यशकेतु और उसका मंत्री – विक्रम बेताल की कहानी
राजा यशकेतु और उसके मंत्री दीर्घदर्शी की यह कहानी बेताल पच्चीसी की बारहवीं कथा है। इस विक्रम बेताल की कहानी में बेताल राजा विक्रमादित्य को फिर उलझाने की कोशिश करता है और राजा विक्रम अपनी बुद्धिमत्ता से पहेली का हल कर देते हैं। बेताल पच्चीसी की शेष कहानियाँ पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – विक्रम बेताल की कहानियाँ।
धर्मध्वज की रानियों की पहेली का उत्तर पाकर बेताल उड़ गया। इस बार भी वही क्रम चला। राजा विक्रमादित्य ने शिंशपा-वृक्ष से बेताल को उतारा और उसे अपने कंधे पर डालकर ले चला। रास्ते में फिर से बेताल ने मौन भंग किया, “राजन, तुम अपनी अनुद्विग्नता से मेरे प्रिय बन गए हो। इसलिए सुनो, मैं तुम्हारी प्रसन्नता के लिए तुम्हें यह रोचक कथा सुनाता हूं।”
पुराने समय में अंगदेश में यशकेतु नाम का एक राजा था। वह राजा महापराक्रमी था। अपने बाहुबल से वह बहुत-से राजाओं पर विजय प्राप्त कर चुका था।
उस राजा का एक मंत्री था, जो देवताओं के गुरु बृहस्पति के समान बुद्धिमान था। उसका नाम था दीर्घदर्शी। उस मंत्री के हाथों अपना राज्य निष्कंटक सौंपकर वह राजा केवल सुख-भोगों में ही आसक्त रहने लगा।
वह अधिकांशतः अन्तःपुर में ही रहता, कभी राजसभा में न आता। स्त्रियों के बीच रंगीले गीत सुनता, हितैषियों की बात न सुनता। निश्चिंत होकर वह रनिवास में ही रमा रहता था।
यद्यपि महामंत्री दीर्घदर्शी उसके राज्य का चिंता-भार वहन करता हुआ दिन-रात एक कर रहा था, फिर भी लोग इस तरह का अपवाद फैलाने लगे कि यशकेतु तो अब नाममात्र का राजा रह गया है। मंत्री उसे व्यसनों में डालकर स्वयं ही राज्यश्री का भोग कर रहा है।
लोगों के ऐसे विचार जानकर एक दिन मंत्री ने अपनी पत्नी मेघाविनी से कहा, “प्रिये, यद्यपि राजा सुख-भोग में लिप्त है और मैं उसका कार्यभार वहन कर रहा हूं, तथापि लोग ऐसा अपवाद फैला रहे हैं कि मैं उसका राज्य हड़प रहा हूं। जनापवाद झूठा भी हो, तो भी वह बड़ा हानिकारक होता है। रामायण की कथा के अनुसार जनापवाद के कारण ही भगवान राम द्वारा सीता को त्यागना पड़ा था। अतः तुम मुझे सलाह दो कि ऐसी अवस्था में मुझे क्या करना चाहिए?”
अपने स्वामी की परेशानी जानकर उस धीर स्वभाव और अपने नाम के अनुकूल आचरण करने वाली मेघाविनी ने कहा, “महामति! युक्तिपूर्वक राजा से पूछकर आपको तीर्थयात्रा के बहाने कुछ समय के लिए विदेश चले जाना चाहिए। इस प्रकार निःस्पृह होने के कारण आपके बारे में जो लोकापवाद फैल रहा है, वह मिट जाएगा और आपके न रहने पर राजा भी स्वयं अपना राज-काज देखने लगेंगे। उसके बाद धीरे-धीरे उनके व्यसन भी दूर हो जाएंगे। फिर जब आप लौटकर आएंगे और मंत्री का पद संभालेगें, तब आपको कोई दोष न देगा।”
पत्नी के ऐसा कहने पर मंत्री बोला, “तुमने ठीक कहा, प्रिये। मैं बिल्कुल ऐसा ही करूंगा।”
तब वह राजा के पास गया और बातों-ही-बातों में उसने राजा से कहा, “राजन, आप मुझे कुछ दिनों के लिए छुट्टी दे दें जिससे मैं तीर्थयात्रा पर जा सकूँ, क्योकि धर्म के विषय में मेरी बहुत आस्था है।”
यह सुनकर राजा ने कहा, “ऐसा मत करो मंत्रिवर। तीर्थयात्रा के बिना भी, घर में रहते हुए दान आदि करके तुम पुण्यफल प्राप्त कर सकते हो।”
मंत्री बोला, “दान आदि के द्वारा तो अर्थ शुद्धि ही पाई जा सकती है, राजन। किंतु तीर्थों से अनश्वर शुद्धि प्राप्त होती है, अतः बुद्धिमान लोगों को चाहिए के वे यौवन के रहते हुए ही तीर्थयात्रा कर लें। शरीर का कोई भरोस नहीं है। समय बीत जाने पर फिर तीर्थयात्रा कैसे हो सकती है?”
