स्त्रीशिक्षा के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानंद का मत
विषय – स्त्रीशिक्षा के सम्बन्ध में स्वामीजी का मत – महाकाली पाठशालाका परिदर्शन और प्रशंसा – अन्य देश की स्त्रियों के साथ भारतीय महिलाओंकी तुलना एवं उनका विशेषत्व – स्त्री और पुरुष सब को शिक्षा देना कर्तव्य – किसी भी सामाजिक नियम को बल से तोड़ना उचित नहीं – शिक्षा के प्रभावसे लोग बुरे नियमों को स्वयं छोड़ देंगे।
स्थान – कलकत्ता
वर्ष – १८९७
स्वामी विवेकानंद जी अमरीका से लौटकर कुछ दिनों से कलकत्ते में बलराम बसुजी की बागबाजारवाली उद्यानवाटिका में ही ठहरे हैं। कभी कभी परिचित व्यक्तियों से मिलने उनके स्थान पर भी जाते हैं। आज प्रातःकाल शिष्य जब स्वामीजी के पास आया तब उसने उनको बाहर जाने के लिए तैयार पाया। स्वामीजी ने शिष्य से कहा, “मेरे साथ चल।” यह कहते कहते स्वामीजी सीढ़ियों से नीचे उतरने लगे। शिष्य भी पीछे पीछे चला। स्वामीजी शिष्य के साथ एक किराये की गाड़ी में सवार हुए, गाड़ी दक्षिण की ओर चली।
शिष्य – महाराज, कहाँ चल रहे हैं।
स्वामीजी – चलो, अभी मालूम हो जायगा।
स्वामीजी कहाँ जा रहे हैं इस विषय में उन्होंने शिष्य से कुछ भी नहीं कहा। गाड़ी के बिडनस्ट्रीट में पहुँचने पर कथाप्रसंग में कहने लगे, “तुम्हारे देश में स्त्रियों के पठन-पाठन के लिए कुछ भी प्रयत्न नहीं दीख पड़ता। तुम स्वयं पठन-पाठन करके योग्य बन रहे हो, किन्तु जो तुम्हारे सुख-दुःख की भागी हैं – प्रत्येक समय में प्राण देकर सेवा करती हैं – उनकी शिक्षा के लिए, उनके उत्थान के लिए तुमने क्या किया है?”
शिष्य – क्यों महाराज, आजकल तो स्त्रियों के लिए कितनी ही पाठशालाएँ तथा उच्चविद्यालय बन गये हैं, कितनी ही स्त्रियाँ एम्. ए. , बी. ए. परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो गयी हैं।
स्वामीजी – यह तो विलायती ढंग पर हो रहा है। तुम्हारे धर्मशास्त्र और देश की परिपाटी के अनुसार क्या कहीं भी कोई पाठशाला बालकों की भी है; स्त्रियों की बात तो जाने दो। इस देश के पुरुषों में भी शिक्षा का विस्तार अधिक नहीं है, इसी कारण गवर्नमेन्ट के Statistics (संख्यासूचक विवरण) में जब पाया जाता है कि भारतवर्ष में प्रति शत केवल दस बारह लोग ही शिक्षित हैं तो अनुमान होता है कि स्त्रियों में प्रति शत एक भी शिक्षिता न होगी। यदि ऐसा न होता तो देश की ऐसी दुर्दशा क्यों होती? शिक्षा का विस्तार तथा ज्ञान का उन्मेष हुए बिना देश की उन्नति कैसे होगी? तुममें से जो शिक्षित हैं और जिन पर देश की भावी आशा निर्भर है, उनमें भी इस विषय की कोई चेष्टा या उद्यम नहीं पाया जाता; किन्तु स्मरण रहे कि सर्वसाधारण में और स्त्रियों में शिक्षा का प्रचार न होने से उन्नति का कोई उपाय नहीं है। इसलिए कुछ ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी बनाने की मेरी इच्छा है। ब्रह्मचारी लोग समय पर संन्यास लेकर देश देश में, गाँव गाँव में जायेंगे और सर्वसाधारण में शिक्षा का प्रचार करने का प्रबन्ध करेंगे और ब्रह्मचारिणियाँ स्त्रियों के निमित्त भी करना होगा। शिक्षिता और सच्चरित्रा ब्रह्मचारिणियाँ स्त्रियों में विद्या का प्रचार करेंगी; परन्तु यह सब काम अपने देश के ढंग पर होना चाहिये। पुरुषों के लिये जैसा शिक्षा-केन्द्र बनाना होगा वैसा ही इस केन्द्र में कुमारियों को शिक्षा दिया करेंगी। पुराण, इतिहास, गृहकार्य, शिल्प, गृहस्थी के सारे नियम इत्यादि वर्तमान विज्ञान की सहायता से समझाने होंगे तथा आदर्श चरित्रगठन करने की उपयुक्त नीतियों की भी शिक्षा देनी होगी। कुमारियों को धर्मपरायण और नीतिपरायण बनाना पड़ेगा। जिससे वे भविष्य में अच्छी गृहिणी हों वही करना होगा। इन कन्याओं से जो सन्तान उत्पन्न होगी वह इन विषयों में और भी उन्नति कर सकेगी। जिनकी माता शिक्षिता और नीतिपरायण हैं उनके ही घर में बड़े लोग जन्म लेते हैं। वर्तमान समय में तो स्त्रियों को काम करने का यन्त्र-सा बना रखा है। राम! राम!! तुम्हारी शिक्षा का क्या यही फल हुआ? स्त्रियों की वर्तमान दशा से उनका प्रथम उद्धार करना होगा। सर्वसाधारण को जगाना होगा; तभी तो भारत का कल्याण होगा।
