स्वामी विवेकानंद के पत्र – खेतड़ी के महाराज को लिखित (1894)
(स्वामी विवेकानंद का खेतड़ी के महाराज को लिखा गया पत्र)
अमेरिका,
१८९४
प्रिय महाराज,
…संस्कृत के किसी कवि ने कहा है, न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते – अर्थात् ‘ईंट-पत्थर की इमारत से घर नहीं बनता, गृहिणी के होने से बनता है।’ यह कितना सत्य है! घर की छत जो गर्मी-जाड़े तथा वर्षा से तुम्हारी रक्षा करती है, उसके गुण-दोषों का विचार उन खम्भों से, जिनके सहारे कि वह खड़ी हुई है, नहीं हो सकता, चाहे वे कितनी ही सुन्दर शिल्पमय ‘कोरिन्थियन्’ खम्भे क्यों न हों। उसका निर्णय होगा नारी से, जो वास्तविक मर्म-स्तम्भ है, सबका केन्द्र है, घर का वास्तविक अवलम्बन है। उस आदर्श के अनुसार विचार करने पर अमेरिका का पारिवारिक जीवन जगत् के अन्य किसी स्थान के पारिवारिक जीवन से न्यून न होगा।
अमेरिका के पारिवारिक जीवन के सम्बन्ध में मुझे अनेक निरर्थक कहानियाँ सुनने को मिलीं। – जैसे वहाँ स्वाधीनता स्वेच्छाचार तक पहुँच जाती है, वहाँ की धर्मवर्जित स्रियाँ स्वाधीनता के अपने उन्माद नृत्य में अपने पारिवारिक जीवन की सुख-शान्ति को पददलित कर चूर्ण-विचूर्ण कर देती हैं एवं इसी तरह की और भी सारी बकवास। किन्तु अब एक वर्ष के बाद अमेरिकी परिवार तथा अमेरिका की स्रियों के सम्बन्ध में मुझे जो अनुभव प्राप्त हुआ है, उससे यह स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि उक्त प्रकार की धारणाएँ कितनी भ्रान्त तथा निर्मूल हैं। अमेरिकी महिलाओं! सौ जन्म में भी मैं तुमसे उऋण न हो सकूँगा। मेरे पास तुम्हारे प्रति कृतज्ञता प्रकाश करने की भाषा नहीं है। ‘प्राच्य अतिशयोक्ति’ ही प्राच्यवासी मानवों की कृतज्ञता की गंभीरता को प्रकट करने की एकमात्र भाषा है : ‘यदि समुद्र मसि-पात्र हो, हिमालय पर्वत लेखनी, पृथ्वी पत्र तथा महाकाल स्वयं लेखक, फिर भी तुम्हारे प्रति मेरी कृतज्ञता प्रकट करने में ये सब समर्थ न हो सकेंगे।’1
गत वर्ष ग्रीष्म में दूर देश से नाम-यश-धन-विद्याविहीन, बन्धुरहित, असहाय दशा में प्रायः खाली हाथ जब मैं एक पारिव्राजक प्रचारक के रूप में इस देश में आया, उस समय अमेरिका की महिलाओं ने ही मेरी सहायता की, मेरे ठहरने तथा भोजन की व्यवस्था की, मुझे अपने घर ले गयीं तथा मेरे साथ अपने पुत्र तथा सहोदर जैसा बर्ताव किया। जब उनके पुरोहितों ने इस ‘भयानक विधर्मी’ को त्याग देने के लिए उन्हें बाध्य करना चाहा, जब उनके सबसे अंतरंग बन्धु ‘इस संदिग्ध भयानक चरित्र के अपरिचित विदेशी व्यक्ति’ का संग छोड़ने के लिए उपदेश देने लगे, तब भी वे मेरी मित्र बनी रहीं। किन्तु ये महिलाएँ ही मानव-चरित्र तथा मनव-प्रकृति की सच्ची निर्णायिकाएँ हैं – क्योंकि स्वच्छ दर्पण में ही प्रतिबिम्ब स्पष्ट पड़ता है।
