धर्म

नवरात्रि दुर्गा पाठ – Navratri Path in Hindi

नवरात्रि दुर्गा पाठ नौ दिन का पाठ है जो दुर्गा सप्तशती पर आधारित है। चैत्र और आश्विन मास की नवरात्रियों के दौरान यह पाठ किया जाता है। पढ़ें नवरात्रि दुर्गा पाठ हिंदी में (Navratri Path in Hindi)–

नवरात्रि दुर्गा पाठ एवं विधि

श्री दुर्गा पूजा विशेष रूप से वर्षभर में दो बार नवरात्रों में की जाती है। आश्विन शुक्ला प्रतिपदा को जो नवरात्र प्रारम्भ होते हैं, उन्हें शारदीय नवरात्र कहते हैं। चैत्र शुक्ला प्रतिपदा से आरम्भ होने वाले नवरात्र वार्षिक नवरात्र कहलाते हैं।

माँ दुर्गा के साधक भक्त को स्नानादि से शुद्ध होकर, शुद्ध वस्त्र पहनकर मण्डप में श्री दुर्गा की मूर्ति अथवा चित्र स्थापित करना चाहिए। मूर्ति के दाहिनी ओर कलश की स्थापना करनी चाहिए। कलश के ठीक सामने जौ बोने चाहिए। मण्डप के पूर्व कोण में दीपक की स्थापना करें। गणपति की पूजा से आरम्भ करके सभी देवी-देवताओं की पूजा के बाद जगदम्बा की पूजा करें।

भस्म, चन्दन, रोली आदि का टीका मस्तक पर लगाकर पूजन आरम्भ करें। बिना टीका लगाये (शून्य मस्तक से) पूजन नहीं करना चाहिए।

नव दुर्गा की प्रार्थना करके सबसे पहले कवच पाठ करें, फिर अर्गला और कीलक का पाठ करें। इसके बाद रात्रि-सूक्त का पाठ करें। इनका पाठ कर लेने पर सप्तशती का पाठ आरम्भ करें।

श्री दुर्गा सप्तशती तेरह अध्यायों में वर्णित है। तेरह अध्यायों में माँ भगवती के तीन चरित्र दिये गये हैं।

  1.  प्रथम चरित्र – ऋग्वेद स्वरूप हैं। पहले अध्याय में “मधु व कैटभ’ नामक दो शक्तिशाली राक्षसों के संहार का वर्णन है।
  2. मध्यम चरित्र – यर्जुर्वेद स्वरूप है। इसमें दूसरे अध्याय से चौथे अध्याय तक महिषासुर राक्षस के संहार का वर्णन है।
  3. उत्तम चरित्र – सामवेद स्वरूप है। पाँचवें अध्याय से ग्यारहवें अध्याय तक शुम्भ- निशुम्भ आदि राक्षसों के वध का वर्णन है।

बारहवें अध्याय में माँ आद्यशक्ति के तीनों चरित्रों का पाठ करने का महत्व है। तेरहवें अध्याय में राजा सुरथ एवं समाधि नामक वैश्य को देवी जी द्वारा दिये गये वरदानों का वर्णन मिलता है। नौ दिनों में इन तेरह अध्यायों का पाठ करके अन्तिम दिन में माँ का भोग, दुर्गा चालीसा, विन्ध्येश्वरी चालीसा, स्तोत्र एवं आरती करके समापन करना चाहिए।

पूजा सामग्री

जल, गंगाजल, पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद, शर्करा), रेशमी वस्त्र, उपवस्त्र, नारियल, रोली, चन्दन, अक्षत (चावल), पुष्प, पुष्पमाला, धूप, दीप, नैवेद्य, फल, सुपारी, पान, लौंग, इलायची, दक्षिणा।

प्रार्थना

करुणामयी! जगजननी, आनंद व स्नेहमयी माँ! आपकी सदा जय हो। हे अम्बे! पंखहीन पक्षी और भूख से पीड़ित बच्चे जिस प्रकार अपनी माँ की राह देखते हैं उसी प्रकार मैं आपकी दया की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। हे अमृतमयी माँ! आप शीघ्र ही आकर मुझे दर्शन दीजिये। मैं आपका रहस्य जान सकूँ ऐसी बुद्धि मुझे प्रदान करिये।

नवरात्रि दुर्गा पाठ का पहला दिन – शैलपुत्री (परिचय)

वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्॥

माँ दुर्गा अपने पहले स्वरूप में ‘शैलपुत्री’ के नाम से जानी जाती हैं। पर्वतराज हिमालय के यहाँ पुत्री के रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका यह ‘शैलपुत्री’ नाम पड़ा था। वृषभ-स्थिता इन माताजी के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बायें हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है। यह दुर्गाओं में प्रथम दुर्गा है।

नव दुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री दुर्गा का महत्त्व और शक्तियाँ अनन्त हैं। नवरात्र-पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है। इस प्रथम दिन की उपासना में योगी अपने मन को ‘मूलाधार’ चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से उनकी योग साधना का प्रारम्भ होता है।

पाठ प्रारम्भ – (नव दुर्गा प्रार्थना)

जय जयकार करो माता की, आओ शरण भवानी की।
एक बार सब प्रेम से बोलो, जय दुर्गे महारानी की।

पहली देवी शैलपुत्री हैं, किये बैल पर असवारी।
अर्ध चन्द्र माथे पर सोहे, सुन्दर रूप मनोहारी॥

लिये कमण्डल फूल कमल के और रुद्राक्षों की माला।
हुई दूसरी ब्रह्मचारिणी, करे जगत में उजियाला॥ 

पूर्ण चन्द्रमा सी शोभित है देवी चन्द्रघण्टा माता।
इनके सुमिरन निर्बल भी, सबल शत्रु पर जय पाता॥ 

चौथी देवी कूष्माण्डा हैं, इनकी लीला है न्यारी।
अमृत भरा कलश है कर में, किये बाघ की असवारी॥ 

कर में कमल सिंह पर आसन, सबका शुभ करने वाली।
मंगलमयी स्कन्द माता हैं, जग का दुःख हरने वाली॥ 

मुनि कात्यायन की कन्या, हैं सबकी कात्यायनी माँ
दानवता की शत्रु और, मानवता की सुखदायिनी माँ।

सप्तम कालरात्रि हैं, देवी महाप्रलय ढाने वाली।
प्राणिमात्र का रक्षण करतीं, महाकाल को खाने वाली॥

श्वेत बैल है वाहन जिनका, तन पर श्वेताम्बर माला।
यही महागौरी देवी हैं, सबकी जगदम्बा माता॥

शंख चक्र और गदा पद्म, कर में धारण करने वाली।
यही सिद्धिदात्री देवी हैं, ऋद्धि-सिद्धि देने वाली॥ 
जय कल्याणमयी नवदुर्गे, जय हो शक्तिदायिनी माँ।
जयति जयति चण्डी नवदुर्गे, जय गिरिजा महारानी माँ॥देवी- कवच

मार्कण्डेय ऋषि बोले- हे पितामह! आप हमें कोई ऐमा परम गुप्त साधन बताइये जिसके द्वारा मनुष्यों की सभी प्रकार से रक्षा हो और जो अभी तक आपने किसी को बताया भी न हो। ब्रह्माजी बोले हे विप्रवर! इस प्रकार का साधन तो परम पवित्र एवं परम गुप्त देवी जी का कवच ही है, इसी से प्राणीमात्र का कल्याण एवं सब प्रकार की रक्षा होती है। उसे सुनिये, देवी जी की नौ मूर्तियों के नाम इस प्रकार हैं- पहली शैलपुत्री, दूसरी ब्रह्मचारिणी, तीसरी चन्द्रघण्टा,चौथी कूष्माण्डा, पाँचवीं स्कन्दमाता, छठी कात्यायनी, सातवीं कालरात्रि, आठवीं महागौरी और नौवीं सिद्धिदात्री है। जो मनुष्य अग्नि में जल रहा हो, युद्ध भूमि में शत्रुओं के मध्य फँस गया हो अथवा घोर संकट से ग्रस्त हो, वह मनुष्य भगवती की शरण में पहुँच जाये तो उसके घोर संकट दूर हो जाते हैं। जो भक्ति भाव से देवी जी का स्मरण करते हैं उनकी सभी प्रकार से उन्नति होती है। हे भगवती ! जो भी आपका स्मरण करते हैं, निःसंशय उनकी आप रक्षा करती हो। प्रेत की सवारी करने वाली चामुण्डा देवी हैं। वाराही महिष पर, ऐन्द्री हाथी पर, वैष्णवी गरुड़ पर, माहेश्वरी बैल पर, कौमारी मोर पर और लक्ष्मी कमल के आसन पर विराजमान हैं। श्वेत रूप धारण करने वाली वृषभ वाहन वाली ईश्वरी देवी हैं, हंस पर चढ़ी हुई सभी आभूषणों से भूषित ब्राह्मी देवी हैं। इस प्रकार अनेक रत्नों से विभूषित सभी योगशक्तयों से संयुक्त ये सब मातायें हैं। यह सभी देवियाँ क्रोध युक्त-मुद्रा में, रथों पर सवार होकर दर्शन देती हैं। ये शंख, चक्र, गदा, शक्ति, हल, मूसल, खेटक, तोमर, परशु, पाश, कुन्द, त्रिशूल, उत्तम आयुध, शारंग, धनुष इत्यादि अस्त्र-शस्त्र दैत्यों के शरीर नाश के लिये, भक्तों को अभय देने के लिये एवं देवताओं के हित के लिए धारण करती हैं। हे देवी! आपके दर्शन कठिन हैं, शत्रुओं के भय को बढ़ाने वाली देवी जी! मेरी रक्षा कीजिये । पूर्व दिशा में मेरी रक्षा ऐन्द्री देवी करें, अग्निकोण में अग्नि देवता, दक्षिण में वाराही, नैऋत्य कोण में खड्ग-धारिणी, पश्चिम में वारुणी, वायुकोण में मृगवाहिनी, उत्तर में कौमारी, ईशान कोण में शूलधारिणी, ऊपर ब्रह्माणीजी, नीचे वैष्णवी देवी रक्षा करें। इसी प्रकार शववाहिनी चामुण्डा देवी दसों दिशाओं में रक्षा करें। जया मेरे आगे की, विजया मेरी पीछे की, बाँई ओर अजिता, दाँई ओर अपराजिता रक्षा करें। उद्योतिनी मेरी शिखा की, उमा मेरे मस्तक पर विराजकर, भौंहों की यशस्विनी, भौंहों के मध्य में त्रिनेत्रा, नासिकाओं की यमघण्टा देवी, नेत्रों के मध्य में शंखिनी, कानों की द्वारवासिनी, कपोलों की कालिका, कानों के मूल देश की शांकरी देवी रक्षा करें। नासिका की सुगन्धा, ऊपर के होंठ की चर्चिका, नीचे के होंठ की अमृतकला एवं जिह्वा की सरस्वती देवी रक्षा करें। दाँतों की कौमारी, कण्ठ की चण्डिका, गले की चित्रघण्टा, तालु प्रदेश की महामाया रक्षा करें। चिबुक की कामाक्षी, वाणी की सर्वमंगला, ग्रीवा की भद्रकाली, पृष्ठ अस्थियों की धनुर्धरी रक्षा करें। कण्ठ से बाहरी भाग की नीलग्रीवा, कण्ठनालिका की नलकूबरी, दोनों कन्धों की खंगिनी एवं मेरे भुजाओं की वज्रधारिणी रक्षा करें। दोनों हाथों की दंडिनी, अंगुलियों की अम्बिका, नाखूनों की शूलेश्वरी, कुक्षि की कुलेश्वरी रक्षा करें। हृदय की ललिता देवी, उदर की शूलधारिणी रक्षा करें। स्तनों की मद देवी, मन की शोक-विनाशिनी, नाभि की कामिनी, गुप्त इन्द्रिय की गुह्येश्वरी, लिंग की पूतकामिनी, गुदा की महिषवाहिनी रक्षा करें। कटि की भगवती, घुटनों की विन्ध्यवासिनी, जंघाओं की महाबली देवी रक्षा करें। गुल्फों की नारसिंही, पाँव के तलुओं की तेजसी, अंगुलियों की श्रीधरीदेवी और तलुओं की पर्वतवासिनी रक्षा करें। नाखूनों की दंष्ट्राकराली, केशों की ऊर्ध्वकेशिनी, रोम छिद्रों की कौमारी और त्वचा की वागीश्वरी रक्षा करें। रक्त, मज्जा, वसा, मांस, अस्थियों एवं मेदे की पार्वती, अन्तड़ियों की कालरात्रि, पित्त की मुकुटेश्वरी रक्षा करें। पद्मकोष की पद्मावती, कफ की चूड़ामणि, नाखूनों के तेज की ज्वालामुखी, सभी सन्धियों की अभेद्या देवी रक्षा करें। हे ब्रह्माणी! आप मेरे वीर्य की रक्षा करें, छाया की छत्रेश्वरी और मन, बुद्धि अहंकार की धर्मधारिणी रक्षा करें। प्राणों की कल्याणशोभना और शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध इन पाँच इन्द्रियों की योगिनी, सत्व, रज, तम की नारायणी सर्वदा रक्षा करें। आयु की वाराही, धर्म की वैष्णवी, यश एवं कीर्ति की लक्ष्मी तथा धन विद्या की चक्रिणी रक्षा करें। इन्द्राणी मेरे गोत्र की, चण्डिका मेरे पशुओं की, महालक्ष्मी मेरे पुत्रों की, भैरवी भार्या की रक्षा करें। मेरे पथ की सुपथा, मार्ग की क्षेमंकरी, राजा के दरबार में महालक्ष्मी एवं सभी दिशाओं में स्थिर होकर विजया मेरी रक्षा करें। और जो भी स्थान कवच में नहीं आये और जो अरक्षित हैं उन स्थानों की पापनाशिनी जयन्ती देवी रक्षा करें। मनुष्य आदि अपना मंगल चाहता है तो एक कदम भी बिना कवच कहीं न जाये। कवच से नित्य रक्षित मनुष्य जहाँ- जहाँ भी जाता है, वहीं से उसे धन का लाभ तथा सभी कामनाओं की सिद्धि प्राप्त होती है। पृथ्वी पर उस पुरुष को ऐश्वर्य एवं अतुल सम्पत्ति प्राप्त होती है। वह मनुष्य निर्भय हो जाता है, युद्ध भूमि में कोई भी उसे नहीं जीत सकता, त्रिलोक भर में पूजा जाता है। यह देवी कवच देवताओं को दुर्लभ है। इसको अत्यन्त श्रद्धा के साथ सावधान होकर जो तीनों संध्याओं में नित्य पढ़ लेता है। उसे देवीकला प्राप्त होती है, कोई भी उसे तीनों लोकों में पराजित नहीं कर सकता। उसे अकाल मृत्यु नहीं आती, वह सौ वर्ष से भी अधिक आयु पाता है। यह कवच उसका तेज, यश और कीर्ति बढ़ा देता है। चण्डी पाठ करने वाला पहले कवच पाठ कर ले। जब तक पर्वत, वन काननों के साथ यह पृथ्वी टिकी रहती है, तब तक ऐसे पुरुष की सन्तति होने पर महामाया की कृपा से देव दुर्लभ परम स्थान की प्राप्ति होती है। कवच का पाठ करने वाला सुन्दर रूप को पाकर सदाशिव के साथ आनन्द पाता है।

श्री अर्गला स्तोत्र

श्री मार्कण्डेय जी बोले- जयन्ती, मंगला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा, स्वधा आदि देवियों को मेरा नमस्कार हो। हे चामुण्डे देवी! समस्त प्राणियों के दुःख निवारण करने वाली आपकी जय हो। सर्वव्यापक देवी कालरात्रि! आपकी जय हो। मधु तथा कैटभ दैत्यों का दलन करने वाली, ब्रह्मा जी को वर देने वाली, आपको नमस्कार हो। हे देवी! आप मुझे सुन्दर रूप दो, जय दो, यश दो तथा क्रोधादि शत्रुओं का नाश करो। महिषासुर का नाश करने वाली, भक्तों की सुखदाता देवी जी को नमस्कार हो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो, शत्रुओं का नाश करो। हे रक्तबीज का वध करने वाली देवी और चण्ड-मुण्ड असुरों का विनाश करने वाली माता! मुझे सुन्दर रूप दो, जय दो, यश दो, शत्रुओं का वध करो! हे पाप-नाशक चण्डिके ! जो सर्वदा भक्तिपूर्वक आपके चरणों में मस्तक झुकाते हैं उन्हें रूप दो, यश दो, शत्रुओं का नाश करो। सभी व्याधियों का नाश करने वाली चण्डिके! जो आपकी भक्तिपूर्वक स्तुति करते हैं उन्हें सुन्दर रूप दो, जय दो, यश दो, शत्रुओं का नाश करो। हे देवीजी! आप मुझे सौभाग्य, आरोग्य और परमसुख दो, रूप दो, जय दो का नाश करी है दवाजा! आप मुझे साभाग्य, आराग्य और परमसुख दो, रूप दो, जय दो, शत्रुओं का विध्वंस करो। मेरा कल्याण कीजिये और उत्तम धन सम्पत्ति दीजिये, सुन्दर रूप दो, जय दो, यश दो, शत्रुओं का नाश करो। हे माता! आपके चरणों पर देवता और दैत्य दोनों ही अपने मुकुट की मणियाँ घिसते रहते हैं। हे मातेश्वरी! अपने भक्त को विद्यावान, यशवान्, लक्ष्मीवान् करो। बड़े-बड़े अभिमानी दैत्यों के अभिमान चूर्ण करने वाली चण्डिके ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। हे चार भुजाओं वाली माता! चर्तुमुख ब्रह्माजी, आपकी स्तुति करते हैं। हे परमेश्वरी ! सुन्दर रूप दो, जय दो, यश दो, शत्रुओं का नाश करो! श्री पार्वती के पति महादेव जी से स्तुत्य हे परमेश्वरी! सुन्दर रूप दो, जय दो, यश दो, शत्रुओं का नाश करो। हे देवी! आप तो कठोर भुजदण्ड रखने वाले दैत्यों का भी घमण्ड नाश कर देती हो। हे अम्बिके! आप अपने भक्तों के लिये अपार आनन्द की वृद्धि करती हो। मुझे रूप दो, जय दो, यश दो, शत्रुओं का नाश करो। हे मातेश्वरी! आप मुझे वह पत्नी प्रदान करें जो मेरी इच्छाओं के अनुकूल हो और इस भयानक संसार रूपी समुद्र से मुझे तारने वाली हो, उत्तम कुल में उत्पन्न हो। जो पुरुष इस अर्गला स्तोत्र का पाठ करके महास्तोत्र (कीलक) का पाठ करता है, वह सप्तशती के पाठ जप से मिलने वाले वर एवं श्रेष्ठ सम्पदा के फल को प्राप्त कर लेता है।

