राजयोग चतुर्थ अध्याय – प्राण का आध्यात्मिक रूप
Fourth Chapter of Swami Vivekananda’s Raja Yoga in Hindi: Prana Ka Adhyatmik Roop
स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्ध पुस्तक राजयोग का यह चौथा अध्याय है। इसमें समझाया गया है कि किस तरह प्राण कुंडलिनी शक्ति के रूप में मनुष्य शरीर में कार्य करता है और इसका तीन मुख्य नाड़ियों से क्या संबंध है, जिन्हें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना कहा जाता है। राजयोग पुस्तक के “प्राण” नामक तृतीय अध्याय में पहले ही वैश्विक प्राण की पूरी प्रक्रिया को स्वामी जी समझा चुके हैं।
योगियों के मतानुसार मेरुदण्ड के भीतर इडा और पिंगला नाम के दो स्नायविक शक्तिप्रवाह, और मेरुदण्डस्थ मज्जा के बीच सुषुम्ना नाम की एक शून्य नाली है। इस शून्य नाली के सबसे नीचे कुंडलिनी का आधारभूत पद्म अवस्थित है। योगियों का कहना है कि वह त्रिकोणाकार है। योगियों की रूपक भाषा में कुण्डलिनी शक्ति उस स्थान पर कुण्डलाकार हो विराज रही है। जब यह कुंडलिनी शक्ति जगती है, तब वह इस शून्य नाली के भीतर से मार्ग बनाकर ऊपर उठने का प्रयत्न करती है। और ज्यों-ज्यों वह एक-एक सोपान ऊपर उठती जाती है, त्यों-त्यों मन के स्तर-पर-स्तर मानो खुलते जाते हैं और योगी को अनेक प्रकार के अलौकिक दर्शन होने लगते हैं तथा अद्भुत शक्तियाँ प्राप्त होने लगती हैं। जब वह कुंडलिनी मस्तक पर चढ़ जाती है, तब योगी सम्पूर्ण रूप से शरीर और मन से पृथक हो जाते हैं और उनकी आत्मा अपने मुक्त स्वभाव की उपलब्धि करती है।
हमें मालूम है कि मेरुमज्जा एक विशेष प्रकार से गठित है। अंग्रेजी के आठ अंक (8) को यदि इस तरह (∞) लंबा कर लिया जाय, तो देखेंगे कि उसके दो अंश हैं और वे दोनों अंश बीच से जुड़े हुए हैं। इस तरह के अनेक अंकों को एक-पर-एक रखने पर जैसा दीख पड़ता है, मेरुमज्जा बहुत-कुछ वैसी ही है। उसके बाँई ओर इड़ा है और दाहिनी ओर पिंगला, और जो अन्य नाली मेरुमज्जा ठीक बीच में से गई है वही सुषुम्ना है। कटिप्रदेशस्थ मेरूदंड की कुछ अस्थियों के बाद ही मेरुमज्जा समाप्त हो गई है, परन्तु वहाँ से भी धागे के समान एक बहुत ही सूक्ष्म पदार्थ बराबर नीचे उतरता गया है। सुषुम्ना नाली वहाँ भी अवस्थित है, परन्तु वहाँ बहुत सूक्ष्म हो गई है। नीचे की ओर उस नाली का मुँह बंद रहता है। उसके निकट ही कटिप्रदेशस्थ नाड़ी-जाल (Sacral Plexus) अवस्थित है। आजकल के शारीरविधानशास्त्र (Physiology) के मत से वह त्रिकोणाकार है। इन विभिन्न नाड़ी-जालों के केन्द्र मेरुमज्जा के भीतर अवस्थित हैं, वे नाड़ी-जाल योगियों के भिन्न-भिन्न पद्मों या चक्रों के तौर पर लिए जा सकते हैं।