अब गाड़ी को कार्नवालीस स्ट्रीट के ब्राह्मसमाज मन्दिर से आगे बढ़ते देखकर स्वामीजी ने गाड़ीवाले से कहा, “चोरबागान के रास्ते को ले चलो।” गाड़ी जब उस रास्ते को मुड़ी तब स्वामीजी ने शिष्य से कहा, “महाकाली पाठशाला की स्थापनकर्त्री तपस्विनी माताजी ने अपनी पाठशाला देखने के लिए निमन्त्रित किया है।” यह पाठशाला उस समय चोरबागान में राजेन्द्रनाथ मल्लिकजी के मकान के पूर्व की ओर किराये के मकान में थी। गाड़ी ठहरने पर दो चार भद्रपुरुषों ने स्वामीजी को प्रणाम किया और उन्हें कोठे पर लिवा ले गये। तपस्विनी माताजी ने भी खड़े होकर स्वामीजी का सत्कार किया। थोड़ी देर बाद ही तपस्विनी माताजी स्वामीजी को पाठशाला की एक श्रेणी में ले गयीं। कुमारियों ने खड़े होकर स्वामीजी की अभ्यर्थना की और माताजी के आदेश से शिवजी के ध्यान की स्वरसहित आवृत्ति करनी आरम्भ की। फिर किस प्रणाली से पाठशाला में पूजन की शिक्षा दी जाती है, वह भी माताजी के आदेश से कुमारियाँ दिखलाने लगीं। स्वामीजी भी हर्षित नेत्रों से यह सब देखकर एक दूसरी श्रेणी की छात्राओं को देखने के लिए गये। वृद्धा माताजी ने अपने को स्वामीजी के साथ कुल श्रेणियों में घूमकर दिखाने के लिए असमर्थ जान पाठशाला के दो तीन शिक्षकों को बुलाकर स्वामीजी को सब श्रेणियों को अच्छी प्रकार दिखलाने के लिए कहा। सब श्रेणियों को देखकर स्वामीजी पुनः माताजी के पास लौट आये और उन्होंने एक छात्रा को बुलाकर रघुवंश के तृतीय अध्याय के प्रथम श्लोक की व्याख्या करने को कहा। उस कुमारी ने उसकी व्याख्या संस्कृत में ही करके स्वामीजी को सुनायी। स्वामीजी ने सुनकर सन्तोष प्रकट किया और स्त्रीशिक्षा का प्रचार करने में इतना अध्यवसाय और यत्न का इतना साफल्य देखकर माताजी की बहुत प्रशंसा करने लगे। इस पर माताजी ने विनय से कहा, “मैं छात्राओं की सेवा उन्हें देवी भगवती समझकर कर रही हूँ। विद्यालय स्थापित करके यश लाभ करने का कोई विचार नहीं है।”
विद्यालय के सम्बन्ध में वार्तालाप करके स्वामीजी ने जब विदा लेनी चाही तब माताजी ने स्वामीजी को Visitors’ Book (स्कूल के विषय में अपना मत लिखने के लिए निर्दिष्ट पुस्तक) में अपना मत प्रकट करने को कहा। स्वामीजी ने उस पुस्तक में अपना मत विशद रूप से लिख दिया। लिखित विषय की अन्तिम पंक्ति शिष्य को अभी तक स्मरण हैं। वह यह थी – “The movement is in the right direction” अर्थात् कार्य उचित मार्ग पर हो रहा है।
इसके बाद माताजी को नमस्कार करके स्वामीजी फिर गाड़ी में सवार हुए और शिष्य से स्त्रीशिक्षा पर वार्तालाप करते हुए बागबाजार की ओर चले गये। वार्तालाप का कुछ विवरण निम्नलिखित है।
स्वामीजी – देखो, कहाँ इनकी जन्मभूमि! सर्वस्व का त्याग किया है! तथापि यहाँ लोगों के मंगल के लिए कैसा यत्न कर रही हैं! स्त्री के अतिरिक्त और कौन छात्राओं को ऐसा निपुण कर सकता है? सभी प्रबन्ध अच्छा पाया, परन्तु गृहस्थ पुरुष-शिक्षकों का वहाँ होना मुझे उचित नहीं जान पड़ा। शिक्षिता विधवा या ब्रह्मचारिणियों को ही पाठशाला का कुल भार सौंपना चाहिए। इस देश की स्त्री-पाठशाला में पुरुषों का संसर्ग किंचिन्मात्र भी अच्छा नहीं।
शिष्य – किन्तु महाराज, इस देश में गार्गी, खना, लीलावती के समान गुणवती शिक्षिता स्त्रियाँ अब पायी कहाँ जाती हैं?
