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सत्त्वशील साहसी या राजा? – विक्रम बेताल की कहानी

“सत्त्वशील साहसी या राजा?” बेताल पच्चीसी की प्रसिद्ध कहानी है। इसमें राजा विक्रम अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से बेताल की कठिन पहेली का समाधान करने में सफल होता है। अन्य कहानियां पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – विक्रम बेताल की कहानी

मदनसुंदरी का पति” कहानी में पूछी पहेली का सही उत्तर विक्रम से मिलने के बाद बेताल फिर उड़कर वृक्ष पर पहुँच गया। राजा विक्रमादित्य ने पुनः शिंशपा-वृक्ष के समीप जाकर बेताल को नीचे उतारा और उसे कंधे पर उठाकर वापस लौट पड़ा। उसे लेकर जब वह वहां से चला तो मार्ग में बेताल फिर बोला, “राजन! मुझे पाने के लिए तुम बहुत ही परिश्रम कर रहे हो। तुम्हारे श्रम को भुलाने के लिए इस बार मैं तुम्हें एक नई कथा सुनाता हूं।”

पूर्व सागर के तट पर ताम्रलिप्त नाम की एक नगरी है। प्राचीन काल में वहां चंद्रसेन नाम का एक राजा राज करता था। वह राजा महाप्रतापी था। वह शत्रुओं का धन तो छीन लेता था किंतु पराए धन या संपत्ति को हाथ भी नहीं लगाता था। वह पर-स्त्रियों से तो मुंह फेरे रहता था किंतु रणभूमि में अपने दुश्मनों का वध करते हुए उसे तनिक भी संकोच नहीं होता था।

एक बार उस राजा की ड्योढ़ी पर दक्षिण का सत्त्वशील नामक एक राजकुमार आया। उसने राजा के पास अपने आने की सूचना भिजवाई और अपने अन्य साथियों सहित उनके सम्मुख अपनी निर्धनता दिखाने के लिए, चीथड़े फाड़े।

वह वहां प्रत्याशी बनकर अनेक वर्षों तक राजा की सेवा करता रहा किंतु राजा से कोई पुरस्कार न पा सका। तब उसने सोचा, “राजकुल में जन्म पाने के बाद भी मैं इतना दरिद्र क्यों हूं? और दरिद्र होने पर भी मेरे मन में विधाता ने इतनी महत्त्वाकांक्षा क्यों दी है? मैं अपने साथियों के साथ इस प्रकार राजा की सेवा कर रहा हूं और भूख से कष्ट पा रहा हूँ, फिर भी राजा ने हमारी ओर आंख उठाकर भी नहीं देखा।”

सत्त्वशील यह बातें सोच ही रहा था कि एक दिन राजा आखेट को निकला। घोड़ों और पैदल चलने वालों के साथ वह भी राजा के साथ वन में गया। आखेट करते हुए राजा ने उस वन में एक विशाल मतवाले सुअर का दूर से पीछा किया। उसका पीछा करता हुआ वह बहुत दूर एक दूसरे वन में जा पहुंचा। वहां घास-पात से ढके मैदान में सुअर गायब हो गया और थके हुए राजा को उस महावन में, दिशाभ्रम हो गया। हवा से बातें करने वाले घोड़े पर सवार राजा के पीछे-पीछे भूख और प्यास से व्याकुल सत्त्वशील उसे खोजता हुआ पैदल ही किसी प्रकार उसके पास पहुँचा।

उसे ऐसी बुरी हालत में देखकर राजा ने स्नेहपूर्वक पूछा, “सत्त्वशील, क्या तुम वह मार्ग जानते हो, जिससे हम यहां आए थे?”

यह सुनकर सत्त्वशील ने हाथ जोड़कर कहा, “हाँ, श्रीमान! मैं वह मार्ग जानता हूं। लेकिन अभी कुछ देर यहां विश्राम करें, क्योंकि अभी बहुत तेज गर्मी है। सूर्य देवता अभी बहुत तेजी से अपने तेज को पृथ्वी पर फैला रहे हैं।”

“ठीक है”, राजा ने कहा, “पर तुम यह तो देखो कि ऐसे में कहीं पानी भी मिल सकता है या नहीं? प्यास के कारण मेरा गला सूख रहा है।”

“देखता हूं श्रीमंत्”, यह कहकर सत्त्वशील एक ऊंचे वृक्ष पर चढ़ गया, जहां से उसे एक नदी दिखाई पड़ी।

