धृतराष्ट्र का जीवन परिचय
धृतराष्ट्र जन्मान्ध थे। वे भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य तथा विदुर की सलाह से राज्य का संचालन करते थे। उन्हें कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान था, किंतु पुत्र-मोह के कारण बहुधा उनका विवेक अन्धा हो जाता था और वे बाध्य होकर दुर्योधन के अन्यायपूर्ण आचरण का समर्थन करने लगते थे।
जब दुर्योधन के दुष्कर्म का कुफल सामने आता, तब वे तटस्थ होने का दिखावा करते थे। सत्यासत्य का विवेक छोड़कर पुत्र के ऊपर अन्ध-वात्सल्य रखने वाले पिता की जो गति होती है, वही गति अन्त में महाराज धृतराष्ट्र की भी हुई। उन्होंने अपने सामने सौ पुत्रों की अति दर्दनाक मृत्यु देखी।
धृतराष्ट्र परोक्ष रूप से पाण्डवों से जलते थे। पाण्डवों के बढ़ते हुए ऐश्वर्य और बल को वे सह नहीं सकते थे। दुर्योधन ने पाण्डवों को छल-पूर्वक नीचा दिखाने के उद्देश्य से उन्हें जुआ खेलने के लिये बुलाना चाहा और धृतराष्ट्र ने बिना सोचे समझे इसके लिये अनुमति दे दी।
जब विदुर ने जुआ खेलने के दोषों और परिणाम को बताकर इस दुष्कृत्य का विरोध किया तब धृतराष्ट्र ने कहा, “विदुर! यहाँ मैं, भीष्म तथा सभी लोग हैं। दैव ने ही जुए का निर्माण किया है। इसलिये हम इसमें कुछ नहीं कर सकते। मैं दैव को ही बलवान् मानता हूँ और उसी के द्वारा ये सब कुछ हो रहा है।”
द्यूत में जब द्रौपदी दाँव पर रखी गयी, तब भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य और विदुर के सहित सारी सभा स्तब्ध रह गयी, पर महाराज धृतराष्ट्र बहुत प्रसन्न हुए और बार-बार पूछने लगे “कौन जीता, कौन जीता!” धृतराष्ट्र के लिये इससे बड़ी निन्दनीय बात और क्या हो सकती थी। यदि सर्व-संहारक महाभारत युद्ध का मुख्य कारण धृतराष्ट्र को मानें तो इसमें कोई ग़लती नहीं है; क्योंकि यदि वे भीष्म, विदुर आदि की बात मानकर दुर्योधन को नियन्त्रित करते तो महाभारत के महायुद्ध को रोका जा सकता था।
महाभारत के कई स्थलों पर धृतराष्ट्र में मानवता के उत्कृष्ट रूप का भी दर्शन होता है। द्रौपदी के साथ पाण्डवों के विवाह की बात सुनकर धृतराष्ट्र ने अहोभाग्य! अहोभाग्य !! कहकर आनन्द प्रदर्शित किया तथा विदुर को भेजकर पाण्डवों को बुलवाया। पाण्डवों से मिलकर उनमें आत्मीयता जाग्रत् हुई। उन्होंने युधिष्ठिर से कहा, “मेरे दुरात्मा पुत्र दम्भ और अहंकार से भरे हैं। वे मेरा कहना नहीं मानते हैं। इसलिये तुम आधा राज्य लेकर खाण्डवप्रस्थ में निवास करो। भगवान् श्री कृष्ण ने भी धृतराष्ट्र के इस विचार को सर्वथा उत्तम तथा कौरवों की यशवृद्धि करने वाला बतलाया।
सभापर्व में महाराज धृतराष्ट्र ने द्रौपदी के संदर्भ में दुर्योधन को फटकारा और द्रौपदी को सान्त्वना देते हुए कहा, “बहू द्रौपदी! तुम मेरी पुत्र-वधुओं में सर्वश्रेष्ठ और धर्मपरायणा सती हो। तुम्हारी जो इच्छा हो मुझसे वर माँग लो।”
यह सुनकर द्रौपदी ने युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव को दासभाव से मुक्त करा लिया। महाराज धृतराष्ट्र भगवान मुरलीधर के अन्तरंग भक्त भी थे। इसीलिये उन्होंने अन्धे होते हुए भी भगवत्कृपा से दिव्यदृष्टि प्राप्त करके राजसभा में भगवान् के दिव्य रूप का दर्शन किया था, जो सौभाग्य संसार में बिरले ही प्राप्त करते हैं। वे केवल पुत्रमोह में पड़कर दुर्योधन के अन्यायों का निराकरण न करने के कारण ही दोष के भागी बने।
युद्ध के अन्त में कुछ दिन हस्तिनापुर में रहने के बाद उन्होंने अपने जीवन का शेष समय अपनी पत्नी गान्धारी के साथ भगवान् की आराधना में व्यतीत किया। महाराज ने अन्त में दावाग्नि में भस्म होकर अपने अनित्य देह का त्याग किया।
कुरुराज धृतराष्ट्र से संबंधित प्रश्न.
धृत का अर्थ होता है धारण करने की क्षमता और राष्ट्र का अर्थ होता है देश की जनता। अतः इस शब्द का अर्थ हुआ वह व्यक्ति जिसमें राष्ट्र को धारण करने या बनाए रखने की क्षमता हो।
उनके पुत्रों की संख्या सौ थी, जिन्हें कौरव कहा जाता था।
वे महाराज विचित्रवीर्य के पुत्र थे।