अर्जुन का जीवन परिचय
अर्जुन इन्द्र के अंश से उत्पन्न हुए थे। वे वीरता, स्फूर्ति, तेज एवं शस्त्र संचालन में अप्रतिम थे। पृथ्वी का भार हरण करने तथा अत्याचारियों को दण्ड देने के लिये साक्षात् भगवान् नर-नारायण ने ही भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के रूप में अवतार लिया था। यद्यपि शेष पाण्डव–युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव–भी श्री कृष्ण के भक्त थे, किंतु अर्जुन तो भगवान श्यामसुन्दर के अभिन्न सखा तथा उनके प्राण ही थे।
उन्होंने अकेले ही द्रुपद को परास्त करके तथा उन्हें लाकर गुरु द्रोणाचार्य के चरणों में डाल दिया। इस प्रकार गुरु के इच्छानुसार गुरुदक्षिणा चुकाकर इन्होंने संसार को अपने अद्भुत युद्ध कौशल का प्रथम परिचय दिया। अपने तप और पराक्रम से इन्होंने भगवान् शंकर को प्रसन्न करके पाशुपतास्त्र प्राप्त किया। दूसरे लोकपालों ने भी प्रसन्न होकर इन्हें अपने-अपने दिव्यास्त्र दिये। देवराज के बुलाने पर ये स्वर्ग गये तथा अनेक देव-विरोधी शत्रुओं का दमन किया। स्वर्ग की सर्वश्रेष्ठ अप्सरा उर्वशी के प्रस्ताव को ठुकराकर इन्होंने अद्भुत इन्द्रियसंयम का परिचय दिया। अन्त में उर्वशी ने रुष्ट होकर इनको एक वर्ष तक नपुंसक रहने का शाप दिया।
महाभारत के युद्ध में रण निमन्त्रण के अवसरपर भगवान् श्री कृष्ण ने दुर्योधन से कहा कि एक ओर मेरी नारायणी सेना रहेगी तथी दूसरी ओर मैं निःशस्त्र होकर स्वयं रहूँगा। भले ही आप पहले आये हैं, किंतु मैंने अर्जुन को पहले देखा है। वैसे भी आपसे आयु में ये छोटे हैं। अतः इन्हें माँगने का अवसर पहले मिलना चाहिये। भगवान् के इस कथन पर अर्जुन ने कहा, “प्रभो! मैं तो केवल आपको चाहता हूँ। आपको छोड़कर मुझे तीनों लोकों का राज्य भी नहीं चाहिये। आप शस्त्र लें या न लें, पाण्डवों के एकमात्र आश्रय तो आप ही हैं।”
अर्जुन की इसी भक्ति और निर्भरता ने भगवान् श्री कृष्णजी को उनका सारथि बनने पर विवश कर दिया। यही कारण है कि तत्त्ववेत्ता ऋषियों को छोड़कर श्री कृष्ण ने केवल अर्जुन को ही गीता के महान् ज्ञान का उपदेश दिया। महाभारत के युद्ध में दयामय श्री कृष्ण माता की भाँति इनकी सुरक्षा करते रहे।
महाभारत के युद्ध में छः महारथियों ने मिलकर अन्याय-पूर्वक अभिमन्यु का वध कर डाला। अभिमन्यु की मृत्यु का मुख्य कारण जयद्रथ को जानकर दूसरे दिन सूर्यास्त के पूर्व अर्जुन ने उसका वध करने का प्रण किया। वध न कर पाने पर स्वयं अग्नि में आत्मदाह करने की उन्होंने दूसरी प्रतिज्ञा भी की। भक्त के प्रण की रक्षा का दायित्व तो स्वयं भगवान् का है। दूसरे दिन घोर संग्राम हुआ। श्री कृष्ण को अर्जुन के प्रणरक्षा की व्यवस्था करनी पड़ी। सायंकाल श्री हरि ने सूर्य को ढककर अन्धकार कर दिया। सूर्यास्त हुआ जानकर वे चिता में बैठने के लिये तैयार हो गये। अन्त में जयद्रथ भी अपने सहयोगियों के साथ अर्जुन को चिढ़ाने के लिये आ गया। अचानक श्री कृष्ण ने अन्धकार दूर कर दिया। सूर्य पश्चिम दिशा में चमक उठा।
भगवान् ने कहा, “अब शीघ्रता करो। दुराचारी जयद्रथ का सिर काट लो, किंतु ध्यान रहे, वह जमीन पर न गिरने पाये; क्योंकि इसके पिता ने भगवान् शिव से वरदान माँगा है कि जयद्रथ के सिर को जमीन पर गिराने वाले के सिर के सौ टुकड़े हो जायेंगे।”
अर्जुन ने बाण के द्वारा जयद्रथ का मस्तक काटकर उसे सन्ध्योपासन करते हुए उसके पिता की ही अँजली में गिरा दिया। फलतः पिता-पुत्र दोनों ही मृत्यु को प्राप्त हुए। इस प्रकार भगवान् श्री कृष्ण की कृपा से अनेक विपत्तियों से पाण्डवों की रक्षा हुई और अन्त में युद्ध में उन्हें विजय भी मिली। महाभारत के रचयिता भगवान वेदव्यास के अनुसार वस्तुतः अर्जुन और श्रीकृष्ण अभिन्न हैं। जहाँ धर्म है, वहाँ श्री कृष्ण हैं और जहाँ श्री कृष्ण हैं, वहीं विजय है।
महारथी अर्जुन से संबंधित प्रश्न
उनके पिता का नाम पाण्डु था।
अर्जुन ने बृहन्नला नाम से नृत्य-शिक्षक का कार्य किया था।
उनके रथ के ध्वज पर साक्षात हनुमान जी चिह्न रूप में स्थित थे।
अर्जुन के कितने पुत्र थे?
अर्जुन के चार पुत्र थे – श्री कृष्ण की बहन सुभद्रा से अभिमन्यु, द्रौपदी से श्रुतकर्म, उलूपी से इरावत और और चित्रांगदा से बभ्रुवहन।