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शशिप्रभा किसकी पत्नी? – विक्रम बेताल की कहानी

“शशिप्रभा किसकी पत्नी?” नामक यह कहानी बेताल पच्चीसी की पंद्रहवीं कथा है। इस कहानी में राजा विक्रमादित्य अपनी मेधा से पहेली को हल करता है कि मनःस्वामी और शशि में से राजकुमारी शशिप्रभा किसकी पत्नी है। बेताल पच्चीसी की शेष कहानियाँ पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – विक्रम बेताल की कहानियाँ

रत्नावती और चोर की पहेली का उत्तर पाकर बेताल उड़ गया। पहले की ही भांति राजा विक्रमादित्य पुनः उस शिंशपा-वृक्ष के पास जा पहुँचा। बेताल को उतारकर कंधे पर डाला और ख़ामोशी से अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा। रास्ते में फिर बेताल ने मौन भंग करते हुए कहा, “राजन! सचमुच ही तुम बहुत परिश्रम कर रहे हो। तुम्हारे श्रम को भुलाने के लिए इस बार मैं तुम्हें यह कथा सुनाता हूँ, कितु शर्त वही रहेगी कि कथा के दौरान तुम मौन धारण किए रहोगे। यदि तुमने मौन भंग किया तो मैं पुनः अपने स्थान पर लौट जाऊंगा।”

विक्रमादित्य ने सहमति जताई तो बेताल ने उन्हें यह कथा सुनाई–

नेपाल में शिवपुर नाम का एक नगर था। वहां यशःकेतु नाम का एक राजा राज करता था। वह राजा अपने नाम के अनुसार ही यशस्वी था। प्रज्ञासागर नाम के अपने मंत्री को राज्यभार सौंपकर वह चंद्रप्रभा नाम की अपनी रानी के साथ सुख-भोग करता था। समय पाकर अपनी रानी से उसे शशिप्रभा नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई। जब वह कन्या युवती हुई, तब एक बार बसंत ऋतु में यात्रा उत्सव देखने के लिए राजा अपनी रानी एवं कन्या सहित यात्रा का मेले देखने के लिए निकले।

उस मेले में एक धनी बाप का बेटा मनःस्वामी नाम का एक ब्राह्मण भी आया हुआ था। मेले के एक भाग में फूल चुनने को उद्यत उसने शशिप्रभा को देखा तो उस पर मोहित हो गया। मनःस्वामी सोचने लगा, “क्या यह रति है, जो कामदेव का बाण बनाने के लिए बसंत के द्वारा सुसज्जित पुष्पों को एकत्र कर रही है अथवा यह कोई वनदेवी है जो बसंत-पूजन करने की इच्छा रखती है?”

वह ऐसा सोच ही रहा था कि उस राजकुमारी ने भी उसे देख लिया। कामदेव के समान मनःस्वामी को देखते ही वह भी उत्कंठित हो गई। तब न उसे फूलों की सुध-बुध रही, न अपने अंगों तथा अपने शरीर की। इस प्रकार वे एक-दूसरे के प्रेमरस में लीन रहे। उसी समय ‘हाय-हाय’ का शोर सुनाई दिया।

‘क्या हुआ’ यह जानने के लिए कंधे उचकाकर जब उन दोनों ने देखा तो उन्हें दौड़कर आता हुआ एक उन्मत्त हाथी दिखाई पड़ा। किसी दूसरे हाथी की गंध पाकर वह हाथी उन्मत्त हो गया था, जो अपने खूटों को उखाड़कर वृक्षों को रौंदता हुआ उसी दिशा में आ रहा था। उस पर महावत का एक अंकुश भी लटका दिखाई दे रहा था।

उसे देखकर भय से घबराए हुए राजकुमारी के अंगरक्षक भाग निकले। तब मनःस्वामी ने दौड़कर अकेले ही राजकुमारी को अपने दोनो हाथों से उठा लिया। राजकुमारी को, जो उसके अंगों से थोड़ा सटी हुई थी और भय, प्रीति एवं लज्जा से व्याकुल हो रही थी, मनःस्वामी हाथी की पहुँच से बाहर, उसे बहुत दूर ले गया।

