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पद्मावती की प्रेम-कहानी – विक्रम और बेताल की कथा

“पद्मावती की प्रेम-कहानी” बेताल पच्चीसी की पहली कथा है। यह कहानी राजा विक्रमादित्य की कुशाग्र-बुद्धि व न्याय-प्रियता और बेताल की चतुराई को दिखलाती है। विक्रम और बेताल की अन्य कहानियाँ पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – विक्रम बेताल की कहानियां

राजकुमार और पद्मावती का प्रथम परिचय

राजा विक्रम के कंधे पर लटका बेताल पद्मावती की प्रेम-कहानी सुनाते हुए बोला – आर्यावर्त में वाराणसी नाम की एक नगरी है, जहां भगवान शंकर निवास करते हैं। पुण्यात्मा लोगों के रहने के कारण वह नगरी कैलाश-भूमि के समान जान पड़ती है। उस नगरी के निकट अगाध जल वाली गंगा नदी बहती है जो उसके कंठहार की तरह सुशोभित होती है। प्राचीन काल में उस नगरी में एक राजा राज करता था, जिसका नाम था प्रताप मुकुट।

प्रताप मुकुट का वज्रमुकुट नामक एक पुत्र था जो अपने पिता की ही भांति बहुत धीर, वीर और गंभीर था। वह इतना सुंदर था कि कामदेव का साक्षात् अवतार लगता था। राजा के एक मंत्री का बेटा बुद्धिशरीर उस वज्रमुकुट का घनिष्ठ मित्र था।

एक बार वज्रमुकुट अपने उस मित्र के साथ जंगल में शिकार खेलने गया। वहां घने जंगल के बीच उसे एक रमणीक सरोवर दिखाई दिया, जिसमें बहुत-से कमल के सुंदर-सुंदर पुष्प खिले हुए थे। उसी समय अपनी कुछ सखियों सहित एक राजकन्या वहां आई और सरोवर में स्नान करने लगी। राजकन्या के सुंदर रूप को देखकर वज्रमुकुट उस पर मोहित हो गया।

राजकन्या ने भी वज्रमुकुट को देख लिया था और वह भी पहली ही नजर में उसकी ओर आकृष्ट हो गई। राजकुमार वज्रमुकुट अभी उस राजकन्या के बारे में जानने के लिए सोच ही रहा था कि राजकन्या ने खेल-खेल में ही उसकी ओर संकेत करके अपना नाम-धाम भी बता दिया।

उसने एक कमल के पत्ते को लेकर कान में लगाया, दंतपत्र से देर तक दांतों को खुरचा, एक दूसरा कमल माथे पर तथा हाथ अपने हृदय पर रखा। किंतु राजकुमार ने उस समय उसके इशारों का मतलब न समझा।

उसके बुद्धिमान मित्र बुद्धिशरीर ने उन इशारों का मतलब समझ लिया था, अतः मंद-मंद मुस्कराता हुआ अपने मित्र की हालत देखता रहा, जो उस राजकन्या के प्रेम-बाण से आहत होकर, राजकन्या और उसकी सखियों को वापस जाते देख रहा था।

राजकुमार घर लौटा तो वह बहुत उदास था। उसकी दशा जल बिन-मछली की भांति हो रही थी। जब से वह शिकार से लौटा था, उस राजकन्या के वियोग में उसका खाना-पीना छूट गया था। राजकुमारी की याद आते ही उसका मन उसे पाने के लिए बेचैन होने लगता था।

एक दिन बुद्धिशरीर ने राजकुमार से एकान्त में इसका कारण पूछा। कारण जानकर उसने कहा कि उसका मिलना कठिन नहीं है। तब राजकुमार ने अधीरता से कहा, “जिसका न तो नाम-धाम मालूम है और न जिसके कुल का ही कोई पता है, वह भला कैसे पाई जा सकती है? फिर तुम व्यर्थ ही मुझे भरोसा क्यों दिलाते हो?”

