धर्मस्वामी विवेकानंद

मठ के सम्बन्ध में नैष्ठिक हिन्दुओं की पूर्वधारणा

स्थान – बेलुड़ मठ

वर्ष – १९०१ ईसवी

विषय – मठ के सम्बन्ध में नैष्ठिक हिन्दुओं की पूर्व धारणा – ‘मठ में दुर्गापूजा व उस धारणा की निवृत्ति – अपनी जननी के साथ स्वामीजी का कालीघाट का दर्शन व उस स्थान के उदार भाव के सम्बन्ध में मत प्रकट करना – स्वामीजी जैसे ब्रह्मज्ञ पुरुष द्वारा देव-देवी की पूजा करना सोचने की बात है – महापुरुष धर्म की रक्षा के लिए ही जन्म ग्रहण करते हैं – ऐसा मत रखनेपर कि देव-देवी की पूजा नहीं करनी चाहिए, स्वामीजी कभी उस प्रकार नकरते – स्वामीजी जैसा सर्वगुणसम्पन्न ब्रह्मज्ञ महापुरुष इस युग में और दूसरापैदा नहीं हुआ – उनके द्वारा प्रदर्शित पथ पर अग्रसर होने से ही देश व जीवका निश्चित कल्याण है।

बेलुड़ मठ स्थापित होते समय निष्ठावान हिन्दुओं में से अनेक व्यक्ति मठ के आचार-व्यवहार की तीव्र आलोचना किया करते थे; प्रधानतः इसी विषय पर कि विलायत से लौटे हुए स्वामीजी द्वारा स्थापित मठ में हिन्दुओं के आचार-नियमों का उचित रूप से पालन नहीं होता है अथवा वहाँ खाद्य-अखाद्य का विचार नहीं है। अनेकानेक स्थानों में चर्चा चलती थी और उस बात पर विश्वास करते हुए शास्त्र को न जानने वाले हिन्दू नामधारी छोटे बड़े अनेक लोग उस समय सर्वत्यागी संन्यासियों के कार्यों की व्यर्थ निन्दा किया करते थे। गंगाजी पर नाव पर सैर करने वाले अनेक लोग भी बेलुड़ मठ को देखकर अनेक प्रकार से व्यंग किया करते थे और कभी कभी तो मिथ्या अश्लील बातें करते हुए निष्कलंक स्वामीजी के स्वच्छ शुभ चरित्र की आलोचना करने से भी बाज न आते थे। नाव पर चढ़कर मठ में आते समय शिष्य ने कभी कभी ऐसी समालोचना अपने कानों से सुनी है। उसके मुख से उन सब समालोचनाओं को सुनकर स्वामीजी कभी कभी कहा करते थे, “हाथी चले बाजार, कुत्ते भौंके हजार। साधुन को दुर्भाव नहीं, चाहे निन्दे संसार।” कभी कहते थे, “देश में किसी नवीन भाव के प्रचार होते समय उसके विरुद्ध प्राचीनपन्थियों का मोर्चा स्वभावतः ही रहता है। जगत् के सभी धर्म संस्थापकों को इस परीक्षा में उत्तीर्ण होना पड़ा है।” फिर कभी कहा करते थे, “अन्यायपूर्ण अत्याचार न होने पर जगत् के कल्याणकारी भावसमूह समाज के हृदय में आसानी से प्रविष्ट नहीं हो सकते।” अतः समाज के तीव्र कटाक्ष और समालोचना को स्वामीजी अपने नवभाव के प्रचार के लिए सहायक मानते थे। उसके विरुद्ध कभी प्रतिवाद न करते थे और न अपने शरणागत गृही तथा संन्यासियों को ही प्रतिवाद करने देते थे। सभी से कहते थे, “फल की आकांक्षा को छोड़कर काम करता जा, एक दिन उसका फल अवश्य ही मिलेगा।” स्वामीजी के श्रीमुख से यह वचन सदा ही सुना जाता था, “न हि कल्याणकृत् कश्चित् दुर्गतिं तात गच्छति।”