जब उसके रक्षक निकट आए तो उन्होंने मनःस्वामी की बहुत प्रशंसा की ओर राजकुमारी को उसके महल में ले गए। जाती हुई राजकुमारी बार-बार पलटकर मनःस्वामी को देखती जाती थी।

अपने महल में विकल होकर वह अपने प्राणरक्षक का स्मरण करती हुई कामाग्नि में दिन-रात जलती हुई-सी रहने लगी।

राजकुमारी अपने अन्तःपुर में चली गई, यह देखकर मनःस्वामी भी उस उद्यान से लौट आया और उत्कंठित होकर सोचने लगा, “इसके बिना अब मुझमें जीने का उत्साह नहीं रह गया।” अतः वह अपने सिद्ध और धूर्त गुरु मूलदेव के पास पहुँचा। मूलदेव अपने शशि नामक एक मित्र के साथ रहता था। उन्होंने माया के अद्भुत मार्ग सिद्ध कर लिए थे। अतः उन्हें मायावी शक्तियों का बहुत ज्ञान था। मनःस्वामी ने उनके पास जाकर जब अपनी समस्या बताई तो मूलदेव ने उसे पूरा करने का आश्वासन दे दिया।

अनन्तर, धूर्त शिरोमणि उस मूलदेव ने अपने मुँह में एक मंत्र सिद्ध गोली डाल ली और अपने को एक वृद्ध ब्राह्मण के रूप में बदल लिया। एक दूसरी गोली उसने मनःस्वामी के मुँह में डालने को दी, जिससे वह एक सुन्दर कन्या बन गया।

मूलदेव मनःस्वामी को लेकर उस राजकुमारी के पिता के पास पहुँचा और उसके पिता से बोला, “राजन, मेरा एक ही पुत्र है। मैं उसके लिए दूर से मांगकर इस कन्या को लाया हूँ किंतु इसी बीच मेरा पुत्र न जाने कहां चला गया है। मैं उसे ढूंढने के लिए जा रहा हूँ। अतः इस कन्या को आप अपने पास रख लें। आपके विश्वास पर इसे आपके आश्रय में रखकर मैं अपने पुत्र को ढूंढकर ले आऊंगा।”

यह सोचकर कि इन्कार करने पर कहीं यह सिद्ध पुरुष क्रुद्ध होकर कोई शाप न दे दे, राजा यशःकेतु ने उसकी बात स्वीकार कर ली और अपनी कन्या शशिप्रभा को बुलाकर कहा, “बेटी! तुम इस कन्या को अपने महल में ही रखना और इसका हर तरह से ख़्याल रखना। इसे किसी भी वस्तु की आवश्यकता हो, उसे भली-भाँति पूर्ण करना।”

राजकुमारी ने अपने पिता की आज्ञा शिरोधार्य की और वह कन्या बने मनःस्वामी को अपने राजमहल में ले गई।

महल में आई इस कन्या के साथ राजकुमारी थोड़े ही दिनों में हिल-मिल गई और उस पर सखियों जैसी प्रीति तथा विश्वास करने लगी।

एक बार रात के समय जब कन्या के वेश में अपने को छिपाए हुए मनःस्वामी राजकुमारी की शय्या के निकट ही एकान्त में सोया हुआ था, तब उसने विरह से व्याकुल राजकुमारी से, जो अपनी सेज पर छटपटा रही थी, पूछा, “सखी, तुम्हारी कान्ति पीली पड़ गई है। तुम दिन-प्रतिदिन दुबली होती जा रही हो। शशिप्रभा, तुम ऐसी दुःखी प्रतीत हो रही हो जैसे अपने प्रियतम से तुम्हारा विछोह हो गया हो। मुझे सारी बात सच-सच बताओ, क्योंकि सखियों से दुराव उचित नहीं होता। यदि तुम मुझे सारी बातें सच नही बताओगी तो मैं अन्न-जल त्यागकर आमरण अनशन शुरू कर दूंगी।”