पद्मावती के इशारों का मतलब

इस पर मंत्री-पुत्र बुद्धिशरीर बोला, “मित्र, उसने तुम्हें इशारों से जो कुछ बताया था, क्या उन्हें तुमने नहीं देखा? सुनो, उसने कानों पर उत्पल (कमल) रखकर बताया कि वह राजा कर्णोत्पल के राज्य में रहती है। दांतों को खुरचकर यह संकेत दिया कि वह वहां के दंतवैद्य की कन्या है। अपने कान में कमल का पत्ता लगाकर उसने अपना नाम पद्मावती बताया और हृदय पर हाथ रखकर सूचित किया कि उसका हृदय तुम्हें अर्पित हो चुका है।

कलिंग देश में कर्णोत्पल नाम का एक सुविख्यात राजा है। उसके दरबार में दंतवैद्य की पद्मावती नाम की एक कन्या है, जो उसे प्राणों से भी अधिक प्यारी है। दंतवैद्य उस पर अपनी जान छिड़कता है।”

मंत्री-पुत्र ने आगे बताया, “मित्र, ये सारी बातें मैंने लोगों के मुख से सुन रखी थीं इसलिए मैंने उसके उन इशारों को समझ लिया, जिससे उसने अपने देश आदि की सूचना दी थी।”

मंत्री-पुत्र के ऐसा कहने पर राजकुमार को बेहद संतोष हुआ। प्रिया का पता लगाने का उपाय मिल जाने के कारण वह प्रसन्न भी था। वह अपने मित्र के साथ अगले ही दिन आखेट का बहाना करके अपनी प्रिया से मिलने चल पड़ा।

आधी राह में अपने घोड़े को वायु-वेग से दौड़ाकर उसने अपने सैनिकों को पीछे छोड़ दिया और केवल मंत्री-पुत्र के साथ कलिंग की ओर बढ़ चला।

राजा कर्णोत्पल के राज्य में पहुंचकर उसने दंतवैद्य की खोज की और उसका घर देख लिया। तब राजकुमार और मंत्री-पुत्र ने उसके घर के पास ही निवास करने के लिए एक वृद्ध स्त्री के मकान में प्रवेश किया।

मंत्रीपुत्र ने घोड़ों को दाना-पानी देकर उन्हें छिपाकर बांध दिया, फिर राजकुमार के सामने ही उसने वृद्धा से कहा, “हे माता, क्या आप संग्रामवर्धन नाम के किसी दंतवैद्य को जानती हैं?”

यह सुनकर उस वृद्धा स्त्री ने आश्चर्य-पूर्वक कहा, ”हां, मैं जानती हूं। मै उनकी धाय हूं। लेकिन अधिक उम्र हो जाने के कारण अब उन्होंने मुझे अपनी बेटी पद्मावती की सेवा में लगा दिया है। किंतु, वस्त्रों से हीन होने के कारण मैं सदा उसके पास नहीं जाती। मेरा बेटा नालायक और जुआरी है। मेरे वस्त्र देखते ही वह उन्हें उठा ले जाता है।”

बुढ़िया के ऐसा कहने पर प्रसन्न होकर मंत्री-पुत्र ने अपने उत्तरीय आदि वस्त्र उसे देकर संतुष्ट किया। फिर वह बोला, “तुम हमारी माता के समान हो। पुत्र समझकर हमारा एक कार्य गुप्त रूप से कर दो तो हम आपके बहुत आभारी रहेंगे। तुम इस दंतवैद्य की कन्या पद्मावती से जाकर कहो कि जिस राजकुमार को उसने सरोवर के किनारे देखा था, वह यहां आया हुआ है। प्रेमवश उसने यह संदेश कहने के लिए तुम्हें वहां भेजा है।”

उपहार मिलने की आशा में वह बुढ़िया तुरंत ऐसा करने को तैयार हो गई। वह पद्मावती के पास पहुंची और वह संदेश पद्मावती को देकर शीघ्रता से लौट आई।

