रत्नावती और चोर – विक्रम बेताल की कहानी
रत्नावती और चोर की कहानी बेताल पच्चीसी की चौदहवीं कथा है। इस कहानी में राजा विक्रमादित्य अपनी तीव्र मेधा से चोर के हँसने और रोने का कारण स्पष्ट करता है। बेताल पच्चीसी की शेष कहानियाँ पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – विक्रम बेताल की कहानियाँ।
हरिस्वामी की कहानी के अंत में बेताल फिर उड़ गया। विक्रमादित्य बेताल को लेने के लिए पुनः उस वृक्ष के पास पहुँचा। पहले की ही भांति उसने बेताल को वृक्ष से नीचे उतारा और उसे कंधे पर डालकर खामोशी से उस योगी के पास चल पड़ा। रास्ते में फिर बेताल ने मौन भंग करते हुए कहा, “राजन, तुम थक गए हो। इसलिए तुम्हारे मार्ग की थकान दूर करने के लिए तुम्हें इस बार एक विचित्र कथा सुनाता हूँ।”
आर्यावर्त में अयोध्या नाम की एक नगरी है। कभी वह नगरी राक्षस-कुल का नाश करने वाले प्रभु श्री रामचन्द्र के रूप में अवतरित भगवान विष्णु की राजधानी थी। वहाँ वीरकेतु नाम का एक महाबाहु राजा हुआ करता था, जो उसी प्रकार उस नगर की रक्षा करता था, जैसे नगरी की रक्षा उसकी चारदीवारियाँ करती हैं।
उस राजा के राज्य की एक नगरी मे रत्नदत्त नाम का धनी वणिक रहता था। वह वणिक समूचे वणिक समाज का नायक था। दमयंती नाम की उसकी पत्नी से उसके यहा रत्नावती नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई, जो देवताओं की आराधना से प्राप्त हुई थी। वह मनस्विनी कन्या अपने पिता के घर में रूप-लावण्य, विनय आदि सहज गुणों के साथ बढ़ने लगी।
जब वह युवती हुई, तब रत्नावती से न केवल बड़े-बड़े वणिक ही, अपितु राजा लोग भी विवाह हेतु याचना करने लगे। किंतु वह युवती पुरुषों से घृणा करती थी। वह विवाह का नाम सुनते ही अपने प्राण त्यागने को उद्यत हो जाती थी। इकलौती संतान होने के कारण पिता उसकी बात मानने के लिए विवश हो जाता था। धीरे-धीरे यह बात सारी अयोध्या नगरी में फैल चुकी थी।
इस बीच अयोध्या निवासियों के यहां लगातार चोरियाँ होने लगीं। तब नगरवासियों ने मिलकर राजा वीरकेतु से निवेदन किया, “हम लोग रोज़-रोज़ चोरों के द्वारा लूटे जाने पर भी हम उन्हें नहीं देख पाते, अतः आप ही इसका कोई उपाय करें।” पुरवासियों के ऐसा कहने पर राजा ने पहरेदारों को आदेश दिया कि वे छिपकर रात के समय उन चोरों का पता लगाएँ।
पहरेदारों ने उन चोरों को पकड़ने का भरसक प्रयत्न किया, किंत वे उन चोरों को पकड़ने में असफल रहे। तब राजा ने स्वयं ही उन्हें पकड़ने का निश्चय किया और एक रात अकेला ही उन्हें पकड़ने के लिए निकल पड़ा।
जब रात के समय राजा शस्त्र लेकर चोरों की खोज में घूम रहा था, तो एक जगह उसने एक अकेले व्यक्ति को एक मकान की चारदीवारी कूदते हुए देखा। वह व्यक्ति बहुत सतर्कता पूर्वक चल रहा था। उसकी आँखें शंकित और चंचल थीं तथा वह बार-बार मुड़कर पीछे देखने लगता था।
