीमूतवाहन ऐसा सोच ही रहा था तभी मित्रावसु के पिता के पास से एक प्रतिहारी उन्हें बुलाने के लिए वहां पहुंच गया। जीमूतवाहन ने यह कहकर उसे घर भेज दिया कि ‘तुम चलो, मैं कुछ देर बाद आऊंगा।’
मित्रावसु के जाने के बाद जीमूतवाहन वैसे ही इधर-उधर विचरण करने लगा। तभी उसके कानों में किसी के रुदन का स्वर सुनाई पड़ा। वह पास पहुंचा और छिपकर एक शिलाखंड के नीचे खड़ा हो गया। वहां उसने एक वृद्धा नागस्त्री को विलाप करते देखा। उसके समीप ही एक सुंदर-सा काले रंग वाला नागयुवक खड़ा था, जो उस स्त्री से अनुनयपूर्वक उसे घर लौट जाने को कह रहा था।
‘यह कौन है?’ इसे जानने को उत्सुक जीमूतवाहन ने छिपकर उनकी बातें सुनीं। वृद्धा स्त्री उस युवक से रोते हुए कह रही थी, “हा शंखचूड़, हा सौ-सौ दुःखों से पाए हुए मेरे गुणी पुत्र! हा मेरे कुल के एकमात्र सूत्र, अब मैं फिर तुम्हें कहां देख सकूँगी। हा मेरे कुलदीपक! तुम्हारे बिना तुम्हारे वृद्ध पिता कैसे अपना बुढ़ापा काट सकेंगे? तुम्हारे जो अंग सूर्य-किरणों के स्पर्श से भी कुम्हला जाते थे, वे गरुड़ के द्वारा खाये जाने की पीड़ा कैसे सहन कर पाएंगे? नागलोक तो बहुत बड़ा है, फिर विधाता और नागराज ने मुझ अभागिनी के एकमात्र पुत्र, तुम्हीं को क्यो चुन लिया?”
इस प्रकार रोती-बिलखती हुई उस मां से उसके युवा पुत्र ने कहा, “मां, मैं तो स्वयं ही बहुत दुःखी हूं। तुम मुझे और दुःखी क्यों कर रही हो? अब तुम घर लौट जाओ। मैं तुम्हें अंतिम प्रणाम करता हूं। गरुड़ के आने का समय हो रहा है।” यह सुनकर वृद्धा पछाड़ खाकर गिर पड़ी और किसी की सहायता मिलने की आशा में इधर-उधर व्याकुल नेत्रों से देखने लगी।
यह सब देखकर और सुनकर बोधिसत्व के अंश-रूप जीमूतवाहन को बड़ी दया आई। वह सोचने लगा, “आह, तो यही है शंखचूड़ नामक वह नाग, जिसे वासुकि ने गरुड़ के भोजन के लिए भेजा है और यह इसकी वृद्धा माता है जो अपने एकमात्र पुत्र के स्नेह के कारण ममतावश रोती हुई यहां तक आई है। आज यदि मैंने इसके जीवन की रक्षा न की तो मेरे जीवन को धिक्कार है।”
यह सोचकर वह उस वृद्धा और युवक के पास पहुँचा और बोला—“मां, तुम चिंता मत करो, मैं तुम्हारे पुत्र की रक्षा करूंगा।” वृद्धा उसे देखकर भयभीत हो गई। उसने समझा कि वही गरुड़ है। ऐसा विचारकर उसने कातर स्वर में जीमूतवाहन से कहा, “गरुड़, मेहरबानी करके तुम मुझे खा लो किंतु मेरे पुत्र का जीवन बख्श दो।”
तब शंखचूड़ ने अपनी माता को धीरज दिया, “मां, तुम डरो मत, यह गरुड़ नही है। कहां चंद्रमा के समान आनंद देने वाले ये महापुरुष और कहां वह नागभक्षी गरुड़।” शंखचूड़ के ऐसा कहने पर जीमूतवाहन ने कहा, “मां, तुम घबराओ नहीं, मैं एक विद्याधर हूं। तुम्हारे पुत्र की रक्षा के लिए यहां आया हूं। उस मूर्ख गरुड़ को मैं अपना शरीर अर्पित करूंगा। तुम अपने पुत्र के साथ घर लौट जाओ।”
यह सुनकर वृद्धा ने कहा, “ऐसा मत कहो, तुम भी मेरे पुत्र के समान हो। तुमने मेरे पुत्र की जगह अपना बलिदान देने की बात कहकर मुझ पर बहुत कृपा की है।”
