धर्मस्वामी विवेकानंद

ज्ञानयोग का परिचय – स्वामी विवेकानंद

“ज्ञानयोग का परिचय” नामक इस व्याख्यान में स्वामी विवेकानंद ज्ञान योग के मूलभूत तत्त्वों की व्याख्या कर रहे हैं। ज्ञानयोग को गंभीरता से समझने के लिए अवश्य पढ़ें “ज्ञानयोग का परिचय”। स्वामी विवेकानंद की प्रस्तुत पुस्तक के शेष प्रवचन पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – ज्ञानयोग पर प्रवचन

यह योग का बौद्धिक और दार्शनिक पक्ष है और बहुत कठिन है, किन्तु मैं आपको इससे धीरे-धीरे अवगत कराऊँगा।

योग का अर्थ है, मनुष्य और ईश्वर को जोड़ने की पद्धति। इतना समझ लेने के बाद आप मनुष्य और ईश्वर की अपनी परिभाषाओं के अनुसार चल सकते हैं। और आप देखेंगे कि योग शब्द हर परिभाषा के साथ ठीक बैठ जाता है। सदा याद रखिये कि विभिन्न मानसों के लिए विभिन्न योग हैं और यदि एक आपके अनुकूल नहीं होता तो दूसरा हो सकता है सभी धर्म, सिद्धान्त और व्यवहार में विभाजित हैं। पाश्चात्य मानस ने सिद्धान्त पक्ष को छोड़ दिया है और वह शुभ कर्मों के रूप में धर्म के केवल व्यावहारिक भाग को ही ग्रहण करता है। योग धर्म का व्यावहारिक भाग है और यह प्रदर्शित करता है कि धर्म शुभ कर्मों के अतिरिक्त एक व्यावहारिक शक्ति भी है।

उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मनुष्य ने बुद्धि के द्वारा ईश्वर को पाने की चेष्टा की और फलस्वरूप ईश्वरवाद की उत्पत्ति हुई। इस प्रक्रिया से जो कुछ थोड़ा-बहुत ईश्वर बचा, उसको डार्विनवाद और मिलवाद ने नष्ट कर दिया। लोगों को तब तुलनात्मक और ऐतिहासिक धर्म की शरण में जाना पड़ा। वे समझते थे कि धर्म की उत्पत्ति तत्त्वों की पूजा से हुई (द्रष्टव्य सूर्य सम्बन्धी कथाओं आदि पर मैक्समूलर)। दूसरे लोगों की धारणा थी कि धर्म पूर्वजों की पूजा से निकला है (द्रष्टव्य हर्बर्ट स्पेन्सर)। किन्तु सम्पूर्णतः ये पद्धतियाँ असफल सिद्ध हुईं। मनुष्य बाह्य पद्धतियों से सत्य तक नहीं पहुँच सकता।

‘यदि मैं मिट्टी के एक टुकड़े को जान लूँ तो मैं मिट्टी की सम्पूर्ण राशि को जान लूँगा।’ सारा विश्व इसी योजना पर बना है। व्यक्ति तो मिट्टी के एक टुकड़े के समान केवल एक अंश है। यदि हम मानव आत्मा के, जो कि एक अणु है, प्रारम्भ और सामान्य इतिहास को जान लें तो हम सम्पूर्ण प्रकृति को जान लेंगे। जन्म, वृद्धि, विकास, जरा, मृत्यु – सम्पूर्ण प्रकृति में यही क्रम है और यह वनस्पति तथा मनुष्य में समान रूप से विद्यमान है। भिन्नता केवल समय की है। पूरा चक्र एक दृष्टान्त में एक दिन में पूर्ण हो सकता है और दूसरे में ७० वर्ष में, पर ढंग एक ही है। विश्व के विश्वसनीय विश्लेषण तक पहुँचने का एकमात्र मार्ग स्वयं हमारे मन का विश्लेषण है। अपने धर्म को समझने के लिए एक सम्यक् मनोविज्ञान आवश्यक है। केवल बुद्धि से ही सत्य तक पहुँचना असम्भव है, क्योंकि अपूर्ण बुद्धि स्वयं अपने मौलिक आधार का अध्ययन नहीं कर सकती। इसलिए मन को अध्ययन करने का एकमात्र उपाय तथ्यों तक पहुँचने का है, तभी बुद्धि उन्हें विन्यस्त करके उनसे सिद्धान्तों को निकाल सकेगी। बुद्धि को घर बनाना पड़ता है, पर बिना ईंटों के वह ऐसा नहीं कर सकती, और वह ईंटें बना नहीं सकती। ज्ञानयोग तथ्यों तक पहुँचने का सब से निश्चित मार्ग है।