श्री कीलक स्तोत्र

ॐ मैं उन भगवान् सदाशिव को नमस्कार करता हूँ, जिनके तीन दिव्य नेत्र हैं, जिनका शरीर विशुद्ध ज्ञान-स्वरूप है, जो मोक्ष प्राप्ति के कारण हैं, अर्ध चन्द्रमा जिनके मस्तक पर शोभायमान है। श्री मार्कण्डेय ऋषि बोले- मन्त्रों के शाप एवं उत्कीलन आदि को समझकर पाठ करने वाला पुरुष मोक्ष पा लेता है, अतः इसका ज्ञान होना आवश्यक है। सब उच्चाटनादि वस्तुयें इसी स्तोत्र द्वारा पाठ करके सिद्ध होती हैं और जो इस स्तोत्र का पाठ करके, सप्तशती के पाठ मात्र से स्तुति करते हैं, उन्हें देवी जी सिद्ध हो जाती हैं। उच्चाटनादि प्रयोगों से उन पुरुषों को मन्त्र, औषधि आदि किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं पड़ती, बिना जप के भी सभी उच्चाटनादि सिद्ध हो जाते हैं। क्या समस्त उच्चाटनादि इसी से सिद्ध हो जाते हैं ? इस प्रकार की लोगों की शंका हुई, तब उस शंका के निवारण के लिये सदाशिव ने लोगों को बुलाकर आज्ञा दी- यह सब सिद्धियाँ देने वाला शुभ स्तोत्र है। इस चण्डिका स्तोत्र को भगवान् सदाशिव ने गुप्त कर दिया। इस स्तोत्र के पाठ द्वारा प्राप्त होने वाला पुण्य कभी समाप्त नहीं होता। साधक सभी प्रकार का क्षेम प्राप्त कर लेता है, इसमें कोई भी संशय नहीं। कृष्णपक्ष की चतुर्दशी अथवा अष्टमी के दिन एकाग्र होकर जो अपना सब कुछ भगवती के अर्पण करता है और फिर प्रसाद रूपेण ग्रहण कर लेता है, उस पर भगवती प्रसन्न होती हैं। इसी रूप के कीलक द्वारा महादेव ने इसे भी कीलन कर दिया है। जो इसके द्वारा सप्तशती का निष्कीलन करके स्पष्ट होकर नित्य पाठ करता है, वह सिद्ध हो जाता है। जो देवी जी का गण एवं गन्धर्व होता है वह कहीं भी घूम रहा हो उसे कोई भय नहीं होता, न उसकी अकाल मृत्यु होती है, देहान्त होने पर वह मोक्ष पाता है। इसलिये इस कीलक स्तोत्र को समझकर तथा उसका उत्कीलन करके पाठ करना उचित है। जो इस प्रकार नहीं करता उसका नाश होता है। तभी तो बुद्धिमान इसे समझकर ही उत्कीलन से सम्पन्न स्तोत्र का पाठ आरम्भ करते हैं। जो कुछ भी रमणियों में सौन्दर्य सौभाग्य आदि दिखाई देते हैं, ये सबके सब श्री देवी की कृपा के फल हैं। इसी कारण इस शुभ-स्तोत्र का जप सदा करते रहना चाहिये। इस स्तोत्र के मन्द- स्वर में पाठ करने से थोड़ा फल मिलता है। उच्च-स्वर में अधिक फल मिलता है। सभी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। अतः उच्च-स्वर से पाठ याद करें। जिस भगवती की कृपा द्वारा सौभाग्य, आरोग्य, सम्पत्तियाँ, शत्रु नाश तथा परम-मोक्ष की प्राप्ति होती है, उस जगत् की माता की स्तुति करनी चाहिये।

रात्रि सूक्त

महतत्त्वादिरूप व्यापक इन्द्रियों से सब लोकों में समस्त वस्तुओं को प्रकाशित करने वाली ये रात्रिरूपा देवी अपने उत्पन्न किये हुए जगत् के जीवों के शुभाशुभ कर्मों को विशेष रूप से देखती है और उनके अनुरूप फल की व्यवस्था करने के लिये समस्त विभूतियों को धारण करती है। ये देवी अमर हैं और सम्पूर्ण विश्व को, नीचे फैलने वाली लता आदि को तथा ऊपर बढ़ने वाले वृक्षों को भी व्याप्त करके स्थित हैं; इतना ही नहीं, ये ज्ञानमयी ज्योति से जीवों के अज्ञानान्धकार का नाश कर देती हैं। परा चित् शक्तिरूप रात्रिदेवी आकर अपनी बहिन ब्रह्मविद्यामयी उषादेवी को प्रकट करती हैं, जिससे अविद्यामय अन्धकार स्वतः नष्ट हो जाता है। वे रात्रिदेवी इस समय मुझ पर प्रसन्न हों, जिनके आने पर हम लोग अपने घरों में सुख से सोते हैं- ठीक वैसे ही जैसे रात्रि के समय पक्षी वृक्षों पर बनाये हुए अपने घोंसलों में सुखपूर्वक शयन करते हैं। उस करुणामयी रात्रिदेवी के अंक में सम्पूर्ण ग्रामवासी मनुष्य, पैरों से चलने वाले गाय, घोड़े आदि पशु, पंखों से उड़ने वाले पक्षी एवं पतंग आदि, किसी प्रयोजन से यात्रा करने वाले पथिक और बाज आदि भी सुखपूर्वक सोते हैं। हे रात्रिमयी चित् शक्ति! तुम कृपा करके वासनामयी वृकी तथा पापमय वृक को हमसे अलग करो। काम आदि तस्कर समुदाय को भी दूर हटाओ। तदनन्तर हमारे लिये सुखपूर्वक तरने योग्य हो जाओ- मोक्षदायिनी एवं कल्याणकारिणी बन जाओ। हे उषा ! हे रात्रि की अधिष्ठात्री देवी! सब ओर फैला हुआ यह अज्ञानमय काला अन्धकार मेरे निकट आ पहुँचा है। तुम इसे ऋण की भांति दूर करो – जैसे धन देकर अपने भक्तों के ऋण दूर करती हो, उसी प्रकार ज्ञान देकर इस अज्ञान को भी हटा दो। हे रात्रिदेवी! तुम दूध देने वाली गौ के समान हो। मैं तुम्हारे समीप आकर स्तुति आदि से तुम्हें अपने अनुकूल करता हूँ। परम व्योम स्वरूप परमात्मा की पुत्री ! तुम्हारी कृपा से मैं काम आदि शत्रुओं को जीत चुका हूँ, तुम स्तोम की भाँति मेरे इस हविष्य को भी ग्रहण करो।

नवरात्रि दुर्गा पाठ का दूसरा दिन – ब्रह्मचारिणी

दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥

माँ दुर्गा की नव शक्तियों का दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है। यहाँ ‘ब्रह्म’ शब्द का अर्थ तपस्या है। ब्रह्मचारिणी अर्थात् तप की चारिणी-तप का आचरण करने वाली। ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यन्त भव्य है। इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बाएं हाथ में कमण्डलु रहता है। माँ दुर्गा जी का यह दूसरा स्वरूप भक्तों और सिद्धों को अनन्त फल देने वाला है। इनकी उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम की वृद्धि होती है। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन इन्हीं के स्वरूप की उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन ‘स्वाधिष्ठान’ चक्र में स्थित होता है। इस चक्र में अवस्थित मन वाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है।

पहला अध्याय – भगवती की महिमा व मधुकैटभ वध

महर्षि मार्कण्डेय जी बोले- भगवान् सूर्य के पुत्र सावर्णि की उत्पत्ति की कथा को मैं विस्तार से कहता हूँ, आप ध्यान से सुनिये। सूर्य की स्त्री छाया से उत्पन्न सावर्णि जगजननी महामाया की कृपा से जैसे-जैसे मन्वन्तर के अधिपति बने, वह विशिष्ट कथा सुनिये – प्राचीन काल में स्वारोचिश मन्वन्तर के चैत्रवंशी राजा सुरथ समस्त पृथ्वी के चक्रवर्ती राजा हुए। वे प्रजा का अपने पुत्रों की भाँति पालन करते थे। यवन राजाओं से राजा सुरथ की शत्रुता गई, दुष्टदलन राजा सुरथ से उनका भयंकर युद्ध हुआ और थोड़ी सेना होने के कारण यवन राजाओं ने हरा दिया। तदनन्तर राजा अपने नगर में आकर राज्य करने लगा, तो सुरथ को भी अन्य शत्रु राजाओं ने राजा सुरथ पर चढ़ाई कर दी और नगर में भी दुराचारी मन्त्रियों ने राजा का कोष, सैन्य तथा समस्त वस्तुएं छीन लीं। तब राजा हारकर अकेला ही घोड़े पर सवार हो शिकार खेलने के बहाने घोर जंगल में चला गया। वहाँ उन्होंने महर्षि मेधा का सुन्दर आश्रम देखा जो अहिंसक सिंह आदि पशुओं तथा शिष्यों और मुनियों से शोभित था। वहाँ बैठे हुए महर्षि मेधा को राजा सुरथ ने नमस्कार किया और मुनि से उचित सत्कार पाकर उसी आश्रम में रहने लगा। 

कुछ काल के बाद फिर वह अपने राज्य तथा प्रजा की चिन्ता से विचारने लगा कि जिस राज्य को मेरे पूर्वजों ने भली-भाँति चलाया और प्रजा का पालन किया वह आज मुझसे दूर चला गया। दुष्ट मन्त्री राज्य का पालन धर्म-नीति के अनुसार कर रहे होंगे या नहीं और मेरा मुख्य हाथी भी दुश्मनों के वश में हो जाने से क्या-क्या कष्ट भोगता होगा? जो आज्ञाकारी नौकर, नित्य प्रसन्नता से धन और भोजन प्राप्त करते थे, अब उन दुष्ट राजाओं के आश्रय में रहकर कष्ट पाते होंगे। मंत्री राज्य के धन को कुमार्ग में व्यर्थ ही अपव्यय करते होंगे। जो धन मेरे पूर्वजों ने बड़े कष्ट से संग्रह किया था सो नष्ट हो गया होगा। इस प्रकार वह राजा राज्य की सभी बातों की चिन्ता करने लगा। 

कुछ समय पश्चात् एक दिन आश्रम के समीप एक वैश्य को आते देखा तो राजा ने उससे पूछा कि अरे भाई! तुम कौन हो और यहाँ क्यों आये हो? तुम्हारा मलिन मुख शोकयुक्त क्यों दिखाई देता है? इस प्रकार राजा सुरथ की बातों को सुनकर उस समाधि नाम के वैश्य ने राजा सुरथ से कहा कि हे राजन्! मैं समाधि नाम का एक वैश्य हूँ। मेरा जन्म धनवान कुल में हुआ है, मेरे दुष्ट स्त्री व पुत्र आदि ने मुझे धन के लोभ से घर से निकाल दिया है और मेरा धन छीन लिया हैमैं धन, स्त्री-पुत्र से रहित हूँ। अब अकेला दुःखी होकर इस वन में आया हूँ, मुझे अपनी स्त्री एवं बन्धुओं का कुछ पता नहीं। मैं यहाँ रहने के कारण अपनी स्त्री, पुत्र तथा स्वजनों की परिस्थिति को नहीं जानता कि वे इस समय अपने स्थान पर सुखी हैं या दुःखी। मैं यह भी नहीं जानता कि मेरे पुत्र सदाचारी हैं या व्याभिचारी।

राजा बोला- जिन स्त्री पुत्रादि ने तेरी धन सम्पत्ति को छीन लिया है, फिर उन्हीं के स्नेह में तेरा मन क्यों जाता है ? वैश्य बोला- आपने मेरे विषय में जो बातें कहीं वे वास्तव में सत्य हैं। परन्तु मैं क्या करूँ, चित्त में कठोरता उत्पन्न नहीं होती। जिन पुत्रादि ने धन के लोभ में आकर मुझे घर से निकाल दिया है, मेरा चित्त फिर भी उन्हीं में आसक्त होता है। मैं क्या करूँ? इन स्वजनों के निर्मोही होने पर भी मेरे मन में उनके प्रति प्रेम है। 

मार्कण्डेय ऋषि बोले- हे द्विजश्रेष्ठ ! तत्पश्चात् राजा सुरथ और समाधि वैश्य दोनों मिलकर मेधा मुनि के समीप जाकर प्रणाम करके बैठ गये और मेधा ऋषि से कथा प्रसंग करने लगे।

राजा बोला- हे भगवन्! मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ, आप कृपा करके बताओ। हे महाराज! मेरा मन वश में नहीं है, इससे मुझे दुःख है। गये हुए राज्य तथा अन्य सभी स्त्री पुत्र बाँधवों की ममता मुझे अभी तक बनी हुई है। हे मुनिश्रेष्ठ! यह जानते हुए भी मेरा स्नेह उनसे अज्ञानियों की भाँति विशेष बढ़ता जाता है और इस समाधि वैश्य को इसके स्त्री-पुत्रादि हुए ने त्याग दिया तथा इसे घर से बाहर निकाल दिया है। यह भी उनमें अत्यन्त आसक्त रहता है, इसी तरह हम दोनों बहुत दुःखी हैं। हे महाभाग ! उनके दोषों को जानते भी का हृदय उनके प्रति ममता से आसक्त रहता है। इतना ज्ञान होते हुए भी ऐसी ममता क्यों हैं? हम दोनों को अज्ञानियों की भाँति मूढ़ता क्यों उत्पन्न हो रही है?

महर्षि मेधा ने कहा- समस्त जन्तुओं को जानने योग्य ज्ञान होता है। हे महाभाग ! सभी प्राणी पृथक-पृथक होते हैं, कोई दिन में नहीं देखते तो कोई रात्रि में नहीं देखते और कोई दिन-रात्रि में समान दृष्टि से देखते हैं। पुरुष ज्ञान-युक्त है, यह सत्य है, इसमें सन्देह नहीं। केवल इसमें ही नहीं सभी पशु-पक्षी मृगादि में भी मनुष्य की भाँति ही ज्ञान होता है। यह स्थूल ज्ञान होता है। जैसे मनुष्यों में आहार आदि की इच्छा उत्पन्न होती है वैसे ही पशु-पक्षी आदि में आहार-विहार, निद्रा और मैथुन आदि की इच्छा उत्पन्न होती है। ज्ञान होने पर भी पक्षियों को तो देखो, भूखे होने पर भी ममता-वश अपने बच्चों को चोंच में स्नेह से चुगा देकर प्रसन्न होते हैं। हे राजन्! मनुष्य भी अपने पुत्र-पौत्रों से इसी भाँति बर्ताव करते हैं। वह पालन-पोषण इस इच्छा से करते हैं कि जब हमारी वृद्धावस्था आयेगी तब हमारा पालन-पोषण वे करेंगे। क्या तुम यह नहीं देखते कि पुत्रादि उनका भरण-पोषण न भी करें तो भी माता-पिता तो करते ही हैं, क्योंकि विश्व की स्थिति को रखने वाली महामाया के प्रभाव से वे माल के गढ्ढे में डाल दिये गये हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है क्योंकि यह भगवान् विष्णु की योगनिद्रा है। जिससे संसार मोहित हो जाता है। यही भगवान् की महामाया है। वह भगवती देवी बड़े-बड़े ज्ञानियों के चित्त को जबरदस्ती खींच कर मोह में डाल देती है। इस देवी ने ही चराचर विश्व को उत्पन्न किया है और यह देवी प्रसन्न होकर भक्तों को वरदान देती है जिससे मुक्ति मिलती है। वही मुक्ति की परम हेतु सनातनी ब्रह्मज्ञान स्वरूपा विद्या है। 

राजा बोला- हे भगवन्! आप जिसे महामाया कहते हैं वह कौन सी देवी है? वह देवी कैसे उत्पन्न हुई और उसका कार्य क्या है? उसका स्वभाव, स्वरूप, उत्पत्ति आदि के विषय में भी सुनना चाहता हूँ, सो आप सभी वृत्तान्त मुझे सुनाइये।

ऋषि ने कहा- वह देवी नित्य है और चराचर में व्याप्त है। तथापि उसकी उत्पत्ति अनेक भाँति से है, उस कथा को तुम मुझसे सुनो यह भगवती देवताओं के कार्य सिद्ध करने के लिये उत्पन्न होती है और अजन्ण होकर भी उत्पन्ना कहलाती है। जब भगवान् विष्णु विश्व को त्याग, अनन्त में जल ही जल करके योगनिद्रा में शेष- शय्या पर शयन कर रहे थे उस समय विख्यात मधु और कैटभ नाम के दो घोर असुर भगवान् विष्णु के कान की मैल से पैदा होकर ब्रह्माजी को मारने को तैयार हुए। ब्रह्माजी विष्णु भगवान् के नाभि-कमल पर स्थित थे। उन दोनों भयंकर असुरों को मारने को आते देखकर और भगवान् विष्णु को सोता हुआ देखकर, ब्रह्माजी योगनिद्रा की प्रसन्नतार्थ एकाग्रमन से स्तुति करने लगे जिससे कि विष्णुजी के नेत्रों से भगवती योगमाया अपना प्रभाव हटा ले और भगवान् जाग पड़ें। वह योगमाया विश्वेश्वरी, जगत्माता, स्थिति एवं संहार करने वाली, भगवान् विष्णु की अतुल तेज वाली निद्रा-स्वरूपा अनुपम शक्ति है। ब्रह्माजी बोले- हे महामाये! तुम स्वाहा (देवताओं को पालने वाली) हो, तुम स्वधा (पित्रेश्वरों का पोषण करने वाली) हो, तुम ही वषट्कार स्वर (इन्द्र को यज्ञ का हिस्सा पहुँचाने वाली) हो। अमृत भी तुम ही हो, अक्षरों में स्वर तुम्हीं हो तथा नित्य आधी मात्रा (व्यंजन) तुम ही हो। हे देवी! तुम ही सन्ध्या, सावित्री और संसार की जननी हो और हे मातेश्वरी! विश्व को उत्पन्न, पालन और संहार करने वाली आप ही हो। आप ही महाविद्या, महादेवी, महासुरी हो, आप ही समस्त चराचर के तीनों गुणों (सत्त्व, रज, तम) को उत्पन्न करने वाली प्रकृति हो। आप ही कालरात्रि हो, आप खड्ग, शूल, घोर, गदा, चक्र, शंख, धनुष-बाण, भुशुण्डी, परिद्य आदि अस्त्र-शस्त्रों को धारण करने वाली हो। हे देवी! आप ही सौम्यता हो तथा संसार में आप ही अति सुन्दर हो। पर तथा अपरों में श्रेष्ठ आप ही परमेश्वरी हो। जो इस विश्व की रचना और पालन संहार करते हैं उन भगवान् विष्णु को आपने अपनी निद्रा के वश में कर लिया है, फिर भला बताइये कि कौन आपकी प्रार्थना करने में समर्थ है जबकि आपने भगवान् विष्णु, ईशान (शंकर) तथा मुझसे यह शरीर ग्रहण कर लिया है। आप तो अपने प्रभाव से स्वयं प्रकाशित हो। मधु और कैटभ नाम के इन महादुष्टों को आप मोह लीजिये और विश्वपति भगवान् विष्णु को जगाइए। इन दोनों महा-असुरों का संहार करने के लिये भगवान् को बुद्धि दीजिये। 