योगियों का कहना है कि सबसे नीचे मूलाधार से लेकर मस्तिष्क में स्थित सहस्रार या सहस्रदल पद्म तक कुछ केन्द्र हैं। यदि हम उन पद्मों को पूर्वोक्त नाड़ी-जाल (plexus) समझें, तो आजकल के शारीरविधानशास्त्र के द्वारा बहुत सहज ही योगियों की बात का मर्म समझ में आ जायगा। हमें मालूम है कि हमारे स्नायुओं के भीतर दो प्रकार के प्रवाह हैं, उनमें से एक को अन्तर्मुखी और दूसरे को बहिर्मुखी, एक को ज्ञानात्मक और दूसरे को गति-आत्मक, एक को केन्द्र की ओर जानेवाला और दूसरे को केन्द्र से दूर जानेवाला कहा जा सकता है। उनमें से एक मस्तिष्क की ओर संवाद ले जाता है, और दूसरा मस्तिष्क से बाहर, समुदय अंगों में। परन्तु अंत में ये प्रवाह मस्तिष्क से संयुक्त हो जाते हैं। आगे आनेवाले विषय को स्पष्ट रूप से समझने के लिए हमें कुछ और बातें ध्यान में रखनी होंगी। यह मेरुमज्जा मस्तिष्क में जाकर एक प्रकार के ‘बल्ब’ में–medulla नामक एक अंडाकार पदार्थ मे अंत हो जाती है, जो मस्तिष्क के साथ संयुक्त नहीं है, वरन् मस्तिष्क में जो एक तरल पदार्थ है, उसमें तैरता रहता है। अतः यदि सिर पर कोई आघात लगे, तो उस आघात की शक्ति उस तरल पदार्थ में बिखर जाती है, और इससे उस बल्ब को कोई चोट नहीं पहुँचती। यह एक महत्त्वपूर्ण बात है, जो हमें स्मरण रखनी चाहिए। दूसरे, हमें यह भी जान लेना होगा कि इन सब चक्रों में से सबसे नीचे स्थित मूलाधार, मस्तिष्क में स्थित सहस्रार और नाभिदेश में स्थित मणिपुर–इन तीन चक्रों की बात हमें विशेष रूप से ध्यान में रखनी होगी।
अब पदार्थ-विज्ञान का एक तत्व हमें समझना है। हम लोगों ने विद्युत और उससे संयुक्त अन्य बहुविध शक्तियों की बातें सुनी हैं। विद्युत् क्या है? यह किसी को मालूम नहीं। हम लोग इतना ही जानते हैं कि विद्युत एक प्रकार की गति है। जगत् में और भी अनेक प्रकार की गतियाँ हैं, विद्युत से उनका भेद क्या है? मान लो, यह टेबुल चल रहा है और उसके परमाणु विभिन्न दिशाओं में जा रहे हैं। अब यदि उनको अनवरत एक ही दिशा में चलाया जाय, तो वही गति विद्युत की शक्ति में परिणत हो जायगी। समस्त परमाणु यदि एक ओर गतिशील हों तो उसी को वैद्युत-गति कहते हैं। इस कमरे में जो वायु है, उसके सारे परमाणुओं को यदि लगातार एक ओर चलाया जाय, तो यह कमरा एक महान् विद्युदाधार-यंत्र (battery) के रूप में परिणत हो जायगा।
शारीरविधानशास्त्र की एक और बात हमें स्मरण करनी होगी। वह यह कि जो स्नायु-केन्द्र श्वास-प्रश्वास-यंत्रों को नियमित करती है, उसका सारे स्नायु-प्रवाहों पर भी कुछ अधिकार है। यह केन्द्र; वक्ष के ठीक दूसरी ओर मेरुदण्ड में अवस्थित है। यह श्वास-प्रश्वास-यंत्रों को नियमित करता है और दूसरे जो स्नायुचक्र हैं, उन पर भी कुछ प्रभाव डालता है।