पूछने पर उसने राजकुमार और मंत्री-पुत्र को बताया, “मैंने जाकर तुम लोगों के आने की बात गुप्त रूप से उससे कही। सुनकर उसने मुझे बहुत बुरा-भला कहा और कपूर लगे अपने दोनों हाथों से मेरे दोनों गालो पर कई थप्पड़ मारे। मैं इस अपमान को सहन न कर सकी और दुःखी होकर रोती हुई वहाँ से लौट आई। बेटे, स्वयं अपनी आंखों से देख लो, मेरे दोनों गालों पर अभी भी उसके द्वारा मारे गए थप्पड़ों के निशान मौजूद हैं।”

राजकुमार की प्रतीक्षा

बुढ़िया द्वारा बताए जाने पर राजकुमार उदास हो गया, किंतु महाबुद्धिमान मंत्री-पुत्र ने उससे एकांत में कहा, “तुम दुखी मत हो मित्र। पद्मावती ने बुढ़िया को फटकारकर, कपूर से उजली अपनी दसों उंगलियों की छाप द्वारा तुम्हें ये बताने की कोशिश की है कि तुम शुक्लपक्ष की दस चांदनी रातों तक प्रतीक्षा करो। ये रातें मिलन के लिए उपयुक्त नहीं हैं।”

फिर मंत्री-पुत्र राजकुमार और पद्मावती की प्रेम-कहानी को सफल बनाने के लिए बाजार में गया और अपने पास का थोड़ा-सा सोना बेच आया। उससे मिले धन से उसने बुढ़िया से उत्तम भोजन तैयार करवाया और उस वृद्धा के साथ ही भोजन किया।

इस तरह दस दिन बिताकर मंत्री-पूत्र ने उस बुढ़िया को फिर पद्मावती के पास भेज दिया। बुढ़िया उत्तम भोजन के लोभ में यह कार्य करने के लिए फिर से तैयार हो गई।

बुढ़िया ने लौटकर उन्हें बताया, “आज मैं यहां से जाकर, चुपचाप उसके पास खड़ी रही। तब उसने स्वयं ही तुम्हारी बात कहने के लिए मेरे अपराध का उल्लेख करते हुए मेरे हृदय पर महावर लगी अपनी तीन उंगलियों से आघात किया। इसके बाद मैं उसके पास से यहां चली आई।”

तीन रातें बीत जाने के बाद मंत्री-पुत्र ने अकेले में राजकुमार से कहा, “तुम कोई शंका मत करो, मित्र। पद्मावती ने महावर लगी तीन उंगलियों की छाप छोड़कर यह सूचित किया है कि वह अभी तीन दिन तक राजमहल में रहेगी।”

यह सुनकर मंत्री-पुत्र ने फिर से बुढ़िया को पद्मावती के पास भेजा। उस दिन जब बुढ़िया पद्मावती के पास पहुंची तो उसने बुढ़िया का उचित स्वागत-सत्कार किया और उसे स्वादिष्ट भोजन भी कराया। पूरा दिन वह बुढ़िया के साथ हंसती-मुस्कराती बातें करती रही।

शाम को जब बुढ़िया लौटने को हुई, तभी बाहर बहुत डरावना शोर-गुल सुनाई दिया, “हाय-हाय, यह पागल हाथी जंजीरें तोड़कर लोगों को कुचलता हुआ भागा जा रहा है।” बाहर से मनुष्यों की ऐसी चीख-पुकार सुनाई पड़ीं।

तब पद्मावती ने उस बुढ़िया से कहा, “राजमार्ग को एक हाथी ने रोक रखा है। उससे तुम्हारा जाना उचित नहीं है। मैं तुम्हें रस्सियों से बंधी एक पीढ़ी पर बैठाकर उस बड़ी खिड़की के रास्ते नीचे बगीचे में उतरवा देती हूं। उसके बाद पेड़ के सहारे बाग की चारदीवारी पर चढ़ जाना और फिर वहां से दूसरी ओर के पेड़ पर चढ़कर नीचे उतर जाना। फिर वहां से अपने घर चली जाना।”