वृक्ष से उतरकर वह राजा को वहां ले गया। तत्पश्चात् राजा को जल पिलाकर उसकी थकान दूर की। राजा के पानी पी लेने के पश्चात् उसने अपने कपड़े की खूँट से कुछ मधुर आंवले निकाले और उन्हें धोकर राजा के समक्ष पेश किया।

जब राजा ने उससे यह पूछा कि “यह कहां से लाए?” तब वह अंजलि में आंवले लिए हुए घुटनों के बल बैठ गया और राजा से बोला, “हे स्वामी, मैं पिछले दस वर्षो से इन आंवलों पर ही निर्वाह करता हुआ बौद्धमुनि का व्रत धारण करके आपकी आराधना कर रहा हूं।”

“इसमें संदेह नहीं कि सच्चे अर्थों में तुम्हारा मन सत्त्वशील है।” ऐसा कहकर कृपावश उस राजा ने सोचा, ‘उन राजाओं को धिक्कार है जो सेवकों का दुःख नहीं जानते और उनके मंत्रियों को भी धिक्कार है जो अपनी वैसी स्थिति राजा को नहीं बतलाते।’ यह सोचकर, सत्त्वशील के बहुत कहने-सुनने पर राजा ने उसके हाथ से दो आंवले लेकर खाए और जल पीया। अनन्तर, सत्त्वशील ने भी जल पिया और राजा के साथ वहां कुछ देर विश्राम किया।

बाद में सत्त्वशील ने घोड़े पर जीन कसी और उस पर राजा को सवार कराया। वह स्वयं राह दिखाता हुआ आगे-आगे चला। राजा के बहुत कहने पर भी वह उसके घोड़े पर पीछे नहीं बैठा। रास्ते में राजा के बिछुड़े हुए सैनिक भी मिल गए और सबको साथ लेकर वे राजधानी लौट आए।

राजधानी में पहुंचकर राजा ने उसकी स्वामिभक्ति का वृत्तांत सबको सुनाया, लेकिन उसे भरपूर धन और धरती देकर भी अपने को उऋण नहीं माना। इस तरह सत्त्वशील कृतार्थ हुआ। प्रत्याशी का रूप छोड़कर राजा चंद्रसेन के निकट रहने लगा।

एक बार राजा ने उसे अपने लिए सिंहल नरेश की कन्या मांगने हेतु सिंहल द्वीप भेजा। समुद्र मार्ग से जाने के लिए सत्त्वशील ने अपने अभीष्ट देवता का पूजन किया और राजा की आज्ञा से ब्राह्मणों सहित जहाज पर सवार हुआ।

जहाज जब आधे रास्ते में पहुंचा, तभी अचानक एक आश्चर्य हुआ। उस समुद्र के भीतर से एक ध्वज ऊपर उठा। वह ध्वज उत्तरोत्तर ऊपर उठता गया और उसकी ऊंचाई बहुत अधिक हो गई। उस ध्वज का दंड सोने से बना हुआ था और उस पर रंग-बिरंगी पताकाएं फहरा रही थीं। अचानक उसी समय आकाश में घटाएं घिर आईं, मूसलाधार वर्षा होने लगी और हवा की गति तीव्र हो उठी।

जिस प्रकार हाथी को बलपूर्वक खींचा जाता है, उसी प्रकार वर्षा और वायु के द्वारा खिंचकर सत्त्वशील का जहाज उस ध्वज-स्तंभ से जा बंधा | उस जहाज पर जो ब्राह्मण थे, वे भयभीत होकर अपने राजा चंद्रसेन को पुकारते हुए चिल्लाने लगे, “हे राजन, हमें बचा लो। यह क्या अनर्थ हो रहा है।”

जब उनका रोना-चिल्लाना सत्त्वशील से न सुना गया तो वह स्वामिभक्त हाथ में तलवार लेकर अपने वस्त्र समेटकर ध्वज के निकट समुद्र में कूद पड़ा। वास्तविक कारण न जानने पर भी उसने समुद्र के इस उपद्रव का प्रतिकार करने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी।

सत्त्वशील जब समुद्र में कूदा, तब वायु के प्रचंड झोंकों और समुद्र की लहरों ने उसके जहाज को दूर फेंक दिया। जहाज खंड-खंड हो गया और उसमें बैठे लोग समुद्री जलचरों का भोजन बन गए। सत्त्वशील ने समुद्र में डुबकी लगाने के बाद जब चारों तरफ देखा तो वहां समुद्र के बदले उसे एक सुन्दर नगरी दिखाई पड़ी। उस नगरी में मणियों के खम्बों वाले चमकते स्वर्ण-भवन थे, उत्तम रत्नजड़ित गलियां थीं और शोभा से परिपूर्ण अनेक उद्यान थे।