अब हम प्राणायाम-क्रिया के साधन का कारण समझ सकेंगे। पहले तो, यदि श्वास-प्रश्वास की गति नियमित की जाय, तो शरीर के सारे परमाणु एक ही दिशा में गतिशील होने का प्रयत्न करेंगे। जब विभिन्न दिशाओं में दौड़नेवाला मन एकमुखी होकर एक दृढ़ इच्छाशक्ति के रूप में परिणत होता है, तब सारे स्नायु-प्रवाह भी परिवर्तित होकर एक प्रकार की विद्युत् गति प्राप्त करते हैं, क्योंकि स्नायुओं पर विद्युत्-क्रिया करने पर देखा गया है कि उनके दोनों प्रान्तों में धनात्मक और ऋणात्मक इन विपरीत शक्तिद्वय का उद्भव होता है। इसी से यह स्पष्ट है कि जब इच्छाशक्ति स्नायु-प्रवाह के रूप में परिणत होती है, तब वह एक प्रकार के विद्युत् का आकार धारण कर लेती है। जब शरीर की सारी गतियाँ सम्पूर्ण रूप से एकाभिमुखी होती हैं, तब वह शरीर मानो इच्छाशक्ति का एक प्रबल विद्युदाधार बन जाता है। यह प्रबल इच्छाशक्ति प्राप्त करना ही योगी का उद्देश्य है। इस तरह, शारीरविधानशास्त्र की सहायता से प्राणायाम-क्रिया की व्याख्या की जा सकती है। वह शरीर के भीतर एक प्रकार की एकमुखी गति पैदा कर देती है और श्वास-प्रश्वास-केन्द्र पर आधिपत्य करके शरीर के अन्यान्य केन्द्रों को भी वश में लाने में सहायता पहुँचाती है। यहाँ पर प्राणायाम का लक्ष्य मूलाधार में कुण्डलाकार में अवस्थित कुंडलिनी शक्ति को उद्बद्ध करना है।
हम जो कुछ देखते हैं, कल्पना करते हैं या जो कोई स्वप्न देखते हैं, सारे अनुभव हमें आकाश में करने पड़ते हैं। हम साधारणतः जिस परिदृश्यमान आकाश को देखते हैं, उसका नाम है ‘महाकाश’। योगी जब दूसरों का मनोभाव समझने लगते हैं या अलौकिक वस्तुएँ देखने लगते हैं, तब वे सब दर्शन चित्ताकाश में होते हैं। और जब अनुभूति विषय-शून्य हो जाती है, जब आत्मा अपने स्वरूप में प्रकाशित होती है, तब उसका नाम है ‘चिदाकाश’। जब कुण्डलिनी शक्ति जागकर सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती है, तब जो सब विषय अनुभूत होते हैं, वे चित्ताकाश में ही होते हैं। जब वह उस नाड़ी की अंतिम सीमा मस्तक में पहुँचती है, तब चिदाकाश में एक विषयशून्य ज्ञान अनुभूत होता है।
अब विद्युत् की उपमा फिर से ली जाय। हम देखते हैं कि मनुष्य केवल तार के योग से एक जगह से दूसरी जगह विद्युत्-प्रवाह चला सकता है, परन्तु प्रकृति अपने महान् शक्तिप्रवाहों को भेजने के लिए किसी तार का सहारा नहीं लेती। इसी से अच्छी तरह समझ में आ जाता है कि किसी प्रवाह को चलाने के लिए वास्तव में तार की कोई आवश्यकता नहीं।1 हम तार के बिना काम नहीं कर सकते, इसीलिए हमें उसकी आवश्यकता पड़ती है। जैसे विद्युत्-प्रवाह तार की सहायता से विभिन्न दिशाओं में प्रवाहित होता है, ठीक उसी तरह बाहर के विषय से जो ज्ञान-प्रवाह मस्तिष्क में अथवा मस्तिष्क से जो कर्मप्रवाह बहिर्देश में प्रवाहित होता है, वह स्नायु-तन्तुरुप तार की ही सहायता से होता है। मेरुमज्जा-मध्यस्थ ज्ञानात्मक और कर्मात्मक स्नायुगच्छ-स्तंभ ही योगियों की इडा और पिंगला नाड़ियाँ हैं। प्रधानतः उन दोनों नाड़ियों के भीतर से ही पूर्वोक्त अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी शक्तिप्रवाहद्वय आना-जाना कर रहे हैं।