मंत्री जब इस प्रकार राजा को समझाने का प्रयास कर रहा था, तभी प्रतिहारी वहां पहुंचा और राजा से बोला, “स्वामी, दोपहर का समय हो चुका है, अतः आप उठकर स्नान कर लें क्योंकि स्नान का समय बीता जा रहा है।”
यह सुनते ही राजा स्नान के लिए उठकर खड़ा हो गया। यात्रा के लिए तैयार मंत्री भी उसे प्रणाम करके वहां से चला आया।
मंत्री ने घर आकर जैसे-तैसे अपनी पत्नी को मनाया, क्योंकि वह स्वयं भी उसके साथ चलने का आग्रह कर रही थी। फिर वह अकेला ही यात्रा के लिए चल पड़ा। अनेक देशों में घूमता हुआ और तीर्थों की यात्रा करता हुआ वह मंत्री पौंड्रदेश में जा पहुंचा।
उस देश के एक नगर में समुद्र किनारे भगवान शिव का एक मंदिर था। दीर्घदर्शी उस मंदिर में पहुंचा और वहां मंदिर के आंगन में बैठकर श्रम की थकान दूर करने लगा। वहां देवताओं के पूजन के लिए आए हुए निधिदत्त नामक एक वणिक ने दीर्घदर्शी को देखा, जो दूर से आने के कारण धूल से भरा हुआ था और कड़ी धूप के कारण कुम्हला गया था।
मंत्री को ऐसी अवस्था में यज्ञोपवीत पहने एवं उत्तम लक्षणों वाला देखकर वणिक ने उसे कोई श्रेष्ठ ब्राह्मण समझा और सत्कारपूर्वक उसे अपने घर ले आया। घर ले जाकर उस वणिक ने मंत्री को स्नान कराया। उत्तम भोजन आदि से सत्कार करने के बाद जब वह विश्राम कर चुका तो उससे पूछा, “श्रीमंत, आप कौन हैं? कहां के रहने वाले हैं और कहां जा रहे हैं?”
तब दीर्घदर्शी ने उससे गंभीरतापूर्वक कहा, “मैं एक ब्राह्मण हूं और तीर्थ यात्रा करता हुआ यहां आया हूं।” तब व्यापारी निधिदत्त ने दीर्घदर्शी से कहा, “हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, मैं व्यापार करने के लिए सुवर्णद्वीप जाने वाला हूं। इसलिए तुम मेरे घर में तब तक ठहरो, जब तक कि मैं लौटकर नहीं आ जाता। तुम तीर्थ यात्रा से थके हुए हो, यहां रहकर विश्राम भी कर लोगे।”
यह सुनकर दीर्घदर्शी ने कहा, “फिर मैं यहां ही क्यों रहूं, श्रीमंत। मैं तो सुखपूर्वक आपके साथ ही चलूंगा।” इस पर उस सज्जन वणिक ने कहा, “ठीक है, यदि आपकी ऐसी ही इच्छा है तो यही करो।” बहुत समय बाद दीर्घदर्शी को उसके यहां सोने को नर्म शैय्या मिली थी, इसलिए वह बिस्तर पर पड़ते ही चैन की नींद सो गया।
अगले दिन वह उस व्यापारी के साथ समुद्रतट पर गया और व्यापारी के सामग्री से लदे जहाज में बैठ गया। अनेक द्वीपों की यात्रा करता और आश्चर्यजनक एवं भयानक समुद्र को देखता हुआ वह सुवर्णद्वीप जा पहुंचा। कहां तो महामंत्री का पद और कहां समुद्र का लांघना! किसी ने सच ही तो कहा है, “अपयश से डरने वाले सज्जन क्या नहीं करते?”