वहां उसने मेरु पर्वत के समान ऊंचा कात्यायनी देवी का मंदिर देखा, जिसकी दीवारें अनेक प्रकार की मणियों से बनी थीं और जिसके ध्वज पर अनेक वर्णों के रत्न टंके थे। वहां देवी को प्रणाम करके स्तुतिपूर्वक उनका पूजन करके वह यह सोचता हुआ कि ‘यह कैसा इंद्रजाल है’, देवी के सम्मुख बैठ गया।

इसी समय किवाड़ खोलकर देवी के आगे वाले प्रभामंडल से अचानक ही एक अलौकिक कन्या निकल आई। उसकी आंखें इन्दीवर के समान थीं और शरीर खिले हुए कमल जैसा। हंसी फूलों की तरह थी और शरीर के अंग कमलनाल के समान कोमल थे। वह किसी चलती-फिरती खिली कमलिनी के समान थी। अपनी सखियों से घिरी वह कन्या देवी मंदिर के प्रकोष्ठ से बाहर निकल आई किंतु सत्त्वशील के हृदय से किसी भी तरह न निकल सकी। वह फिर उस प्रभामंडल के भीतर चली गई और सत्त्वशील भी उसी के पीछे-पीछे चल पड़ा।

प्रभामंडल में प्रवेश करके सत्त्वशील ने देवताओं के योग्य एक दूसरा नगर देखा। वह नगर मानो समस्त भोग-संपदाओं के मिलन-उद्यान के समान था।

वहां उसने उस कन्या को एक मणि-पर्यक पर बैठे देखा। सत्त्वशील भी आगे बढ़कर उसके समीप ही बैठ गया। चित्रलिखित-सा सत्त्वशील, टकटकी लगाकर उस कन्या की ओर देखने लगा। उसके अंग कांप रहे थे और शरीर रोमांचित हो रहा था, जिससे आलिंगन की उत्कंठा प्रकट होती थी। सत्त्वशील को इस प्रकार कामातुर देखकर कन्या ने अपनी सखियों की ओर देखा। उसका इशारा समझ कर सखी बोली, “आप यहां हमारे अतिथि हैं, श्रीमंत, अतः हमारी स्वामिनी का आतिथ्य ग्रहण कीजिए। उठिए, चलकर स्नान करके, उसके बाद भोजन कीजिए।”

यह सुनकर सत्त्वशील को कुछ आशा बंधी और वह नहाने के लिए उस कन्या की सखी के साथ एक सरोवर की ओर चल पड़ा, जो वहीं निकट ही था।

सत्त्वशील ने सरोवर में डुबकी लगाई लेकिन जब वह ऊपर आया तो वहां का सारा दृश्य ही बदला हुआ नजर आया। वह कन्या और उसकी सखियां गायब हो चुकी थीं और वह स्वयं भी ताम्रलिप्त नगर में राजा चंद्रसेन के उद्यान के एक तालाब में आ पहुंचा था।

यह देखकर सत्त्वशील को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह सोचने लगा, “अरे, यह कैसा आश्चर्य है। मैं तो उस अलौकिक नगरी के सरोवर में नहाने के लिए जल में उतरा था और आ पहुंचा यहाँ। वह कन्या और उसकी सखियां भी गायब हैं, तो उस कन्या ने मुझे मूर्ख बनाया है?”

यह सोचता हुआ वह उस उद्यान में घूमने और विलाप करने लगा। कन्या से मिलने की इच्छा में उसकी दशा पागलों जैसी हो गई।

उस उद्यान के माली ने उसे ऐसी हालत में देखा तो उसने तुरंत राजा चंद्रसेन को सूचना पहुंचाई। इस पर राजा चंद्रसेन स्वयं ही सत्त्वशील को देखने अपने उद्यान में पहुंचा। राजा चंद्रसेन ने उसे सांत्वना दी और पूछा, ‘”मित्र, तुम्हें यह पागलपन कैसे हो गया? मुझे बताओ मित्र, शायद मैं कुछ तुम्हारी सहायता कर सकूँ।”

सांत्वना-भरे शब्द सुनकर सत्त्वशील के हृदय को थोड़ा धैर्य-सा मिला। तब उसने अपने साथ जो कुछ भी घटा था, सब सिलसिलेवार राजा चंद्रसेन से कह सुनाया।

सुनकर राजा ने कहा, “तुम व्यर्थ का शोक मत करो, मित्र। मैं तुम्हें उसी मार्ग से ले जाकर तुम्हारी प्रिया, उस असुर कन्या के पास पहुंचा दूंगा।”