कितने ही सुन्दर पारिवारिक जीवन मैंने यहाँ देखे हैं, कितनी ही ऐसी माताओं को देखा है, जिनके निर्मल चरित्र तथा निःस्वार्थ सन्तान-स्नेह का वर्णन भाषा के द्वारा नहीं किया जा सकता। कितनी दुहिताएँ तथा पवित्र कन्याएँ – देवी डायाना के मन्दिर पर की तुषारकणिकाओं के समान पवित्र – तदुपरांत उनकी वैसी संस्कृति, वैसी शिक्षा और वैसी सर्वोच्चकोटि की आध्यात्मिकता! तब क्या अमेरिका की सभी नारियाँ देवीस्वरूपा हैं? यह बात नहीं, भले-बुरे सभी स्थानों में होते हैं। किन्तु दुर्बल व्यक्तियों द्वारा, जिन्हें हम दुष्टों के नाम से अभिहित करते हैं, किसी जाति के बारे में किसी प्रकार की धारणा नहीं बनायी जा सकती, क्योंकि वे तो व्यर्थ के कूड़े-करकट की तरह पीछे रह जाते हैं; जो लोग सत्, उदार तथा पवित्र होते हैं, उनके द्वारा ही जातीय जीवन का निर्मल तथा प्रबल प्रवाह सूचित होता है।
किसी सेव के पेड़ तथा उसके फलों के गुण-दोषों का विचार करने के लिए क्या तुम उसके कच्चे, अविकसित तथा कीटग्रस्त फलों का सहारा लोगे, जो धरती पर जहाँ-तहाँ बिखरे हुए पड़े रहते हैं और जो कभी कभी संख्या में भी अधिक ही होते हैं? यदि कोई सुपक्व तथा पुष्ट फल मिले, तो उस एक से ही उस सेव के वृक्ष की शक्ति, सम्भावना तथा उद्देश्य का अनुमान किया जाता है, उन असंख्य अपक्व फलों से नहीं।
अमेरिका की आधुनिक महिलाओं के विशाल और उदार मन की मैं प्रशंसा करता हूँ। मैंने इस देश में अनेक उदार पुरुषों को भी देखा है, उनमें से कोई कोई तो अत्यन्त संकीर्ण मनोवृत्तिवाले सम्प्रदायों के अन्तर्गत हैं। भेद इतना ही है कि पुरुषों के विषय में यह आशंका बनी रहती है कि उदार बनने के लिए वे अपना धर्म, अपनी आध्यात्मिक विशिष्टता खो सकते हैं, परन्तु महिलाएँ कहीं भी भलाई देखती हैं, उसे सहानुभूतिपूर्वक, उदारता से अपने धर्म से तनिक भी विचलित हुए बिना ग्रहण करती हैं। सहज रूप से ही वे यह अनुभव करती हैं कि यह एक भाव का विषय है, अभाव का नहीं, संयोजन का विषय है, वियोग का नहीं। दिनोंदिन वे इस विषय में सचेतन होती जा रही हैं कि हर वस्तु का स्वीकारात्मक व इतिवाचक भाग ही संचित होता रहेगा तथा स्वीकारात्मक व इतिवाचक इन भावों के, और इसलिए प्रकृति की आध्यात्मिक शक्तियों के, संचय करने का कार्य ही संसार के नेतिवाचक व ध्वंसात्मक तत्वों का नाश करता है।
शिकागो का वह विश्व-मेला कितना अद्भुत काम था! और वह अद्भुत धर्ममहासभा भी, जिसमें पृथ्वी के सभी देशों के लोगों ने एकत्र होकर अपने-अपने विचार व्यक्त किये थे! डॉ. बैरोज तथा श्री बॉनी के अनुग्रह से मुझे भी अपने विचारों को सबके समक्ष रखने का अवसर प्राप्त हुआ था। श्री बॉनी कितने अद्भुत व्यक्ति हैं! जरा उनकी कल्पनाशक्ति के बारे में सोचो, जिन्होंने इतने विशाल आयोजन की कल्पना की और उसे सफलतापूर्वक कार्य में परिणत किया! और उल्लेखनीय बात यह है कि वे कोई पादरी नहीं थे; एक साधारण वकील होकर भी उन्होंने समस्त धर्म-सम्प्रदायों के परिचालकों का नेतृत्व ग्रहण किया था। उनका स्वभाव अत्यंत मधुर है एवं वे एक विद्वान् तथा धीर व्यक्ति हैं – उनकी हृदयस्थ भावनाओं का प्रकाश उनके उज्ज्वल नेत्रों से ही होता था… !
तुम्हारा
विवेकानन्द
- असितगिरिसमं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रे ।
सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमूर्वी ॥
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालम् ।
तदपि तव गुणानामीश पारं याति ॥ शिवमहिम्नस्तोत्र ॥३२॥ पर आधारित ।