यह कहकर एक रस्सी से बंधी पीढ़ी पर बैठाकर उसने बुढ़िया को अपनी दासियों द्वारा खिड़की के रास्ते नीचे बगीचे में उतरवा दिया। बुढ़िया पद्मावती द्वारा बताए हुए उपाय से घर लौट आई और सारी बातें ज्यों-की-त्यों राजकुमार और मंत्री-पुत्र को बता दीं।

तब उस मंत्रीपुत्र ने राजकुमार से कहा, “मित्र, तुम्हारा मनोरथ पूरा हुआ। उसने युक्तिपूर्वक तुम्हें रास्ता भी बतला दिया है। इसलिए आज ही शाम को तुम वहां जाओ और इसी मार्ग से अपनी उस प्रिया के भवन में प्रवेश करो।”

पद्मावती और राजकुमार का मिलन

राजकुमार ने वैसा ही किया। बुढ़िया के बताए हुए तरीके द्वारा वह चारदीवारी पर चढ़कर पद्मावती के बगीचे में पहुंच गया। वहां उसने रस्सियों से बंधी हुई पीढ़ी को लटकते देखा, जिसके ऊपरी छज्जे पर राजकुमार की राह देखती हुई कई दासियां खड़ी थीं। ज्योंही राजकुमार पीढ़ी पर बैठा, दासियों ने रस्सी ऊपर खींच ली और वह खिड़की की राह से अपनी प्रिया के पास जा पहुंचा। मंत्री-पुत्र ने जब अपने मित्र को निर्विघ्न खिड़की में प्रवेश करते देखा, तो वह संतुष्ट होकर वहां से लौट गया।

अंदर पहुंचकर राजकुमार ने अपनी प्रिया को देखा। पद्मावती का मुख पूर्णचंद्र के समान था जिससे शोभा की किरणें छिटक रही थीं। पद्मावती भी उत्कंठा से भरी राजकुमार के अंग लग गई और अनेक प्रकार से उसका सम्मान करने लगी।

अनन्तर, राजकुमार ने गांधर्व-विधि से पद्मावती के साथ विवाह रचा लिया और कई दिन तक गुप्त-रूप से उसी के आवास में छिपा रहा। कई दिनों तक वहां रहने के बाद, एक रात को उसने अपनी प्रिया से कहा, “मेरे साथ मेरा मित्र बुद्धिशरीर भी यहां आया है। वह यहां अकेला ही तुम्हारी धाय के घर में रहता है। मैं अभी जाता हूं, उसकी कुशलता का पता करके और उसे समझा-बुझाकर पुनः तुम्हारे पास आ जाऊंगा।”

यह सुनकर पद्मावती ने राजकुमार से कहा, “आर्यपुत्र, यह तो बतलाइए कि मैंने जो इशारे किए थे, उन्हें तुमने समझा था या बुद्धिशरीर ने?”

“मैं तो तुम्हारे इशारे बिल्कुल भी नहीं समझा था”, राजकुमार से बताया, “उन इशारों को मेरे मित्र बुद्धिशरीर ने ही समझकर मुझे बताया था।

यह सुनकर और कुछ सोचकर पद्मावती ने राजकुमार से कहा, “यह बात इतने विलम्ब से कहकर आपने बहुत अनुचित कार्य किया है। आपका मित्र होने के कारण वह मेरा भाई है। पान-पत्तों से मुझे पहले उसका ही स्वागत-सत्कार करना चाहिए था।”

ऐसा कहकर उसने राजकुमार को जाने की अनुमति दे दी। तब, रात के समय राजकुमार जिस रास्ते से आया था, उसी से अपने मित्र के पास गया।