हिन्दू समाज की यह तीव्र समालोचना स्वामीजी की लीला की समाप्ति से पूर्व किस प्रकार मिट गयी, आज उसी विषय में कुछ लिखा जा रहा है। १९०१ ईसवी के मई या जून मास में एक दिन शिष्य मठ में आया। स्वामीजी ने शिष्य को देखते ही कहा, “अरे, एक रघुनन्दन रचित ‘अष्टार्विंशति-तत्त्व’ की प्रति मेरे लिए ले आना।”

शिष्य – बहुत अच्छा महाराज! परन्तु रघुनन्दन की स्मृति – जिसे आजकल का शिक्षित सम्प्रदाय कुसंस्कार की टोकरी बताया करता है, उसे लेकर आप क्या करेंगे?

स्वामीजी – क्यों? रघुनन्दन अपने समय के एक प्रकाण्ड विद्वान थे। वे प्राचीन स्मृतियों का संग्रह करके हिन्दुओं के लिए कालोपयोगी नित्यनैमित्तिक क्रियाओं को लिपिबद्ध कर गये हैं। इस समय सारा बंगाल प्रान्त तो उन्हीं के अनुशासन पर चल रहा है। यह बात अवश्य है कि उनके रचित हिन्दूजीवन के गर्भाधान से लेकर स्मशान तक के आचार-नियमों के कठोर बन्धन से समाज उत्पीड़ित हो गया था। अन्य विषयों की तो बात ही क्या, शौच-पेशाब के लिए जाते, खाते-पीते, सोते-जागते, प्रत्येक समय, सभी को नियमबद्ध कर डालने की चेष्टा उन्होंने की थी। समय के परिवर्तन से वह बन्धन दीर्घ काल तक स्थायी न रह सका। सभी देशों में, सभी काल में कर्मकाण्ड, सामाजिक रीतिनीति सदा ही परिवर्तित होते रहते हैं। एकमात्र ज्ञानकाण्ड ही परिवर्तित नहीं होता। वैदिक युग में भी देख, कर्मकाण्ड धीरे धीरे परिवर्तित हो गया, परन्तु उपनिषद का ज्ञान-प्रकरण आज तक भी एक ही भाव में मौजूद है, सिर्फ उसकी व्याख्या करनेवाले अनेक हो गये हैं।

शिष्य – आप रघुनन्दन की स्मृति लेकर क्या करेंगे?

स्वामीजी – इस बार मठ में दुर्गा-पूजा करने की इच्छा हो रही है। यदि खर्च की व्यवस्था हो जाय, तो महामाया की पूजा करूँगा। इसीलिए, दुर्गोत्सव-विधि पढ़ने की इच्छा हुई है। तू अगले रविवार को जब आयगा, तो उस पुस्तक की एक प्रति लेता आ।

शिष्य – बहुत अच्छा।

दूसरे रविवार को शिष्य स्वामीजी के लिए रघुनन्दनकृत अष्टाविंशतितत्त्व खरीदकर मठ में ले आया। वह ग्रन्थ आज भी मठ के पुस्तकालय में मौजूद है। स्वामीजी पुस्तक को पाकर बहुत ही खुश हुए और उसी दिन से पढ़ना भी प्रारम्भ करके चार-पाँच दिनों में उसे पूरा कर डाला। एक सप्ताह के बाद शिष्य के साथ साक्षात्कार होने पर बोले, “मैंने तेरी दी हुई रघुनन्दन की स्मृति पूरी पढ़ डाली है। यदि हो सका तो इस बार माँ की पूजा करूँगा।”