दीर्घदर्शी ने उस वणिक निधिदत्त के साथ खरीद-बिक्री करते कुछ समय तक उस द्वीप में निवास किया।
उस वणिक के साथ जब वह जहाज पर बैठा वापस लौट रहा था, तब उसने समुद्र की लहर के पीछे उठते हुए कल्पवृक्ष को देखा। उस वृक्ष की शाखाएं मूंगे की तरह सुंदर थीं। उसके स्कंद सुवर्ण जैसे चमचमाते हुए थे और वह मनोहर मणियों वाले फलों एवं पुष्पों से शोभित था। उस वृक्ष के स्कंध पर उत्तम रत्नों से युक्त एक पर्यक पड़ा हुआ था, जिस पर लेटी हुई एक अद्भुत आकार वाली सुंदर कन्या को उसने देखा।
वह अभी उस कन्या के बारे में सोच ही रहा था कि कन्या वीणा उठाकर एक गीत गाने लगी, जिसके बोलों का भावार्थ कुछ इस प्रकार था, “मनुष्य कर्म का जो बीज पहले बोता है, वह निश्चय ही उसका फल भोगता है। पहले किए हुए कर्मों के फल को विधाता भी नहीं टाल सकता।”
वह अलौकिक कन्या कुछ देर इस प्रकार गाकर उस कल्पवृक्ष, जिस पर वह लेटी थी, उस पर्यक सहित समुद्र में विलीन हो गई। दीर्घदर्शी ने सोचा, “यहां आज मैंने यह कैसा अद्भुत और अपूर्व दृश्य देखा। कहां यह समुद्र और कहां दिखकर विलीन हो जाने वाली गाती हुई अलौकिक स्त्री एवं वृक्ष। ऐसे अनेक आश्चर्यों की खान यह समुद्र सचमुच वंदनीय है। माता लक्ष्मी, चंद्र देवता, पारिजात आदि भी तो इसी से निकले थे।”
ऐसा सोचकर दीर्घदर्शी अचरज में पड़ गया। यह देखकर नाविकों ने कहा, “श्रीमंत, आप शायद उस कन्या को देखकर आश्चर्यचकित हो रहे हैं। यह उत्तम कन्या तो इस प्रकार यहां अक्सर दिखाई पड़ती है। यह दिखाई देती है और फिर समुद्र में ही विलीन हो जाती है क्योंकि आपने इसे पहली बार देखा है, इसीलिए ऐसा आश्चर्य व्यक्त कर रहे हैं।”
“हां, शायद यही बात है।” दीर्घदर्शी बोला और उसी दिशा में देखता हुआ खामोश हो गया।
काफी देर तक चलने के बाद अंततः जहाज ने लंगर डाला, दीर्घदर्शी उस व्यापारी निधिदत्त के साथ समुद्र के पार पहुंचा। किनारे पहुंचकर व्यापारी निधिदत्त ने जहाज से सारा माल असबाब उतरवाया। दीर्घदर्शी भी निधिदत्त के साथ उसके घर पहुंचा, जहां हंसी-खुशी छाई हुई थी। थोड़े दिन निधिदत्त के यहां ठहरकर दीर्घदर्शी ने उससे कहा, “मैंने तुम्हारे यहां सुखपूर्वक बहुत दिन तक विश्राम किया। अब मैं अपने देश जाना चाहता हूं, तुम्हारा कल्याण हो।”
निधिदत्त उसे जाने नहीं देना चाहता था किंतु दीर्घदर्शी का आग्रह उसे स्वीकार करना ही पड़ा। दीर्घदर्शी उसे समझा-बुझाकर वहां से चल पड़ा। केवल अपने ही बलबूते पर वह लम्बी राह तय करके अपने अंगदेश के निकट जा पहुंचा।
नगर के बाहर आए दीर्घदर्शी को उन गुप्तचरों ने देखा जिन्हें राजा यशकेतु ने उसकी खोज-खबर लेने के लिए पहले से ही नियुक्त कर रखा था। गुप्तचरों ने जाकर राजा को खबर पहुंचाई। मंत्री के बिछुड़ने से राजा दुःखी था, अतः वह स्वयं ही उसकी अगवानी हेतु नगर के बाहर पहुंचा और उसके गले लगकर उसका अभिनंदन किया। दीर्घदर्शी को महल में लाकर राजा ने उसकी यात्रा का वृत्तांत पूछा तो दीर्घदर्शी ने सुवर्णद्वीप तक के मार्ग का सारा वृत्तांत उसे कह सुनाया। इतने में इतराती हुई उस अलौकिक कन्या का वृत्तांत भी उसने राजा को सुनाया, जो अद्वितीय सुंदरी थी और जिसे कल्पवृक्ष पर बैठकर उसने गाते देखा था।