राजा को संदेह हुआ कि अवश्य ही यही वह चोर है, जो नगर मे चोरियाँ किया करता है। ऐसा सोचकर वह चोर के निकट पहुँचा। चोर ने उसे अपने समीप आया देखकर उसे भी कोई चोर समझा और जब उसने राजा से उसका परिचय पूछा तो यह कहकर राजा ने उस चोर को संतुष्ट किया कि वह भी एक चोर है।
तब उस चोर ने कहा, “तब तो तुम मेरे ही हमपेशा हुए और कहावत भी है कि चोर-चोर मौसेरे भाई। अतः मित्र तुम मेरे साथ मेरे घर चलो, मैं वहाँ तुम्हारा उचित स्वागत-सत्कार करूंगा।” राजा उसकी बात मानकर उसके घर गया, जो एक वन में खोदी हुई भूमि के नीचे तहखाने के रूप में था।
उस विशाल घर में सुख-सुविधाओं के समस्त साधन मौजूद थे। वहाँ तेज़ रोशनी वाले दीपों की रोशनी हो रही थी। राजा जब एक आसन पर बैठ गया, तब चोर घर के एक भीतरी हिस्से में चला गया। कुछ ही समय पश्चात एक दासी वहाँ पहुँची और फुसफुसाते स्वर में राजा से बोली, “हे महाभाग, आप यहाँ मृत्यु के मुख में क्यों चले आए? यह पापी तो एक कुख्यात चोर है। जब यह बाहर निकलेगा तो निश्चय ही आपके साथ विश्वासघात करेगा। आपके लिए यही अच्छा रहेगा कि आप तुरन्त यहाँ से निकल जाएँ।”
चोर का ठाठ-बाट देखकर बहुत कुछ अनुमान लगा चुका था। अतः उसने दासी के कथनानुसार उस समय वहाँ से पलायन करना ही उचित समझा और वह चुपचाप वहाँ से निकलकर अपने महल लौट आया। महल में पहुँचकर उसने तुरंत अपनी सेना की एक बड़ी-सी टुकड़ी को तैयार किया और सैनिकों को ले जाकर उस चोर के आवास को चारों ओर से घेर लिया। चोर ने जब इस प्रकार अपने को घिरा हुआ देखा तो वह समझ गया कि उसका भेद खुल गया है, इसलिए वह मरने का निश्चय करके युद्ध के लिए बाहर निकल आया।
उस चोर ने राजा की सेना के साथ अकेले ही जमकर खूब लोहा लिया। पर अंत में राजा ने उसे निःशस्त्र करके पकड़ ही लिया। राजा उस चोर को बांधकर उसके घर की सारी वस्तुएँ और धन लेकर महल लौट आया। सवेरा होने पर उसने उस चोर को सूली पर चढ़ाकर प्राणदण्ड का आदेश दे दिया।
डौंढ़ी पीटकर जब उस चोर को वध-भूमि में ले जाया जा रहा था, तब अपने महल की छत पर से उस वणिक-कन्या रत्नावती ने उसे देखा। वह चोर घायल था, उसके अंग धूल से भरे थे, फिर भी रत्नावती उसे देखकर कामवश हो गई। उसने जाकर अपने पिता से कहा, “पिताजी, जिस पुरुष को ये लोग वध करने ले जा रहा हैं, मैंने मन-ही-मन उसे अपना पति स्वीकार कर लिया है। अतः आप राजा से कहकर उसकी प्राण-रक्षा करें, अन्यथा मैं भी उसके पीछे अपने प्राण त्याग दूंगी।”
यह सुनकर वणिक को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने अपनी पुत्री से कहा, “पुत्री, यह तुम क्या कह रही हो? तुम तो उन राजाओं को भी अपना पति नहीं बनाना चाहती जो तुम्हारी कामना करते रहते हैं। फिर भी तुम विपत्ति में पड़े हुए इस दुष्ट चोर की इच्छा कैसे कर रही हो?”