तब जीमूतवाहन ने कहा, “मां, जब तुमने मुझे पुत्र कहकर यह सम्मान दिया है तो मेरे मनोरथ को सिद्ध होने दो, मुझे इस बलिदान से मत रोको, मां। अन्यथा मैं यह समझंगा कि मेरा जीवन व्यर्थ ही गया।”
जीमूतवाहन ने जब ऐसा कहा, तब शंखचूड़ उससे बोला, “हे महासत्त्व, तुमने सचमुच बहुत दयालुता दिखलाई है किंतु मैं अपने लिए तुम्हारे जीवन का बलिदान स्वीकार नहीं कर सकता। मेरे जैसे साधारण व्यक्तियों से तो यह संसार भरा पड़ा है किंतु आप जैसे विरले ही इस संसार में मिलते हैं। हे सुबुद्धि! चन्द्रबिंब के कलंक के समान मैं अपने पिता शंखपाल के पवित्र कुल को मलिन न कर सकूँगा।”
ऐसा कहकर शंखचूड़ ने अपनी माता से कहा, “मां, तुम इस दुर्गम वन से लौट जाओ। क्या तुम इस वध्य-शिला को नहीं देखतीं जो सर्पों के रक्त से भीगी हुई है और यमराज की विलास शय्या के समान भयानक है। मैं गरुड़ के आने से पहले ही समुद्र तट पर जाकर भगवान गोकर्ण को प्रणाम करके शीघ्र ही लौटकर आता हूं।” यह कहकर शंखचूड़ ने करुण स्वर में रोती हुई अपनी माता से विदा लेकर उसे प्रणाम करके गोकर्ण की वन्दना के लिए वहां से प्रस्थान किया।
जीमूतवाहन यह सोचकर कि यदि इसी बीच गरुड़ आ जाए, तो मेरा मनोरथ पूरा हो जाए, वह उस शिला पर जाकर लेट गया जो गरुड़ के शिकार के लिए निश्चित की गई थी।
कुछ ही क्षण बाद गरुड़ वहां पहुंच गया। उसने जीमूतवाहन को अपने विकराल पंजों में दबाया और ऊपर उड़ गया। जीमूतवाहन को पंजों में दबाए हुए जब गरुड़ उसे चोंच मार-मारकर खाने लगा तो उसके शरीर से रक्त झर-झरकर नीचे टपकने लगा। इस बीच जीमूतवाहन का शिरोमणि, जिस पर रक्त लगा हुआ था, नीचे ठीक उस स्थान पर जाकर गिरी जहां उसका पिता, माता एवं उसकी पत्नी मलयवती बैठे हुए थे।
मलयवती ने अपने पति की शिरोमणि को तुरंत पहचान लिया और वह विह्वल हो उठी। आंखों में आंसू भरकर उसने अपने सास-ससुर को जब वह शिरोमणि दिखाई तो वे भी घबरा उठे।
तत्पश्चात्, अपनी विद्या के द्वारा ध्यान करके राजा जीमूतकेतु ने सारा वृत्तांत जान लिया और वह अपनी रानी कनकवती तथा पुत्रवधु के साथ शीघ्र ही उस स्थान की ओर चल पड़े जहां गरुड़ जीमूतवाहन को ले गया था।
इधर शंखचूड़ जब गोकर्ण को प्रणाम करके लौटा तो उसने विकल होकर देखा कि वध्य शिला रक्त से भीगी हुई थी। शंखचूड़ समझ गया कि परोपकारी जीमूतवाहन ने उसकी जगह स्वयं का बलिदान कर दिया था। तब उसने मन में सोचा कि ‘मैं इस बात का पता अवश्य लगाऊंगा कि सर्पों का शत्रु वह गरुड़ उस महान आत्मा को कहां ले गया है? यदि मैं उसे जीवित पा सका तो अपयश के कलंक को अपने माथे से धो सकूँगा।’