अगले दिन मंत्री को राज्य-भार सौंपकर और एक जहाज पर सवार होकर राजा चंद्रसेन सत्त्वशील के साथ चल पड़ा। बीच समुद्र में पहुंचकर सत्त्वशील ने पहले की ही तरह पताका के साथ ध्वज को उठता देखकर राजा से कहा, “यही वह दिव्य प्रभाव वाला महाध्वज है। ध्वज के पास जब मैं कूद पडूं तब आप भी कूद जाइएगा।

तब वे दोनों ध्वज के निकट पहुंचे और जब ध्वज डूबने लगा, तब बीच में ही सत्त्वशील समुद्र में कूदा। डुबकी लगाने के बाद वे दोनों उसी दिव्य नगर में जा पहुंचे। वहां राजा ने आश्चर्यपूर्वक देखते हुए देवी पार्वती को प्रणाम किया और सत्त्वशील के साथ वहीं बैठ गया।

उसी समय उस प्रभामंडल से अपनी सखियों सहित वह कन्या बाहर निकल आई, जिसे देखकर सत्त्वशील ने बताया, “राजन, यही है वह सुन्दरी, जिससे मैं प्रेम करने लगा हूं।”

उस कन्या ने भी राजा को देख लिया था। वह कन्या जब कात्यायनी देवी के मंदिर में पूजन करने चली गई तो राजा चंद्रसेन सत्त्वशील को साथ लेकर उद्यान में चला गया।

कन्या जब पूजन समाप्त करके मंदिर से बाहर निकली तो उसने अपनी सखी से कहा, “सखी, जरा जाकर देखो तो मैंने जिन महापुरुष को यहां देखा था, वे कहां हैं? मुझे वह कोई श्रेष्ठ व पूज्य पुरुष महसूस हुए थे, अतः उनसे प्रार्थना करो कि वे यहां पधारें और हमारा आतिथ्य स्वीकार करें।”

सखी जब राजा चंद्रसेन और सत्त्वशील के पास पहुंची और उन्हें कन्या का संदेश सुनाया तो चंद्रसेन ने उपेक्षा से कहा, “हमारा इतना ही आतिथ्य बहुत है। अधिक की कोई आवश्यकता नहीं है।”

कन्या की सखी ने लौटकर जब यही बात उसे बताई तो वह असुर कन्या उससे मिलने को और भी व्यग्र हो गई। इस बार वह स्वयं उन दोनों के पास पहुंची और उनसे आतिथ्य ग्रहण करने का निवेदन किया।

इस पर राजा चंद्रसेन ने सत्त्वशील की ओर संकेत करते हुए उस कन्या से कहा, “मैं इनके कहने के अनुसार देवी का दर्शन करने के लिए ध्वज-मार्ग से यहां आया था। मैंने माता कात्यायनी के परम अद्भुत मंदिर और उसके बाद तुमको भी देखा। उसके बाद हमें और किस आतिथ्य की आवश्यकता है?”

यह सुनकर वह कन्या बोली, “तब आप लोग त्रिलोक में अद्भुत मेरे दूसरे नगर को देखने के लिए कौतूहल से ही मेरे साथ चलिए।” उस कन्या के ऐसा कहने पर राजा चंद्रसेन ने हंसकर कहा, “इस सत्त्वशील ने मुझे उसके बारे में भी बतलाया है। वहां पर स्नान करने के लिए एक सरोवर भी है।”

तब उस कन्या ने कहा, “देव, आप ऐसी बात न कहें। मै यों ही धोखा देने वाली नहीं हूं। तब फिर, आप जैसे पूज्य को कैसे धोखा दे सकती हूं। मैं आप लोगों की वीरता के उत्कर्ष से आपकी अनुचरी हो गई हूं। अतः आपको इस प्रकार मेरी प्रार्थना अस्वीकार नहीं करनी चाहिए।”

असुर कन्या का ऐसा आग्रह सुनकर राजा चंद्रसेन मान गया और वह सत्त्वशील सहित प्रभा-मंडल के निकट जा पहुंचा। वह कन्या उन्हें किसी प्रकार खुले दरवाजे से अंदर ले गई, जहां उन्होंने उसके दूसरे अलौकिक नगर को देखा।

वह सचमुच एक विलक्षण नगर था। वहां सभी वस्तुएं सदा वर्तमान रहती थीं। वृक्षों में फूल और फल बने रहते थे और वह समूची नगरी रत्न तथा सुवर्ण से बनी हुई थी। उस नगरी की भव्यता ऐसी थी जैसे वे दोनों सुमेरु पर्वत पर आ पहुंचे हों।