शिष्य के साथ स्वामीजी की उपर्युक्त्त बातें दुर्गापूजा के दो-तीन मास पहले हुई थी। उसके बाद उन्होंने उस सम्बन्ध में और कोई भी बात मठ के किसी भी व्यक्ति के साथ नहीं की। उनके उस समय के आचरणों को देखकर शिष्य को ऐसा लगता था कि उन्होंने उस विषय में और कुछ भी नहीं सोचा। पूजा के दस-बारह दिन पहले तक शिष्य ने मठ में इसकी कोई चर्चा नहीं सुनी कि इस वर्ष मठ में प्रतिमा लाकर पूजा होगी और न पूजा के सम्बन्ध में कोई आयोजन ही मठ में देखा। स्वामीजी के एक गुरुभाई ने इसी बीच में एक दिन स्वप्न में देखा कि माँ दशभुजा दुर्गा गंगा के ऊपर से दक्षिणेश्वर की ओर से मठ की ओर चली आ रही हैं। दूसरे दिन प्रातःकाल जब स्वामीजी ने मठ के सब लोगों के सामने पूजा करने का संकल्प व्यक्त्त किया तब उन्होंने भी अपने स्वप्न की बात प्रकट की। स्वामीजी इस पर आनन्दित होकर बोले, “जैसे भी हो इस बार मठ में पूजा करनी होगी।” पूजा करने का निश्चय हुआ और उसी दिन एक नाव किराये पर लेकर स्वामीजी, स्वामी प्रेमानन्द एवं ब्रह्मचारी कृष्णलाल बागबाजार में गये। उनके वहाँ जाने का उद्देश यह था कि बागबाजार में ठहरी हुई श्रीरामकृष्ण-भक्तों की जननी श्रीमाताजी के पास कृष्णलाल ब्रह्मचारी को भेजकर उस विषय में उनकी अनुमति ले लेना तथा उन्हें यह सूचित कर देना कि उन्हीं के नाम पर संकल्प करके वह पूजा सम्पन्न होगी, क्योंकि सर्वत्यागी संन्यासियों को किसी प्रकार पूजा या अनुष्ठान ‘संकल्पपूर्वक’ करने का अधिकार नहीं है।

श्रीमाताजी ने स्वीकृति दे दी और ऐसा निश्चय हुआ कि ‘माँ’ की पूजा का ‘संकल्प’ उन्हीं के नाम पर होगा। स्वामीजी भी इस पर विशेष आनन्दित हुए और उसी दिन कुम्हार टोली में जाकर प्रतिमा बनाने के लिए पेशगी देकर मठ में लौट आये। स्वामीजी की यह पूजा करने की बात सर्वत्र फैल गयी और श्रीरामकृष्ण के गृही भक्तगण उस बात को सुनकर उस विषय में आनन्द के साथ सम्मिलित हुए।

स्वामी ब्रह्मानन्द को पूजा की सामग्रियों का संग्रह करने का भार सौंपा गया। निश्चित हुआ कि कृष्णलाल ब्रह्मचारी पुजारी बनेंगे। स्वामी रामकृष्णानन्द के पिता साधक श्रेष्ठ श्री ईश्वरचन्द्र भट्टाचार्य महाशय तन्त्रधारक के पद पर नियुक्त्त हुए। मठ में आनन्द समाता नहीं था। जिस स्थान पर आजकल श्रीरामकृष्ण का जन्मोत्सव होता है, उसी स्थान के उत्तर में मण्डप तैयार हुआ। षष्ठी के बोधन के दो-एक दिन पहले कृष्णलाल, निर्भयानन्द आदि संन्यासी तथा ब्रह्मचारीगण नाव पर माँ की मूर्ति को मठ में ले आये। ठाकुर-घर के नीचे की मंजिल में माँ की मूर्ति को रखने के साथ ही मानो आकाश टूट पड़ा – मूसलाधार पानी बरसने लगा। स्वामीजी यह सोचकर निश्चिन्त हुए कि माँ की प्रतिमा निर्विघ्नतापूर्वक मठ में पहुँच गयी है। अब पानी बरसने से भी कोई हानि नहीं है।

इधर स्वामी ब्रह्मानन्द के प्रयत्न से मठ द्रव्यसामग्रियों से भर गया। यह देखकर कि पूजा के सामग्रियों में कोई कमी नहीं है स्वामीजी स्वामी ब्रह्मानन्द आदि की प्रशंसा करने लगे। मठ के दक्षिण की ओर जो बगीचेवाला मकान है – जो पहले नीलाम्बर बाबू का था, वह एक महीने के लिए किराये से लेकर पूजा के दिन से उसमें श्रीमाताजी को लाकर रखा गया। अधिवास की सायंकालीन पूजा स्वामीजी के समाधि-मन्दिर के सामनेवाले बिल्ववृक्ष के नीचे सम्पन्न हुई। उन्होंने उसी बिल्ववृक्ष के नीचे बैठकर एक दिन जो गाना गाया था, बिल्ववृक्ष के नीचे बोधन बिछाकर गणेश के लिए गौरी का आगमन’ आदि, वह आज अक्षरशः पूर्ण हुआ।

