ब्रह्मचर्य रक्षा के कठोर नियम
स्थान – बेलुड़ मठ (निर्माण के समय)
वर्ष – १८९८ ईसवी
विषय – ब्रह्मचर्य रक्षा के कठोर नियम – सात्त्विक प्रकृतिवाले लोग ही श्रीरामकृष्ण का भाव ग्रहण कर सकेंगे – केवल ध्यान आदि में लगे रहना ही इस युग का धर्म नहीं है – अब उसके साथ गीतोक्त कर्मयोग भी चाहिए।
नया मठभवन तैयार हो गया है; जो कुछ कर्म शेष रह गया है उसे स्वामी विज्ञानानन्द स्वामीजी की राय से समाप्त कर रहे हैं। स्वामीजी का स्वास्थ्य आजकल सन्तोष जनक नहीं है, इसीलिए डाक्टरों ने उन्हें प्रातः एवं सायंकाल नाव पर सवार होकर गंगाजी में भ्रमण करने को कहा है। स्वामी नित्यानन्द ने नड़ाल के राय बाबुओं का बजरा (बड़ी नाव) थोड़े दिनों के लिए माँग लिया है। मठ के सामने वह बँधा हुआ है। स्वामीजी कभी कभी अपनी इच्छा के अनुसार उस बजरे में सवार होकर गंगाजी में भ्रमण किया करते हैं।
आज रविवार है; शिष्य मठ में आया है और भोजन के पश्चात् स्वामीजी के कमरे में बैठकर उनसे वार्तालाप कर रहा है। मठ में स्वामीजी ने इसी समय संन्यासियों और बालब्रह्मचारियों के लिए कुछ नियम तैयार किये हैं। उन नियमों का मुख्य उद्देश है गृहस्थों के संग से दूर रहना; जैसे – अलग भोजन का स्थान, अलग विश्राम का स्थान आदि। उसी विषय पर बातचीत होने लगी।
स्वामीजी – गृहस्थों के शरीर में, वस्त्रों में आजकल कैसी एक प्रकार की संयमहीनता की गन्ध पाता हूँ, इसीलिए मैंने नियम बना दिया है कि गृहस्थ साधुओं के बिस्तर पर न बैठे, न सोये। पहले मैं शास्त्रों में पढ़ा करता था कि गृहस्थों में ये बातें पायी जाती हैं और इसीलिए संन्यासी लोग गृहस्थों की गन्ध नहीं सह सकते; अब मैं इस सत्य को प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। नियमों को मानकर चलने से ही बालब्रह्मचारी समय पर यथार्थ संन्यास लेने के योग्य हो सकेंगे। संन्यास में निष्ठा दृढ़ हो जाने पर गृहस्थों के साथ मिल जुलकर रहने से भी फिर हानि न होगी। परन्तु प्रारम्भ में नियम की सीमा से आबद्ध न होने से संन्यासी-ब्रह्मचारीगण सब बिगड़ जायेंगे। यथार्थ ब्रह्मचारी बनने के लिए पहेलपहल संयम के कठोर नियमों का पालन करके चलना पड़ता है। इसके अतिरिक्त स्त्री-संग करनेवालों का संग भी अवश्य ही त्यागना पड़ता है।
गृहस्थाश्रमी शिष्य स्वामीजी की बात सुनकर दंग रह गया और यह सोचकर कि अब वह मठ के संन्यासी-ब्रह्मचारियों के साथ पहले के समान समभाव से न मिलजुल सकेगा, दुःखी होकर कहने लगा, “परन्तु महाराज, यह मठ और इसके सभी लोग मुझे अपने घर, स्त्री-पुत्र आदि सब से अधिक प्यारे लगते है; मानो ये सभी कितने ही दिनों के परिचित हैं। मैं मठ में जिस प्रकार स्वाधीनता का उपभोग करता हूँ, दुनिया में और कहीं भी वैसा नहीं करता।”