पद्मावती से उसके इशारे समझाने के बारे में राजकुमार को जो बातें हुई थीं, बातों-बातों में वह सब भी उसने मंत्री-पुत्र को कह सुनाई। मंत्री-पुत्र ने अपने संबंध में कही गई इस बात को उचित न समझकर इसका समर्थन नहीं किया। इसी बीच रात बीत गई।

सवेरे संध्या-वंदन आदि से निवृत्त होकर दोनों बातें कर रहे थे, तभी पद्मावती की एक सखी हाथ में पान और पकवान लेकर वहां आई। उसने मंत्री-पुत्र का कुशल-मंगल पूछा और लाई हुई चीजें उसे दे दीं।

बातों-बातों में उसने राजकुमार से कहा कि उसकी स्वामिनी भोजन आदि के लिए उसकी प्रतीक्षा कर रही है। पल-भर बाद, वह गुप्त रूप से वहां से चली गई। तब मंत्री-पुत्र ने राजकुमार से कहा, “मित्र, अब देखिए। मैं आपको एक तमाशा दिखाता हूं।”

यह कहकर उसने एक कुत्ते के सामने वह भोजन डाल दिया। कुत्ता वह पकवान खाते ही तड़प-तड़पकर मर गया। यह देखकर आश्चर्यचकित हुए राजकुमार ने मंत्री-पुत्र से पूछा, ”मित्र, यह कैसा कौतुक है?”

तब मंत्री-पुत्र ने कहा, “मैंने उसके इशारों को पहचान लिया था, इसलिए मुझे धूर्त समझकर उसने मेरी हत्या कर देनी चाही थी। इसी से तुममें बहुत अनुराग होने के कारण उसने मेरे लिए विष मिश्रित पकवान भेजे थे। उसे भय था कि मेरे रहते राजकुमार एकमात्र उसी में अनुराग नहीं रख सकेगा और उसके वश में रहकर, उसे छोड़कर अपनी नगरी में चला जाएगा। इसलिए उस पर क्रोध न करो, बल्कि उसे अपने माता-पिता के त्याग के लिए प्रेरित करो और सोच-विचार उसके हरण के लिए मैं तुम्हें जो युक्ति बतलाता हूं, उसके अनुसार आचरण करो।”

मंत्री-पुत्र के ऐसा कहने पर राजकुमार यह कहकर उसकी प्रशंसा करने लगा कि सचमुच तुम बुद्धिमान हो। इसी बीच अचानक बाहर से दुख से विकल लोगों का शोरगुल सुनाई पड़ा, जो कह रहे थे, “हाय-हाय, राजा का छोटा बच्चा मर गया।”

मंत्री-पुत्र की तरक़ीब – राजकुमार और पद्मावती की प्रेम-कहानी

यह सुनकर मंत्री-पुत्र प्रसन्न हुआ। उसने राजकुमार से कहा, “आज रात को तुम पद्मावती के घर जाओ। वहां तुम उसे इतनी मदिरा पिलाना कि वह बेहोश हो जाए और वह किसी मृतक के समान जान पड़े। जब वह बेहोश हो तो उस हालत में तुम एक त्रिशूल गर्म करके उसकी जांघ पर दाग देना और उसके गहनों की गठरी बांधकर रस्सी के सहारे खिड़की के रास्ते से यहां चले आना। उसके बाद मैं सोच-विचारकर कोई वैसा उपाय करूंगा जो हमारे लिए कल्याणकारी हो।”

राजकुमार ने वैसा ही किया। उसने पदमावती को जी-भरकर मदिरा पिलाई और जब वह बेहोश हो गई तो उसकी जांघ पर त्रिशूल से एक बड़ा-सा दाग बना दिया और उसके गहनों की गठरी बनाकर अपने साथ ले आया।