ऋषि बोले- इस प्रकार जब ब्रह्माजी ने मधु और कैटभ असुरों के संहार के लिये तथा भगवान् विष्णु को जगाने के लिये तामसी देवी की प्रार्थना की तो उसी समय भगवान् विष्णु के नयन, मुख, नाक, भुजा, हृदय और वक्षस्थल से निकलकर अव्यक्त योगमाया उपस्थित हो गई और योगनिद्रा से भगवान् जाग गये। तदन्तर भगवान् विष्णु ने उन पराक्रमी वीर्यवान मधु और कैटभ असुरों को देखा जिनकी ब्रह्माजी को खाने के लिए आँखें लाल हो रही थी। तब भगवान् विष्णु ने शेष-शय्या से उठकर उन असुरों से पाँच हजार वर्ष तक बाहु-युद्ध किया। अति बलशाली महा उन्मत्त दोनों असुरों को महामाया ने मोहित कर रखा था। अतः दुष्टों ने भगवान् से कहा कि आप हमसें वरदान माँगो। भगवान् ने कहा- यदि तुम मुझ पर प्रसन्न हो तो “मेरे हाथों तुम्हारी मृत्यु हो” मैं तो केवल यही वर चाहता हूँ।

ऋषि ने कहा- इस भाँति जब भगवान् ने उनसे वरदान ले लिया तो वे भगवान् से कहने लगे कि हमें सर्वत्र जल-ही- जल दिखाई देता है। इसलिये हे भगवान्! हमारा वध उस स्थान पर कीजिये जिस जगह पर पानी न हो।

ऋषि मेधा ने कहा- तब भगवान् विष्णु ने शंख, चक्र और गदा धारण किये और उनसे ‘तथास्तु’ कहा और दोनों के सिर अपनी जाँघों पर रखकर चक्रम से काट दिये। इस प्रकार यह महामाया देवी श्री ब्रह्माजी की प्रार्थना करने पर स्वयं उत्पन्न हुई है। हे अब इसके प्रभाव को बताता हूँ, आप ध्यान से सुनो।

दूसरा अध्याय – देवी जी का प्रादुर्भाव व महिषासुर की सेना का वध

ऋषि बोले- प्राचीन काल में देवी-देवता तथा दैत्यों में पूरे सौ वर्ष युद्ध होता रहा। उस समय दैत्यों का स्वामी महिषासुर था एवं देवताओं का इन्द्र था। उस संग्राम में देवताओं की सेना महाबली दैत्यों से हार गई। तब सभी देवताओं को जीतकर महिषासुर इन्द्र बन बैठा। तब हारकर सभी देवता ब्रह्माजी को अग्रणी बनाकर वहाँ गये जहाँ विष्णु तथा शंकर विराज रहे थे, वहाँ पर देवताओं ने महिषासुर के सभी उपद्रव एवं अपने पराभव आदि का पूरा-पूरा वृत्तान्त कह सुनाया। उन्होंने कहा कि महिषासुर ने तो सूर्य, अग्नि, पवन, चन्द्रमा, यम तथा वरुण इत्यादि अन्य सभी देवताओं के अधिकार छीन लिये हैं, स्वयं ही सबका अधिष्ठाता बन बैठा है। उसने सभी देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया, महिषासुर महादुरात्मा है, देवता पृथ्वी पर मृत्यों की भाँति विचर रहे हैं। उसके वध का कोई उपाय कीजिये ! इस प्रकार मधुसूदन तथा महादेव जी ने देवतों के वचन सुने तो क्रोध से उनकी भौहें तन गईं। तब भगवान् विष्णु के मुख से एक महान् तेज प्रकट हुआ। इसी प्रकार ब्रह्मा तथा शंकर के मुख से तेज प्रकट हुआ।

दूसरे इन्द्र आदि देवताओं के शरीर से भी महान् तेज प्रकट हो आया, सभी तेज मिलकर एक हो गये। वह तेजपुञ्ज इतना उग्र था जैसे कि जलता हुआ पहाड़ हो। देवताओं ने देखा कि उसकी ज्वालायें सभी दिशाओं में फैल रही हैं। जब वह एक हुआ तो नारी के रूप में आ गया। महादेव जी के तेज से उसका मुख प्रकट हुआ, यम के तेज से उसके केश हुये, विष्णु के तेज से उस देवी की भुजायें प्रकट हुईं। चन्द्रमा से दोनों स्तन, इन्द्र के तेज से उसका कटि प्रदेश, वरुण के तेज से जंघा व उरुस्थल, पृथ्वी के तेज से नितम्बों का प्रादुर्भाव हुआ। ब्रह्मा के तेज से दोनों चरण, सूर्य के तेज से चरणों की अंगुलियाँ, वसुओं के तेज से हाथों की अंगुलियाँ, कुबेर के तेज से नासिका का आविर्भाव हुआ। उसके दाँत प्रजापति के तेज से प्रकट हुए। अग्नि के तेज से तीन नेत्र हुए। सन्ध्याओं के तेज से दोनों भौहें, वायु के तेज से दोनों कान उत्पन्न हुए। इसी प्रकार समस्त देवताओं के तेज द्वारा भगवती का प्रादुर्भाव हुआ। इस प्रकार सभी देवताओं के तेज-पुंज से प्रकट हुई देवी जी को देखकर महिषासुर से पीड़ित समस्त देवता प्रसन्न हुए। महादेव ने देवी को अपने त्रिशूल से शूल निकालकर दे दिया, श्री विष्णु जी ने अपना सुदर्शन-चक्र प्रकट करके दिया। वरुण ने शंख तथा अग्नि ने उसे शक्ति दी, मारुत ने उन्हें धनष दिया और बाणों से भरपर दो तरकस दे दिये। देवराज इन्द्र ने अपने वज्र से वज्र। पैदा करके दिया। फिर सहस्रनेत्र इन्द्र ने ऐरावत हाथी से घण्टा दिया, यमराज ने कालदण्ड से दण्ड प्रदान किया। सागरपति ने रुद्राक्ष माला अर्पित की, ब्रह्मा ने कमण्डलु भेंट किया। सूर्य ने भगवती के भी रोमकूपों में अपनी किरणें प्रदान कीं। काल ने तलवार और उत्तम ढाल अर्पण की, क्षीरसागर ने हार तथा कभी न पुराने होने वाले दो वस्त्र भेंट किये। इसी प्रकार चूड़ामणि, दिव्य कुण्डल तथा दो कड़े भी भेंट किये तथा चमकता हुआ अर्धचन्द्र, सभी भुजाओं के लिये बाजूबन्द, चरणों के लिये नूपुर और कण्ठ के लिये सर्वोत्तम कंठुला भेंट किया। इसी प्रकार सभी अंगुलियों के लिये जड़ित-मुद्रिकायें प्रदान कीं। विश्वकर्मा ने निर्मल परशु भेंट किया और उनके रूपों वाले अस्त्र, अभेद-कवच, मस्तक तथा गले में धारण करने के योग्य कभी न कुम्हलाने वाली कमलों की माला दी। जलधि ने उसे बहुत सुन्दर कमल दिया। हिमालय ने वाहन के लिये सिंह एवं और भी अनेक प्रकार के रत्न भेंट किये कुबेर ने सुरा से भरपूर दिया। सभी नागों के स्वामी एवं पृथ्वी धारण करने वाले शेष जी ने महामणियों से सुशोभित पात्र नांगहार दिया। इसी प्रकार सारे देवताओं ने भी भूषण एवं आयुधों के द्वारा देवीजी का सत्कार किया। तत्पश्चात् भगवती ने अट्टाहस करके ऊँचे स्वर में गर्जना की। उसके भयानक नाद से सारा आकाश भर गया। तब देवगण प्रसन्न होकर उस सिंहवाहिनी देवी की जय-जयकार करने लगे। मुनियोंने भक्तिभाव से नम्र होकर देवीजी की स्तुति की। 

इधर देवताओं के शत्रुओं ने सारी त्रिलोकी को क्षोभग्रस्त देखा, तब तो वे अपनी सारी सेना को कवच आदि से तैयार कराकर अस्त्र-शस्त्र लेकर झट उठ खड़े हुए। महिषासुर क्रोध में आकर बोला- अरे यह क्या हो रहा है? इतना कहकर सभी दैत्यों के साथ घिरकर उस सिंहनाद की ओर भागा। वहाँ जाकर उसने तीनों लोकों को अपने तेज से प्रकाशित करती हुई देवी को देखा। उस देवी के चरणों के भार से पृथ्वी दबी जा रही थी। माथे के किरीट (मुकुट) से आकाश पर रेखायें पड़ती जा रही थीं, उसके धनुष की टंकार से सातों पाताल क्षोभग्रस्त थे और हजारों भुजाओं से भी सभी दिशाओं को ढककर देवी खड़ी हुई थी। देवी जी के साथ उन दैत्यों का युद्ध आरम्भ हो गया। नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र के प्रहारों से दसों दिशायें भर गईं। महिषासुर का सेनापति उस समय चिक्षुर नाम का एक महान दैत्य था। देवीजी के साथ उसी का युद्ध होने लगा। इसी प्रकार अन्य दैत्यों को तथा चतुरंगिनी सेना को साथ लेकर चामर भी युद्ध करने लगा। साठ हजार रथियों को साथ लेकर उदग्र महादैत्य भी युद्ध में प्रवृत्त गया। महाहनु दैत्य पाँच करोड़ रथियों के साथ युद्ध में आ गया। साठ लाख रथियों से आवृत्त वाष्कल दैत्य युद्ध में उतर पड़ा। पारिवारित दैत्य हाथी एवं घोड़ों के अनेकों सवारों के समूह घिरा हुआ रथियों को साथ लाकर देवीजी के साथ युद्ध करने लगा। उस रणांगन में महिषासुर भी रथों, हाथियों एवं अश्वों की सेनाओं से घिरा खड़ा था। तोमर, भिन्दिपाल, शक्ति, मूसल, परशु, पट्टिश, खंग आदि अस्त्रों से युद्ध में देवी जी के साथ युद्ध करने लगे। कुछ दैत्यों ने देवीजी पर शक्तियाँ छोड़ी एवं दूसरों ने पाश फेंके। तब चण्डिका देवी ने अस्त्र- शस्त्रों की वर्षा करके उन्हें तोड़ डाला, इधर देवी जी का वाहन सिंह भी क्रोध में आ गया, अपने गर्दन के बाल हिलाता हुआ दैत्यों की सेना में इस प्रकार घूमने लगा जैसा कि वन में अग्नि फैलती जा रही हो। उस युद्ध भूमि में युद्ध करती हुई अम्बिका ने जितने श्वाँस छोड़े, वे ही झटपट सैकड़ों हजारों गणों के रूप में परिणित हो गये, प्रकट होकर उन गणों ने खंग, भिन्दिपाल, परशु, पट्टिश आदि शस्त्रों से युद्ध प्रारम्भ कर दिया। देवी जी की शक्ति से वृद्धि पाकर वे गण दैत्यों का नाश करने लगे। साथ में दूसरे गण नगाड़े, शंख आदि बजाने लगे। महती प्रसन्नता देने वाले उस युद्ध रूप उत्साह में कुछ एक ने मृदंग बजाये । तब देवी जी ने त्रिशूल, गदा, तलवार और शक्तियों की वर्षा से सैकड़ों महान असुर मार डाले और दूसरे कितने ही दैत्यों को घण्टा के भयप्रदनाद से मूर्छित करके मार कर गिरा दिया। मरे दैत्यों को पाश से बाँधकर पृथ्वी पर घसीट डाला। कितने तो गदा की चोट से घायल होकर पृथ्वी पर सो गये, मूसलों के प्रहार से कई एक रुधिर वमन करने लगे एवं कई एक शूल द्वारा वक्षस्थल फट जाने से पृथ्वी पर सो गये, कितने ही दैत्य बाणों की वर्षा द्वारा युद्ध करते हुए प्राण छोड़ने लगे। कितने ही दैत्यों की भुजायें कट गईं, कितनों की ग्रीवायें छिन्न-भिन्न हो गई, कई दैत्यों के सिर कट गये, कुछ मध्य से विदीर्ण हो गये, कुछ दैत्यों की जंघाएं कट गईं व पृथ्वी पर गिर गये और कुछ एक दैत्यों को तो एक भुजा एक आँख और एक पाँव वाला करके दो टुकड़े कर डाला। मार-मारकर गिराये हुए रथी, हाथी, घोड़े एवं असुरों की लाशों के द्वारा, जहाँ महायुद्ध हो रहा था, वहाँ की पृथ्वी इस प्रकार भर गई कि वहाँ पर आना-जाना कठिन हो गया। वहाँ सेना एवं असुरों के रुधिर बहने से रुधिर की बड़ी-बड़ी नदियाँ बहने लगीं। जगदम्बा जी ने एक क्षण में ही दैत्यों की महती सेना का इस प्रकार नाश कर दिया जैसे कि लकड़ियों के बड़े ढेर को अग्नि जला देती है। देवी का वाहन सिंह अपने बालों को छटकाता हुआ बड़ी गर्जना करता हुआ, दैत्यों के शरीर से मानों प्राण ही चुन रहा हो इस प्रकार घूमने लगा। देवी जी के उन गणों ने महा असुरों के साथ बड़ा युद्ध किया जिससे देवता प्रसन्न होकर आकाश से पुष्पों की वर्षा करने लगे।

तीसरा दिन – (चन्द्रघण्टा)

पिण्डजप्रवरारूढा चण्डकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते मह्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुता॥

माँ दुर्गाजी की तीसरी शक्ति का नाम ‘चन्द्रघण्टा’ है। नवरात्रि उपासना में तीसरे दिन इन्हीं के विग्रह का पूजन-आराधना किया जाता है। इनका यह स्वरूप परम शान्तिदायक और कल्याणकारी है। इनके मस्तक में घण्टे के आकार का अर्धचन्द्र है, इसी कारण से इन्हें चन्द्रघण्टा देवी कहा जाता है। इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है। इनका वाहन सिंह है।

हमें चाहिए कि अपने मन, वचन, कर्म एवं काया को विहित विधि-विधान के अनुसार पूर्णतः परिशुद्ध एवं पवित्र करके माँ चन्द्रघण्टा के शरणागत होकर उनकी उपासना-आराधना तत्पर हों। उनकी उपासना से हम समस्त सांसारिक कष्टों से विमुक्त होकर सहज ही परमपद के अधिकारी बन सकते हैं।

तीसरा अध्याय – (महिषासुर का वध)

ऋषि बोले- महा असुर चिक्षुर सेनापति ने जब यह देखा कि सेना तो इस प्रकार मारी जा रही है। तब उसे बड़ा क्रोध उत्पन्न हो गया और वह स्वयं भी अम्बिका के साथ युद्ध करने निकल पड़ा। युद्ध में जाकर उसने देवी जी पर बाणों की इस प्रकार वर्षा की जैसे मेघ सुमेरु पर्वत की चोटी पर जाकर जलधारा बरसा रहा हो। तब देवी ने उसके बाण-समूहों को खेल में ही काट दिया। फिर बाणों द्वारा उसके सारथी, घोड़ों को मार डाला, फिर झटपट उसका धनुष और ऊँची लहराती ध्वजा काटकर गिरा दी। जब उसका धनुष कट चुका तब अपने बाणों  से उसके अंग बींध डाले। जिसका सारथी एवं घोड़े मर चुके थे और धनुष कट चुका था, तब् वह बिना रथ के पैदल तलवार ढाल लेकर देवी की ओर दौड़ा, तेज तलवार से सिंह पर जाते ही प्रहार कर दिया, फिर देवी जी की वाम भुजा पर जोर से प्रहार किया। हे राजन्! ज्यों ही उसकी तलवार देवी की भुजा पर पड़ी त्यों ही टूट गई। फिर असुर क्रोध से आँखें लाल करके शूल पकड़ लिया, भद्रकाली जी पर उस दैत्य ने शूल डाल दिया। वह शूल इस प्रकार चमकता जैसे कि आकाश से सूर्य मण्डल गिर रहा हो। देवी जी ने अपनी ओर आते हुए शूल को देखकर उस पर अपना शूल चला दिया, जिससे वह शूल सैकड़ों टुकड़े हो गया, साथ में उस चिक्षुर महादैत्य के प्राण निकल गये।

जब महिषासुर का बलवान सेनापति मारा गया तब देवशत्रु-चामर हाथी पर बैठकर आ गया और आते ही उसने अम्बिका देवी पर शक्ति का प्रहार किया। श्री देवी जी ने हुंकार द्वारा ही तेजहीन कर उसे जमीन पर गिरा दिया। अपनी शक्ति को गिरा हुआ देखकर चामर को बड़ा क्रोध आ गया। उसने पुनः शूल का प्रहार कर दिया। शूल को भी देवी जी ने बाणों द्वारा उछाल डाला। तब सिंह उछलकर हाथी के मस्तक पर चढ़ बैठा, फिर दैत्य के साथ भुजा- युद्ध करने लगा। वे दोनों परस्पर लड़ते-लड़ते उस हाथी पर से नीचे पृथ्वी पर आ गिरे और भयंकर प्रहारों से परस्पर युद्ध करने लगे। तब बड़े वेग से सिंह ऊपर को उछला और ऊपर आकाश से नीचे की ओर गिरते-गिरते पंजों के प्रहार से दैत्य चामर का सिर धड़ से अलग कर डाला। 

देवी जी ने शिला एवं वृक्ष आदि से युद्ध में उदग्र को मार डाला। फिर कराल को भी दाँतों, मुक्का एवं थप्पड़ों के द्वारा मार गिराया। क्रोध में परिपूर्ण देवी ने गदा की चोटों से उद्धत को चूर-चूर कर दिया। भिन्दिपाल-शस्त्र द्वारा वाष्कल तथा बाणों द्वारा अंधक एवं ताम्र को मारकर यमधाम भेज दिया। त्रिनेत्रधारिणी देवी परमेश्वरी ने उग्रास्य, उग्रवीर्य, महाहनु नाम के दैत्यों को त्रिशूल द्वारा मार दिया। तलवार से विडाल का सिर धड़ से अलग कर दिया, दुर्धर और दुर्मुख इन दोनों को बाणों द्वारा यमपुरी पहुँचा दिया। इस प्रकार अपनी सेना का नाश होता देखकर भैंसे का रूप बनाकर महिषासुर उन गणों को डराने लगा। कुछ एक गणों पर अपने थुथुनों से प्रहार किया। दूसरों को सींगों से फाड़ा। कुछ एक को वेग द्वारा, दूसरों को सिंहनाद द्वारा और घूमने से, अन्यों को श्वांस वायु द्वारा पृथ्वी पर गिराया। इस प्रकार गण-सेना को गिराकर वह महिष सिंह की ओर झपटा। ज्यों ही सिंह को मारने लगा, तब जगदम्बा को बड़ा क्रोध उत्पन्न हुआ। इधर महापराक्रमी महिषासुर भी क्रोध से पृथ्वी-तल को अपने खुरों से खोदने लगा फिर सींगों से बड़े ऊँचे-ऊँचे पहाड़ उठाकर फेंकने लगा, साथ में गर्जने लगा। वेग के साथ घूमने पर पृथ्वी क्षुब्ध होकर फटने लगी। उसने पूँछ से समुद्र पर प्रहार किया, जिससे क्षुब्ध होकर समुद्र पृथ्वी को चारों ओर से डुबाने लगा। 