स्वामीजी – जितने शुद्ध सत्त्व वाले लोग है उन सब को यहाँ पर ऐसा ही अनुभव होगा। पर जिसे ऐसा अनुभव नहीं होता, समझना वह यहाँ का आदमी नहीं है। कितने ही लोग जोश में मस्त होकर आते हैं और फिर अल्प काल में ही भाग जाते हैं, उसका यही कारण है। ब्रह्मचर्यविहीन, दिन रात ‘रुपया रुपया’ करके भटकने वाला व्यक्ति यहाँ का भाव कभी समझ ही न सकेगा, कभी मठ के लोगों को अपना न मानेगा। यहाँ के संन्यासी पुराने जमाने के विभूति रमाये, सिर पर जटा, हाथ में चिमटा, दवा देनेवाले बाबाजी की तरह नहीं हैं। इसीलिए लोग देख-सुनकर कुछ भी समझ नहीं पाते। हमारे श्रीरामकृष्ण का आचरण, भाव – सब कुछ नये प्रकार का है, इसीलिए हम सब भी नये प्रकार के हैं। कभी अच्छे वस्त्र पहनकर ‘भाषण’ देते हैं और कभी ‘हर हर बम बम’ कहते हुए भस्म रमाये पहाड़-जंगलो में घोर तपस्या में तल्लीन हो जाते हैं।
“आजकल क्या केवल पुराने जमाने के पोथी-पत्रों की दुहाई देने से ही काम चलता है रे? इस समय इस पाश्चात्य सभ्यता का जोरदार प्रवाह अनिरुद्ध गति से देश भर में प्रवाहित हो रहा है। उसकी उपयोगिता की जरा भी परवाह न करके केवल पहाड़ पर बैठे ध्यान में मग्न रहने से क्या आज काम चल सकता है? इस समय चाहिए – गीता में भगवान ने जो कहा है – प्रबल कर्मयोग – हृदय में अमित साहस, अपरिमित शक्ति। तभी तो देश के सब लोग जाग उठेंगे, नहीं तो जिस अन्धकार में तुम हो, उसी में वे भी रहेंगे।”
दिन ढलने को है। स्वामीजी गंगाजी में भ्रमण-योग्य कपड़े पहनकर नीचे उतरे और मठ के मैदान में जाकर पूर्व के पक्के घाट पर कुछ समय तक टहलते रहे। फिर नाव के घाट में आने पर स्वामी निर्भयानन्द, नित्यानन्द तथा शिष्य को साथ लेकर उस पर चढ़े।
नाव पर चढ़कर स्वामीजी जब छत पर बैठे, तो शिष्य उनके चरणों के पास जा बैठा। गंगा की छोटी छोटी लहरें नाव के तल में टकरा कर कल-कल ध्वनि कर रही हैं, धीरे धीरे वायु बह रही है, अभी तक आकाश का पश्चिम भाग सायंकालीन लालिमा से लाल नहीं हुआ है – सूर्य भगवान के अस्त होने में अभी लगभग आध घण्टा बाकी है। नाव उत्तर की ओर जा रही है। स्वामीजी के मुख से प्रफुल्लता, आँखों से कोमलता, बातचीत से गम्भीरता और प्रत्येक भाव-भंगी से जितेन्द्रियता व्यक्त्त हो रही है! वह एक भावपूर्ण रूप है; जिसने वह नहीं देखा, उसके लिए समझना असम्भव है।
अब दक्षिणेश्वर को लाँघकर अनुकूल वायु के झोकों के साथ साथ नाव उत्तर की ओर आगे बढ़ रही है। दक्षिणेश्वर के काली मन्दिर को देखकर शिष्य तथा अन्य दोनों संन्यासियों ने प्रणाम किया, परन्तु स्वामीजी एक गम्भीर भाव में विभोर होकर अस्तव्यस्त रूप में बैठे रहे। शिष्य और संन्यासी लोग दक्षिणेश्वर की कितनी ही बातें कहने लगे, पर मानो वे बातें स्वामीजी के कानों में प्रविष्ट ही नहीं हुई! देखते देखते नाव पेनेटी की ओर बढ़ी और पेनेटी में स्वर्गीय गोविन्द कुमार चौधरी के बगीचेवाले मकान के घाट में थोड़ी देर के लिए नाव ठहरायी गयी। इस बगीचेवाले मकान को पहले एक बार मठ के लिये किराये पर लेने का विचार हुआ था। स्वामीजी उतरकर बगीचा और मकान देखने गये। फिर देख-दाखकर बोले – “बगीचा बहुत अच्छा है, परन्तु कलकत्ते से काफी दूर है, श्रीरामकृष्णजी के शिष्यों को आने जाने में कष्ट होता; यहाँ पर मठ नहीं बना, यह अच्छा ही हुआ!”
अब नाव फिर मठ की ओर चली और लगभग एक घण्टे तक रात्रि के अन्धकार को चीरती हुई फिर मठ में आ पहुँची।