यह सुनकर राजकुमारी ने गहरी साँस ली और धीरे से कहा, “सखी, भला तुम पर अविश्वास कैसा? तुम अगर जानना चाहती हो तो सुनो–एक बार मे बसंतोद्यान में होने वाली यात्रा देखने गई थी। वहाँ मैंने एक सुन्दर ब्राह्मण कुमार को देखा। उसकी सुंदरता हिमयुक्त चंद्रमा के समान थी। उसे देखते ही मेरी कामना उद्दीप्त होने लगी। मैं उसके चेहरे की ओर एकटक देखने लगी। तभी कालमेघ के समान चिंघाड़ता हुआ एक हाथी वहाँ आया। उसने अपना बंधन तोड़ दिया था। उस हाथी के माथे से मद-जल झर रहा था। उस विशालकाय हाथी को देखकर मेरे अंगरक्षक भाग खड़े हुए। मैं भी बेहद भयभीत हो उठी। तभी तीर के समान वह ब्राह्मण कुमार मेरी ओर लपका और मुझे अपनी बाहों में उठाकर हाथी की पहुँच से दूर ले गया। चंदन लगे अमृत से सिक्त जैसे उसके शरीर के स्पर्श से मेरी दशा न जाने कैसी हो गई। मैं उसके शरीर के स्पर्श का आनंद लेती रही। स्वयं को उसकी गोद से उतारने का मैंने तनिक भी प्रयास नहीं किया। तभी मेरे रक्षक आ पहुँचे और मैं लाचार होकर उनके साथ वापस महल चली आई। तभी से अपनी रक्षा करने वाले उस युवक को मैं सपनों में देखती रहती हूँ। मैं सोते समय स्वप्न में देखती हूँ कि वह मेरी ख़ुशामद कर रहा है और सहसा चुम्बन-आलिंगन के द्वारा मेरी लज्जा दूर करने का प्रयत्न करता है, किंतु मैं अभागिनी उसका नाम आदि न जानने के कारण उसे पा नहीं सकती। इस तरह प्रियतम के विरह की आग मेरा हृदय जलाती रहती है।”

राजकन्या की इन बातों से कन्या का रूप धारण किए हुए उस ब्राह्मण युवक मनःस्वामी को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसे लगा जैसे किसी ने अमृतरस पिला दिया हो। उसने कृतार्थ होकर और अपने को प्रकट करने का अवसर जानकर अपने मुँह से गोली निकाली और अपना असली रूप धारण कर लिया।

उसने कहा, “हे चंचल आँखों वाली, मैं ही वह व्यक्ति हूँ जिसे उस उद्यान में दर्शन देकर तुमने ख़रीद लिया था। हे सुन्दरी! पल-भर के परिचय के बाद ही तुमसे अलग होने पर मुझे जो कष्ट हुआ, उसी का यह परिणाम है कि मुझे स्त्री का रूप धारण करना पड़ा है। अतः मेरी और अपनी इस असहाय विरह व्यथा को दूर करो, क्योंकि मैं इससे अधिक विरह व्यथा सहन नहीं कर सकता।”

अपने प्रियतम को सामने पाकर शशिप्रभा भाव-विह्वल हो उठी और प्रसन्नता से मनःस्वामी से ऐसे चिपक गई जैसे कोई लता वृक्ष से चिपकती है। उन्होंने उसी समय गांधर्व विधि से विवाह कर लिया। फिर दोनों प्रेमी अपनी इच्छा के अनुसार सुख-भोग करने लगे।

इस प्रकार सफल मनोरथ वाला वह मनःस्वामी दो रूप धारण करके राजमहल में ही रहने लगा। दिन में मुँह में गोली डालकर वह स्त्री बन जाता था और रात को गोली निकालकर पुरुष।

कुछ समय बीतने के पश्चात एक दिन राजा यशःकेतु के साले मृगांकदत्त ने अपनी कन्या मृगांकवती का विवाह प्रज्ञासागर नामक ब्राह्मण महामंत्री के पुत्र से कर दिया। विवाह के पश्चात् उन्होंने प्रज्ञासागर को बहुत-सा धन भी दिया।