स्वामीजी – क्या ऐसी स्त्रियाँ इस देश में नहीं हैं? अरे यह देश वही है जहाँ सीता और सावित्री का जन्म हुआ था। पुण्यक्षेत्र भारत में अभी तक स्त्रियों में जैसा चरित्र, सेवाभाव, स्नेह, दया, तुष्टि और भक्ति पाये जाते हैं, पृथ्वी पर और कहीं ऐसे नहीं पाये जाते। पाश्चात्य देशों में स्त्रियों को देखने पर कुछ समय तक यही नहीं जान सकते थे कि वे स्त्रियाँ हैं। ठीक पुरुषों के समान प्रतीत होती थीं। ट्रामगाडी चलाती हैं, दफ़्तर जाती हैं, स्कूल जाती हैं, प्रोफेसरी करती हैं! एकमात्र भारतवर्ष ही में स्त्रियों में लज्जा, विनय इत्यादि देखकर नेत्रों को शान्ति होती है। ऐसे योग्य आधार होने पर भी तुम उनकी उन्नति न कर सके! इनको ज्ञानरूपी ज्योति दिखाने का कोई प्रबन्ध नहीं किया गया! उचित रीति से शिक्षा पाने पर ये आदर्श स्त्रियाँ बन सकती हैं।
शिष्य – महाराज, माताजी जिस प्रकार कुमारियों को शिक्षा दे रही हैं, क्या इससे ऐसा फल मिलेगा? वे कुमारियाँ बड़ी होने पर विवाह करेंगी और थोड़े ही समय में अन्य स्त्रियों के समान हो जायेंगी। परन्तु मेरा विचार है कि यदि उनसे ब्रह्मचर्य का पालन कराया जाय तो वे समाज और देश की उन्नति के लिए जीवन उत्सर्ग करने और शास्त्रोक्त उच्च आदर्श लाभ करने में समर्थ होंगी।
स्वामीजी – धीरे धीरे सब हो जायेगा। यहाँ अभी तक ऐसे शिक्षित पुरुषों ने जन्म नहीं लिया है, जो समाज-शासन से भयभीत न होकर अपनी कन्याओं को अविवाहित रख सकें। देखो, आजकल कन्याओं की अवस्था – बारह-तेरह वर्ष होते ही समाज के भय से उनका विवाह कर देते हैं। अभी उस दिन की बात है कि सम्मति बिल (Consent Bill) के आने पर समाज के नेताओं ने लाखों मनुष्यों को एकत्रित कर चिल्लाना शुरू कर दिया कि हम यह कानून नहीं चाहते! अन्य देशों में इस प्रकार की सभा इकट्ठी करके विरोध प्रदर्शन करने की कौन कहे, ऐसे कानून के बनने की बात सुनकर ही लोग लज्जा से अपने घरों में छिप जाते हैं और सोचते हैं कि क्या अभी तक हमारे समाज में इस प्रकार का कलंक मौजूद है?
शिष्य – परन्तु महाराज, क्या ये सब संहिताकार लोग बिना कुछ विचार किये ही बालविवाह का अनुमोदन करते थे? निश्चय इसमें कुछ गूढ़ रहस्य है।
स्वामीजी – क्या रहस्य मालूम पड़ता है?