उस कन्या की रूप-राशि का वृत्तांत सुनकर राजा इस प्रकार कामवश हो गया कि उसके बिना अब उसे अपना जीवन निष्फल जान पड़ने लगा। उसने मंत्री को एकान्त मे ले जाकर कहा, “उस कन्या को देखे बिना मैं जीवित नहीं रह सकूँगा। अतः मैं तुम्हारे बताए मार्ग से उसके पास जाता हूं। तुम न तो इस काम से मुझे रोको और न ही मेरे साथ चलो। मैं छिपकर अकेला ही वहां जाऊंगा। तुम मेरे राज्य की रक्षा करना। मेरी बात तुम टालना नहीं, अन्यथा तुम्हें मेरे प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा।”
राजा ने अपनी बात के विरोध में मंत्री को कुछ कहने ही नहीं दिया और बहुत दिनों से उत्सुक उसके परिजनों के पास भेज दिया। वहां, बहुत हंसी-खुशी भरे वातावरण के होते हुए भी दीर्घदर्शी उदास ही रहा क्योंकि स्वामी यदि असाध्य कार्य को तत्पर हो तो मंत्री कैसे खुश रह सकता है?”
अगले दिन राजा दीर्घदर्शी को अपना राज्यभार सौंपकर, रात को तपस्वी का वेश धारण कर नगर से बाहर निकला। मार्ग में मिले राजा ने कुशदत्त नामक मुनि को देखकर प्रणाम किया। मुनि ने तपस्वी-वेशधारी राजा से कहा, “तुम निश्चिंत होकर आगे बढ़ो। लक्ष्मीदत्त नामक वणिक के साथ जहाज से समुद्र में जाकर तुम उस इच्छित कन्या को पाओगे।”
मुनि की बातें सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। वह मुनि को प्रणाम करके आगे बढ़ा। अनेक देशों, नदियों और पहाड़ों को पार करता हुआ, वह समुद्रतट पर जा पहुँचा। वहां मुनि के कथनानुसार उसकी भेंट लक्ष्मीदत्त नामक उस वणिक से हुई जो सुवर्णद्वीप जाने की इच्छा रखता था। राजा के पैरों मे चक्र का चिन्ह तथा राजोचित मुख-मुद्रा आदि देखकर उस वणिक ने उसे प्रणाम किया। राजा उसी के साथ उसके जहाज पर चढ़कर समुद्र में गया।
जहाज जब बीच समुद्र में पहुंचा, तब जल के भीतर से वही कल्पवृक्ष निकला जिसके स्कंध पर वह कन्या को देखने लगा। इसी बीच वह वीणा बजाती हुई, यह सुन्दर गीत गाने लगी, “मनुष्य कर्म का जो बीज पहले बोता है, वह निश्चित तौर पर ही उसका फल भोगता है। पहले किए हुए कर्मों के फल को विधाता भी नहीं टाल सकता। अतः देवयोग से जिसके लिए जहाँ, जो और जैसा भवितव्य (होनहार) है, उसे वह वहीं और उसी प्रकार प्राप्त करने के लिए विवश है—इसमें कोई संदेह नहीं है।”
राजा ने जब उसके द्वारा गाया गया वह गीत सुना, जिसमें भवितव्य का संदेश था तब वह काम-बाणों से आहत होकर, निःस्पंद बना, थोड़ी देर उस कन्या को देखता रहा।
अनन्तर, वह राजा झुककर इस प्रकार समुद्र की स्तुति करने लगा, “हे रत्नाकर! हे अगाधहृदय! तुम्हें नमस्कार है। तुमने इस कन्या को अपने भीतर छिपाकर, भगवान विष्णु को लक्ष्मी से वंचित किया है। जब तुमने पंखों वाले पर्वतों को आश्रय दिया, तब देवता भी तुम्हारा अंत नही पा सके। हे देव, मैं आपकी शरण में आया हूं, मेरी कामना पूरी करो।”