तब शंखचूड़ खून की टपकी बूंदों के सहारे आगे बढ़ता गया। उधर गरुड़ जब जीमूतवाहन को खा रहा था तो एकाएक उसे यह जानकर कुछ संदेह-सा हो गया कि उसका शिकार बजाय चीखने-चिल्लाने के शांत भाव से प्रसन्नचित उसी की ओर देख रहा था। इस पर उसने उसे खाना बंद करके सोचा, “अरे, यह तो कोई अपूर्व व्यक्ति है जो ऐसा पराक्रमी है कि मेरे खाये जाने पर भी प्रसन्न हो रहा है और इसके प्राण भी नहीं निकलते। इसके शरीर का जो थोड़ा-बहुत भाग शेष रह गया है, उसमें भी स्पंदन नहीं है। यह तो मुझे इस तरह देख रहा है जैसे इसे खाकर मैं इस पर कोई उपकार कर रहा हूं। अवश्य ही यह सर्प नहीं है, निश्चित ही यह कोई सज्जन व्यक्ति है। अब मैं इसे नहीं खाऊंगा।”
गरुड़ ऐसा सोच ही रहा था कि जीमूतवाहन बोला–रुक क्यों गए पक्षिराज। मुझे खाओ और अपनी क्षुधा शांत करो। अभी तो मेरे शरीर का काफी हिस्सा शेष है।
यह सुनकर गरुड़ को बहुत आश्चर्य हुआ। वह बोला, “हे महात्मन, कौन हैं आप? सर्प तो आप हो ही नहीं सकते, फिर आप कौन हैं? कृपा करके मुझे अपना परिचय दें।”
जीमूतवाहन ने उत्तर में कहा, “यह तुम्हारा कैसा प्रश्न है गरुड़? मैं तुम्हारा भक्ष्य हूं और कुछ भी नहीं। अतः निर्मम होकर मेरा भक्षण करो।”
जीमूतवाहन जब गरुड़ से यह बातें कर रहा था, उसी समय शंखचूड़ उन्हें खोजता हुआ वहां आ पहुंचा। उसने दूर से ही गुहार लगाई, “रुको विनता-पुत्र। इसे खाकर कलंक के भागी मत बनो। यह तुम्हारा भक्ष्य नहीं है, तुम्हारा भक्ष्य तो मैं हूँ, एक नागपुत्र।” यह कहता हुआ वह दौड़कर वहां पहुंचा और उन दोनों के बीच खड़ा हो गया। गरुड़ को चक्कर में पड़ा देखकर शंखचूड़ ने पुनः कहा, “किसी भ्रम में मत पड़ो विनतापुत्र। तुम जिसे अपना भक्ष्य समझकर उठा लाए हो, वह तो एक महान आत्मा, महान परोपकारी, विद्याधरों का राजा जीमूतवाहन है। तुम्हारा असली शिकार तो मैं हूँ। यह देखो मेरी दो जुबानें और मेरा फन…।” ऐसा कहकर शंखचूड़ ने अपनी दोनों जुबानें और अपना फन उसे दिखाया।
जब शंखचूड़ गरुड़ को अपना फन दिखा रहा था, ठीक उसी समय जीमूतवाहन की पत्नी और उसके माता-पिता भी वहां आ पहुंचे और जीमूतवाहन के क्षत-विक्षत शरीर को देखकर हाहाकार करने लगे।
यह सब जानकर गरुड़ को भारी पश्चाताप हुआ। वह अपने मन में सोचने लगा कि “हाय! मैंने भ्रम में पड़कर बोधिसत्व के इस अंश को कैसे खा लिया? यह तो दूसरों को प्राण देने वाला वही जीमूतवाहन है जिसका यश तीनों लोकों में फैला हुआ है। अतः अब यदि इसकी मृत्यु हो गई तो मुझ पापी को अग्नि में प्रवेश करना पड़ेगा, क्योंकि अधर्म रूपी विष-वृक्ष का फल पककर भला मीठा कैसे हो सकता है?”
गरुड़ जब इस प्रकार पश्चाताप कर रहा था, तभी जीमूतवाहन ने अपने माता-पिता एवं पत्नी की ओर देखा। एकाएक उसका शरीर जोर से कांपा और उसके प्राण पखेरू उड़ गए।
अपने पुत्र को मृत समझकर जीमूतवाहन के माता-पिता आर्तनाद करने लगे। शंखचूड़ भी स्वयं को बार-बार कोसने लगा कि उसी के कारण इस महात्मा की जान गई। उसकी पत्नी मलयवती आंखों में आंसू भरकर आकाश की ओर देखती हुई उस माता अम्बिका को उलाहना देने लगी जिसने प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया था। वह बोली, “हे देवी, उस समय तो आपने मुझे यही वरदान दिया था कि तुम्हारा पति विद्याधरों का चक्रवती राजा होगा। फिर अब आपका वह वरदान असत्य कैसे हो गया, मां!”