मन के शरीर-विज्ञान को लें। हमारी इन्द्रियाँ हैं, जिनका वर्गीकरण ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों में किया जाता है। इन्द्रियों से मेरा अभिप्राय बाह्य इन्द्रिय-यन्त्रों से नहीं है। मस्तिष्क में नेत्र-सम्बन्धी केन्द्र दृष्टि का अवयव है, केवल आँख नहीं। यही बात हर अवयव के सम्बन्ध में है, उसकी क्रिया आभ्यन्तरिक होती है, केवल मन में प्रतिक्रिया होने पर ही विषय का वास्तविक प्रत्यक्ष होता है। प्रत्यक्षीकरण के लिए पेशीय और संवेद्य नाड़ियाँ आवश्यक हैं।

उसके बाद स्वयं मन है। वह एक स्थिर जलाशय के समान है, जो कि आघात किये जाने पर, जैसे पत्थर द्वारा, स्पन्दित हो उठता है। स्पन्दन एकत्र होकर पत्थर पर प्रतिक्रिया करते हैं, जलाशय भर में वे फैलते हुए अनुभव किये जा सकते हैं। मन एक झील के समान है, उसमें निरन्तर स्पंदन होते रहते हैं, जो उस पर एक छाप छोड़ जाते हैं। और अहं या व्यक्तिगत स्व या मैं का विचार इन स्पन्दनों का परिणाम होता है। इसलिए यह ‘मैं’ शक्ति का अत्यन्त द्रुत संप्रेषण मात्र है, वह स्वयं सत्य नहीं है।

मस्तिष्क का निर्मायक पदार्थ एक अत्यन्त सूक्ष्म भौतिक यन्त्र है, जो प्राण धारण करने में प्रयुक्त होता है। मनुष्य के मरने पर शरीर मर जाता है, किन्तु अन्य सब कुछ नष्ट हो जाने के बाद मन का थोड़ा भाग, उसका बीज बच जाता है। यही नये शरीर का बीज होता है, जिसे सन्त पाल ने ‘आध्यात्मिक शरीर’ कहा है। मन की भौतिकता का यह सिद्धान्त सभी आधुनिक सिद्धान्तों से मेल खाता है। जड़ व्यक्ति में बुद्धि कम होती है, क्योंकि उसका मस्तिष्क पदार्थ-आहत होता है। बुद्धि भौतिक पदार्थ में नहीं हो सकती और न वह पदार्थ के किसी संघात द्वारा उत्पन्न की जा सकती है। तब बुद्धि कहाँ होती है? वह भौतिक पदार्थ के पीछे होती है, वह जीव है, भौतिक यन्त्र के माध्यम से कार्य करनेवाली आत्मा है। बिना पदार्थ के शक्ति का संप्रेषण सम्भव नहीं है, और चूँकि जीव एकाकी यात्रा नहीं कर सकता, मृत्यु के द्वारा और सब कुछ ध्वस्त हो जाने पर मन का एक अंश संप्रेषण के माध्यम के रूप में बच जाता है।