जब राजा इस प्रकार स्तुति कर रहा था, तभी वृक्ष सहित वह कन्या समुद्र में विलीन हो गई। यह देखकर राजा भी उसके पीछे-पीछे समुद्र में कूद पड़ा। सज्जन वणिक लक्ष्मीदत्त ने यह देखकर यही समझा कि राजा निश्चय ही मर गया, इस दुःख से वह भी देह त्याग को उत्सुक हुआ। उसी समय आकाशवाणी हुई, जिसने उसे इस प्रकार आश्वासन दिया, “ऐसा दुस्साहस मत करो। डूबे हुए इस मनुष्य को समुद्र में कोई भय नहीं है। तपस्वी वेशधारी इस राजा का नाम यशकेतु है। यह कन्या पूर्वजन्म की इसकी स्त्री है। यह इसीलिए यहां आया है। अपनी इस स्त्री को प्राप्त करके यह फिर अंग राज्य में चला जाएगा।”
यह सुनकर वह व्यापारी अपनी इष्टसिद्धि के लिए अपने अभीष्ट स्थान की ओर चला गया। उधर, डूबे हुए राजा यशकेतु को उस महासमुद्र में अकस्मात् एक अलौकिक नगर देखकर बहुत आश्चर्य हुआ। वहां, जगमगाती मणियों के खम्बों वाले, सुवर्ण से दमकती दीवारों वाले और मोतियों की जाली से युक्त खिड़कियों वाले प्रासाद थे। वहा सरोवर थे, जिनकी सीढियां अनेक प्रकार की रत्न-शिलाओं से बंधी थीं और उद्यान भी थे, जिनमें कामना पूर्ण करने वाले कल्पवृक्ष थे। इन सबसे वह नगर अत्यंत शोभित हो रहा था। राजा ने हर घर में जा-जाकर अपनी प्रिया की खोज की किंतु वह उसे कहीं दिखाई न दी। तब वह एक ऊंचे मणि-भवन पर चढ़ गया और उसका द्वार खोलकर भीतर जा पहुंचा, भीतर उसने एक उत्तम रत्नों वाले पर्यक पर सिर-से-पांव तक चादर ओढ़े किसी को सोते हुए देखा।
‘कहीं यही तो नहीं है’, ऐसा सोचते हुए उसने जैसे ही उसके मुंह से चादर हटाई, उसने अपनी मनचाही स्त्री को ही देखा।
मुख से चादर हटते ही वह सुंदरी अचकचाकर उठ बैठी और घबराई हुई नजरों से राजा को देखने लगी। फिर उसने राजा से पूछा, “आप कौन हैं और इस अगम्य रसातल में आप कैसे आ पहुंचे? आपके शरीर पर तो राजचिन्ह अंकित है, फिर आपने यह तपस्वी का वेश क्यों बना रखा है? हे महाभाग, यदि मुझ पर आपकी कृपा हो तो मुझे यह बतलाएं।”
तब राजा ने अपना परिचय दिया और आने का उद्देश्य भी बता दिया। फिर उसने उस सुंदरी से अपना परिचय देने को कहा तो सुंदरी बोली, “हे महाभाग, मैं विद्याधरों के राजा, सौभाग्यशाली मृगांकसेन की कन्या मृगांकवती हूं। मेरे पिता न जाने किस कारण से मुझे इस नगर में अकेली छोड़कर, नगरवासियों सहित जाने कहां चले गए हैं। इसलिए इस सूनी बस्ती में जी न लगने के कारण, मैं समुद्र पर उतरकर, यांत्रिक कल्पवृक्ष पर बैठी भवितव्य के गीत गाया करती हूँ।”
मृगांकवती के ऐसा कहने पर उस मुनि की बातें स्मरण करते हुए राजा ने उसे अपनी प्यार-भरी बातों से इस तरह से रिझाया कि प्रेमवश होकर उसने उसी समय उस वीर राजा की पत्नी बनना स्वीकार कर लिया किंतु साथ ही एक शर्त भी लगा दी। उसने कहा, “आर्यपुत्र, प्रत्येक मास में शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष की अष्टमी और चतुर्दशी को चार दिन के लिए मैं आपके पास उपलब्ध नहीं रहूंगी। इन दिनों में मैं जहां चाहूं, आप न तो मुझे रोकेंगे और ना ही कोई प्रश्न पूछेंगे। बोलो स्वीकार है?”