श्रीमाताजी की अनुमति लेकर ब्रह्मचारी कृष्णलाल महाराज सप्तमी के दिन पुजारी के आसन पर विराजे। कौलाग्रणी तन्त्र एवं मन्त्रों के विद्वान् ईश्वरचन्द्र भट्टाचार्य महाशय ने भी श्रीमाताजी के आदेश के अनुसार देवगुरु बृहस्पति की तरह तन्त्रधारक का आसन ग्रहण किया। यथाविधि ‘माँ’ की पूजा समाप्त हुई। केवल श्रीमाताजी की अनिच्छा के कारण मठ में पशुबलि नहीं हुई। बली के रूप में शक्कर का नैवेद्य तथा मिठाइयों की ढेरियाँ प्रतिमा के दोनों ओर शोभायमान हुई।

गरीब-दुःखी दरिद्रों को साकार ईश्वर मानकर तृप्तिदायक भोजन कराना इस पूजा का प्रधान अंग माना गया था। इसके अतिरिक्त बेलुड़, बालि और उत्तरपाड़ा के परिचित तथा अपरिचित अनेक ब्राह्मण पण्डितों को भी आमन्त्रित किया गया था, जो आनन्द के साथ सम्मिलित हुए थे। तब से मठ के प्रति उन लोगों का पूर्व विद्वेष दूर हो गया और उन्हें ऐसा विश्वास हुआ कि मठ के संन्यासी वास्तव में हिन्दू संन्यासी हैं।

कुछ भी हो, महासमारोह के साथ तीन दिनों तक महोत्सव के कलरव से मठ गूँज उठा। नौबत की सुरीली तान गंगाजी के दूसरे तट पर प्रतिध्वनित होने लगी। नगाड़े के रुद्रताल के साथ कलनादिनी भागीरथी नृत्य करने लगी। “दीयतां नीयतां भुज्यताम्” – इन शब्दों के अतिरिक्त मठ के संन्यासियों के मुख से उन तीन दिनों तक अन्य कोई बात सुनने में नहीं आयी। जिस पूजा में साक्षात् श्रीमाताजी स्वयं उपस्थित हैं, जो स्वामीजी की संकल्पित है, देहधारी देवतुल्य महापुरुषगण जिसका कार्य सम्पन्न करनेवाले हैं, उस पूजा के निर्दोष होने में आश्चर्य की कौनसी बात है! तीन दिनों की पूजा निर्विघ्न हुई। गरीब दुःखियों के भोजन की तृप्ति को सूचित करनेवाले कलरव से मठ तीन दिन परिपूर्ण रहा।

महाष्टमी की पूर्व रात्रि में स्वामीजी को ज्वर आ गया था। इसलिए वे दूसरे दिन पूजा में सम्मिलित नहीं हो सके। वे सन्धिक्षण में उठकर बिल्वपत्र द्वारा महामाया के श्रीचरणों में तीन बार अंजलि देकर अपने कमरे में लौट आये थे। नवमी के दिन वे स्वस्थ हुए और श्रीरामकृष्णदेव नवमी की रात को जो अनेक गीत गाया करते थे, उनमें से दो-एक गीत उन्होंने स्वयं भी गाये। मठ में उस रात्रि को आनन्द मानो उमड़ पड़ता था।

नवमी के दिन पूजा के बाद श्रीमाताजी के द्वारा यज्ञ का दक्षिणान्त कराया गया। यज्ञ का तिलक धारण कर तथा संकल्पित पूजा समाप्त कर स्वामीजी का मुखमण्डल दिव्य भाव से परिपूर्ण हो उठा था। दशमी के दिन सायंकाल के बाद “माँ” की प्रतिमा का गंगाजी में विसर्जन किया गया और उसके दूसरे दिन श्रीमाताजी भी स्वामीजी आदि संन्यासियों को आशीर्वाद देकर बागबाजार में अपने निवासस्थान पर लौट गयीं।