विवाह का निमंत्रण पाकर राजकुमारी शशिप्रभा अपनी ममेरी बहन के विवाह में सम्मिलित होने के लिए अपने मामा के घर चली गई। उसके साथ उसकी सहेलियाँ और अनुचरियाँ भी गईं। सुन्दर स्त्री का रूप धारण किए मनःस्वामी भी उनके साथ गया। वहाँ जब मंत्री के पुत्र ने स्त्री का रूप धारण किए मनःस्वामी को देखा तो वह उसकी सुन्दरता पर मुग्ध हो गया और उसे प्राप्त करने की इच्छा करने लगा। उस कपट-कन्या (मनःस्वामी) ने मंत्री के पुत्र का चित्त चुरा लिया था। वह जब अपनी नवविवाहिता पत्नी के साथ घर लौटा, तब उसे सब कुछ सूना-सा जान पड़ा।

मंत्री के पुत्र का मन हर पल उसी के रूप-लावण्य के ध्यान में रमा रहने लगा। अन्ततः वह एक दिन तीव्र अनुराग के सर्प से डँसा जैसे पागल-सा हो उठा। मंत्रीपुत्र के बंधु-बांधव यह सोचकर घबरा उठे कि “यह क्या हुआ?” हँसी-ख़ुशी का उत्सव रोक दिया गया। यह वृत्तांत सुनकर उसका पिता प्रज्ञासागर भी वहाँ आ पहुँचा।

पिता ने जब उसे दिलासा दिया तो उसे कुछ होश आया। उसने उन्माद में प्रलय करते हुए अपनी मनोकामना अपने पिता को कह सुनाई। उसके पिता ने जब यह देखा कि स्थिति उसके हाथ से बाहर हो गई है तो वह बहुत व्याकुल हुआ। सारा वृत्तांत जानकर राजा भी वहाँ पहुँचे।

राजा ने जाकर देखा कि मनःस्वामी से गहरी वासना के कारण वह सातवीं मदनावस्था में पहुँच चुका है, तब शीघ्र ही उन्होंने अपने प्रजाजनों से कहा, “ब्राह्मण जिस कन्या को मेरे यहाँ रखकर गया है, उसे मैं इसको कैसे दे दूँ? लेकिन यह भी सत्य है कि उसके बिना यह अन्तिम दशा में पहुँच जाएगा। इसके मरने पर मेरा मंत्री भी जीवित न रहेगा, जो इसका पिता है। अब आप लोग ही बतलाइए कि क्या करना चाहिए?”

मदनावस्था की दस दशाएँ बताई गई हैं, जो इस प्रकार हैं–अभिलाषा, चिंता, स्मृति, गुणानुवाद, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता और स्मरण।

राजा की यह बातें सुनकर सभी प्रजाजनों ने कहा, “राजा का धर्म तो यही कहा गया है कि वह प्रजा के धर्म की रक्षा करे। धर्मरक्षा का मूल है परामर्श और वह परामर्श मंत्रियों से ही मिलता है। इस प्रकार मंत्री की मृत्यु से उस मूल का नाश हो जाता है। अतः धर्म की हानि नहीं होने देनी चाहिए। पुत्र सहित इसे मंत्री का वध करने का पाप लगेगा, अतः इसकी रक्षा अवश्य करनी चाहिए और आसन्न धर्म-हानि को रोकना चाहिए। ब्राह्मण जो कन्या आपके यहाँ छोड़ गया है, उससे मंत्रीपुत्र का विवाह कर देना चाहिए। ब्राह्मण जब लौटकर आएगा और क्रोध करेगा, तब उसका प्रबंध कर लिया जाएगा।”

प्रजाजनों का यह कहना राजा ने मान लिया। वह उस बनी हुई कन्या को मंत्रीपुत्र के हाथों सौंपने के लिए शुभ-मुहूर्त निश्चित करके राजकुमारी के घर से उसे ले आया। तब कन्या-रूप वाले मनःस्वामी ने राजा से कहा, “महाराज! मैं दूसरे के द्वारा किसी अन्य पुरुष के लिए लाई गई हूँ। हे राजन! यदि फिर भी आप मुझे किसी और को देना चाहते हैं तो वैसा ही करें। इससे जो धर्म या अधर्म होगा, वह आपका होगा। मैं विवाह तो करूंगी लेकिन तब तक अपने पति की सेज पर नहीं जाऊंगी जब तक कि ब्राह्मण छः माह का तीर्थ भ्रमण करके नहीं लौटेंगे। यदि ऐसा नहीं हुआ तो मैं दातों से अपनी जीभ काटकर अपना प्राणांत कर लूंगी।”