चलायमान होते हुए सींग के द्वारा छिन्न-भिन्न हुए बादल के टुकड़े-टुकड़े हो गये। उसके श्वासों की कठोर वायु से उड़ते हुए सैकड़ों पर्वत आकाश से गिरने लगे। इस प्रकार क्रोधपूर्ण उस महादैत्य को अपनी ओर आता देखकर चण्डिका उसे मारने के लिये क्रोध में आ गई। कुपित चण्डिका ने उसकी ओर पाश फेंका व उसके द्वारा उस दैत्य को बाँध लिया। तब तो उस महायुद्ध में बँधे उस दैत्य ने अपने महिषासुर रूप का त्याग कर दिया। झटपट सिंह के रूप में आ गया।

ज्योंही चण्डिका उसका सिर काटने लगी तब तो वह तलवार हाथ में लिये पुरुष दिखाई देने लगा। तब शीघ्रता से तलवार ढाल वाले इस पुरुष को अपने बाणों से देवी ने बींध डाला। अब वह एक बड़ा हाथी हो आया। अपनी सूँड़ से देवी के सिंह को खींचा फिर गर्जने लगा। उसके खींचते समय अपनी खड्ग के द्वारा देवी ने उसकी सूँड़ को काट दिया, फिर वह महादैत्य भैंसे के रूप में आ गया और चराचर त्रिलोकी को सताने लगा तो जगत्माता चण्डिका क्रोध में आकर फिर उत्तम मधुपान करने लगी और लाल-लाल नेत्र करके हँसने लगी। वह दैत्य बल पराक्रम के मद में उन्मत्त होकर गर्जने लगा और अपने सींगों से पहाड़ उठा-उठाकर देवी की ओर फेंकने लगा। देवीजी ने भी अपने बाणों के समूह से उसके फेंके हुए पर्वतों को चूर- चूर कर दिया। तब सुरापान के मद के कारण लाल-लाल नेत्र वाली चण्डिका जी ने कुछ अस्त- व्यस्त शब्दों में कहा। देवीजी बोलीं- हे मूढ़ ! जब तक मैं मधुपान कर लूँ तब तक तू क्षण भर के लिए गर्ज ले, मेरे द्वारा संग्राम भूमि में तेरा वध हो जाने पर तो शीघ्र ही देवता भी गर्जने लगेंगे।

ऋषि बोले- इस प्रकार कहकर देवी जी उछलकर उस महादैत्य पर चढ़ गयीं, पाँव से दबाकर दैत्य के कण्ठ पर त्रिशूल से वार किया। देवी के पाँव से दबे हुए उस दैत्य ने अपने मुख से बाहर निकलने का प्रयत्न दूसरे रूप में किया, अभी आधा निकल ही पाया था कि देवी जी ने अपने पराक्रम द्वारा उसे वहीं रोक लिया। आधा निकलकर भी उस दैत्य ने युद्ध करना नहीं छोड़ा। तब देवीजी ने अपनी तेज तलवार से उसका सिर काटकर नीचे गिरा दिया। दैत्य सेना हा-हाकार करने लगी, तब उस सारी सेना का भी देवीजी ने नाश कर दिया। सभी देवता अत्यन्त प्रसन्न हुए। दिव्य महर्षियों के साथ सभी देवताओं ने स्तुतियाँ की। गन्धर्वराज गायन करने लगे, अप्सरायें नाचने लगीं।

चौथा अध्याय – (देवताओं द्वारा देवी की स्तुति) 

ऋषि बोले- अत्यन्त पराक्रमी उस दुरात्मा महिषासुर एवं उसकी सेना के देवी द्वारा मारे जाने पर इन्द्र आदि देवतागण अपनी वाणियों द्वारा देवी जी की स्तुति करने लगे- जिस देवीजी ने अपनी शक्ति से सारे जगत् को व्याप्त कर लिया है, जिसका स्वरूप सभी देवताओं का समूह है, सभी देवता एवं महर्षि जिसकी पूजा किया करते हैं, उस अम्बिका देवी को हम प्रणाम करते हैं, वही देवी हमारा मंगल करें। जिसके अतुल प्रभाव को एवं बल को भगवान् शेषनाग, ब्रह्मा तथा हरि भी नहीं कह सकते, वही चण्डिका देवी सारे जगत् के पालन के लिये तथा अमंगल के भय के नाश का विचार करें।

जो श्रीस्वरूपिणी पुण्यात्माओं के घरों में तो लक्ष्मी स्वरूपा हैं, पापियों के घरों में दरिद्रता,पवित्र बुद्धिवालों के हृदय में बुद्धि, श्रेष्ठ पुरुष के यहाँ श्रद्धा, कुलीन मनुष्य में लज्जा- स्वरूपिणी हैं, इस प्रकार की हे देवी जी ! हम आपको प्रणाम करते हैं। हे भगवती ! आप विश्व का पालन करें, हे मातेश्वरी! आपके इस अचिन्त्य रूप का, असुरों के क्षय करने वाले आपके महान् पराक्रम का एवं देवता तथा असुरों के सामने संग्राम में किये गये आपके अद्भुत चरित्रों का वर्णन हम किस प्रकार कर सकते हैं।

हे भगवती! आप सम्पूर्ण जग का कारण हो । सत्व, रज, तम- इन तीनों गुणों वाली होते हुए भी आप अज्ञेय हो। दोषों के कारण हम लोग आपको जान ही नहीं सकते। हम तो क्या विष्णु, शिव आदि भी आपका पार नहीं पा सकते। आप सबकी आश्रय हो एवं आप आद्या, अव्याकृता, पराप्रकृति हो । हे देवीजी! सभी यज्ञों में, जिसके उच्चारण करने से सभी देवता तृप्त हों, आप ऐसा अचिन्त्य महाव्रत स्वरूप हो और सम्पूर्ण दोषों से रहित इन्द्रियों को वश में करने वाले तत्व को ही सार जानने वाले मोक्षार्थी मुनिजन जिसका अभ्यास करते हैं, वह देवी भगवती पराविद्या आप हो। आप शब्द-स्वरूपा हो। परम पवित्र ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं मनोहर उद्गीथ के पदों के पाठ से युक्त सामवेद का आप निधान हो। वेदत्रयी देवी हो, छह गुणों से सम्पन्न आप भगवती हो। सभी शास्त्रों का ज्ञान कराने वाली हे देवी! आप मेधा हो, दुर्गम संसार रूप सागर से पार उतारने वाली नौकारूप दुर्गा हो। आप असंग हो, कैटभ दैत्य के शत्रु विष्णु के वक्षस्थल पर निवास करने वाली आप लक्ष्मी स्वरूपा हो एवं चन्द्रमा को मस्तक पर धारण करने वाले भगवान् शंकर से सम्मानित आप गौरी हो । यद्यपि आपका मुख सुन्दर तथा परिपूर्ण चन्द्रमा के बिम्ब का अनुकरण करने वाला एवं निर्मल मन्द मुस्कान शोभित है। इस प्रकार के निर्मल मन्द मुस्कान से शोभित चन्द्रमुख को देखकर क्रोध से परिपूर्ण से महिषासुर ने झट ही आप पर प्रहार किया। यह अद्भुत बात है। उससे भी अतीव अद्भुत एवं विचित्र बात तो यह है कि जब वह मुख क्रोध से युक्त था, उदय होते हुए चन्द्रमा की भाँति लाल-लाल था, तनी हुई भौहें अति विकराल थीं, ऐसा देखकर महिषासुर ने अपने प्राण तुरन्त वहीं पर नहीं छोड़ दिये। भला ऐसा कौन सा प्राणी है जो क्रोधी यमराज को देखकर भी जीवित रह सके? हे देवी जी ! आप प्रसन्न हों, सर्वदा उन्नति-दाता देवी जी ! आप जिन पर प्रसन्न हैं वे ही सभी लोकों में आदर पाते हैं, उन्हें ही धन तथा यश मिलता है। हे देवी! आपकी कृपा से उसे स्वर्ण लाभ होता है, इसी कारण आप तीनों लोकों में फल देने वाली हो। आपसे बढ़कर और कौन है ? सबके लिये उपकार करने वाली हो, आप सर्वदा दयामयी हो। इन राक्षसों के वध करने से जगत् सुखी हो, ये राक्षस कभी नरक के लिये चिरकाल तक भले ही पाप करते रहे हों, संग्राम में इनका वध आपने इसलिये किया कि मुझसे मारे हुए ये स्वर्ग चले जायें। यही मन में रखकर हे देवी! आप पापियों का वध करती हो। आप असुरों को केवल देखने मात्र से भस्म क्यों नहीं करती, शत्रुओं पर शस्त्रों का प्रहार क्यों कर दिया करती हो? इसका भी कारण है, क्योंकि शत्रुगण मेरे शस्त्रों से मरकर पवित्र होकर उत्तम लोकों में पहुँचे। इस प्रकार आपके यह विचार अत्युत्तम हैं। आपका शील-स्वभाव दुराचारियों के दुष्ट स्वभाव को निवृत्त करने वाला है और आपका रूप अचिन्त्य है उसकी अन्य किसी के साथ तुलना ही नहीं हो सकती। आपका पराक्रम तो देवताओं के पराक्रम का नाश करने वाला और दैत्यों का नाश करने वाला है। इसी प्रकार आप शत्रुओं पर भी दया किया करती हो। आपके पराक्रम की तुलना, हे देवी! किसके साथ हो सकती है? आपके रूप भी तो परम मनोहर हैं, परन्तु शत्रुओं को भयदायक हैं। हे वरदायिनी ! त्रिलोकी भर में यह आप में ही दिखाई देते हैं। हे देवी जी ! शत्रुओं का विनाश करके उन्हें स्वर्ग में पहुँचा दिया और हमारा भय भी दूर कर दिया, जो कि हमें उन्मत्त दानव डराया करते थे। हे माता! आपको नमस्कार है। हे देवी! हमारी शूल से रक्षा करें। हे अम्बिके! खड्ग द्वारा हमारी रक्षा करें एवं घण्टा के शब्द तथा धनुष की टंकार से भी हमारी रक्षा कीजिये। हे चण्डिके! पूर्व, पश्चिम, दक्षिण में हमारी रक्षा करें, अपने त्रिशूल को घुमा घुमा कर उत्तर में भी हमारी रक्षा कीजिये।

 ऋषि बोले- इस प्रकार देवी जी की देवताओं ने स्तुति की और नन्दन वन में उत्पन्न हुए फूलों तथा गन्ध, चन्दन आदि से जगत् की माता की उपासना की। सभी देवताओं ने भक्तिपूर्वक दिव्य-धूपों द्वारा अर्चना की। 

तब देवी प्रसन्न -मुख होकर उन देवताओं से बीलीं- हे सभी देवताओं! अपनी अभिलाषा के अनुसार आप सब हमसे वर माँगों । देवता बोले- हे भगवती ! आपने तो हमारी सभी कामनाएं पूर्ण कर दीं, कुछ भी बाकी नहीं। हमारे इस महिषासुर शत्रु का आपने वध कर दिया। फिर भी यदि प्रसन्नतापूर्वक हमें वर देना चाहती हो तो हे माता ! यह वर दीजिये कि जब-जब भी हम आपका स्मरण करें, तब-तब हमारी बड़ी-बड़ी आपत्तियाँ आप दूर करें। हे प्रसन्नवदने ! मातेश्वरी! जो भी मनुष्य इन स्तुतियों द्वारा आपकी स्तुति करें, उसे ऋद्धि, वैभव दीजिये। हे अम्बिके! हम पर सदा प्रसन्न रहिये। 

ऋषि बोले- राजन्! जब देवताओं ने अपने तथा जगत् के कल्याण के लिये इस प्रकार वर माँगा तब उन्हें ‘तथास्तु’ कहकर भद्रकाली अन्तर्ध्यान हो गयीं। हे राजन् ! पूर्वकाल में तीनों लोकों का हित चाहने वाली देवी का देवताओं के शरीर से जैसे प्राकट्य हुआ, वह सारी कथा मैंने कह सुनाई।

चौथा दिन – कूष्माण्डा

सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु में। 

माँ दुर्गा के चौथे स्वरूप का नाम कूष्माण्डा है। अपनी मन्द, हल्की हँसी द्वारा अण्ड अर्थात् ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से अभिहित किया गया है। नवरात्र पूजन के चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन ‘अनाहत’ चक्र में अवस्थित होता है। अतः पवित्र मन से पूजा-उपासना के कार्य में लगना चाहिए। माँ की उपासना मनुष्य को सहज भाव से भवसागर से पार उतारने के लिए सर्वाधिक सुगम और श्रेयस्कर मार्ग है। माँ कूष्माण्डा की उपासना मनुष्य को आधियों- व्याधियों से सर्वथा विमुक्त करके उसे सुख, समृद्धि और उन्नति की ओर ले जाने वाली है। अतः अपनी लौकिक पारलौकिक उन्नति चाहने वालों को इसकी उपासना में सदैव तत्पर रहना चाहिए।

 पाँचवाँ अध्याय – (देवी की स्तुति-अम्बिका के रूप में प्रशंसा)

ऋषि बोले- प्राचीन समय में शुम्भ निशुम्भ दोनों असुरों ने बल के मद में आकर इन्द्र का त्रिलोकी का राज्य और यज्ञों के भाग छीन लिये। उन्हीं दोनों ने सूर्य, चन्द्रमा, कुबेर और वरुण का अधिकार पा लिया। वायु एवं अग्नि का काम भी। वे ही करने लगे। देवताओं को तो अपमानित, पराजित एवं राज्य भ्रष्ट करके स्वर्ग से निकाल दिया। जिनके अधिकार उन दोनों असुरों ने छीन लिये थे, वे सभी पराजित देवता अपराजिता देवी का स्मरण करने लगे कि उस देवी ने तो हमें वर दिया हुआ है कि आपत्तिकाल में मेरा स्मरण करने पर तुम्हारे महान् संकट तत्क्षण में दूर कर दूँगी। यही वरदान विचार कर पर्वतराज हिमालय के पास भी देवता पहुँचेवहाँ भगवती की स्तुति करते हुए देवता बोले- देवी एवं महादेवी को नमस्कार हो, शिवा को सदा नमस्कार हो, प्रकृति भद्रा को नमस्कार हो, हम सुस्नियम उस भगवती को प्रणाम करते हैं। रुद्ररूपा को नमस्कार, नित्य-स्वरूपा गौरी एवं धात्री को नमो नमः हो। ज्योत्सना-रूपिणी, चन्द्र-स्वरूपा एवं सुखमयी को निरन्तर नमो नमः । प्रणाम करने वालों की उन्नति करने वाली सिद्धिस्वरूपा को नमस्कार हो। दैत्यों की लक्ष्मी, राज्य – लक्ष्मी, शिवशंकर-पत्नी माताजी को नमो नमः हो। दुर्गा, संकट के पार कराने वाली दुर्ग-पारा, सार-रूप सारा, सर्वकारिणी, ख्याति, कृष्णा, धूम्रादेवी को निरन्तर नमस्कार हो। अत्यन्त सुन्दर एवं अत्यन्त भयंकर रूप उस देवी को बार-बार प्रणाम हो। जगत् की प्रतिष्ठा- रूपा कृति देवी को नमो नमः हो। जो देवी सभी प्राणियों में चेतना कही जाती है, उसे बार- बार नमस्कार हो। जो देवी सभी प्राणियों में निद्रा-रूप से कही गई है, उसे नमस्कार, उसे बार- बार नमस्कार हो। जो देवी सभी जन्तुओं में क्षुधा और छाया रूप में स्थित है, उसे नमस्कार, उसे बार-बार नमस्कार हो। जो देवी प्राणियों में क्षमा शक्ति तथा तृष्णा रूप में स्थित है, उसे नमस्कार हो, उसे नमस्कार हो, उसे बार-बार नमस्कार हो। जो देवी सब प्राणियों में लज्जा, शान्ति और श्रद्धा रूप में स्थित है, उसे नमस्कार, उसे नमस्कार, उसे बार-बार नमस्कार हो।

जो देवी सभी प्राणियों में कान्ति रूप में स्थित है, उसे नमस्कार, उसे नमस्कार, उसे बार-बार नमस्कार हो  जो देवी सभी प्राणियों में कान्ति रूप में स्थित है, उसे नमस्कार, उसे नमस्कार, उसे बार- बार नमस्कार हो। जो देवी सभी प्राणियों में भ्रान्ति, कान्ति और जो लक्ष्मी रूप से स्थित है उसे नमस्कार, उसे नमस्कार, उसे बार-बार नमस्कार हो। जो देवी समस्त जीवमात्र में वृत्ति- रूप में स्थित है, उसे नमस्कार, उसे नमस्कार, उसे बार-बार नमस्कार हो। जो देवी समस्त जीवमात्र में स्मृति रूप में स्थित है, उसे नमस्कार, उसे नमस्कार, उसे बार-बार नमस्कार हो। जो देवी समस्त जीवमात्र में तुष्टि-रूप से स्थित है, उसे नमस्कार, उसे नमस्कार, उसे बार- बार नमस्कार हो। जो देवी समस्त जीव मात्र में माता रूप में स्थित है, उसे नमस्कार, उसे नमस्कार, उसे बार-बार नमस्कार हो। जो देवी समस्त जीव मात्र में भ्रान्ति-रूप में स्थित है, उसे नमस्कार, उसे नमस्कार, उसे बार-बार नमस्कार हो। जो देवी समस्त इन्द्रियों तथा सम्पूर्ण जीवमात्र की अधिष्ठात्री है और समस्त जीव मात्र में निरन्तर व्याप्त रहती है, उसको बार-बार नमस्कार है। जो देवी इस सारे जगत् में व्याप्त होकर चैतन्य रूप में स्थित है, उसे नमस्कार, उसे नमस्कार, उसे बार-बार नमस्कार हो। प्राचीन काल में अपने मनोरथों की सिद्धि के लिये देवताओं ने जिस देवी की स्तुति की, इसी प्रकार कई दिनों तक सुरपति इन्द्र जिनकी सेवा करता रहा, वह मंगलारूपा परमेश्वरी हमारा मंगल एवं कल्याण करें और हमारी विपत्तियाँ दूर करें। दुष्ट दैत्यों से सन्तापित हम सम्पूर्ण देवता जिस भगवती ईश्वरी को नमस्कार कर रहे हैं और भक्तिपूर्वक नम्रता के स्वरूप मनुष्यों द्वारा स्मरण किये जाने पर उनकी विपत्तियों का नाश कर देती है, वह हमारी भी सभी विपत्तियों को दूर करें। 