असुर कन्या ने एक सुन्दर कक्ष में उन्हें ले जाकर बहुमूल्य रत्न जड़ित सिंहासन पर बैठाया और अनेक प्रकार से उनका आतिथ्य सत्कार करके अपना परिचय दिया, ”मैं असुरराज कालनेमि की कन्या हूं। मेरे पिताजी की मृत्यु चक्रधारी विष्णु के चक्र से हुई थी। यहां जरा (वृद्धापन) और मृत्यु की बाधा नहीं होती और सभी मनोकामनाएं स्वतः ही पूरी हो जाती हैं।”

फिर उसने राजा चंद्रसेन से प्रार्थना की, “अब आप ही मेरे पिता हैं और इन दोनों नगरों के साथ मैं आपके अधीन हूं। मेरी प्रार्थना स्वीकार करके आप मुझे अनुग्रहित कीजिए!” इस प्रकार जब उस कन्या ने अपना सब कुछ राजा को सौंप दिया, तब वह कन्या से बोला, “बेटी, यदि ऐसी ही बात है तो मैं तुम्हें इस सत्त्वशील के साथ विवाह बंधन में बांधता हूं। यह वीर है, धीर है और दोषरहित है। अब यह मेरा मित्र भी है और संबंधी भी।”

राजा के इस आग्रह को असुर कन्या ने तत्काल स्वीकार कर लिया और सत्त्वशील के साथ विवाह रचा लिया। सत्त्वशील के मन की साध पूरी हो गई और उसने राजा चंद्रसेन का बहुत-बहुत आभार माना। विदाई के समय राजा चंद्रसेन ने सत्त्वशील से कहा, “मित्र, तुम्हारे मैंने दो आंवले खाए थे। उनमें से एक का ऋण तो मैंने चुका दिया है, एक का ऋण मुझ पर अभी बाकी है।”

फिर उसने असुर कन्या से कहा, “बेटी, मुझे मार्ग दिखलाओ क्योंकि अब मैं अपने नगर को लौट जाना चाहता हूं।” राजा के ऐसा कहने पर उस असुर कन्या ने उन्हें ‘अपराजित’ नाम का खड्ग और खाने के लिए एक ऐसा फल दिया जिससे न तो राजा पर कभी बुढ़ापा आए और न ही उसे मृत्यु का भय सताए।

फिर उन दोनों चीजों को लेकर असुर कन्या द्वारा बतलाए सरोवर में डुबकी लगाकर राजा वापस अपने देश जा पहुंचा। सत्त्वशील भी सुखपूर्वक उस असुर कन्या के साथ दोनों नगरों पर शासन करने लगा।

यह कथा सुनाकर बेताल ने विक्रमादित्य से पूछा, “राजन, अब तुम मुझे यह बतलाओ कि समुद्र में डुबकी लगाने का उन दोनों में से किसने अधिक साहस दिखाया? जानते हुए भी यदि तुम इस प्रश्न का उत्तर न दोगे तो तुम्हारे सिर के कई टुकड़े हो जाएंगे।”

तब बेताल के प्रश्न का उत्तर राजा ने इस प्रकार दिया, “हे बेताल, उन दोनों में मुझे सत्त्वशील ही अधिक साहसी लगा क्योंकि वह वस्तुस्थिति को न जानते हुए, बिना किसी आशा के समुद्र में कूदा था। जबकि, राजा चंद्रसेन को सभी बातें पहले से ही मालूम थीं और वह विश्वास के साथ समुद्र में कूदा था। वह असुर कन्या को भी नहीं जानता था क्योंकि वह जानता था कि इच्छा होने पर भी वह उसे पा नहीं सकेगा।”

“तुमने सही उत्तर दिया राजन! किंतु मेरे प्रश्न का उत्तर देने में तुमने अपना मौन भंग कर दिया इसलिए मैं चला।” यह कहकर बेताल विक्रमादित्य के कंधे से खिसककर पुनः उसी वृक्ष की ओर उड़ गया।

राजा भी उसी प्रकार फिर से उसे लाने के लिए तेजी से लौट पड़ा।

राजा विक्रमादित्य बेताल को लाने के लिए पुनः शिंशपा वृक्ष के नीचे पहुँच गया। उसने बेताल को उतारकर अपने कंधे पर डाला और चलना शुरू किया। बेताल ने राजा विक्रम को फिर से यह कहानी सुनानी शुरू की – तीन चतुर पुरुष

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