कन्या का रूप धारण करने वाले मनःस्वामी ने जब यह कहा तो राजा ने जाकर मंत्रीपुत्र को समझाया। उसने भी निश्चिंत होकर यह बात मान ली और शीघ्र ही उससे विवाह कर लिया।

अनन्तर, एक ही सुरक्षित घर में अपनी पहली पत्नी मृगांकवती और उस बनावटी पत्नी को रखकर स्त्री को प्रसन्न करने की इच्छा से वह मूर्ख तीर्थयात्रा के लिए बाहर चला गया। तत्पश्चात स्त्री रूप धारण किए मनःस्वामी मृगांकवती के साथ एक ही महल में रहने लगा।

मनःस्वामी को इस प्रकार वहाँ रहते हुए कुछ समय बीत गया। एक बार रात में जब वह मृगांकवती के शयनकक्ष में लेटा हुआ था और परिचारिकाएं बाहर सो रही थीं, तभी उससे मृगांकवती ने एकांत में कहा, “सखी, मुझे नींद नहीं आ रही, कोई कथा सुनाओ।”

यह सुकर मनःस्वामी ने उसे वह कथा सुनाई, जिसमें प्राचीन काल में सूर्यवंश के ऐल नामक राजश्री को गौरी के शाप से संसार को मोहित करने वाला स्त्री-रूप प्राप्त हुआ था। नंदनवन मे उसे देखकर बुध मोहित हो गए थे और एक-दूसरे की प्रीति मे हुए उनके संभोग से पुरुस्वा का जन्म हुआ था।

यह कथा सुनाकर उस धूर्त ने पुनः कहा, “इस तरह देवताओं के आदेश या मंत्र और औषधियों के प्रभाव से कभी-कभी पुरुष स्त्री बन जाते हैं और कभी स्त्री पुरुष बन जाती है। इस प्रकार कभी-कभी बड़ों में भी कामज संयोग हुआ करते हैं।”

मृगांकवती को विवाह के बाद ही उसका पति छोड़ गया था। मनःस्वामी के साथ रहने के कारण उसे उस पर भरोसा हो गया था। मनःस्वामी की बात सुनकर उसने कहा, “सखी, तुम्हारी यह कथा सुनते ही मेरा शरीर कांपने लगा है, हृदय बैठा-सा जा रहा है, बताओ तो भला यह कैसी बात है?”

यह सुनकर स्त्री बना मनःस्वामी उससे बोला, “सखी, तुममें काम की जागृति के यह अपूर्व लक्षण हैं। मैं तो इसका अनुभव कर चुकी हूँ, पर तुमसे मैंने नहीं कहा।”

उसके ऐसा कहने पर मृगांकवती धीरे से बोली, “सखी, तुम मेरे प्राणो के समान मुझे प्रिय हो। तुम समय को भी पहचानती हो। अतः मैं तुमसे क्या छिपाऊँ। किसी प्रकार से यहाँ किसी पुरुष का प्रवेश हो पाता, तो अच्छा था।”

मृगांकवती के ऐसा कहने पर धूर्त मनःस्वामी उसका आशय समय गया और बोला, “यदि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है तो तुम चिन्ता मत करो सखी। भगवान विष्णु की कृपा से मुझे एक ऐसा वरदान प्राप्त है कि मैं अपनी इच्छा से जब चाहूँ स्त्री बन जाऊँ और जब चाहूँ पुरुष। अगर तुम चाहती हो तो मैं तुम्हारे लिए पुरुष बन जाती हूँ।”

ऐसा कहकर मनःस्वामी ने अपने मुख से गोली निकाल ली और उसने यौवन से उद्दीप्त अपना सुन्दर पुरुष-रूप उसे दिखलाया। इस तरह जब वे एक-दूसरे का विश्वास प्राप्त कर चुके और उनकी सारी यंत्रणाएँ जाती रहीं, तो समय के अनुसार ये सुख-भोग करने लगे। अनन्तर, मंत्रीपुत्र की उस भार्या के साथ वह ब्राह्मण दिन को स्त्री और रात को पुरुष बनकर भोग-विलास में लिप्त रहने लगा।