ऋषि बोले- हे राजन्! सभी देवता जब इस प्रकार भगवती की स्तुति कर रहे थे, उस समय श्री गंगाजी के जल में स्नान करने के लिये श्रीपार्वती जी आयीं। उस समय सुन्दर भौहों वाली पार्वतीजी ने देवताओं से पूछा कि तुम • लोग किसकी स्तुति कर रहे हो। तब उनके शरीर कोश से प्रकट होकर शिवा बोली, ये देवता तो शुम्भ दैत्य से सताए हुए एवं संग्राम में निशुम्भ से पराजित हुए, मिलकर मेरी ही स्तुति कर रहे हैं। श्री पार्वतीजी के शरीरकोश से श्री अम्बिका जी का प्राकट्य हुआ। इसी कारण सारे संसार में कौशिकी के नाम से प्रसिद्ध हैं। इस प्रकार जब कौशिकी प्रकट हुई, श्रीपार्वती रूप में काली हो गयीं। अतः हिमालय में रहने वाली कालिका नाम विख्यात हुआ। उसके अनन्तर शुम्भ निशुम्भ के सेवक चण्ड तथा मुण्ड ने वहाँ आकर उस अम्बिका देवी को देखा जो उस समय परम सुन्दर रूप धारण कर रही थीं। उन दोनों ने शुम्भ दैत्य को जाकर कहा कि हिमालय को अपनी कान्ति से प्रकाशित करती हुई परम सुन्दर स्त्री वहाँ बैठी है। वैसा उत्तम परम सुन्दर रूप किसी ने भी कहीं देखा न होगा। हे असुरराज! वह देवी कौन होगी इस बात का आप ही पता लगाइए और उसे ग्रहण कीजिये । वह स्त्री क्या है, रत्न ही है, उसके तो सभी अंग बड़े मनोहर हैं। अपनी दिव्यकान्ति से सभी दिशाओं को प्रकाशित कर रही है। हे दैत्येन्द्र ! वह तो बैठी हुई है, आप जाकर उसे देख सकते हैं। हे प्रभो! जैसे भी हो आप उसे ग्रहण कीजिये। 

ऋषि बोले- तब चण्ड-मुण्ड के वचन सुनकर शुम्भ ने महाअसुर सुग्रीव को दू बनाकर देवी के पास भेजा और कहा कि तुम मेरी ओर से उससे इस प्रकार कहना और इस प्रकार उपाय करना जिससे कि वह प्रसन्न होकर अत्यन्त शीघ्र ही यहाँ आ जाये। यह सुनकर वह दैत्य पर्वत के उस प्रदेश पर पहुँचा जो कि अत्यन्त सुन्दर था। वहाँ पर ही देवी बैठी हुई थी। वहाँ जाकर उसने देवी से मधुर वाणी द्वारा कोमल वचन कहे। दूत बोला- हे देवी! दैत्यों का स्वामी शुम्भ तीनों लोकों में परमेश्वर है। मैं उसका दूत हूँ, मुझे उसने आपके पास भेजा है। मैं वहाँ जो उसकी आज्ञा न मानता हो उसे मैं परास्त कर देता हूँ। उसने सभी देवता परास्त कर दिये हैं। अब आपके लिये जो सन्देश है, वह सुनिये। उसने कहा- सारी त्रिलोकी मेरी हो चुकी है, सभी देवता मेरे आधीन हैं। सभी यज्ञ-भाग पृथक्-पृथक करके मैं ही पा रहा हूँ। त्रिलोकीभर के उत्तम सभी रत्न मेरे आधीन हो चुके हैं। इन्द्र के श्रेष्ठ वाहन ऐरावत हाथी को मैंने छीन लिया है। देवताओं ने क्षीर समुद्र से उत्पन्न उच्चै-श्रवा नामक अश्व-रत्न प्रणाम करके मुझे भेंट कर दिया है तथा और भी जितने देव गन्धर्व एवं नागों के पास रत्नरूप वस्तुएं थीं, वे सबकी सब, हे सुन्दरी! मेरी हो चुकी हैं। 

हे देवी! अब हम तुमको स्त्रियों में रत्न मान रहे हैं। इस कारण अब आपको भी हमारे पास आ जाना चाहिए, क्योंकि हम तो रत्नों के भोक्ता हैं। अब तुम्हारी इच्छा है कि मुझे अथवा मेरे पराक्रमी भ्राता निशुम्भ को, इन दोनों में से किसी को, वर लो क्योंकि तुम रत्नरूप हो। मेरे साथ विवाह कर लेने से तुम्हें अतुल ऐश्वर्य प्राप्त हो जायेगा। यह अपनी बुद्धि के द्वारा सोच लो फिर मेरे साथ विवाह कर लो।

ऋषि बोले- जब इस प्रकार दूत ने देवी से कहा तब वह जगत् को धारण करने वाली भगवती देवी जी गम्भीर होकर मन्द मुस्कान करके बोलीं- हे दूत ! तुमने जो कुछ कहा वह सत्य है, मिथ्या कुछ भी नहीं। इसमें सन्देह नहीं कि शुम्भ त्रिलोकी का स्वामी है और निशुम्भ भी वैसा ही है। किन्तु मैंने प्रतिज्ञा की हुई है, उसे किस प्रकार से मिथ्या करूँ? प्रतिज्ञा इस प्रकार है कि जो मुझे युद्ध में जीत ले एवं मेरा अभिमान तोड़ दे और संसार में मेरे समान बलधारी हो, वह मेरा भर्ता हो सकता है। शुम्भ आये अथवा महाअसुर निशुम्भ आ जाए, मुझे जीतकर मेरा शीघ्रता से पाणिग्रहण करे। दूत बोला- हे देवी! तुम्हें अभिमान है जो इस प्रकार की बातें मेरे सामने कर रही हो। भला कहीं त्रिलोकी में ऐसा कौन सा पुरुष है जो शुम्भ- निशुम्भ का सामना कर सके। सारे देवता तो दूसरे दैत्यों का सामना भी नहीं कर सकते । तू तो स्त्री है फिर अकेली बैठी है। युद्ध भूमि में इन्द्रादिक सभी देवता जिस शुम्भ आदि दैत्यों के सामने न ठहर सके, भला तू स्त्री होते हुए उनका सामना कैसे कर सकेगी? इस तरह चले चलने से तुम्हारी प्रतिष्ठा होगी, अन्यथा जब वे तुम्हारे केश पकड़कर घसीटते हुए ले जायेंगे तो तुम्हारा गौरव नष्ट हो जायेगा। देवी बोली- हे दूत ! इसमें कोई संशय नहीं कि शुम्भ बलवान और निशुम्भ भी पराक्रमी है, पर मैं करूँ तो क्या करूँ ? प्रतिज्ञा करने से पहले यह बात मैंने नहीं सोची थी। अब तुम जाकर असुरराज को मेरी यही बात कह दो, फिर उसे जो उचित दिखाई दे वही करे।

छठवाँ अध्याय – (धूम्रलोचन वध)

ऋषि बोले- देवी जी का इस प्रकार वचन सुनकर दूत क्रोध से लाल होकर लौट आया और फिर दैत्यराज को विस्तार के साथ सभी बातें सुना दीं। दूत के वचन सुनते ही दैत्यराज क्रोध से भर गया और दैत्यों के सेनापति धूम्रलोचन से बोला- हे धूम्रलोचन ! तुम देर मत करो, अपनी सेना के साथ वहाँ जाकर उस दुष्ट को केशों से पकड़ कर, बलपूर्वक घसीटते हुए यहाँ जल्दी ले आओ; उसकी रक्षार्थ यदि कोई भी वहाँ दूसरा उपस्थित हो, चाहे वह देवता, यक्ष, गन्धर्व कोई भी हो उसे मार डालो। 

ऋषि बोले- आज्ञा पाते ही वह धूम्रलोचन दैत्य साठ हजार असुरों की सेना लेकर शीघ्र चल पड़ा। वहाँ पहुँचकर उसने हिमालय पर विराजमान देवी को देखा और ऊँची आवाज में बोला- अरी! तू शुम्भ-निशुम्भ के पास चल। यदि अभी भी प्रसन्नतापूर्वक मेरे स्वामी के पास नहीं चलेगी तो स्मरण रख, तुझे बालों से पकड़कर घसीटते हुए बलपूर्वक मैं ले जाऊँगा। 

देवी बोली- इसमें संशय नहीं कि तुम्हें दैत्येश्वर ने भेजा है। तुम स्वयं भी बलवान हो, बड़ी भारी सेना भी साथ ले आये हो, इस प्रकार की दशा में मुझे बलपूर्वक ले जाओ तो मैं तुम्हारा क्या कर सकती हूँ? 

ऋषि बोले- जब इस प्रकार का उसे उत्तर मिला तो धूम्रलोचन असुर देवी की ओर दौड़ा, तब तो देवी अम्बिकाजी ने हुंकार के शब्द से उसे भस्म कर दिया। फिर तो असुरों की क्रोध में आई बड़ी सेना तथा अम्बिका जी ने एक- दूसरे पर तीक्ष्ण बाण शक्तियाँ, फरसे आदि बरसाने आरम्भ कर दिये। इधर देवी जी का वाहन सिंह भी कुपित होकर भयंकर नाद करता हुआ, अपने बाल झटकारता हुआ असुरों की सेना पर उछल पड़ा। उस सिंह ने कुछ असुरों को पंजों की मार से एवं कुछ एक को अपने जबड़ों से तथा कई एक महाअसुरों को नीचे पटककर दाँतों व दाढ़ों से विदीर्ण करके मार डाला। कितने एक दैत्यों के केसरी ने नाखूनों से पेट फाड़ डाले, कितने एक दैत्यों को तल प्रहार कर उनके सिर धड़ से पृथक कर डाले और अन्यों की भुजायें सिर आदि छिन्न-भिन्न कर दिये।

कितनों के पेट फाड़-फाड़ कर, गले के बाल फटकारते हुए, सिंह ने रुधिरपान किया। अत्यन्त कुपित हुए देवी जी के वाहन बलवान सिंह ने क्षणभर में दैत्यों की सेना क्षय कर दी। देवी जी ने उस असुर धूम्रलोचन को मार डाला। देवीजी के वाहन सिंह ने भी सारी सेना का क्षय कर दिया। शुम्भ ने जब यह सुना तो उसके क्रोध का पारा चढ़ गया और उसके होंठ काँपने लगे। झट शुम्भ ने चण्ड तथा मुण्ड दोनों दैत्यों को आज्ञा दी- हे चण्ड तथा मुण्ड! तुम दोनों बड़ी भारी सेना लेकर वहाँ पहुँचो, उसे जल्दी से यहाँ लाओ, उसे सेना लेकर खींचकर या बाँधकर ले आओ। यदि इस प्रकार लाने में तुम लोगों को संशय हो तो युद्ध करो, सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र से सारे असुर मिलकर उसे मार डालो। उस दुष्टा के मर जाने पर एवं सिंह के भी मारे जाने पर, जिस दशा में भी अम्बिका पड़ी हो उसे बाँधकर अपने साथ लेकर शीघ्र आओ।

पाँचवाँ दिन – स्कन्दमाता

सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी॥

माँ दुर्गाजी के पाँचवें स्वरूप को स्कन्दमाता के नाम से जाना जाता है। ये भगवान् स्कन्द ‘कुमार कार्तिकेय’ नाम से भी जाने जाते हैं। इन्हीं भगवान् स्कन्द की माता होने के कारण माँ दुर्गाजी के इस पाँचवे स्वरूप को स्कन्दमाता के नाम से जाना जाता है। इनकी उपासना नवरात्रि के पाँचवें दिन की जाती है। इस दिन साधक का मन ‘विशुद्ध’ चक्र में अवस्थित होता है। इनका वर्ण पूर्णतः ‘शुभ्र है। ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसी कारण से इन्हें पद्मासना देवी भी कहा जाता है। सिंह भी इनका वाहन है। 

नवरात्र-पूजन के पाँचवें दिन का शास्त्रों में पुष्कल महत्त्व बताया गया है। इस चक्र में अवस्थित मन वाले साधक की समस्त बाह्य क्रियाओं एवं चित्त वृत्तियों का लेप हो जाता है।

सातवाँ अध्याय – (चण्ड और मुण्ड का वध )

ऋषि बोले- तब आज्ञा पाते ही चण्ड-मुण्ड आदि दैत्य, आयुधों से सुसज्जित होकर चतुरंगिणी सेना के साथ चल पड़े। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि हिमालय की ऊँची स्वर्ण की चोटी पर सिंह पर देवी बैठी हैं और मन्द-मन्द हँस रही हैं। इस प्रकार उसे देखकर पकड़ने की चेष्टा करने लगे, किसी ने धनुष चढ़ा लिया, किसी ने तलवार सम्भाल ली एवं कितने ही देवी जी के पास पहुँच गये। तब अम्बिका जी उन शत्रुओं के प्रति क्रोध में आ गईं। उस समय क्रोध के कारण उनका मुख काला हो गया। देवी के माथे पर कुटिल होकर भौंहे तन गईं। तब तो भयानक मुख वाली काली देवी तलवार तथा पाश लिये प्रकट हो गयीं, उन्होंने अद्भुत सा खट्वांग धारण किया हुआ था, नरमुण्डों की माला शोभित थी, चीते के चर्म की साड़ी पहने हुई थीं, शरीर का माँस सूखा दिखाई देता था, अत्यन्त भयानक रूप था. मुख को खोल रखा था, लपलपाती हुई जिह्वा और भी भयानक थी, धंसी हुई लाल-लाल आँखें थीं, गर्जना से सभी दिशाओं को भर दिया था, तब तो वह बड़े वेग से दैत्य सेना पर टूट पड़ीं। बड़े-बड़े असुरों को मारती हुई उनका भक्षण करने लगी। उन पार्श्वरक्षकों को, अंकुशधारियों को, महावत तथा योद्धाओं को, घण्टों के साथ कितने हाथियों को, एक ही हाथ से पकड़कर मुँह में डालने लगी। वैसे ही घोड़ों के साथ रथों को एवं सारथियों को मुँह में डाल- डाल कर अत्यन्त भयानक रूप से दाँतों से उन्हें चबाती जाती थी। किसी के केश पकड़ लेती, तो किसी की गर्दन दबा डालती, किसी को पैरों से दबोच लेती तो किसी को छाती से धकेल कर मार गिराती। असुरों के द्वारा छोड़े हुए अस्त्र-शस्त्रों को मुँह से पकड़ती जाती और दाँतों से पीसती जाती। काली जी ने इस प्रकार बलवान दुरात्मा असुरों की वह सेना कुचल डाली, कितने ही असुरों को मार दिया। उस देवी ने कुछ एक तलवार से काट गिराये, कुछ एक खट्वांग से पीट दिये गये और कुछ एक दाँतों से कुचल दिये। क्षणभर में राक्षसों की वह सारी सेना मारपीट कर गिरा दी। यह देख चण्ड उस भयानक काली की ओर दौड़ा, इधर महाअसुर मुण्ड ने भी महाभयंकर बाणों की वर्षा से एवं सहस्त्रों चलाये हुए चक्रों द्वारा, उस भयानक आँखों वाली देवी को ढाँप दिया। वे अनेक चक्र देवी के मुख में प्रवेश करते हुए इस प्रकार दिखाई देने लगे जैसे बहुत से सूर्य-बिम्ब बादलों के पेट में समाते जा रहे हों। तब तो जिसके भयानक मुख के भीतर, जिसका देख सकना भी कठिन था, ऐसे दाँतों के प्रकाश से दमकती हुई, अत्यन्त क्रोध में आकर भयानक गर्जना करती हुई, वह काली भोषण अट्टहास करने लगी। तब हूँ-हूँ करती हुई, बड़ी तलवार लिये हुए देवी चण्ड पर कूद पड़ी। उसे बालों से पकड़कर उसी तलवार से झट चण्ड का सिर काट दिया। तब चण्ड को इस प्रकार मारा गया देखकर मुण्ड देवी की ओर दौड़ा। कुपित काली ने तलवार से मारकर पृथ्वी पर मुण्ड को भी गिरा दिया। महाबली मुण्ड को मरा हुआ देखकर और सेना का नाश देखकर शेष सेना भयभीत होकर इधर-उधर भाग गई। अनन्ता काली जी ने चण्ड तथा मुण्ड के सिर हाथ में ले लिये फिर भयानक अव्हास करती हुई चण्डिका के पास पहुँचकर बोली- मैंने यह चण्ड और मुण्ड नामी महापशु आपकी भेंट चढ़ा दिये, अब तो शुम्भ निशुम्भ का आप स्वयं वध करना। 

ऋषि बोले- अपने सम्मुख लाये गये चण्ड-मुण्ड महाअसुरों को देख कल्याणी चण्डिका काली से ललित वचन बोली- हे देवी कालिके! क्योंकि तुम चण्ड-मुण्ड को लेकर मेरे पास आई हो, इस कारण लोक में चामुण्डा नाम से तुम्हारी ख्याति होगी।

आठवाँ अध्याय – रक्तबीज वध

ऋषि बोले- चण्ड-मुण्ड दोनों दैत्यों के मारे जाने पर एवं बहुत सी सेना के भी क्षय हो जाने पर, असुर राजा महाप्रतापी शुम्भ के चित्त में भारी क्रोध पैदा हो गया। उसने सभी दैत्यों की सेना को युद्ध के लिये आज्ञा दे दी। उसने कहा- आज छियासी उदायुध सेनापति अपनी सारी सेना को लेकर चलें। असुर चौरासी कम्बू सेनापति भी अपनी सेना के साथ युद्ध के लिये निकलें और मेरी आज्ञा से पचास करोड़ वीर्यकुल के असुर तथा सौ धौम्रकुल के सेनापति सेनाओं के साथ कूच कर दें और फिर मेरी आज्ञा से कालिक, मौर्य, दौर्हृय, कालिकेय सभी असुर तैयार होकर शीघ्र प्रस्थान करें। भयंकर शासन करने वाले असुरराज शुम्भ ने इस प्रकार आज्ञा देकर स्वयं भी बहुत सी सेनाओं के साथ प्रस्थान कर दिया। जब चण्डिका ने देखा अब इस ओर भयानक सेना लेकर निशुम्भ आ रहा है तब तो उन्होंने अपने धनुष की टंकार करके पृथ्वी आकाश के मध्य-भाग को गुँजा दिया।

हे राजन् ! उस समय सिंह ने भी बड़ी भारी गर्जना की। फिर अम्बिकाजी ने घण्टा बजाकर उस गर्जना को और भी बढ़ा दिया। उस शब्द को सुनकर दैत्य सेनाओं ने आकर चारों ओर से देवी, सिंह और काली को क्रोध के साथ घेर लिया। इसी अवसर के मध्य में, हे राजन्! दैत्यों के नाश के लिये तथा देवताओं की वृद्धि के लिये अत्यन्त बल एवं पराक्रम से सम्पन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कार्तिक-स्वामी, इन्द्र आदि देवों की शक्तियाँ उन्हीं के शरीरों से निकलकर उन्हीं-उन्हीं रूपों से चण्डिका के पास आ गयीं। जिस देवता का जो रूप जैसे भूषण तथा वाहन है, उन्हीं उन्हीं वस्तुओं से सम्पन्न होकर, वह देवता-शक्ति वही रूप धारण कर दैत्यों के साथ युद्ध करने आ गई। ब्रह्माजी की शक्ति जिसे ब्रह्माणी कहा जाता है, जो हंसों से जुते हुये विमान पर आरूढ़ थी, अक्षयसूत्र कमण्डल से शोभित थी, सबसे प्रथम उपस्थित हुई। महेश्वर की शक्ति वृषभ पर विराजमान सुन्दर त्रिशूल धारण किये, महासर्पों के कंकण धारण किये, मस्तक पर चन्द्ररेखा सुशोभित थी वह मातेश्वरी शक्ति आई। कार्तिक स्वामी की शक्ति, हाथ में शक्ति लिये, मोर पर आरूढ़ गुह्यरूपिणी कौमारी अम्बिका शक्ति दैत्यों से युद्ध करने आई। वैसे ही विष्णु की शक्ति गरुड़ पर सवार होकर शंख, चक्र, गदा, शार्ङ्ग एवं खड्ग हाथ में लिये वहाँ वैष्णवी शक्ति आ गई। यज्ञ वाराह का विचित्र रूप धारण करने वाले विष्णु की वाराह शक्ति वैसा ही शरीर धारण करके वहाँ आई । नृसिंह जी के समान शरीर को धारण किये गर्दन के बालों के फटकारने से आकाश के तारों को बिखेरती हुई नारसिंही शक्ति वहाँ पर पहुँची। इन्द्र की शक्ति इन्द्र के समान रूप वाली हजार नेत्र धारण किये वज्र हाथ में लेकर ऐरावत गजराज पर आरूढ़ होकर वहाँ आ गई।

