स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित (4 अक्टूबर, 1895)

(स्वामी विवेकानंद का स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखा गया पत्र)

द्वारा श्री ई. टी. स्टर्डी,
हाई व्यू,कैवरशम,रीडिंग,
४ अक्टूबर, १८९५

अभिन्नहृदय,

तुम जानते हो कि अब मैं इंग्लैण्ड में हूँ। करीब एक महीना यहाँ रहकर फिर अमेरिका चला जाऊँगा। अगली ग्रीष्म ऋतु में फिर इंग्लैड आ जाऊँगा। इस समय इंग्लैण्ड में विशेष कुछ होने की आशा नहीं है, परन्तु प्रभु सर्वशक्तिशाली है। धीरे धीरे देखा जायगा।

इसके पहले शरत् के आने के लिए रुपये भेजे हैं तथा पत्र भी लिखा है। शरत् या शशि, इन दोनों में से किसी एक को भेजने का बन्दोबस्त करना। यदि शशि पूर्णरूपेण आरोग्य हो गया है, तो उसे भेजना। शीतप्रधान देश में चर्मरोग बढ़ता नहीं है – यहाँ अत्यन्त ठण्ड के कारण रोग दूर हो जायगा। नहीं तो शरत् को भेजना।

इस समय – का आना असम्भव है। अर्थात् रुपये स्टर्डी साहब के हैं, वे जिस तरह का आदमी चाहते हैं, वैसा ही लाना होगा। श्री स्टर्डी ने मुझसे मंत्र-दीक्षा ली है; वे बहुत उद्यमी और सज्जन व्यक्ति हैं। थियोसॉफी के झमेले में पड़कर वृथा समय नष्ट किया, इसलिए इन्हें बड़ा अफसोस है।

पहले तो ऐसे आदमी की जरूरत है, जिसे अंग्रेजी और संस्कृत का अच्छा ज्ञान हो। – यहाँ आने पर जल्दी अंग्रेजी सीख लेगा, यह सच है; परन्तु मैं यहाँ सीखने के लिए मनुष्य अभी नहीं बुला सकता, जो शिक्षा दे सकें, पहले उन्हींकी आवश्यकता है। दूसरी बात यह है कि, जो सम्पत्ति और विपत्ति, दोनों में मुझे न छोड़े,ऐसे ही मनुष्य पर मुझे विश्वास है।… बड़ा ही विश्वासी मनुष्य होना चाहिए। फिर नींव डाली जा चुकने पर, जिसकी जितनी इच्छा हो, शोर-गुल मचाये, कुछ नहीं। – ने कोई बुद्धिमानी नहीं दिखायी, जब वह व्यर्थ के हो-हल्ला एवं आवारा लोगों की बातों में आ गया। दादा, माना कि रामकृष्ण परमहंस एक नाचीज थे, माना कि उनके आश्रम में जाना बड़ी भूल का काम हुआ, परन्तु अब उपाय क्या है? केवल यही नहीं कि एक जन्म मुफ्त ही बीता, पर क्या मर्द की बात भी टलती है? क्या दस पति भी होते हैं? तुम लोग चाहे जिसके दल में जाओ, मेरी ओर से कोई रूकावट नहीं – जरा भी नहीं। परन्तु दुनिया भर में घूमकर देखा, उनकी परिधि के बाहर और सभी जगह मन में कुछ और कार्य में कुछ और है। जो उनके हैं, उन पर मेरा पूर्ण प्रेम और पूर्ण विश्वास है। क्या करूँ? मुझे एकांगी कहो, तो कह लेना, परन्तु यही मेरी असल बात है। जिसने श्रीरामकृष्ण को आत्मसमर्पण किया है, उसके पैरों में अगर काँटा भी चुभता है, तो वह मेरे हाड़ों में बेधता है; यों तो मैं सभी को प्यार करता हूँ। मेरी तरह असाम्प्रदायिक संसार में बिरला ही कोई होगा, परन्तु उतना ही मेरा हठ है, माफ करना। उनकी दुहाई नहीं, तो और किसकी दुहाई दूँ? अगले जन्म में कोई बड़ा गुरु देख लिया जायगा, इस जन्म में तो इस शरीर को सदा के लिए उन्हीं अनपढ़ ब्राह्मण ने ख़रीद लिया है।

मन की बात खुलकर कही दादा, गुस्सा न करना, मैं प्रार्थना करता हूँ। मैं तुम लोगों का गुलाम हूँ, जब तक तुम उनके गुलाम हो, बाल भर इसके बाहर हुए कि जैसे तुम, वैसे ही मैं।… देखते हो, देश में और विदेश में जितने भी मत-मतान्तर हो सकते हैं, उन सबको उन्होंने पहले ही से निगलकर पेट में डाल लिया है दादा – मयैवेते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।1 आज हो या कल, वे सब तुम लोगों के अंग में मिल जायँगे। हाय रे अल्प विश्वास! उनकी कृपा से, ब्रह्माडं गोष्पदायते।2