दुर्गापूजा के बाद उसी वर्ष स्वामीजी ने मठ में प्रतिमा मँगवाकर श्रीलक्ष्मी पूजन तथा श्यामा-पूजन भी शास्त्रविधि के अनुसार करवाया था। उन पूजाओं में भी ईश्वरचन्द्र भट्टाचार्य महाशय तन्त्रधारक तथा कृष्णलाल महाराज पुजारी थे।

श्यामा-पूजा के अनन्तर स्वामीजी की जननी ने एक दिन मठ में कहला भेजा कि उन्होंने बहुत दिन पहले एक समय “मन्नत” की थी कि एक दिन स्वामीजी को साथ लेकर कालीघाट में जाकर वे महामाया की पूजा करेंगी, अतएव उसे पूरा करना बहुत ही आवश्यक है। जननी के आग्रहवश स्वामीजी मार्गशीर्ष मास के अन्त में शरीर अस्वस्थ होते हुए भी एक दिन कालीघाट में गये थे। उस दिन कालीघाट में पूजा करके मठ में लौटते समय शिष्य के साथ उनका साक्षात्कार हुआ और वहाँ पर किस प्रकार पूजा आदि की गयी, यह वृत्तान्त शिष्य को रास्ते भर सुनाते आये। वही वृतान्त यहाँ पर पाठकों की जानकारी के लिए उद्घृत किया है –

बचपन में एक बार स्वामीजी बहुत अस्वस्थ हो गये थे। उस समय उनकी जननी ने “मन्नत” की थी कि पुत्र के रोगमुक्त होने पर वे उसे कालीघाट में ले जाकर “माँ” की विशेष रूप से पूजा करेंगी और श्रीमन्दिर में उसे “लोट-पोट” करा लायेंगी। उस “मन्नत” की बात इतने दिनों तक उन्हें भी याद न थी। इस समय स्वामीजी का शरीर अस्वस्थ होने से उनकी माता को उस बात का स्मरण हुआ और वह उन्हें उसी भाव से कालीघाट में ले गयी। कालीघाट में जाकर स्वामीजी काली गंगा में स्नान करके जननी के आदेश के अनुसार भीगे वस्त्रों को पहने ही “माँ” के मन्दिर में प्रविष्ट हुए और मन्दिर में श्री श्री काली माता के चरण कमलों के सामने तीन बार लोट-पोट हुए। उसके बाद मन्दिर के बाहर निकलकर सात बार मन्दिर की प्रदक्षिणा की। फिर सभामण्डप के पश्चिम की ओर खुले चबूतरे पर बैठकर स्वयं ही हवन किया। अमित-बलशाली तेजस्वी संन्यासी के यज्ञ-सम्पादन को देखने के लिए “माँ” के मन्दिर में उस दिन बड़ी भीड़ हुई थी। शिष्य के मित्र कालीघाटनिवासी श्रीगिरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भी, जो शिष्य के साथ अनेक बार स्वामीजी के पास आये थे, उस दिन वहाँ गये थे तथा उस यज्ञ को उन्होंने स्वयं देखा था। गिरीन्द्र बाबू आज भी उस घटना का वर्णन करते हुए कहा करते हैं कि जलते हुए अग्निकुण्ड में बार बार घृताहुति देते हुए उस दिन स्वामीजी दूसरे ब्रह्मा की तरह प्रतीत होते थे। जो भी हो, पूर्वोक्त रूप से शिष्य को घटना सुनाकर अन्त में स्वामीजी बोले, “कालीघाट में अभी भी कैसा उदार भाव देखा; मुझे विलायत से लौटा हुआ ‘विवेकानन्द’ जानकर भी वहाँ के अधिकारियों ने मन्दिर में प्रवेश करने में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं की, बल्कि उन्होंने बड़े आदर के साथ मन्दिर के भीतर ले जाकर इच्छानुसार पूजा करने में सहायता की।”