प्रत्यक्ष कैसे होता है? सामने की दीवार एक प्रभाव-चित्र मुझे भेजती है, किन्तु जब तक कि मेरा मन प्रतिक्रिया नहीं करता, मैं दीवार नहीं देखता। अर्थात् मन केवल दृष्टि मात्र से दीवार को नहीं जान सकता। जो प्रतिक्रिया मनुष्य को दीवार के प्रत्यक्ष की क्षमता देती है, वह एक बौद्धिक प्रक्रिया है। इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व हमारी आँखों और मन (प्रत्यक्षीकरण की आन्तरिक शक्ति) द्वारा देखा जाता है; वह हमारी अपनी व्यक्तिगत वृत्तियों द्वारा निश्चित रूप से रँग जाता है। वास्तविक दीवार या वास्तविक विश्व, मस्तिष्क के बाहर होता है और अज्ञात तथा अज्ञेय होता है । इस विश्व को ‘क’ कहिये और हमारा कहना है कि दृश्य जगत् होगा ‘क’ + मन।

जो बाह्य जगत् के लिए सत्य है, वही आभ्यन्तर जगत् पर भी अवश्य लागू होना चाहिए। मन भी अपने को जानना चाहता है, किन्तु यह आत्मा केवल मन के माध्यम से जानी जा सकती है और दीवार की ही तरह अज्ञात है। इस आत्मा को हम ‘ख’ कह सकते हैं और तब कथन इस प्रकार होगा कि ‘ख’ + मन अभ्यन्तर अहं है। सर्वप्रथम काण्ट मस्तिष्क के इस विश्लेषण पर पहुँचे थे, किन्तु वेदों में यह बहुत पहले कहा जा चुका था। इस प्रकार चाहे जैसा भी वह हो, हमारे पास ‘क’ और ‘ख’ के बीच में मन उपस्थित है और दोनों पर प्रतिक्रिया कर रहा है। यदि ‘क’ अज्ञात है तो जो भी गुण हम प्रदान करते हैं, वे हमारे अपने ही मस्तिष्क से उद्भूत होते हैं। देश, काल और कारणता वे तीन उपाधियाँ हैं, जिनके मध्य मन को प्रत्यक्ष होता है। काल विचार के संप्रेषण की उपाधि है और देश अधिक स्थूल पदार्थ के स्पन्दन के लिए है, कारणता वह अनुक्रम है, जिसमें वे स्पन्दन आते हैं। मन को केवल इन्हीं के द्वारा बोध हो सकता है। अतएव मन से परे की कोई भी वस्तु देश, काल और कारणता से परे अवश्य होगी।

अन्धे व्यक्ति को जगत् का प्रत्यक्ष स्पर्श और ध्वनि द्वारा होता है। हम पंचेन्द्रियवाले लोगों के लिए यह एक भिन्न ही जगत् है। यदि हममें से कोई विद्युत्-संवेदना का विकास करे और विद्युत् लहरों को देखने की योग्यता प्राप्त कर ले तो संसार भिन्न दिखायी देगा। तथापि ‘क’ के रूप में जगत् है, इन सब के लिए समान है। चूँकि हर एक अपना पृथक् मन लाता है, वह अपने विशेष संसार को ही देखता है। ‘क’ + एक इन्द्रिय, ‘क’ + दो इन्द्रियाँ और इसी प्रकार, जैसा कि हम मनुष्य को जानते हैं, पाँच तक हैं। परिणाम निरन्तर विविधतापूर्ण होता है, किन्तु ‘क’ सदैव अपरिवर्तित रहता है। ‘ख’ भी हमारे मानसों से निरन्तर परे होता है और देश, काल तथा कारणता से परे है।

पर आप पूछ सकते हैं, ‘हम कैसे जानते हैं कि दो वस्तुएँ हैं (क और ख) जो देश, काल और कारणता से परे हैं?’ बिल्कुल सत्य है कि काल विभेदीकरण करता है जिससे यदि दोनों वास्तव में काल से परे हैं, तो उन्हें वास्तव में अवश्य ही एक होना चाहिए। जब मन इस एक को देखता है, वह उसे भिन्न नाम से पुकारता है – ‘क’ जब वह बाह्य जगत् होता है और ‘ख’ जब वह आभ्यन्तर जगत् होता है। इस इकाई का अस्तित्व है और उसे मन के लैंस से देखा जाता है।