“हां प्रिये, मुझे स्वीकार है।”
राजा के ऐसा कहने पर अलौकिक कन्या ने उसी समय गांधर्व विधि से विवाह कर लिया। राजा उसके यहां रहते हुए दाम्पत्य जीवन का सुख प्राप्त करने लगा।
जब कई दिन बीत गए तो एक दिन मृगांकवती ने उससे कहा, “आर्यपुत्र, मैंने जिसके बारे में आपसे कहा था, वह कृष्णपक्ष की चतुर्दशी आज ही है। मैं काम से कहीं बाहर जा रही हूं। आप यहीं मेरी प्रतीक्षा कीजिए, किंतु स्वामी, यहां रहते हुए आप उस स्फटिक के भवन में मत जाना क्योंकि वहां की वादी में गिरते ही आप भू-लोक में पहुंच जाएंगे।”
इस प्रकार राजा को समझा-बुझाकर वह नगर से बाहर चली गई। राजा के मन में कौतूहल हुआ इसलिए हाथ में तलवार लेकर वह भी छिपकर उसके पीछे-पीछे गया।
वहां राजा ने आते हुए एक राक्षस को देखा। वह अंधकार की तरह काला था और उसका मुख गव्हर खुला हुआ था जिससे वह साकार पाताल की भांति जान पड़ता था। उस राक्षस ने घोर गर्जन के साथ झपटकर मृगांकवती को अपने मुंह में डालकर निगल लिया।
यह दिखकर राजा सहमा क्रोध में जल उठा! उसने कैचुल से निकले हुए सांप के समान अपनी तलवार म्यान से निकाली और दातो से होंट दबाकर झपटते हुए उस राक्षस का सिर काट डाला। उस राक्षस के धड़ से निकलते हुए रक्त से राजा की क्रोधाग्नि तो बुझ गई किंतु पत्नी की वियोग्नि न बुझ सकी। राजा उसके मोह-अन्धकार में अंधा-सा हो गया। वह किंकर्तव्यविमूढ बना खड़ा रहा। तभी, जैसे दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ निर्मल चंद्रमा प्रकट होता है वैसे उस राक्षस के मेघ-मलिन शरीर को फाड़ती हुई जीती-जागती और अक्षत शरीर वाली मृगांकवती निकल आई।
राजा ने आश्चर्य से देखा कि उसकी प्रिया संकट को काट आई है। उसने “आओ-आओ” कहते हुए दौड़कर उसका आलिंगन कर लिया। राजा ने जब यह पूछा, “प्रिये, यह स्वप्न है या कोई माया है?”
तब उस विद्याधरी ने उससे कहा, “आर्यपुत्र! यह न तो कोई स्वप्न है और न माया ही है। विद्याधरों के राजा, मेरे पिता ने मुझे जो शाप दिया था, यह उसी का परिणाम है। मेरे पिता पहले यहीं रहते थे। अनेक पुत्र होने पर भी वह मुझसे बहुत स्नेह रखते थे और कभी भी मेरे बिना भोजन नहीं करते थे। शिव के पूजन में रुचि होने के कारण मैं शुक्ल और कृष्ण, इन दोनों पक्षों की अष्टमी और चतुर्दशी को इस निर्जन स्थान में आया करती थी। एक बार मैं चतुर्दशी को यहां आई और माँ गौरी का पूजन करती हुई ऐसी तल्लीन हो गई कि संयोगवश पूरा ही दिन बीत गया।
उस दिन मेरे पिता ने भूख लगने पर भी कुछ खाया-पिया नहीं। वे मुझ पर बहुत क्रुद्ध हो गए। मुझसे अपराध हो गया था, अतः रात होने पर जब मैं सिर झुकाए लौटी, तो मेरे पिता ने मुझे शाप दे डाला। होनी इतनी प्रबल थी कि उसने मेरे प्रति मेरे पिता के स्नेह को नष्ट कर दिया था। उन्होंने कहा, “जिस प्रकार तुमने मेरी उपेक्षा करके आज मुझे दिन-भर भूखा रखा, उसी प्रकार, हर माह की केवल अष्टमी और चतुर्दशी तिथियों को, जब तुम शिव पूजन के लिए नगर के बाहर जाओगी, ‘कृतांत संत्रास’ नाम का राक्षस तुम्हें निगल जाया करेगा, किंतु तुम बार-बार उसका हृदय फाड़कर बाहर जीवित निकल आओगी। तुम यहां अकेली ही रहोगी और तुम्हें न तो मेरे शाप का स्मरण होगा, न निगले जाने का कष्ट ही।”