तब उन शक्तियों से घिरे हुए शंकर जी ने चण्डिका से कहा- मेरी प्रसन्नता के लिये शीघ्र से शीघ्र इन असुरों का संहार करो। तब देवी के शरीर से अत्यन्त भयानक सैकड़ों गीदड़ियों की भाँति हुँ-हुँ करती हुई बड़ी चण्डिका शक्ति प्रकट हो गई। तब उस अपराजिता देवी ने धुयें जैसे जटा वाले शिव से कहा- भगवन्! आप दूत बनकर शुम्भ-निशुम्भ के पास जायें वहाँ जाकर उन महाअभिमानी शुम्भ-निशुम्भ दानवों को तथा युद्ध में आये हुए दूसरे दानवों को भी कहें कि हे दानवों! यदि तुम लोग जीना चाहते हो तो त्रिलोकी का राज्य इन्द्र प्राप्त करे, सभी देवता यज्ञ-भाग पायें और तुम लोग पाताल में चले जाओ। यदि तुम्हें कुछ बल का अभिमान हो और युद्ध की अभिलाषा हो तो आ जाओ ताकि तुम्हारे माँस से मेरी गोदड़ियाँ तृप्त हो जायें। इस दूत रूप में स्वयं शिव को ही देवी जी ने नियुक्त किया, वह शिव-शक्ति संसार में ‘शिवदूती’ इस नाम से विख्यात हुई। जब शिव द्वारा कथित देवी जी के वचन उन महाअसुरों ने सुने तो बड़े क्रोध में आ गये और जहाँ कात्यायनी देवी स्थित थी उस ओर बढ़ने लगे। वहाँ कुपित होकर उन देवशत्रुओं ने बाण, शक्ति, ऋष्टि आदि आयुधों से देवी जी पर पहले वर्षा करना आरम्भ कर दिया। तब टंकार करके धनुष द्वारा पैने-पैने बाण छोड़कर देवी जी ने खेल ही खेल में उनके फेंके हुए बाण, शूल, शक्ति, परशु आदि शस्त्रों को काट डाला। फिर काली भी उनके सामने होकर शत्रुओं को शूल के प्रहारों से चीरती-फाड़ती खट्वांग से कुचलती मारती विचरण करने लगी।

इधर ब्रह्माणी शक्ति भी जिस ओर दौड़ती उसी ओर अपने कमण्डल का जल छिड़क देती जिससे शत्रुओं का पराक्रम एवं तेज नष्ट होता जा रहा था। माहेश्वरी शक्ति ने त्रिशूल द्वारा, वैष्णवी शक्ति ने चक्र द्वारा और कौमारी शक्ति ने शक्ति द्वारा उन दैत्यों का क्षय करना आरम्भ कर दिया। ऐन्द्री शक्ति के वज्र गिराने से सैकड़ों दैत्य दानव विदीर्ण होकर रुधिर के पतनाले बहाते हुए पृथ्वी पर गिरने लगे। वाराही शक्ति ने तो कुछ एक को तुण्ड प्रहार से मार गिराया, कितने दैत्यों की छातियाँ अपनी दाढ़ों के अग्रभाग से चीर डालीं, वाराह मूर्ति ने चक्र द्वारा बहुत से दैत्य चीर-फाड़ डाले। कितने दैत्य शिवदूती के कठोर अट्टहास से भयभीत होकर पृथ्वी पर गिरते गये फिर उन्हें वह खाती गई। इस प्रकार अत्यन्त कुपित होकर, अनेक उपायों द्वारा बड़े- बड़े दैत्यों को मारते हुए मातृगण को देखकर, देवशत्रुओं के सैनिक भागने लग गये।

उन दैत्यों को मातृगण से पीड़ित होकर भागते हुए देखकर, क्रुद्ध महाअसुर रक्तबीज युद्ध के लिये आ गया। रक्तबीज के वज्रमय शरीर से एक भी रुधिर बिन्दु जब पृथ्वी पर गिरती तब उसके समान बलवान दूसरा असुर पैदा हो जाता। उस महाअसुर ने आकर इन्द्र शक्ति के साथ युद्ध किया, तब ऐन्द्री शक्ति ने अपने वज्र के द्वारा रक्तबीज की ताड़ना की, वज्र के लगते ही उसके शरीर से बहुत से योद्धा पैदा हो गये, जिनका रूप पराक्रम रक्तबीज के समान था। जितनी भी रक्त की बूँदे शरीर से गिरती थी उनके उतने ही उसके सदृश बलवीर्य पराक्रमी पुरुष उत्पन्न हो गये। वे रक्त से उत्पन्न हुए पुरुष भी अत्यन्त भयानक अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर मातृगणों के साथ लड़ने लगे। फिर ऐन्द्री ने वज्र से उसका सिर क्षत-विक्षत कर दिया, उससे रुधिर बह उठा, तब हजारों पुरुष उस रुधिर से पैदा हो गये। वैष्णवी के चक्र से क्षत होने पर उसके शरीर से ज्योंही रुधिर-स्राव हुआ, उससे हजारों उसी के समान महाअसुर पैदा हो गये जिनसे सम्पूर्ण जगत भर गया।

कौमारी ने शक्ति से उसे मारा, वाराही ने तलवार से, माहेश्वरी ने महाअसुर रक्तबीज का त्रिशूल से हनन कियाउस दैत्य ने भी गदा द्वारा सभी मातृगणों को पृथक-पृथक मारा, उस समय रक्तबीज बड़े क्रोध में समाविष्ट था। शक्ति-शूल आदि आयुधों से कई बार विक्षत होने पर उसके शरीर से रक्त प्रवाह के पृथ्वी पर गिरते ही सैकड़ों असुर उत्पन्न हो चुके थे। दैत्य के रुधिर से उत्पन्न उन असुरों से सारा जगत् व्याप्त हो गया। देवताओं को डरा एवं उदास देखकर तब शीघ्र ही चण्डिका ने काली से कहा- चामुण्डे! अपना मुख तुम अधिक विस्तार से फैला लो। मेरे शस्त्र के प्रहार से गिरते हुए रुधिर-बिन्दु और बिन्दुओं से उत्पन्न महादैत्यों को अपने वेगवान मुख द्वारा खाती जाओ और युद्धभूमि में रुधिरोत्पन्न इन महादैत्यों का भक्षण करती घूमती रहो।

इस प्रकार कहकर चण्डिका ने रक्तबीज पर त्रिशूल से प्रहार किया। फिर काली ने रक्तबीज का रुधिर मुख से ग्रहण कर लिया। उस दैत्य ने भी चण्डिका पर गदा चलाई किन्तु उस गदापात द्वारा चण्डिका को कुछ भी वेदना न हुई। रक्तबीज के क्षत-विक्षत शरीर से जो बहुत सा रुधिर गिरने लगा, उसे चामुण्डा मुख द्वारा पीती गईं और जो रक्तपात से दैत्य उत्पन्न हो गये थे उन्हें भी मुख में डालती गईं। इस प्रकार चामुण्डा ने सभी दैत्य खा डाले और रक्तबीज का रुधिर भी पी डाला। तब देवी ने शूल, वज्र, तलवार, ऋष्टि आदि आयुधों से हीन उस महाअसुर रक्तबीज को मार दिया। शस्त्र-समूहों से आहत होकर वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। हे राजन्! रुधिर तो उसका चामुण्डा ने पी ही लिया था। उसकी मृत्यु होने पर देवता परम प्रसन्न हुए, मातृगण उसके रुधिरपान के मद से उन्मत्त होकर नृत्य करने लगीं।

छठा दिन –  कात्यायनी

चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्यादेवी दानवघातिनि॥

माँ दुर्गा के छठवें स्वरूप का नाम कात्यायनी है। ये महर्षि कात्यायन की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर इनकी इच्छानुसार उनके यहाँ पुत्री रूप में उत्पन्न हुई थीं। महर्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम इनकी पूजा की इसी कारण से ये कात्यायनी कहलाईं। माँ कात्यायनी अमोघ फलदायिनी हैं। दुर्गा पूजा के छठवें दिन इनके स्वरूप की उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन ‘आज्ञा’ चक्र में स्थित होता है। योगसाधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस चक्र में स्थित मन वाला साधक माँ कात्यायनी के चरणों में अपना सर्वस्व निवेदित कर देता है। परिपूर्ण आत्मदान करने वाले ऐसे भक्त को सहज भाव से माँ कात्यायनी के दर्शन प्राप्त हो जाते हैं। इनका साधक इस लोक में रहता हुआ भी अलौकिक तेज से युक्त हो जाता है।

नौवाँ अध्याय – (निशुम्भ वध )

ऋषि बोले- हे राजन् ! रक्तबीज के मर जाने पर एवं युद्द में अन्य असुरों के भी मारे जाने पर, शुम्भ- निशुम्भ दैत्यों का क्रोध बढ़ गया। फिर दैत्यों की प्रधान सेना को साथ लेकर निशुम्भ युद्ध में दौड़ा चला आया । उसके आगे-पीछे, दायें-बायें बड़े-बड़े दैत्य थे, वे क्रोध के मारे होंठ काट रहे थे। शुम्भ भी अपनी सेना के साथ मातृगणों से लड़कर चण्डिका को मार डालने की इच्छा से आ गया। दोनों दैत्य बादलों की तरह बाणों की वर्षा करने लगे। अपने बाणों के समूहों से चण्डिका ने उनके बाण काट दिये। फिर शस्त्र समूह से उन दैत्यों के अंगों पर प्रहार किया। निशुम्भ ने तीखी तलवार तथा चमचमाती ढाल उठा ली, देवी के पराक्रमी वाहन सिंह के सिर पर प्रहार किया। अपने वाहन पर इस प्रकार प्रहार होते देख, देवी ने क्षुरप्र नामक बाण द्वारा निशुम्भ की बड़ी तलवार तथा आठ चन्द्रों वाली ढाल भी काट दी। तलवार और ढाल के कट जाने पर उस दैत्य ने शक्ति चलाई। उसे आते देख देवी ने चक्र द्वारा उसके दो टुकड़े कर डाले। तब तो अत्यन्त कुपित होकर निशुम्भ दानव ने शूल उठा लिया और उसे फेंक दिया, देवी जी ने मुक्के के प्रहार से उसे चूर-चूर कर दिया। दैत्य ने गदा उठाकर फिर चण्डिका की ओर फेंकी। देवी ने उसे भी त्रिशूल द्वारा काट दिया और वह भस्म हो गई। फिर अन्त में दैत्यराज को फरसा उठाये आता देखकर देवी ने बाण-समूहों से प्रहार कर उसे पृथ्वी पर गिरा दिया। उस भयानक पराक्रमी भाई निशुम्भ के इस प्रकार धराशायी होने पर शुम्भ क्रोध में भर गया और अम्बिका को मारने के लिए सामने आया, वह रथ पर बैठा हुआ था। उसकी बड़ी-बड़ी अनुपम आठ भुजाएं थीं, उनमें आठ भयंकर-शस्त्र शोभायमान थे। उन भुजाओं से सारे आकाश को ढांपकर वह शोभित हो रहा था। उसे इस प्रकार आता देखकर देवी ने शंख बजाया और धनुष की अत्यन्त दुःसह टंकार की। समस्त दैत्यों के तेज नष्ट करने वाले घण्टे का शब्द करके, उससे दिशाओं को भर दिया। तब सिंह ने भी बड़े हाथियों के महामद को दूर करने वाली बड़ी भारी गर्जना लगाई, उसके द्वारा आकाश पृथ्वी एवं दसों दिशाएं गूँज उठीं। तब काली ने आकाश में उड़कर पृथ्वी पर दोनों हाथों से ऐसी ताड़ना की कि उस शब्द से पहले से सभी शब्द मन्द पड़ गये। तब शिवदूती ने अमंगल रूप अत्यन्त अट्टहास किया। उस ध्वनि से दैत्य डर गये। शुम्भ के क्रोध का पारा चढ़ गया। फिर अम्बिका ने कहा कि हे दुरात्मन! ठहर-ठहर !! तब आकाश में स्थित देवता जय-जयकार करने लगे। शुम्भ ने आग बरसाती हुई भयानक शक्ति चलाई, अग्नि को पहाड़ की तरह आती हुई देखकर देवी ने भारी उल्का से उसे दूर हटा दिया। शुम्भ ने फिर सिंहनाद किया उससे त्रिलोकी गूँज उठी। हे राजन् ! उस सिंहनाद का इतना घोर शब्द था जैसे कि वज्रपात हो, उसने बाकी शब्दों को परास्त कर दिया। तब शुम्भ द्वारा छोड़े हुए बाणों को देवी ने तथा देवी द्वारा चलाये गये बाणों को शुम्भ ने, अपने-अपने उग्रबाणों द्वारा सैकड़ों हजारों टुकड़े कर दिये। तब चण्डिका ने कुपित होकर शुम्भ को शूल से मारा, उसके लगते ही वह मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। इतने में निशुम्भ चैतन्य होकर वहाँ पहुँच गया। हाथ में धनुष लेकर बाणों से काली तथा सिंह पर प्रहार कर दिया। उस दानवराज ने अपनी दस हजार भुजाएं बना लीं, फिर चक्रों का प्रहार करने लगा। तब घोर संकटों का नाश करने वाली भगवती दुर्गा ने अपने बाणों से चक्र तथा सभी बाणों को काट गिराया। तब निशुम्भ-दैत्य सेना से आवृत्त होकर चण्डिका के वध के लिये हाथ में गदा को लेकर बड़े वेग से भागा। वेग से आते हुए उसकी गदा को तीखी तलवार के द्वारा चण्डिका ने काट दिया। फिर दैत्य ने शूल उठा लिया। शूल हाथ में लिये उस देवपीड़क निशुम्भ को आता देखकर चण्डिका ने अपना शूल वेग से चलाकर उसकी छाती बींध दी। उसकी छाती फटते ही उसकी छाती से एक और महाबली पुरुष निकला, वह खड़ी रह! खड़ी रह! इस प्रकार कहने लगा। उस निकलते हुए पुरुष की यह बात सुनते ही देवी आवाज करके हंसी और तलवार से उसका सिर काट दिया। वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। तब भयानक दाढ़ों वाला सिंह, दाढ़ों से असुरों का सिर खुरच-खुरच कर खाने लगा। वैसे ही काल ने तथा शिवदूती ने बहुत से दैत्यों का भक्षण कर डाला। कुछ एक घोर संग्राम से भाग गये एवं कितने दैत्यों को काली तथा शिवदूती ने खा डाला और कई सिंह के ग्रास बन गये।

दसवाँ अध्याय – (शुम्भ वध)

ऋषि बोले- अपने प्राण-प्रिय भाई निशुम्भ की मृत्यु को देखकर इस प्रकार सेना को भी मरता देखकर कुपित होकर शुम्भ कहने लगा- अरी दुष्ट दुर्गे ! तू बल के घमण्ड से गर्व मत कर, अरी अहंकारिणी! तू तो अन्य स्त्रियों के बल के सहारे लड़ रही है। देवी बोली- अरे दुष्ट ! मैं अकेली हूँ, संसार भर में मेरे समान दूसरी है कौन? ये तो मेरी विभूतियाँ हैं, मुझमें ही प्रवेश कर रही हैं, इतना कहते ही ब्रह्माणी आदि सभी शक्तियाँ उस देवी के शरीर में समा गईं। अकेली अम्बिका देवी रह गई। देवी बोली- मैं अपनी ऐश्वर्यशक्ति सम्पन्न अनेक विभूतियों के रूपों में यहाँ पहले विद्यमान थी, अब मैंने सभी रूप समेट लिये अब तो अकेली युद्ध में खड़ी हूँ, तू भी स्थिर हो जा। 

ऋषि बोले- तब सभी देवता तथा दैत्यों के देखते-देखते देवी और शुम्भ इन दोनों में युद्ध छिड़ गया। तीखे बाणों की वर्षा तथा भयंकर अस्त्र-शस्त्र से उन दोनों का युद्ध सभी लोकों के लिये भयंकर प्रतीत होने लगा। जितने भी दिव्य से दिव्य अस्त्र अम्बिका छोड़ती जाती, दैत्येन्द्र उन्हें निवारक-अस्त्रों द्वारा तोड़ता जाता। इसी प्रकार परमेश्वरी अम्बिका भी खेल-खेल में हुंकारादि शब्दों द्वारा दैत्य से छोड़े दिव्य शस्त्रों को तोड़ती गई। तदनन्तर असुर ने सैकड़ों बाणों से देवी को आच्छादित कर दिया। तब देवी ने भी कुपित होकर बाणों द्वारा उसका धनुष काट डाला। धनुष टूट जाने पर दैत्येन्द्र ने हाथ में शक्ति उठा ली। अभी शक्ति उसके हाथ में ही थी कि देवी ने चक्र द्वारा वह शक्ति काट डाली। तब दैत्यराज तलवार तथा सौ चन्द्रमा वाली चमचमाती ढाल लेकर देवी पर झपटा। उसकी तलवार तथा सूर्य जैसी चमकती ढाल को देवी ने अपने धनुष से छोड़े हुए तीखे बाणों से तुरन्त काट दिया। रथ के घोड़े तथा सारथी को भी मार दिया। धनुष तो पहले ही कट चुका था, तब तो भयानक मुद्गर लेकर अम्बिका को मारने के लिए दैत्य उद्यत हो गया। देवी ने उसके मुद्गर को भी तीखे तीरों से काट दिया। फिर भी वह दैत्य मुक्का तानकर बड़े वेग से दौड़ा, जाते ही उस दैत्येश्वर ने देवी के हृदय में मुक्का मार दियादेवी ने भी उसकी छाती पर एक चपेट जमा दी, देवी की उस चपेट के लगते ही वह दैत्यराज पृथ्वी पर गिर पड़ा। गिरकर भी सहसा उसी प्रकार उठ खड़ा हुआ। तब उछलकर देवी को उठाकर आकाश में स्थित हो गया। वहाँ भी निराधार होकर वह चण्डिका देवी के साथ युद्ध करने लगा। आकाश में उस समय दैत्य तथा चण्डिका का आपस में घोर युद्ध हो रहा था। वह युद्ध मुनियों के लिये विस्मयकारक था। अब अम्बिका ने उसके साथ देर तक युद्ध करते-करते दैत्य को उठा लिया और उसे पृथ्वी पर पटक दिया। देवी द्वारा पटका हुआ वह पृथ्वी पर आकर खड़ा हो गया। मुक्का तान वह दुष्ट, देवी को मारने की इच्छा से बड़े वेग से दौड़ा। तब उस दैत्य को आता हुआ देखकर देवी ने उसकी छाती में त्रिशूल भोंक दिया और पृथ्वी पर गिरा दिया। देवी के शूल से क्षत-विक्षत होकर पृथ्वी पर पड़ते ही उसके प्राण निकल गये। उसका गिरना भी समुद्र, द्वीप एवं पर्वतों के साथ सारी पृथ्वी को हिला देने वाला था। उस दुरात्मा के मरते ही सारा जगत स्वस्थ एवं प्रसन्न हो गया, आकाश भी बहुत ही साफ दिखाई देने लगा। पहले जो उपद्रवी मेघ उठ रहे थे तथा उल्कापात हो रहे थे, वे सभी शान्त हो गये। दैत्यों के मारे जाने पर नदियाँ भी अपने-अपने मार्ग पर चलने लगीं। उसकी मृत्यु होते ही सभी देवताओं के मन प्रसन्न हो गये। गन्धर्व मनोहर गायन करने लगे। अप्सरा-गण नाचने लगीं। वायु पवित्र होकर चलने लगी, सूर्य उज्जवल होकर चमकने लगा। शान्त हुई अग्नि- शालाओं की अग्नियाँ जलने लगीं। दिशाओं की भयंकर आवाजें शान्त हो गईं। प्रजा सुखी हुई और सर्वत्र शान्ति का साम्राज्य हो गया। 