इसी प्रकार जीवन के अन्तिम भाग में भी स्वामीजी ने हिन्दुओं की अनुष्ठेय पूजापद्धति के प्रति आन्तरिक एवं बाह्यिक विशेष सम्मान प्रदर्शित किया था। जो लोग उन्हें केवल वेदान्त वादी या ब्रह्मज्ञानी बताया करते हैं उन्हें स्वामीजी के इन पूजानुष्ठान आदि पर विशेष रूप से चिन्तन करना चाहिए। “मैं शास्त्रमर्यादा को विनष्ट करने के लिए नहीं, पूर्ण करने के लिए ही आया हूँ”, “I have come to fulfil and not to destroy” – कथन की सार्थकता को स्वामीजी इस प्रकार अपने जीवन में अनेक समय प्रतिपादित कर गये हैं। वेदान्तकेसरी श्रीशंकराचार्य ने वेदान्त के घोष से पृथ्वी को कम्पित करके भी जिस प्रकार हिन्दुओं के देव-देवियों के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने में कमी नहीं की तथा भक्ति द्वारा प्रेरित होकर नाना स्तोत्र एवं स्तुतियों की रचना की थी, उसी प्रकार स्वामीजी भी सत्य तथा कर्तव्य को समझकर ही पूर्वोक्त अनुष्ठानों के द्वारा हिन्दूधर्म के प्रति विशेष सम्मान प्रदर्शित कर गये हैं। रूप, गुण तथा विद्या में, भाषणपटुता, शास्त्रों की व्याख्या, लोककल्याणकारी कामना में तथा साधना एवं जितेन्द्रियता में स्वामीजी के समान सर्वज्ञ, सर्वदर्शी महापुरुष वर्तमान शताब्दी में और कोई भी पैदा नहीं हुआ। भारत के भावी वंशधर इस बात को धीरे धीरे समझ सकेंगे। उनकी संगति प्राप्त करके हम धन्य एवं मुग्ध हुए हैं। इसीलिए इस शंकर तुल्य महापुरुष को समझने के लिए तथा उनके आदर्श पर जीवन को गठित करने के लिए जाति का विचार छोड़कर हम भारत के सभी नर-नारियों को बुला रहे हैं। ज्ञान में शंकर, सहृदयता में बुद्ध, भक्ति में नारद, ब्रह्मज्ञाता में शुक देव, तर्क में बृहस्पति, रूप में कामदेव, साहस में अर्जुन और शास्त्रज्ञान में व्यास जैसे स्वामीजी को सम्पूर्ण रूप से समझने का समय उपस्थित हुआ है। इसमें अब सन्देह नहीं कि सर्वतोमुखी प्रतिभासम्पन्न स्वामीजी का जीवन ही वर्तमान युग में आदर्श के रूप में एकमात्र अनुकरणीय है। इस महासमन्वयाचार्य की सभी मतों में समता करा देनेवाली ब्रह्मविद्या के तमोविनाशक किरणसमूह द्वारा समस्त पृथ्वी आलोकित हुई है। बन्धुओं, पूर्वाकाश में इस तरुण अरुण छटा का दर्शन कर उठो, नव-जीवन के प्राणस्पन्दन का अनुभव करो।

सुरभि भदौरिया

सात वर्ष की छोटी आयु से ही साहित्य में रुचि रखने वालीं सुरभि भदौरिया एक डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी चलाती हैं। अपने स्वर्गवासी दादा से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों को पल्लवित करते हुए उन्होंने हिंदीपथ.कॉम की नींव डाली है, जिसका उद्देश्य हिन्दी की उत्तम सामग्री को जन-जन तक पहुँचाना है। सुरभि की दिलचस्पी का व्यापक दायरा काव्य, कहानी, नाटक, इतिहास, धर्म और उपन्यास आदि को समाहित किए हुए है। वे हिंदीपथ को निरन्तर नई ऊँचाइंयों पर पहुँचाने में सतत लगी हुई हैं।

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