हमारे समक्ष सर्वत्र व्यापक रूप से प्रकट होनेवाली परिपूर्ण सत्ता ईश्वर, ब्रह्म है । विभेदीकरणरहित दशा ही पूर्णता की दशा है, अन्य सब अस्थायी और निम्नतर होती हैं ।

विभेदरहित सत्ता मन को विभेदयुक्त क्यों प्रतीत होती है? यह उसी प्रकार का प्रश्न है, जैसा यह कि अशुभ और इच्छा-स्वातन्त्र्य का स्रोत क्या है? प्रश्न स्वयं आत्मविरोधी और असम्भव है, क्योंकि प्रश्न कार्य और कारण को स्वयंसिद्ध मान लेता है। अविभेद में कारण और कार्य नहीं होता, प्रश्न यह मान लेता है कि अविभेद उसी स्थिति में है, जिसमें कि विभेदयुक्त ‘क्यों’ और ‘कहाँ से’ केवल मन में होते हैं। आत्मा कारणता से परे है और केवल वही स्वतन्त्र है। यह उसी का प्रकाश है, जो मन के हर रूप से झरता रहता है। हर कार्य के साथ मैं कहता हूँ कि मैं स्वतन्त्र हूँ, किन्तु हर कार्य सिद्ध करता है कि मैं बद्ध हूँ। वास्तविक आत्मा स्वतन्त्र है, किन्तु मस्तिष्क और शरीर के साथ मिश्रित होने पर वह स्वतन्त्र नहीं रह जाती। संकल्प या इच्छा इस वास्तविक आत्मा की प्रथम अभिव्यक्ति है, अतएव इस वास्तविक आत्मा का प्रथम सीमाकरण संकल्प या इच्छा है। इच्छा, आत्मा और मस्तिष्क का एक मिश्रण है। किन्तु कोई मिश्रण स्थायी नहीं हो सकता। इसलिए जब हम जीवित रहने की इच्छा करते हैं, हमें अवश्य मरना चाहिए। अमर जीवन परस्परविरोधी शब्द हैं, क्योंकि जीवन एक मिश्रण होने से स्थायी नहीं हो सकता। सत्य सत्ता अभेद और शाश्वत है। यह पूर्ण सत्ता सभी दूषित वस्तुओं, इच्छा, मस्तिष्क और विचार से किस प्रकार संयुक्त हो जाती है? वह कभी संयुक्त या मिश्रित नहीं हुई है। तुम्ही वास्तविक तुम हो (हमारे पूर्वकथन के ‘ख’), तुम कभी इच्छा न थे, तुम कदापि नहीं बदले हो, एक व्यक्ति के रूप में कभी तुम्हारा अस्तित्व न था; यह भ्रम है। तब आप कहेंगे कि भ्रम के गोचर पदार्थ किस पर आश्रित हैं? यह एक कुप्रश्न है। भ्रम कभी सत्य पर आश्रित नहीं होता, भ्रम तो भ्रम पर ही आश्रित होता है। इन भ्रमों के पूर्व जो था, उसी पर लौटने के लिए, सचमुच स्वतन्त्र होने के लिए, हर वस्तु संघर्ष कर रही है। तब जीवन का मूल्य क्या है? वह हमें अनुभव देने के निमित्त है। क्या यह विचार विकासवाद की अवहेलना करता है? नहीं, इसके विपरीत वह उसे स्पष्ट करता है। विकास वस्तुतः भौतिक पदार्थ के सूक्ष्मीकरण की प्रक्रिया है, जिससे वास्तविक आत्मा को अपनी अभिव्यक्ति करने में सहायता मिलती है। वह हमारे और किसी अन्य वस्तु के बीच किसी पर्दे या आवरण जैसा है। पर्दे के क्रमशः हटने पर, वस्तु स्पष्ट हो जाती है। प्रश्न केवल उच्चतर आत्मा की अभिव्यक्ति का है।

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सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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