सातवाँ दिन –  कालरात्रि

एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी॥
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी॥ 

माँ दुर्गाजी की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती है। माँ कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यन्त भयानक है, लेकिन ये सदैव शुभ फल ही देने वाली हैं। इसी कारण इनका एक नाम ‘शुभंकरी’ भी है। दुर्गा पूजा के सातवें दिन माँ कालरात्रि की उपासना का विधान है। इस दिन साधक का मन ‘सहस्रार’ चक्र में स्थित रहता है। उसके लिए ब्रह्माण्ड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है। इस चक्र में स्थित साधक का मन पूर्णत: माँ कालरात्रि के स्वरूप में अवस्थित रहता है। माँ कालरात्रि दुष्टों का विनाश और ग्रह बाधाओं को दूर करने वाली हैं जिससे साधक भयमुक्त हो जाता है।

ग्यारहवाँ अध्याय – (देवताओं द्वारा देवी की स्तुति एवं देवी द्वारा देवताओं को वरदान)

ऋषि बोले- देवी जी ने जब दैत्यराज महाअसुर शुम्भ का वध कर दिया तब इन्द्रादिक सभी देवता अग्नि को मुख्य करके, अपने मनोरथ सिद्धि के लाभ से, सभी दिशाओं को दमकते हुए मुखकमलों से प्रकाशित करते हुए, उस कात्यायनी देवी की स्तुति करने लगे। देवता बोले-हे शरणागतों के संकट निवारिणी देवी! हम पर प्रसन्न होइए। हे सारे जगत् की माता! हे विश्वेश्वरि ! विश्व आप हो। हे देवी! आपने इस सारे जगत को मोहित कर रखा है। पृथ्वी पर आपकी प्रसन्नता से ही मुक्ति का लाभ होता है। हे देवी जी ! सभी विद्यायें आपका भेद हैं। जगत्भर की सब स्त्रियाँ आपकी ही मूर्तियाँ हैं। हे जगदम्बे! आप अकेली ने ही सारे जगत् को व्याप्त किया हुआ है। आपकी स्तुति क्या हो सकती है? आप तो स्तुति से परे हो एवं परावाणी हो। जबकि आप सबकी आधार, स्वर्ग एवं मुक्ति देने वाली हो, इसी से आपकी स्तुति होगी। आपकी स्तुति के लिये अन्य कौन-सी उत्तम उक्तियाँ हो सकती हैं? सारे जनों के हृदय में बुद्धि रूप होकर आप ही स्थित हो। हे देवी! स्वर्ग एवं मोक्ष देने वाली नारायणी! आपको नमस्कार हो। काष्ठादिक रूप से सबकी रक्षा कीजिये। 

हे देवी! आप चर-अचर की स्वामिनी हो। आप ही एकमात्र जगत् का आधार हो, पृथ्वी स्वरूप में विराज रही हो। देवी जी, आपका पराक्रम अलंघनीय है। आप ही जल-स्वरूप में स्थित होकर इस सारे विश्व को तृप्त कर रही हो। अनन्त पराक्रम वाली आप ही वैष्णवी शक्ति हो। विश्वभर की परमबीज माया, विश्व का उपसंहार करने में समर्थ, हे नारायणी देवी! आपको नमस्कार हो। हे देवी! आप सभी मंगलों को देने वाली मंगला, सभी अर्थों को सिद्ध कराने वाली शिवा हो, शरणागत रक्षक हो, तीन नेत्रों वाली हो, हे नारायणी! आपको नमस्कार हो। आप ही सृष्टि, स्थिति एवं संहार करने में सनातनी शक्ति स्वरूप हो। आप गुणमयी एवं गुणों का आधार हो । हे नारायणी देवी! आपको नमस्कार हो । शरण में आये हुए दीन-दु:खियों की रक्षा करने में संलग्न, सबके संकट निवारण करने वाली, आपको नमस्कार हो । हँसों से जुते हुए विमान पर विराजमान, ब्रह्माणी के रूप को धारण करने वाली, कुशमिश्रित जल छिड़कने वाली, हे नारायणी देवी। आपको नमस्कार हो। माहेश्वरी के स्वरूप से त्रिशूल, चन्द्रमा और सर्पों को धारण करने वाली, महावृषभ पर बैठने वाली, हे नारायणी! आपको नमस्कार हो। मोर तथा मुर्गों से आवृत्त, महाशक्ति कर में धारण करने वाली, महापाप रहित कौमारी रूप में स्थित, हे नारायणी! आपको नमस्कार हो । शंख, चक्र, गदा, शार्ङ्ग, इन उत्तम अस्त्रों को धारण करने वाली वैष्णवी शक्तिरूप प्रसन्न होओ। हे नारायणी! आपको नमस्कार हो। हाथ में भयंकर चक्र धारण किये, दाढ़ों पर पृथ्वी को उठाए हुए, वाराहरूप धारिणी शिवे नारायणी! आपको नमस्कार हो। भयानक नृसिंह का रूप धारण करके दैत्यों का वध करने के लिए उद्यमशील, त्रिलोकी की रक्षा करने में परायण नारायणी! आपको नमस्कार हो। हजारों उज्जवल नेत्र धारण करने वाली, किरीटधारिणी, महावज्रधारिणी, वृत्तासुर के प्राण हरने वाली इन्द्रशक्तिरूप नारायणी! आपको नमस्कार हो। शिवदूती के स्वरूप से दैत्यों की बड़ी सेना का नाश करने वाली, महानाद करने वाली, भयंकर रूप वाली नारायणी! आपको नमस्कर हो। भयानक दाढ़ों से भयानक मुख वाली, मुण्ड-मालाओं से शोभायमान, मुण्डों का मंथन करने वाली चामुण्डा नारायणी! आपको नमस्कार हो। लक्ष्मी, लज्जा, महाविद्या, श्रद्धा, पुष्टि, स्वधा, ध्रुवा, महारात्रि, महाअविद्यारूपा हे नारायणी! आपको नमस्कार हो। मेधा, सरस्वती, वरा, ऐश्वर्यरूपा, पार्वती, महाकाली, संयमशीला, सर्वस्वामिनी हे नारायणी! आपको नमस्कार हो। सर्वेश्वरी, सभी शक्तियों से सम्पन्न, हे दुर्गा देवी! हमारी भयों से रक्षा करो, हे देवी! आपको नमस्कार हो। यह आपका मुख तीन नेत्रों सेभूषित और सुन्दर है, हमारी सभी भयों से रक्षा करो, हे कात्यायनि ! आपको नमस्कार हो। हे भद्रकाली! सभी दैत्यों का नाश करने वाली, भड़कती हुई अग्नि की ज्वालाओं से महाभयानक आपका त्रिशूल हमारी भय से रक्षा करे, आपको नमस्कार हो। हे देवी! शब्द द्वारा सारे जगत् को व्याप्त करके जो दैत्यों का तेज हनन कर देता है, वह आपका घण्टा, जैसे माता अपने पुत्रों को पापों से बचाती है, वैसे ही हमारी रक्षा करे। हे चण्डिके! आपके सुन्दर हाथों की तलवार, जो असुरों के खून और चर्बी से लथपथ हो रही है, वह हमारा मंगल करे, हम आपको प्रणाम करते हैं। हे देवी! जब आप प्रसन्न होती हो तो सभी रोगों को नष्ट कर देती हो, क्रोध करने पर सभी मनोरथ एवं कामनाएं नाश करती हो। आपके आश्रित पुरुषों पर कोई संकट नहीं आता, अपितु आपके आश्रित पुरुष दूसरों को भी आश्रय देते हैं। हे देवी! आपने जो आज इन धर्म-द्वेषी महादैत्यों का क्षय किया है, वह अपने स्वरूपों को अनेक शक्तिरूपों में विभक्त करके किया है। हे अम्बिके! आपके सिवाय और कौन दूसरा ऐसा कर सकता है ? विद्याओं में, विचारों के दीपक रूप शास्त्रों में, वेद-वाक्यों में, आपके सिवा और किसका वर्णन आता है; और न आपके सिवा कोई दूसरी शक्ति है जो इस विश्व को अज्ञानरूपी भयानक अन्धकार से पूर्ण ममतारूपी गड्ढे में खूब भटका रही है। जहाँ राक्षस हों, विष वाले सर्प हों, जहाँ शत्रु हों, जहाँ पर डाकुओं का दल आ जाए, वन में आग लग रही हो एवं समुद्र के मध्य में जहाँ कहीं उपस्थित होकर आप विश्व की रक्षा कर लेती हो। हे विश्वेश्वरि ! आप विश्व की रक्षा करती हो, विश्वरूप होकर विश्व को धारण करती हो, आप विश्वेश्वर से वन्दनीय हो। जो पुरुष आपको प्रणाम करते हैं वे विश्व के आश्रय हो जाते हैं। हे देवी! जिस प्रकार इस समय दैत्यों के वध से तुरन्त हमारी रक्षा कर ली, इसी प्रकार नित्य ही हमें शत्रुओं के भय से बचाइए, प्रसन्न होइए और जल्दी से सारे जगत् के पाप नष्ट करिए। पापों से उत्पन्न महामारी आदि उपद्रव भी दूर हों। हे देवी! विश्वभर में दुःख दूर करने वाली ! प्रणाम करने वाले हम पर प्रसन्न होइए। तीनों लोकों के निवासियों से स्तुति की गई। हे मातेश्वरी! सब लोकों के निवासियों से स्तुति की गई मातेश्वरी ! सब लोकों को वरदान दीजिये। देवी बोली- हे देवगण! मैं वर देने को तैयार हूँ, मनचाहा वर माँग लो, संसार का उपकारक वर मैं अवश्य देती हूँ। देवता बोले- हे सर्वेश्वरी ! आप त्रिलोकी की समस्त बाधाएं शान्त करें और इसी प्रकार हमारे शत्रुओं का भी नाश करती रहेंदेवी बोली- हे देवगण! वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाइसवें युग के आने पर शुम्भ-निशुम्भ नामी दो और महादैत्य पैदा हो जायेंगे। तब मैं नन्दगोप की गृहिणी यशोदा के गर्भ से अवतार लूँगी और विन्ध्याचल में जाकर निवास करूँगी। फिर पृथ्वी पर महाभयंकर रूप से अवतार लेकर वैप्रचित्ती नामक घोर दैत्यों का भक्षण करते समय, मेरे दाँत भी अनार के फूलों के तरह लाल हो जायेंगे। तब स्वर्ग से देवता और पृथ्वी पर मनुष्य मेरी स्तुति करते समय, मुझे ‘रक्तदंतिका’ कहेंगे। उसके अनन्तर जब पृथ्वी पर सौ वर्षों तक वर्षा नहीं होगी, पानी मिलेगा ही नहीं, तब मुनिजन मेरी स्तुति करेंगे, उस समय मैं अयोनिजा प्रकट होऊँगी, मैं सौ नेत्रों द्वारा उन मुनियों को देखूँगी, तब मनुष्य मेरा शताक्षी नाम से कीर्तन करेंगे। हे देवतागण ! उस समय सारे संसार को, जब तक वर्षा नहीं होती, तब तक अपने शरीर से उत्पन्न शाकों द्वारा पालूँगी। पृथ्वी पर ‘शाकम्भरी’ इस नाम से मैं विख्यात हो जाऊँगी, वहाँ पर मैं एक दुर्गम नाम के दैत्य का वध करूँगी। फिर मेरा नाम दुर्गा देवी विख्यात होगा। फिर जब मैं भयानक रूप धारण करके हिमाचल पर रहने वाले राक्षसों का मुनियों की रक्षा के लिये भक्षण करूँगी, उसी समय सभी मुनि भक्ति भाव से नम्र होकर मेरी स्तुति करेंगे। तब मेरा नाम भीमा-देवी विख्यात होगा। फिर अब अरुण नामक दैत्य तीनों लोकों में भारी उपद्रव मचाएगा, तब त्रिलोक की रक्षा के लिए छः पंजों वाले असंख्य भ्रमरों का रूप धारण करके उस महाअसुर का वध करूँगी। उस समय मुझे ‘भ्रामरी’ कहकर लोग सर्वत्र मेरी स्तुति करेंगे। इसी प्रकार जब-जब भी लोकों में दैत्यों द्वारा बाधायें उपस्थित होंगी तब-तब मैं अवतार लेकर शत्रुओं का नाश करूँगी।

बारहवाँ अध्याय – (देवी चरित्रों के पाठ का महात्म्य)

देवी बोलीं- जो पुरुष एकाग्र होकर इन स्तोत्रों से नित्य मेरी स्तुति करेगा उसकी सभी बाधाएं मैं निःसंशय नाश कर दूँगी और जो मधु कैटभ का नाश, महिषासुर का घात एवं शुम्भ निशुम्भ इन दोनों के वध आदि का कीर्तन करेंगे और जो एकाग्र होकर अष्टमी, चतुर्दशी, नवमी तिथियों में भक्तिपूर्वक मेरे इन उत्तम चरित्रों का महात्म्य सुनेंगे, उन्हें किसी प्रकार अनिष्ट स्पर्श नहीं कर सकेगा, न पापों से उत्पन्न आपत्तियाँ उन्हें दुःखित कर सकेंगी, न दरिद्रता प्राप्त होगी, न प्रिय का वियोग होगा। शत्रु का भय नहीं होगा, लुटेरे तथा राजा से भी कोई भय नहीं आयेगा और न शस्त्रों से, न अग्नि से, न जलराशि से, भय कभी भी न होगा। इसलिये मेरा महात्म्य एकाग्रचित्त होकर पढ़ना चाहिये एवं भक्ति से सदा सुनना चाहिये। मेरा चरित्र परम मंगलदायक है। महामारी से उत्पन्न सभी उपद्रवों को तथा तीनों पापों को मेरा महात्म्य शान्त कर देता है। मेरे जिस मंदिर में मेरा यह महात्म्य पढ़ा जा रहा हो उस स्थान का मैं कभी त्याग नहीं करती, वहाँ मेरा सदा सन्निधान रहता है। बलिदान, पूजा अग्निहोत्र एवं महोत्सव में, इस मेरे सारे चरित्र का पाठ करें और श्रवण करें। इस प्रकार विधि जानकर अथवा बिना जाने बलि, पूजा, हवन आदि जो कुछ भी करेगा उसे मैं प्रीतिपूर्वक ग्रहण कर लेती हूँ। शरद्काल में मेरी वार्षिक महापूजा की जाती है। उस अवसर पर जो मेरे इस महात्म्य को भक्ति के साथ सुनेगा, उसकी सभी बाधायें निवृत्त हो जायेंगी और वह धन-धान्य पुत्रादि से संयुक्त हो जायेगा। मेरी उस पर कृपा होगी, इसमें संशय नहीं। मेरे इस महात्म्य को, मेरी उत्पत्ति की पवित्र कथाओं को एवं युद्ध में मेरे पराक्रम को, जो मनुष्य सुनेगा वह सर्वथा निर्भय हो जायेगा। मेरे महात्म्य सुनने वाले मनुष्यों के शत्रु नष्ट हो जाते हैं, कल्याण प्राप्त होता है और कुल आनन्दित रहता है। सभी शान्ति-कर्मों में स्वप्न देखने पर, ग्रहों को दारुण पीड़ायें निवृत्ति हो जाती हैं। मनुष्य का देखा हुआ बुरा स्वप्न सुख स्वप्न हो जाता है। बालग्रहों द्वारा पीड़ित बालकों के लिये यह महात्म्य शान्तिदायक है। मनुष्य में फूट हो जाने पर यह महात्म्य मित्रता कराने में परम उत्तम है। सभी दुराचारियों के बल का भली-भाँति नाश कर देता है। पढ़ने से ही राक्षस, भूत, पिशाच आदि का नाश हो जाता है और मेरा यह सारा महात्म्य मेरी सन्निधि प्राप्त करा देता है। पुष्प, अर्घ्य, दीप, धूप, गंध तथा उत्तम दीपों द्वारा मेरे पूजन से, ब्राह्मणों को भोजन कराने में, होम से, प्रतिदिन के अभिषेक से और भी अनेक प्रकार के भोगों (पदार्थों) के दान से, वर्ष पर जो मेरें अर्पण करके आराधना करते हैं, इससे जो मुझे प्रसन्नता होती है वही प्रसन्नता मेरे इस महात्म्य के एक बार सुनने से हो जाती है। इसे सुनते ही सब पाप नष्ट हो जाते हैं फिर आरोग्य प्राप्त हो जाता है। मेरी उत्पत्तियों का कीर्तन तो सभी भूतों से रक्षा करता है। युद्ध में वर्णित मेरा जो चरित्र दुष्ट दैत्यों के नाश करने वाला है उसके श्रवण करने पर मनुष्य को बैरियों से किसी प्रकार का भय नहीं रहता। हे देवतागण ! तुम लोगों ने जो मेरी स्तुतियाँ की हैं एवं ब्रह्मऋषियों ने जो की हैं और ब्रह्माजी ने जो की हैं, वे सभी मंगलमयी बुद्धि देती हैं। वन में, शून्य-स्थान पर अथवा वन की अग्नि से घिर जाने पर, शून्य-स्थान में डाकुओं से घिर जाने पर, शत्रुओं द्वारा पकड़े जाने पर अथवा वन में शेर चीता एवं जंगली हाथियों के पीछा करने पर, क्रोध में आकर राजा ने वध की आज्ञा दे दी हो या कैद में पड़ गया हो अथवा महासमुद्र में जहाज पर बैठ जाने के बाद भारी तूफान आ जाए, उससे जहाज डगमगाने लगे ऐसे अवसर पर, घोर संग्राम में शस्त्रों का प्रहार होने लग जाए, सब प्रकार बाधायें पड़ रही हो, किसी महापीड़ा से व्याकुल हो, इस प्रकार की सभी घोर विपत्तियों से, इस मेरे चरित्र का स्मरण करने वाला पुरुष छूट जाता है। 