कुछ समय बाद मंत्रीपुत्र के लौटने का समय निकट आया, तो जान-बूझकर मनःस्वामी मृगांकवती के साथ रात के समय भागकर चला गया। इन्हीं घटनाओं के बीच, सारा वृत्तांत सुनकर उसका गुरु मूलदेव बूढ़े ब्राह्मण के रूप में वहाँ फिर आया। उसके साथ युवक ब्राह्मण के रूप में उसका मित्र शशि भी आया। मूलदेव ने आकर राजा यशःकेतु से नम्रतापूर्वक कहा, “मैं अपने पुत्र को ले आया हूँ राजन। अब मेरी बहू मुझे लौटा दीजिए।”

तब शाप के भय से डरे हुए राजा ने सोच-विचार के साथ कहा, “हे ब्राह्मण, आपकी बहु तो न जाने कहाँ चली गई। अतः आप मुझे क्षमा करें। अपने अपराध के कारण मैं आपके पुत्र के लिए अपनी कन्या देता हूँ।”

इस पर बूढ़ा ब्राह्मण धूर्तराज मूलदेव उसे बुरा-भला कहने लगा और उस पर वादे से मुकरने का आरोप लगाने लगा। अन्ततः किसी प्रकार राजा के अनुनय-विनय करने पर वह शांत हुआ और शशिप्रभा का विवाह अपने बनावटी बेटे के साथ होना स्वीकार कर लिया।

धूर्त मूलदेव नवविवाहिता वर-वधू को साथ लेकर अपने स्थान के लिए चल पड़ा। उसने राजा से धन की इच्छा नहीं की। बाद में जब मनःस्वामी वहाँ आया, तब उसके और शशि के बीच झगड़ा उत्पन्न हुआ। मनःस्वामी ने कहा, “शशिप्रभा को मुझे दे दो। गुरु की कृपा से इस कन्या को पहले मैंने ही ब्याहा था।”

शशि बोला, “मूर्ख, तू इसका कौन है? यह तो मेरी स्त्री है। इसके पिता ने अग्नि को साक्षी मानकर इसको मुझे सौंपा है।”

इस तरह वे दोनों माया के बल से पाई हुई उस राजकुमारी के लिए झगड़ने लगे। लेकिन उनके झगड़े का निबटारा नहीं हो सका।

इतनी कथा सुनाकर बेताल ने विक्रम से पूछा, “हे राजन, अब तुम्हीं मेरा संशय दूर करो कि वह राजकुमारी वस्तुतः किसी स्त्री हुई? यदि तुम जानते हुए भी मेरा संशय दूर नहीं करोगे तो तुम्हें पहले वाला ही शाप लगेगा।”

अपने कंधे पर स्थित बेताल की यह बात सुनकर विक्रमादित्य ने उससे कहा, “बेताल, मैं समझता हूँ कि न्यायतः वह राजकुमारी शशि की ही स्त्री मानी जाएगी, जिसे उसके पिता ने सबसे सामने शशि के साथ ब्याहा था। मनःस्वामी ने तो चोरी से गंधर्व विवाह के द्वारा राजकुमारी शशिप्रभा को पाया था। पराए धन पर चोर का न्यायसंगत अधिकार कभी नहीं होता।”

राजा की ये न्यायसंगत बातें सुनकर बेताल संतुष्ट हुआ और पहले की ही भाँति उसके कंधे से अचानक उतरकर पुनः अपनी जगह चला गया।

राजा भी उसे लाने के लिए पुनः वापस लौट पड़ा।

राजा विक्रमादित्य बेताल को लाने के लिए पुनः शिंशपा वृक्ष के नीचे पहुँच गया। उसने बेताल को उतारकर अपने कंधे पर डाला और चलना शुरू किया। बेताल ने राजा विक्रम को फिर से यह कहानी सुनानी शुरू की – जीमूतवाहन की कथा

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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