वणिक ने अपनी पुत्री को बहुत समझाया कि वह उस चोर को पति रूप में पाने की अपनी हठ छोड़ दे, किंतु रत्नावती टस-से-मस न हुई और वह बार-बार अपने प्राण त्यागने की धमकी देती रही।
तब वह वणिक शीघ्रता से राजा के पास पहुँचा और अपना सब देकर भी राजा से उस चोर की मुक्ति मांगी। किंतु राजा ने सौ-करोड़ स्वर्ण मुद्राओं के बदले भी उस चोर को मुक्त करने से स्पष्ट इन्कार कर दिया। वणिक असफल होकर घर लौटा और जब उसने राजा के इन्कार के बारे में रत्नावती को बताया तो वह हठीली भी सबके समझाने-बुझाने के बाद भी चोर के साथ ही मरने को तैयार हो गई।
वह स्नान करके एक पालकी में बैठकर वध-भूमि में गई। पीछे-पीछे रोते हुए उसके माता-पिता एवं बंधु-बांधव भी वध-भूमि में पहुँच गए।
इसी बीच वधिकों (जल्लादों) ने चोर को सूली पर चढ़ा दिया था। सूली पर टंगे हुए उसके प्राण छटपटा रहे थे, तभी अपने कुटुम्बियों के साथ आती हुई रत्नावती पर उसकी निगाह पड़ी। लोगों से उसका वृत्तांत सुनकर उस चोर ने क्षण-भर तो आँसू बहाए, फिर वह खिलखिलाकर हँस पड़ा और ऐसी ही अवस्था में उसने अपने प्राण त्याग दिए।
बाद में उस साध्वी वणिक-पुत्री ने उस चोर के शरीर को सूली पर से उतरवाया और उसे लेकर श्मशान भूमि में उसके साथ चिता में जलने के लिए बैठ गई।
उसी समय आकाशवाणी हुई और उस श्मशान में भगवान शंकर ने अदृश्य रूप पहुँचकर कहा, “पतिव्रते! स्वयं मरे हुए इस पति के प्रति तुमने जो भक्ति दिखलाई है, उससे मैं संतुष्ट हुआ हूँ। अतः मुझसे कोई वर मांगो।”
यह सुनकर रत्नावती ने देवाधिदेव महादेव को प्रणाम करके उनसे यह वर मांगा, “हे देव! मेरे पिता का कोई पुत्र नहीं है, उनको सौ पुत्रों की प्राप्ति हो। मेरे अतिरिक्त उनके यहाँ कोई संतान नहीं है। अतः मेरे बिना वे जीवित नहीं रहेंगे।”
उस साध्वी के ऐसा कहने पर भगवान शिव उससे पुनः बोले, “तुम्हारे पिता को सौ पुत्र प्राप्त होंगे, लेकिन तुम कोई दूसरा वर मांगो क्योंकि तुम्हारे जैसी वीर हृदय के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है।”
यह सुनकर उसने कहा, “हे प्रभु! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरे पति जीवित हो जाएँ और धर्म-कर्म में इनकी मति स्थिर रहे।”
“ऐसा ही होगा। तुम्हारा पति अक्षत शरीर जी उठे, धर्म में इसकी मति स्थिर रहे और राजा वीरकेतु इस पर प्रसन्न हो।” आकाश से अदृश्य रूप में स्थित भगवान शिव ने ज्योंही ऐसा कहा, त्योंही वह चोर अक्षत शरीर जीवित होकर उठ बैठा।
यह देख वणिक रत्नदत्त विस्मित भी हुआ और प्रसन्न भी। वह प्रसन्नतापर्वक अपनी पुत्री और जमाता को अपने बंधु-बांधवों सहित अपने घर ले गया। बाद में पुत्र प्राप्ति का वर पाये हुए रत्नदत्त ने प्रसन्नतापूर्वक खूब धूमधाम से एक उत्सव का आयोजन किया, जिसमें उसने राजा सहित पूरे नगर को भोज के लिए आमंत्रित किया।
जब राजा ने यह समाचार सुना तो संतुष्ट होकर उसने चोर को बुलाकर अपना सेनापति बना दिया। उस अद्वितीय वीर चोर ने भी चोरी की वृत्ति छोड़ दी और उस वणिक-पुत्री से विवाह करके राजा के अनुकूल रहकर सन्मार्ग अपना लिया।
राजा को यह कथा सुनाकर और उसे शाप का भय दिखाकर उसके कंधे पर बैठे बेताल ने पूछा, “राजन, अब तुम यह बताओ कि उस वणिक-पुत्री को अपने माता-पिता के साथ आई देखकर सूली पर टंगा हुआ वह चोर पहले रोया क्यों और फिर हँसा क्यों?”
राजा ने उत्तर में कहा, “बेताल! वह चोर रोया तो इस दुःख से था कि ‘यह वणिक जो मेरा अकारण बंधु बना, उससे मैं उऋण नहीं हो सका और हँसा इस विस्मय से कि पति रूप में राजाओं का भी तिरस्कार करने वाली यह कन्या ऐसी स्थिति में पड़े हुए मेरे प्रति कैसे अनुरक्त हो गई?’ सच है, स्त्री का चित्त बड़ा विचित्र होता है।”
राजा से अपने प्रश्न का सटीक उत्तर पाकर वह मायावी बेताल अपनी शक्ति के द्वारा राजा के कंधे से उतरकर पुनः शिंशपा-वृक्ष की ओर उड़ गया। राजा भी पहले ही की तरह उसके पीछे-पीछे चल पड़ा।
राजा विक्रमादित्य बेताल को लाने के लिए पुनः शिंशपा वृक्ष के नीचे पहुँच गया। उसने बेताल को उतारकर अपने कंधे पर डाला और चलना शुरू किया। बेताल ने राजा विक्रम को फिर से यह कहानी सुनानी शुरू की – शशिप्रभा किसकी पत्नी?