मेरे प्रभाव से शेर आदि हिंसक पशु, डाकू तथा शत्रु, मेरे चरित्र के स्मरण करने वाले पुरुष से सभी दूर भाग जाते हैं। ऋषि बोले- इतना कहकर भयंकर पराक्रम वाली भगवती चण्डिका, सभी देवताओं के देखते-देखते, वहाँ पर अन्तर्ध्यान हो गयी। वे सभी देवता निर्भय होकर पहले के समान अपने-अपने अधिकार प्राप्त करके अपने-अपने यज्ञ-भागों के भोक्ता हुए। बाकी दैत्यों का हाल सुनिए- जबकि देवशत्रु शुम्भ युद्ध में मारा गया, जो इस जगत में विध्वंस पर तुला हुआ था, जो अतुल भयंकर महापराक्रमी था. उसके मारे जाने पर और फिर महापराक्रमी निशुम्भ के भी मर जाने पर, बाकी बचे-खुचे दैत्य पाताल में भाग गये। हे राजन्! इसी प्रकार भगवती जगदम्बिका नित्य-स्वरूपा देवी पुनः पुनः प्रकट होकर जगत् की रक्षा किया करती हैं। यह देवीजी विश्व का मोहन करती हैं वही जगत् को पैदा करती हैं, उसी के आगे प्रार्थना करने पर सन्तुष्ट हो जाती हैं फिर ज्ञान एवं ऋद्धि प्रदान करती हैं। हे राजन् ! उसी ने ही सारे संसार को व्याप्त कर रखा है। महाप्रलयकाल में महामारी के स्वरूप से ही यह देवी ब्रह्माण्ड भर में व्याप्त हो जाती है। वही देवी समय-समय में महामारी हो जाती है, अजन्मा होते हुए भी वह सृष्टि-रूप हो जाती है, वही सनातनी देवी समय-समय पर प्राणियों की स्थिति किया करती है। मनुष्यों के उन्नति समय में वही देवी घर में वृद्धि-दायिनी लक्ष्मीरूपा हो जाती है। फिर अभाव के समय विनाश के लिये अलक्ष्मी (दरिद्रता) भी बन जाती है। पुष्प, धूप, गन्ध आदि सामग्रियों से पूजी हुई फिर स्तुति करने पर यही देवी धन, पुत्र, धर्म में मति, शुभ गति आदि प्रदान करती है।

 आठवाँ दिन –  महागौरी

श्वेते वृषे समारूढा श्वेताम्बरधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा॥

माँ दुर्गाजी की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है। दुर्गा पूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है। उनकी शक्ति अमोघ और सद्यः फलदायिनी है। उनकी उपासना से भक्तों के सभी कल्मष धुल जाते हैं।

तेरहवाँ अध्याय – राजा सुरथ और वैश्य को देवी का वरदान

ऋषि बोले- हे राजन्! इस प्रकार मैंने देवी जी का उत्तम महात्म्य तुम्हें कह सुनाया। जिसने इस जगत् को धारण कर रखा है, वह देवी इस प्रकार के प्रभाव वाली है। वही देवी विद्या उत्पन्न करती है। उसी विष्णु की माया ने ही हे राजन् ! तुमको, इस वैश्य को तथा और भी विवेकवान् जनों को मोहित कर दिया। यह पहले भी मोहित थे फिर आगे भी मोहित होंगे, इसलिये हे महाराज! तुम उसी परमेश्वरी की शरण में जाओ। क्योंकि वही देवी, करने पर, मनुष्यों को भोग एवं मोक्षादि प्रदान किया करती है।

मार्कण्डेय ऋषि बोले- क्रोष्टुकि जी! इस प्रकार ऋषि की बात सुनकर राजा सुरथ ने उत्तम व्रतधारी महाभाग मेधा ऋषि को प्रणाम किया तथा ममता और राज्य आदि के हरण से दुःखी होकर तत्काल ही वह राजा तप करने चला गया। वह वैश्य भी नदी के समीप जाकर भगवती के दर्शनार्थ देवी के सूक्त का जप करने लगा और फिर राजा तथा वैश्य दोनों नदी के समीप मृत्तिका से देवी की मूर्ति बनाकर प्रतिदिन पुष्प, धूप और हवन तर्पण आदि से धीरे-धीरे थोड़ा आहार करते हुये, निराहार होकर, एकाग्रता से देवी जी में मन लगाकर, एकचित्त होकर के देवीजी की आराधना करने लगे। उन दोनों ने बलि प्रदान के समय अपने अंगों के रुधिर का प्रोक्षण किया। इसी प्रकार संयमपूर्वक तीन वर्ष पर्यन्त आराधना करते रहे।

तब तो जगत् को धारण करने वाली देवी ने प्रत्यक्ष होकर दर्शन दिया और तब राजा से चण्डिका देवी जी बोलीं- हे राजन्! कुलनन्दन ! तुम दोनों जिस अभीष्ट की प्राप्ति के लिये मेरी प्रार्थना करते रहे हो, वह मुझसे माँगों। मैं प्रसन्न हूँ। तुम्हें सब कुछ दूँगी।

मार्कण्डेय जी बोले- तब राजा ने तो दूसरे जन्म में अक्षय रहने वाला राज्य माँगा और इस जन्म में शत्रुसेना का बलपूर्वक नाश करके फिर अपने राज्य की प्राप्ति का वर माँगा। वैश्य का तो चित्त संसार से खिन्न हो चुका था। इसलिये उस बुद्धिमान ने उस ज्ञान का वर माँगा जिसके द्वारा संसार की अहंता ममतात्मक आसक्ति नष्ट हो जाये। 

देवी बोली- हे राजन्! थोड़े दिनों में तुम अपना राज्य पा लोगे, कठिनता के बिना ही अपने शत्रुओं का नाश करोगे। वहीं पर तुम्हारा राज्य स्थिर हो जायेगा। फिर देहान्त होने पर सूर्यदेव के अंश द्वारा जन्म पाकर, इस पृथ्वी पर आप सावर्णिक नाम के मनु होंगे। हे श्रेष्ठ वैश्य ! तुमने जो उत्तम वर माँगा है, मैं उस वर को देती हूँ। मोक्ष प्राप्ति के लिए तुम्हें उस ज्ञान की प्राप्ति होगी। मार्कण्डेय जी बोले- इस प्रकार देवी जी ने उन्हें अभिलाषित वर दिये। फिर उन दोनों की भक्तिपूर्वक की हुई स्तुति से प्रसन्न होकर देवी तत्काल अन्तर्ध्यान हो गई। इस प्रकार वह क्षत्रिय- श्रेष्ठ सुरथ देवी से वर पाकर फिर सूर्य से उत्पन्न होकर सावर्णि नामक मनु हुआ। माता की इस स्तुति का पाठ सभी प्रकार के दुःख, कष्ट एवं भय का नाश करने वाला तथा ऋद्धि-सिद्धि और मोक्ष प्रदायक है।

नवरात्रों का कन्या-पूजन

श्री दुर्गा के भक्त को देवी जी की अतिशय प्रसन्नता के लिये नवरात्र में अष्टमी अथवा नवमी को कुमारी कन्याओं को अवश्य खिलाना चाहिए। इन कुमारियों की संख्या ९ हो तो अत्युत्तम, शक्ति न होने पर दो ही सही। किन्तु भोजन करने वाली कन्याएं २ वर्ष से कम तथा १० वर्ष से ऊपर नहीं होनी चाहिए। दो वर्ष की कन्या कुमारी, तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति, चार वर्ष की कल्याणी, पाँच वर्ष की रोहिणी, छः वर्ष की कालिका, सात वर्ष की चण्डिका, आठ वर्ष की शाम्भवी, नौ वर्ष की दुर्गा तथा दस वर्ष की कन्या सुभद्रा के समान मानी जाती है। क्रमशः इन सब कुमारियों के नमस्कार मंत्र ये हैं 

  1. कुमार्यै नमः
  2. त्रिमूर्त्यै नमः
  3. कल्याण्यै नमः
  4. रोहिण्यै नमः
  5. कालिकायै नमः
  6. चण्डिकायै नमः
  7. शाम्भव्यै नमः
  8. दुर्गायै नमः
  9. सुभद्रायै नमः। 

कुमारियों में हीनांगी, अधिकांगी, कुरूपा न होनी चाहिए। पूजन करने के बाद जब कुमारी देवी भोजन कर लें तो उनसे अपने सिर पर अक्षत् छुड़वायें और उन्हें दक्षिणा दें। इस तरह करने पर महामाया भगवती अत्यन्त प्रसन्न होकर मनोरथ पूर्ण कर देती हैं।

नौवाँ दिन – सिद्धिदात्री

सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि।
सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी॥ 

माँ दुर्गा जी की नवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री है। ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। नवदुर्गाओं में माँ सिद्धिदात्री अन्तिम है। इनकी उपासना पूर्ण कर लेने के बाद भक्तों की सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति हो जाती है। माता के लिए बनाए नैवेद्य की थाली माँ को भोग समर्पण करके निम्न प्रार्थना करें। तत्पश्चात् दुर्गा चालीसा, विन्ध्येश्वरी चालीसा, विन्ध्येश्वरी स्तोत्र का पाठ करके श्री दुर्गाजी की आरती करके नवरात्रों के नौ दिन की पूजा समाप्त हो जाती है। व्रत रखने वाले नर-नारी इस प्रकार से पूजा कर चुकने पर भोजन करके सामान्य व्यवहार प्रारम्भ कर लें।

माँ का भोग

भोगो हे भोगो मैया, भोगो हे भोगो, ते मेरी अबला माय तेरा मन यूँ ही पतियायो। बथुये की भाजी देवा अथक बनाई खीर खांड देवा और मिठियाई, सन्त पयारों का दाना, बाले भोलों का दाना, निपट गरीबों का दाना । माता घर आये तै मेरा ऐ! माँ दास धनुवा तेरा भोग ले आया, मन पतियायो ॥१॥

मुरारी भगत! तेरा भोग ले आया, राज रे रूपेश्वर ! तेरा भोग ले आया। धानु रे भक्त तेरा भोग ले आया, राजा रे हरिश्चन्द्र तेरा भोग ले आया। रानी तारादे तेरा भोग ले आई, सन्त और सेवक तेरा भोग ले आये। भक्त सवैये तेरा भोग ले आये, भोगो हे भोगो मैया भोगो हे….॥२॥ 

सोने का गड़वा गंगाजल पानी, सोने की झारी गंगाजल पानी। 
ऐसा मिठरा ठंडरा – ठंडरा पानी, ऐसा मिठरा मिठरा पानी।

आशादेवी, मनसादेवी, अष्टभुजी, छत्र – भुजी।
तै मेरी कालका महारानी, पियो हे पियौ मैया…

पानों का बीड़ा तेरा भोला जन लाया, पान सुपारी तेरा धानु जन लाया।
चाबो हे चाबो मैया, चाबो हे चाबो चण्डी, मेरा मन यूँ ही पतियायो ।

विन्ध्येश्वरी स्तोत्र

निशुम्भ शुम्भ गर्जनी, प्रचण्ड खण्ड खण्डनी।
बने रणे प्रकाशिनी, भजामि विन्ध्यवासिनी॥ 

त्रिशूल मुण्ड धारिणी, धरा विघात हारिणी।
गृहे-गृहे निवासिनी, भजामि विन्ध्यवासिनी॥ 

दरिद्र दुःख हारिणी, सुता विभूति कारिणी।
वियोग शोक हारिणी, भजामि विन्ध्यवासिनी॥ 

लसत्सुलोल-लोचनं, लतासनं वरप्रदं ।
कपाल शूलधारिणी, भजामि विन्ध्यवासिनी॥

करो मुदा गदाधार, शिवा शिवः प्रदायिनी।
वर वरानना शुभा, भजामि विन्ध्यवासिनी॥ 

ऋषीन्द्र जामिनी प्रदं त्रिधास्य रूप धारिणी।
जले थले निवासिनी, भजामि विन्ध्यवासिनी॥ 

विशिष्ट शिष्ट कारिणी, विशाल रूप धारिणी। 

महोदरे विलासिनी, भजामि विन्ध्यवासिनी॥ 

पुरंदरादि सेविता, सुरारि वंश खण्डिता,
विशुद्ध बुद्धि कारिणी, भजामि विन्ध्यवासिनी॥

मातेश्वरी की विशेष स्तुति

सन्त चले दर्शन करन, जगदम्बा ढिंग जाय।
कर जोड़े सम्मुख खड़े, प्रेम से शीश नवाय॥

 
मंगल की सेवा, सुन मेरी देवा! हाथ जोड़ तेरे द्वार खड़े।
पान-सुपारी, ध्वजा-नारियल, ले ज्वाला तेरी भेंट धरे।

सुन जगदम्बे ! कर न विलंबे, माँ संतन के भंडार भरे।
संत प्रतिपाली करत खुशहाली, जय काली कल्याण करे॥ 

बुद्धि विधाता तू जग माता, तू सबके कारज सिद्ध करे।
चरण कमल का लिया आसरा, शरण तुम्हारी आन परे।
जब-जब भीर पड़ी सन्तन पर, तब-तब आय सहाय करे।
सन्तन प्रतिपाली करण खुशहाली, जय काली कल्याण करे॥ 

वीरवार को सब जग मोह्यो, माँ तरुणि रूप अनूप धरे।
कहीं माता होकर पुत्र खिलावे, कहीं भार्या बन भोग करे।
तुम्हारी महिमा किस मुख वरनूं, बैठी कारज आप करे।
सन्तन प्रतिपाली करत खुशहाली, जय काली कल्याण करे॥ 

शुक्कर सुखदाई सदा सहाई, सन्त खड़े जयकार करे।
ब्रह्मा विष्णु महेश सहस्रफन भेंट लिए तेरे द्वार खड़े।
अटल सिंहासन पर बैठी माता, सिर सोने का छत्र फिरे।
सन्तन प्रतिपाली करत खुशहाली, जय काली कल्याण करे॥

वार शनिश्चर कुंकुम वरणी, लौकड़ वीर को हुक्म करे। 

खड्ग खप्पर त्रिशूल संभाले, रक्तबीज को भस्म करे।
शुम्भ निशुम्भ क्षणहिं में मारे, महिषासुर का संहार करे।
सन्तन प्रतिपाली करत खुशहाली, जय काली कल्याण करे॥ 

आदित्यवार तुम राजदुलारी, जन अपने को कष्ट हरे।
जब तुम देखो दय रूप से, पल में संकट दूर करे।
कुपित होकर दानव मारे, चण्ड मुण्ड सब चूर करें।
सन्तन प्रतिपाली करत खुशहाली, जय काली कल्याण करे॥ 

सोम को सौम्य स्वरूप धर माता, सबकी अर्ज कबूल करे।
सिंह पीठ पर चढ़ी भवानी, अटल भवन में राज्य करे।

भक्त दर्शन पावें मंगल गावें, सिद्ध तेरी भेंट करे।
सन्तन प्रतिपाली करत खुशहाली, जय काली कल्याण करे॥ 

सात वार की महिमा वरनूं, मां की महिमा अति भारी।
चन्द्र सूर्य तपें तेज से तेरे, मां तेरे तेज की वलिहारी।
सुख धन वैभव देने वाली, एक पल में निहाल करे।
सन्तन प्रतिपाली करत खुशहाली, जय काली कल्याण करे॥ 

ब्रह्मा वेद पढ़े तेरे द्वारे, शिव हरि नारद ध्यान घरें।
इन्द्र कृष्ण तेरी करें आरती, चंवर कुबेर डुलाय करें।
जय जननी जय मातु भवानी, अटल भवन में राज्य करे।
सन्तन प्रतिपाली करत खुशहाली, जय काली कल्याण करे॥ 

मधु कैटभ महिषासुर के बल को, पल में मां हरती हो।
चण्ड और मुण्ड बिनासिवेको, तुम रूप अनेकन धरती हो।

शुम्भ निशुम्भ विदारवे को, तुम ही जग में उतरती हो। 

मात भवानी, जय जग जननी, अटल भवन में राज करे।
सन्तन प्रतिपाली करत खुशहाली, जय काली कल्याण करे॥ 

दुर्गे तेहि जपो जल-थल में, मोहिए दीजिए बुद्धि पढ़ों बहुवानी।
सुवरण छत्र भवन पर सोहत, लाल ध्वजा सम्मुख फहरानी।

भक्तन के काज संवारने को, जगदंब विलम्ब न जरा करे।
सन्तन प्रतिपाली करत खुशहाली, जय काली कल्याण करे॥ 

सिंह चढ़त देवी गरजत आई, लांगुर भैरों चले अगवानी।
भक्त तेरे विनती करें माता, घर लक्ष्मी बन बसहु भवानी।
लक्ष्मी सरस्वती शिव है तू ही, दुर्गा तेने रूप अनेक धरे।
सन्तन प्रतिपाली करत खुशहाली, जय काली कल्याण करे॥ 

दोहा – ॐ भवानी कष्ट हरण, करत भक्त उद्धार ।
उर वास करो मम दास हूँ, करो मेरा निस्तार ॥

 आरती श्री देवी जी की

अम्बे तू है जगदम्बे, काली जय दुर्गे खप्पर वाली,
तेरे ही गुन गायें भारती ओ मैया हम सब उतारें तेरी आरती॥
भक्त जनों पर माता भीड़ पड़ी है भारी,
दानव दल पर टूट पड़ो माँ करके सिंह सवारी,
पौ सिंहों सी तू है बलशाली,
है अष्ट भुजाओं वाली दुखियों के दुखड़े निवारती। ओ मैया…

घंटे का है इस जग में बड़ा ही निर्मल नाता,
पूत कपूत सुने हैं पर ना माता सुनी कुमाता,
सद पे करूणा दरशाने वाली, अमृत बरसाने वाली,
दुखियों के दुखड़े निवारती ओ मैया…

नहीं माँगते धन और दौलत न चाँदी न सोना,
हम तो माँगे माँ तेरे चरणों में एक छोटा सा कोना,
सबकी बिगड़ी बनाने वाली लाज बचाने वाली,
सतियों के सत को संवारती । ओ मैया..

 मैया तू ही वर देने वाली,
जाय न कोई खाली,
दर पै तुम्हारे माता माँगते, औ मैया…

आदि शक्ति भगवती भवानी, हो जग की हितकारी,
जिसने याद किया आई मां, करके सिंह सवारी,
मैया करती कृपा किरपाली, रखती जन की रखवाली,
दुष्टों को पल में मैया मारती, औ मैया.. 

भक्त तुम्हारे निशदिन मैया, तेरे ही गुण गावैं,
मनवाँछित वर दे दे इनको, तुझमें ही ध्यान लगावें,

चरण – शरण में खड़े तुम्हारी, ले पूजा की थाली,
वरद हस्त सर पर रख दो, मां संकट हरने वाली,
मैया भर दो भक्ति रस प्याली, अष्ट भुजाओं वाली,
भक्तों के कारज तू ही संवारती, औ मैया..

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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