सवेरे श्मशान में जाकर मंत्री-पुत्र ने तपस्वी का रूप धारण किया और राजकुमार को अपना शिष्य बनाकर उससे कहा, “अब तुम इन आभूषणों में से मोतियों का हार लेकर बाजार में बेचने के लिए जाओ, लेकिन इसका दाम इतना अधिक बताना कि इसे कोई खरीद न सके। साथ ही यह भी प्रयत्न करो कि इसे लेकर घूमते हुए तुम्हें अधिक-से-अधिक लोग देखें। अगर नगर-रक्षक तुम्हें पकड़ें, तो बिना घबराए हुए तुम कहना कि “मेरे गुरु ने इसे बेचने के लिए मुझे दिया है।”

तब राजकुमार बाजार में गया और वहां उस हार को लेकर घूमता रहा।

उधर दंतवैद्य की बेटी के गहनों की चोरी की खबर पाकर, नगर-रक्षक उसका पता लगाने के लिए घूमते फिर रहे थे। राजकुमार को हार के साथ देखकर उन लोगों ने उसे पकड़ लिया।

नगर-रक्षक राजकुमार को नगरपाल के पास ले गए। उसने तपस्वी के वेश में राजकुमार को देखकर आदर सहित पूछा, “भगवन्, मोतियों का यह हार आपको कहां से मिला? पिछले दिनों दंतवैद्य की कन्या के आभूषण चोरी हो गए थे, जिनमें इस हार का भी जिक्र था।”

इस पर तपस्वी-शिष्य बना राजकुमार बोला, “इसे मेरे गुरु ने बेचने के लिए मुझे दिया है। आप उन्हीं से पूछ लीजिए।”

तब नगरपाल वहां आया तो तपस्वी रूपी मंत्री-पुत्र ने कहा, “मैं तो तपस्वी हूं। सदा जंगलों में यहां-वहां घूमता रहता हूं। संयोग से मैं पिछली रात इस श्मशान में आकर टिक गया था। यहां मैंने इधर-उधर से आई हुई योगिनियों को देखा। उनमें से एक योगिनी राजपुत्र को ले आई और उसने उसका हृदय निकालकर भैरव को अर्पित कर दिया।

मदिरा पीकर वह मायाविनी मतवाली हो गई और मुझे मुंह चिढ़ाकर, मेरी उस रुद्राक्ष माला को लेने दौड़ी जिसके मनकों के साथ मैं तप कर रहा था। जब उसने मुझे बहुत तंग किया तो मुझे उस पर क्रोध आ गया। मैंने मंत्र-बल से अग्नि जलाई और उसमें त्रिशूल तपाकर उसकी जंघा पर दाग दिया। उसी समय मैंने उसके गले से यह मोतियों का हार खींच लिया था। अब मैं ठहरा तपस्वी, यह हार मेरे किसी काम का नहीं है, इसलिए मैंने अपने शिष्य को इसे बेचने के लिए भेज दिया था।”

यह सुनकर नगरपाल राजा के पास पहुंचा और उसने राजा से सारा वृत्तांत कह सुनाया। राजा ने बात सुनकर उस मोतियों के हार को पहचान दिया। पहचानने का कारण यह था कि वह हार स्वयं राजा ने ही दंतवैद्य की बेटी को उपहार स्वरूप भेंट किया था।

तब राजा ने अपनी एक विश्वासपात्र वृद्धा दासी को यह जांच करने के लिए दंतवैद्य के यहां भेजा कि वह पद्मावती के शरीर का परीक्षण कर यह पता करे कि उसकी जांघ पर त्रिशूल का चिन्ह है या नहीं। वृद्धा दासी ने जांच करके राजा को बताया कि उसने पद्मावती की जांघ पर वैसा ही एक दाग देखा है।

पद्मावती की प्रेम-कहानी में किसका अपराध?