जब मेरे पिता मुझे इस प्रकार शाप दे चुके, तब मैंने अनुनय-विनय करके कुछ देर बाद उन्हें प्रसन्न किया, तब उन्होंने ध्यान करके इस प्रकार शाप के छूटने की बात कही, “जब अंग देश का राजा यशकेतु तुम्हारा पति बनेगा और तुमको राक्षस के द्वारा निगली गई देखकर उसे मार डालेगा, तब उसके हृदय को फाड़कर निकली हुई, तुम इस शाप से मुक्त हो जाओगी। तभी तुम्हें इस शाप का और अपनी सारी विद्याओं का स्मरण हो जाएगा।”
इस प्रकार शाप से छुटकारे की बात बतलाकर और मुझे अकेली छोड़कर मेरे पिता भू-लोक में निषध पर्वत पर चले गए। तब से मैं शाप से मोहित हो वैसा ही करती हुई यहां पड़ी थी। आज उस शाप से मेरा छुटकारा हो गया और मेरी सारी स्मृतियां भी लौट आईं। अब मैं निषध पर्वत पर अपने पिता के पास जा रही हूँ। शाप से मुक्त होने के बाद हम लोग फिर अपनी गति को प्राप्त हो जाते हैं। हम विद्याधरों में ऐसी ही प्रणाली है। आपको इस बात की स्वतंत्रता है कि आप चाहे यहां रहे या अपने देश चले जाएं।”
मृगांकवती के ऐसा कहने पर राजा ने दुःखी होकर उससे अनुरोध किया, “सुन्दरी! तुम मुझ पर कृपा करके सिर्फ एक सप्ताह और रुक जाओ। हम उद्यान में क्रीड़ाएं करते हुए, अपनी उत्सुकताएं दूर करेंगे। उसके बाद तुम अपने पिता के पास चली जाना और मैं भी अपने देश चला जाऊंगा।”
राजा की इस बात को उस मुग्धा मृगांकवती ने स्वीकार कर लिया। तब वह अपनी प्रिया के साथ उद्यानों एवं वापियों में छः दिन तक विहार करता रहा। सातवें दिन वह युक्तिपूर्वक अपनी प्रिया को उस भवन में ले गया जहां वह वापिका थी, जो भूलोक में पहुंचाने वाली यांत्रिक द्वार के समान थी। वहां मृगांकवती के गले में हाथ डालकर वह उस वापी में कूद पड़ा और उसके साथ अपने नगर के उद्यान की वापी में जा उतरा। वहां अपनी प्रिया के साथ आए राजा को उद्यान के मालियों ने देखा और प्रसन्न होते हुए उन्होंने मंत्री दीर्घदर्शी को इस बात की सूचना पहुंचाई। अपनी इच्छित स्त्री को साथ लेकर आए राजा के निकट जाकर मंत्री उसके पैरों में गिरा और नगरवासियों के साथ वह उन्हें आदरपूर्वक राजमहल में ले गया।
मंत्री ने अपने मन में सोचा, “राजा ने इस अलौकिक स्त्री को कैसे प्राप्त कर लिया, जिसे मैंने क्षण मात्र के लिए आकाश में चमकने वाली बिजली के समान देखा था। सच है कि विधाता जिसके ललाट पर जो कुछ लिख देता है वह कितना ही असंभव होने पर भी उसे अवश्य ही प्राप्त कर लेता है।”
