कविता

घनस्याम की रूप माधुरी

“घनस्याम की रूप माधुरी” कविता में स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया “नवल” ने श्रीकृष्ण के दिव्य रूप और लीलाओं का बड़ा सजीव वर्णन किया है। ब्रज भाषा के सुवास से यह रचना और भी मनमोहक बन पड़ी है। आनन्द लीजिए घनस्याम की रूप माधुरी का–

देखि चन्द्रकानि चन्द्रमा की छटा छीन होति,
दुरि-दुरि जाति दामिनी हू पीत पट पै।
मोतिन की माल वनमाल देखि कें लजाति,
नागिनि लजाति घनस्याम हू की लट पै।
हेमदण्ड केतिक बिना ही मोल बिकि जात,
ऐसे अनमोल वा करील के लकुट पै।
होत हैं निछावर अनेक मनि मण्डित हू,
कोटिक किरीट मोर पंख के मुकुट पै।


याके उर वनमाल, गोरज विराजै भाल,
मोरपंख सोहैं सीस संग ग्वाल-बाल हैं।
नीरद वदन, मुख चन्द मन्द मन्द हास,
कारी कारी अलकैं सुनेत्र हू विसाल हैं।
बिम्बा जैसे अधर, सुघर नाक कीर जैसी
भीड़ दै दै वंसी में निकारे सुर-ताल हैं।
बाबरी करी हैं ब्रज नारी भाजी भाजी फिरैं,
बूझे एक दूसरी सों, देखे नन्दलाल हैं॥


पीत पटवारौ, कटि काछनी कलित पीत,
देख्यौ जबते हैं रंग और कौ चढ़ै नहीं।
नाचै भटकावै, मुसिक्यावै, बेनु मन्द-मन्द,
माधुरी बजावै, कबौं डरतै कढ़े नहीं ।
नैन कजरारे अनियारे, घुँघरारे कच,
देखि-देखि नाग नेंक आगे कौं बढ़ै नहीं।
रूप कमनाई, दन्त दाड़िम निकाई लखि,
नासिका कौ कीर मौन गीत हू पढ़ै नहीं॥


नाचै नन्द-लाल, रचायौ रास राकामध्य-
गोपिन कौं संगलिए झूमैं अतिमोद में।
रास देखि देवता हू; मन में मगन होत,
फूल बरषावैं हरषावत विनोद में।
भौंह मटकावै कबौं मुरि मुरि गावै कछू।
वंशी कौं बजावै सुर-ताल औ प्रमोद में
थिरकत पग मुरकत न लगति देर,
बैठौ कबौं दीखै काहू गोपिका की गोद में॥

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स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया हिंदी खड़ी बोली और ब्रज भाषा के जाने-माने कवि हैं। ब्रज भाषा के आधुनिक रचनाकारों में आपका नाम प्रमुख है। होलीपुरा में प्रवक्ता पद पर कार्य करते हुए उन्होंने गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, सवैया, कहानी, निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाकार्य किया और अपने समय के जाने-माने नाटककार भी रहे। उनकी रचनाएँ देश-विदेश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। हमारा प्रयास है कि हिंदीपथ के माध्यम से उनकी कालजयी कृतियाँ जन-जन तक पहुँच सकें और सभी उनसे लाभान्वित हों। संपूर्ण व्यक्तित्व व कृतित्व जानने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – श्री नवल सिंह भदौरिया का जीवन-परिचय

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