नमकहराम न होना, इस पाप का प्रायश्चित नहीं है। नाम-यश, सुकर्म – यज्जुहोषि यत्तपस्यसि यदश्नासि आदि ‘जो कुछ हवन देते हो, जो कुछ तप के फलस्वरूप प्राप्त करते हो, जो कुछ अन्नरूप में ग्रहण करते हो’ – सब उनके चरणों में समर्पित कर दो। पृथ्वी पर और क्या है, जो हमें चाहिए? उन्होंने हमें शरण दे दी और क्या चाहिए? भक्ति स्वयं फलस्वरूपा है – और क्या चाहिए? हे भाई, जिन्होंने खिला-पिलाकर, विद्या-बुद्धि देकर मनुष्य बनाया, जिन्होंने हमारी आत्मा की आँखे खोल दीं, जिनके रूप में हमने रात-दिन सजीव ईश्वर का दर्शन किया, जिनकी पवित्रता, प्रेम और ऐश्वर्य का राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, चैतन्य आदि में कण मात्र प्रकाश है, उनके निकट नमकहरामी!!! बुद्ध, कृष्ण आदि का तीन चौथाई हिस्सा कपोल-कल्पना के सिवा और क्या है?… अरे, तुम ऐसे दयालु देव की दया भूलते हो?…कृष्णजी , ईसा पैदा हुए थे या नहीं, इसका कोई प्रमाण नहीं है। और साक्षात् भगवान् को देखकर भी तुम्हें कभी कभी मतिभ्रम होता है! तुम लोगों के जीवन को धिक्कार है! मैं और क्या कहूँ? देश-विदेश में नास्तिक-पाखण्डी भी उनकी मूर्ति की पूजा करते हैं, और तुम लोगों को समय समय पर मतिभ्रम होता है!!! तुम्हारे जैसे लाखों वे अपने निःश्वास से गढ़ लेंगे। तुम लोगों का जन्म धन्य है, कुल धन्य है, देश धन्य है कि उनके पैरों की धूलि मिली। मैं क्या करूँ, मुझे लाचार होकर ऐसा कट्टर होना पड़ रहा है। मुझे तो उनके जनों को छोड़ और कहीं पवित्रता और निःस्वार्थता देखने को नहीं मिलती। सभी जगह ‘मुँह में राम, बगल में छुरी’ है – सिर्फ़ उनके जनों को छोड़कर। वे रक्षा कर रहे हैं, यह मैं देख जो रहा हूँ। अरे पागल, परी जैसी औरतें, लाखों रुपये, ये सब मेरे लिए तुच्छ हो रहे हैं, यह क्या मेरे बल पर? – या वे रक्षा कर रहे हैं, इसलिए! उनके सिवाय दूसरे किसीका एक भी रूपया या स्त्री के बारे में मैं विश्वास जो नहीं कर सकता। उन पर जिसका विश्वास नहीं है और परमाराध्या माता जी पर जिसकी भक्ति नहीं है, उसका कहीं कुछ भी न होगा – यह सीधी भाषा में कह दिया, याद रखना।

…हरमोहन ने अपनी दुःखपूर्ण अवस्था का हाल लिखा है और शीघ्र ही जगह छोड़ने को लिखा है। उसने कुछ व्याख्यान देने के लिए प्रार्थना की है, परन्तु व्याख्यानादि अभी कुछ नहीं है, परन्तु कुछ रुपये अभी टेंट में हैं, उसे भेज दूँगा, डरने की कोई बात नहीं। पत्र पाते ही भेज दूँगा; परन्तु सन्देह हो रहा है कि मेरे (पहले के) रुपये बीच में ही मारे गये, इसलिए फिर नहीं भेजे। दूसरे किस पते पर भेजूँ, वह भी नहीं मालूम। मद्रासवाले, जान पड़ता है, पत्रिका न निकाल सके। हिन्दू जाति में व्यवहार-कुशलता बिल्कुल ही नही है। जिस समय जिस काम के लिए प्रतिज्ञा करो, ठीक उसी समय उसे करना ही चाहिए, नहीं तो लोगों का विश्वास उठ जाता है। रुपये-पैसे की बात में पत्र मिलते ही अति शीघ्र उत्तर देना चाहिए।… यदि मास्टर महाशय राजी हों, तो उन्हें मेरा कलकत्ते का एजेन्ट होने के लिए कहना; उन पर मेरा पूर्ण विश्वास है और वे इन विषयों को अच्छी तरह समझते हैं। लड़कपन और जल्दबाजी का काम नहीं है। उन्हें कोई ऐसा केन्द्र ठीक करने के लिए कहना, जो पता क्षण क्षण में न बदले और जहाँ मैं कलकत्ते के सभी पत्र भेज सकूँ।…

किमधिकमिति,
नरेन्द्र


  1. मेरे द्वारा ये सब पहले ही से हत हो चुके हैं, हे अर्जुन, तुम्हें केवल निमित्त मात्र होना है॥– गीता॥११।३३॥
  2. बह्मांड गोष्पद हो जाता है।

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी पथ
error: यह सामग्री सुरक्षित है !!
Exit mobile version