मलयवती जब बार-बार ऐसा कहकर रुदन कर रही थी, तभी वहां प्रकाश-सा फैला और साक्षात् देवी अम्बिका वहां प्रकट हो गई। मां अम्बिका ने कहा, “बेटी, मेरी बात झूठी नहीं है। लो मैं तुम्हारे पति को पुनः जीवित किए देती हूं।” ऐसा कहकर मां अम्बिका ने अपने कमंडल के अमृत से जीमूतवाहन के अस्थिपंजर को सींच दिया।
जीमूतवाहन जीवित हो उठा, उसके कटे-फटे अंग पुनः जुड़ गए और वह पहले से भी अधिक सुंदर व कांतिमान बन गया। जीमूतवाहन ने तब देवी मां को प्रणाम किया। औरों ने भी उसका अनुसरण किया। तब देवी मां ने उससे कहा, “’पुत्र जीमूतवाहन, मैं तुम्हारे देहदान से परम संतुष्ट हूं इसलिए अपने हाथों से मैं तुम्हारा चक्रवर्ती पद पर अभिषेक करती हूं। तुम एक कल्प तक विद्याधरों पर राज्य करोगे।”
यह कहकर देवी ने कलश के जल से जीमूतवाहन का अभिषेक किया। फिर वह अन्तर्ध्यान हो गईं।
उसी समय वहां फूलों की वर्षा हुई और आकाश में उपस्थित देवताओं की दुन्दभियां बजने लगीं।
अब गरुड़ ने विनीत होकर जीमूतवाहन से कहा, “हे चक्रवर्ती, मैं आपके अपूर्व पराक्रम से बहुत प्रसन्न हूं। तुमने जो कुछ किया है, वह तीनों लोकों को अचरज में डालने वाला है। इस कृत्य से तुमने अपना नाम ब्रह्मांड की भित्ति पर लिख दिया है। अतः आप मुझे आज्ञा दीजिए और मेरे द्वारा कोई वर प्राप्त कीजिए।”
इस पर जीमूतवाहन ने कहा, “हे पक्षिराज! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो आप वचन दीजिए कि आज से फिर आप सर्पों का भक्षण न करेंगे। साथ ही ये भी कि जिन सर्पों को आप खा चुके हैं और जिनकी हड्डियां ही शेष रही हैं, उन्हें भी पुनः जीवनदान देंगे।” तब गरुड़ ने ऐसा ही वचन दिया। साथ ही मृत सर्पों को भी फिर से जीवित कर दिया।
गौरी की कृपा से सभी विद्याधरों ने जीमूतवाहन के इस अद्भुत कृत्य की बात जान ली। कुछ ही देर में वे सभी राजा वहां आ पहुंचे। उन्होंने जीमूतवाहन के चरणों में झुककर प्रणाम किया। जीमूतवाहन ने जब गरुड़ को विदा कर दिया, तब वे उसके संबंधियों और मित्रों सहित उसे हिमालय पर्वत पर ले गए, जहां पार्वती ने अपने हाथों अभिषेक करके उसे चक्रवर्ती का पद दिया।
जीमूतवाहन ने अपने माता-पिता, मित्रावसु, मलयवती तथा घर जाकर लौटे हुए शंखचूड़ के साथ रहते हुए बहुत दिनों तक चक्रवर्ती सम्राट का पद संभाला। उसका साम्राज्य उन रत्नों से भरपूर था, जिन्हें उसने अपने अलौकिक कार्यों द्वारा अद्भुत रूप से प्राप्त किया था।
बेताल ने यह अत्यंत अद्भुत कथा सुनाकर राजा विक्रमादित्य से पूछा, “राजन, अब तुम यह बताओ कि उन दोनों में अधिक पराक्रमी शंखचूड़ था या जीमूतवाहन? यदि तुम जानते हुए भी इस बात का उत्तर न दोगे तो तुम्हारा सिर खंड-खंड हो जाएगा।”
बेताल की यह बात सुनकर शाप के भय से राजा विक्रमादित्य ने मौन त्याग दिया और उद्वेग-रहित होकर कहा, “बेताल, जीमूतवाहन ने जो कुछ किया, उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है क्योंकि उसे अनेक जन्मों की सिद्धियां प्राप्त थीं। सराहने योग्य तो शंखचूड़ ही है। उसके शत्रु को किसी और ने अपना शरीर अर्पित कर दिया था और गरुड़ उसे लेकर दूर चला गया था। फिर भी वह भागा-भागा उनके पीछे वहां गया और उसने हठपूर्वक अपना शरीर प्रस्तुत किया।”
राजा का यह सटीक उत्तर सुनकर बेताल उसके कंधे से उतरकर फिर उसी शिंशपा-वृक्ष की ओर उड़ गया। राजा भी उसे पुनः लाने के लिए उसके पीछे-पीछे दौड़ गया।
राजा विक्रमादित्य बेताल को लाने के लिए पुनः शिंशपा वृक्ष के नीचे पहुँच गया। उसने बेताल को उतारकर अपने कंधे पर डाला और चलना शुरू किया। बेताल ने राजा विक्रम को फिर से यह कहानी सुनानी शुरू की – यशोधन और बलधर में कौन अधिक चरित्रवान?