मंत्री जब ऐसा सोच रहा था, तब दूसरे नागरिक भी राजा के वापस आने से प्रसन्न हो रहे थे और उस अलौकिक स्त्री की प्राप्ति के कारण आश्चर्य कर रहे थे। सप्ताह-भर का समय कैसे आमोद-प्रमोद में बीत गया, राजा और मृगांकवती को पता ही नहीं चला। सात दिन बाद एकाएक मृगांकवती को अपने पिता के पास जाने की याद आई और उसने विद्याधरों की गति प्राप्त करने की इच्छा की। कितु अब उसे आकाश में उड़ने की विद्या स्मरण नहीं आई, यह जानकर उसे बहुत दुःख पहुंचा, वह उदास रहने लगी।
राजा ने जब उससे उदास रहने का कारण पूछा तो उसने बताया, “आर्यपुत्र! शाप से मुक्त होने पर भी मैं इतने दिनों तक तुम्हारी प्रीति के कारण यहां रह गई हूं, इससे अपनी विद्या को भूल गई हूं और मेरी अलौकिक गति भी नष्ट हो गई है।” यह सुनकर राजा यशकेतु बहुत प्रसन्न हुआ। अपनी विद्याधरी पत्नी के हमेशा उसके साथ रहने की कल्पना से उसके मन में आनन्द के लड्डू फूटने लगे।
“अपनी प्रिया को मैं इतने कष्ट उठाकर यहां लाया हूं, अब वह हमेशा यहीं रहेगी क्योंकि अपनी मायावी शक्तियां अब वह भूल चुकी है,” राजा ने दीर्घदर्शी को बताया। यह सुनकर दीर्घदर्शी अपने घर गया और उसी रात सोते समय हृदय फट जाने से उसकी मृत्यु हो गई।
दीर्घदर्शी की मौत से राजा को बहुत शोक हुआ, किंतु समय बहुत बलवान होता है। वह भारी-से-भारी शोक को धीरे-धीरे समाप्त कर देता है। राजा भी दीर्घदर्शी की मृत्यु के गम भूलता गया और मृगांकवती के साथ रहकर बहुत दिनों तक राज-काज चलाता रहा।
यह कथा सुनाकर विक्रम के कंधे पर बैठे बेताल ने उससे पूछा, “राजन, अब तुम मुझे यह बतलाओ कि राजा यशकेतु का वैसा अभ्युदय होने पर भी उसके महामंत्री दीर्घदर्शी का हृदय क्यों विदीर्ण हो गया? क्या उसका हृदय इस शोक से फट गया कि उसे वह अलौकिक स्त्री नहीं मिल सकी अथवा वह राज्य की इच्छा रखता था? या राजा के वापस लौट आने से उसे जो दुःख हुआ, उसके कारण? राजन, जानते हुए भी यदि यह तुम मुझे नहीं बतलाओगे तो तुम्हारा धर्म नष्ट हो जाएगा और शीघ्र ही तुम्हारा सिर खंड-खंड हो जाएगा।”
यह सुनकर राजा विक्रमादित्य ने बेताल से कहा, “हे महाभाग! उत्तम चरित्र वाले उस मंत्रिश्रेष्ठ के लिए इन दोनों में से कोई भी बात उचित नहीं जान पड़ती। इसके विपरीत उसने यह सोचा होगा कि जिस राजा ने केवल साधारण स्त्री में लिप्त होकर राज्य की उपेक्षा की थी, अब अलौकिक स्त्री के प्रति अनुरक्त होने पर उसका हाल क्या होगा। फिर, इसके लिए उसने जो इतना कष्ट उठाया, उससे लाभ के बदले हानि ही अधिक हो गई। ऐसा सोचने के कारण ही उस मंत्री का हृदय फट गया।”
राजा विक्रमादित्य के ऐसा कहने पर वह मायावी बेताल उसके कंधे से उड़कर पुनः अपने पहले वाले स्थान पर चला गया। धीर चित्त वाला राजा भी शीघ्रतापूर्वक उसे फिर से बलपूर्वक ले आने के लिए उसके पीछे-पीछे दौड़ पड़ा।
राजा विक्रमादित्य बेताल को लाने के लिए पुनः शिंशपा वृक्ष के नीचे पहुँच गया। उसने बेताल को उतारकर अपने कंधे पर डाला और चलना शुरू किया। बेताल ने राजा विक्रम को फिर से यह कहानी सुनानी शुरू की – ब्राह्मण हरिस्वामी की कहानी