इस पर राजा को विश्वास हो गया कि पद्मावती ही उसके बेटे को मारकर खा गई है। तब वह स्वयं तपस्वी-वेशधारी मंत्री-पुत्र के पास गए और पूछा कि पद्मावती को क्या दंड दिया जाए। मंत्री-पुत्र के कहने पर राजा ने पद्मावती को नग्नावस्था में अपने राज्य से निर्वासित कर दिया।

नग्न करके वन में निर्वासित कर दिए जाने पर भी पद्मावती ने आत्महत्या नहीं की। उसने सोचा कि मंत्री-पुत्र ने ही यह सब उपाय किया है। शाम होने पर तपस्वी का वेश त्यागकर राजकुमार और मंत्रीपुत्र घोड़ों पर सवार होकर वहां पहुंचे, जहां पद्मावती शोकमग्न बैठी थी। वे उसे समझा-बुझाकर घोड़े पर बैठाकर अपने देश ले गए। वहां राजकुमार उसके साथ सुखपूर्वक रहने लगा।

बेताल ने पद्मावती की प्रेम-कहानी सुनाकर राजा विक्रमादित्य से पूछा, “राजन! आप बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं। अतः मुझे यह बताइए कि यदि राजा क्रोधवश उस समय पद्मावती को नगर निर्वासन का आदेश न देकर उसे मारने का आदेश दे देता… अथवा पहचान लिए जाने पर वह राजकुमार का ही वध करवा देता, तो इन पति-पत्नी के वध का पाप किसे लगता? मंत्री-पुत्र को, राजकुमार को अथवा पद्मावती को? राजन, यदि जानते हुए भी तुम मुझे ठीक-ठीक नहीं बतलाओगे तो विश्वास जानो कि तुम्हारे सिर के सौ टुकड़े हो जाएंगे।”

बेताल के ऐसा कहने पर सब-कुछ जानते हुए भी राजा विक्रमादित्य ने शाप के भय से उससे यों कहा, “योगेश्वर, इसमें न जानने योग्य क्या है? इसमें इन तीनों का कोई पाप नहीं है। जो पाप है वह राजा कर्णोत्पल का है।”

बेताल बोला, “इसमें राजा का पाप क्या है? जो कुछ किया, वह तो उन तीनों ने किया। हंस यदि चावल खा जाएं तो इसमें कौओं का क्या अपराध है?”

तब विक्रमादित्य बोला, “उन तीनों का कोई दोष नहीं था। पद्मावती और राजकुमार कामाग्नि में जल रहे थे। वे अपने स्वार्थ साधन में लगे हुए थे। अतः वे भी निर्दोष थे। उनका विचार नहीं करना चाहिए। लेकिन राजा कर्णोत्पल अवश्य पाप का भागी था। राजा होकर भी वह नीतिशास्त्र नहीं जानता था। उसने अपने गुप्तचरों के द्वारा अपनी प्रजा से भी सच-झूठ का पता नहीं लगवाया। वह धूर्तों के चरित्र को नहीं जानता था। फिर भी बिना विचारे उसने जो कुछ किया, उसके लिए वह पाप का भागी हुआ।”

शव के अंदर प्रविष्ट उस बेताल से जब राजा ने मौन छोड़कर ऐसी युक्ति-युक्त बातें कहीं, तब उनकी दृढ़ता की परीक्षा लेने के लिए अपनी माया के प्रभाव से वह राजा विक्रमादित्य के कंधे से उतरकर इस तरह कहीं चला गया कि राजा को पता भी नहीं चला। फिर भी राजा घबराया नहीं। राजा विक्रमादित्य ने उसे फिर से ढूंढ़ निकालने का निश्चय किया और वापस उसी वृक्ष की ओर लौट पड़ा।

राजा विक्रमादित्य बेताल को लाने के लिए पुनः शिंशपा वृक्ष के नीचे पहुँच गया। उसने बेताल को उतारकर अपने कंधे पर डाला और चलना शुरू किया। बेताल ने राजा विक्रम को फिर से यह कहानी सुनानी शुरू की – मंदारवती किसकी पत्नी है?

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