शिष्य – विचारिये कि छोटी अवस्था में कन्याओं का विवाह कर देने से वे ससुराल में जाकर लड़कपन से ही कुलधर्म को सीख जायेंगी और गृहकार्य में निपुण बनेंगी। इसके अतिरिक्त पिता के गृह में वयस्क कन्या के स्वेच्छाचारिणी होने की सम्भावना है; बाल्यकाल में विवाह होने में स्वतन्त्र हो जाने का कोई भी भय नहीं रहता और लज्जा, नम्रता, धीरज तथा श्रमशीलता आदि नारीजाति के स्वाभाविक गुणों का विकास होता जाता है।
स्वामीजी – दूसरे पक्ष में यह कहा जा सकता है कि बालविवाह होने से बहुत स्त्रियाँ अल्पायु में ही सन्तान प्रसव करके मर जाती हैं। उनकी सन्तान अल्पजीवी होकर देश में भिक्षुकों की संख्या की वृद्धि करती हैं, क्योंकि माता-पिता का शरीर सम्पूर्ण रूप से सबल न होने से सन्तान सबल और नीरोग कैसे उत्पन्न हो सकती है। पठन-पाठन कराके कुमारियों की अधिक उम्र होने पर विवाह करने से उनकी जो सन्तान होगी, उसके द्वारा देश का कल्याण होगा। तुम्हारे यहाँ घर घर में जो इतनी विधवाएँ हैं, इसका कारण बालविवाह ही तो है। बालविवाह कम होने से विधवाओं की संख्या भी कम हो जायगी।
शिष्य – किन्तु महाराज, मेरा यह अनुमान है कि अधिक उम्र में विवाह होने से कुमारियाँ गृहकार्य में उतना ध्यान नहीं देतीं। सुना है कि कलकत्ते के अनेक गृहों में सास भोजन पकाती हैं और शिक्षित बहुएँ शृंगार करके बैठी रहती हैं। हमारे पूर्वबंग में ऐसा कभी नहीं होने पाता।
स्वामीजी – बुरा-भला सभी देशों में है। मेरा मत यह है कि सब देशों में समाज अपने आप बनता है। इसी कारण बाल विवाह उठा देना या विधवा विवाह आदि विषयों में सिर पटकना व्यर्थ है। हमारा यह कर्तव्य है कि समाज के स्त्री-पुरुषों को शिक्षा दें। इसके फल यह होगा कि वे स्वयं भले बुरे को समझेंगे और बुरे को स्वयं ही छोड़ देंगे। तब किसी को इन विषयों पर समाज का खण्डन या मण्डन करना न पड़ेगा।
शिष्य – आजकल स्त्रियों को किस प्रकार की शिक्षा की आवश्यकता है?
स्वामीजी – धर्म, शिल्प, विज्ञान, गृहकार्य, रन्धन, सीना, शरीर-पालन आदि सब विषयों का स्थूल मर्म सिखलाना उचित है। नाटक और उपन्यास तो उनके पास तक नहीं पहुँचने चाहिए। महाकाली पाठशाला अनेक विषयों में ठीक पथ पर चल रही है, किन्तु केवल पूजा पद्धति सिखलाने से ही काम न बनेगा। सब विषयों में उनकी आँखें खोल देना उचित है। छात्राओं के सामने आदर्श नारीचरित्र सर्वदा रखकर त्यागरूप व्रत में उनका अनुराग उत्पन्न कराना चाहिए। सीता, सावित्री, दमयन्ती, लीलावती, खना, मीराबाई आदि के जीवनचरित्र कुमारियों को समझाकर उनको अपने जीवन इसी प्रकार से संगठित करने का उपदेश देना होगा।
गाड़ी अब बागबाजार में स्व. बलराम बसुजी के घर पर पहुँची। स्वामीजी गाड़ी से उतरकर ऊपर चले गये और दर्शनाभिलाषियों से, जो वहाँ उपस्थित थे, महाकाली पाठशाला का कुल वृत्तान्त कहने लगे।
आगे, नवनिर्मित “रामकृष्ण मिशन” के सदस्यों का क्या क्या कार्य कर्तव्य है, आदि विषयों की आलोचना करने के साथ ही साथ वे ‘विद्यादान’ तथा ‘ज्ञानदान’ का श्रेष्ठत्व अनेक प्रकार से प्रतिपादन करने लगे। शिष्य को लक्ष्य करके बोले, ‘Educate, Educate’ (शिक्षा दो, शिक्षा दो)। “नान्यः पन्था विद्यतेऽनाय।” शिक्षादान के विरोधी मतावलम्बियों पर व्यंग करके बोले, ‘सावधान, प्रह्लाद के समान न बन जाना।’ शिष्य के इसका अर्थ पूछने पर स्वामीजी ने कहा, “क्या तूने सुना नहीं कि ‘क’ अक्षर को देखते ही प्रह्लाद की आँखों में आँसू भर आये थे, फिर उनसे पठन-पाठन क्या हो सकता था! यह निश्चित है कि प्रल्हाद की आँखों में आँसू भर आये थे प्रेम के और मूर्ख की आँखों में आँसू आते हैं डर के मारे। भक्तों में भी इस प्रकार के अनेक हैं।” इस बात को सुनकर सब लोग हँसने लगे। स्वामी योगानन्द यह सुनकर बोले “तुम्हारे मन में जब कोई बात उत्पन्न होती है, तो उसकी जब तक पूर्ति नहीं होगी, तब तक तुमको शान्ति कहाँ! अब जो इच्छा है वही होकर रहेगा।”