परन्तु बात अब यह है कि इस प्रकार के तार के समान किसी पदार्थ की सहायता बिना मस्तिष्क से चारों ओर विभिन्न संवाद भेजना और भिन्न-भिन्न स्थानों से मस्तिष्क का विभिन्न संवाद ग्रहण करना संभव क्यों न होगा? प्रकृति में तो ऐसे व्यापार घटते देखे जाते हैं। योगियों का कहना है कि इसमें कृतकार्य होने पर ही भौतिक बंधनों को लाँघा जा सकता है। तो अब इसमें कृतकार्य होने का उपाय क्या है? यदि मेरुदण्डमध्यस्थ सुषुम्ना के भीतर से स्नायुप्रवाह चलाया जा सके, तो यह समस्या मिट जायगी। मन ने ही यह स्नायु-जाल तैयार किया है और उसी को यह जाल तोड़कर किसी प्रकार की सहायता की राह न देखते हुए अपना काम करना होगा। तभी सारा ज्ञान हमारे अधिकार में आयेगा, देह का बंधन फिर न रह जायगा। इसीलिए सुषुम्ना नाड़ी पर विजय पाना हमारे लिए इतना आवश्यक है। यदि तुम इस शून्य नाली के भीतर से स्नायु-जाल की सहायता के बिना भी मानसिक प्रवाह चला सको, तो बस इस समस्या की मीमांसा हो गई। योगी कहते हैं कि वह संभव है।
साधारण मनुष्यों के भीतर सुषुम्ना नीचे की ओर बंद रहती है, उससे कोई कार्य नहीं होता। योगियों का कहना है कि इस सुषुम्ना का द्वार खोलकर उससे स्नायु-प्रवाह चलाने की एक निर्दिष्ट प्रणाली है। उस साधना में सफल होने पर स्नायुप्रवाह उसके भीतर से चलाया जा सकता है। बाह्य विषय के स्पर्श से उत्पन्न प्रवाह जब किसी केन्द्र पर पहुँचता है, तब उस केन्द्र से एक प्रतिक्रिया होती है। स्वैर केन्द्रों (automatic centers) में उन प्रतिक्रियाओं का फल केवल गति होता है, पर चैतन्युक्त केन्द्रों (conscious centers) में पहले अनुभव, और फिर बाद में गति होती है। सारी अनुभूतियाँ बाहर से आई हुई क्रियाओं की प्रतिक्रिया मात्र हैं। तो फिर स्वप्न में अनुभूति किस तरह होती है? उस समय तो बाहर की कोई क्रिया नहीं रहती। अतएव स्पष्ट है कि विषय के अभिघात से पैदा हुई स्नायविक गतियाँ शरीर के किसी-न-किसी स्थान पर अवश्य अव्यक्त भाव से रहती हैं।
मान लो, मैनें एक नगर देखा। नगर नामक बाहरी वस्तु-समूह के आघात की जो प्रतिक्रिया है, उसी से उस नगर की अनुभूति होती है। अर्थात् उस नगर के बाहरी वस्तु-समूह द्वारा हमारे अन्तर्वाही स्नायुओं में जो गति-विशेष उत्पन्न हुई है, उससे मस्तिष्क के भीतर के परमाणुओं में एक गति पैदा हो गई है। आज बहुत दिन बाद भी वह नगर मेरी स्मृति में आता है। इस स्मृति में भी ठीक वही व्यापार होता है, पर अपेक्षाकृत हल्के रूप में। किन्तु जो क्रिया मस्तिष्क के भीतर उस प्रकार का मृदुतर कंपन ला देती है, वह भला कहाँ से आती है? यह तो कभी नहीं कहा जा सकता कि वह उसी पहले के विषय-अभिघात से पैदा हुई है। अतः स्पष्ट है कि विषय-अभिघात से उत्पन्न गतिप्रवाह या संवेदनाएँ शरीर के किसी स्थान पर कुण्डलीकृत होकर विद्यमान हैं और उनके अभिघात के फल से ही स्वप्न-अनुभूति रुप मृदु प्रतिक्रिया की उत्पत्ति होती है। जिस केन्द्र में विषय-अभिघात से उत्पन्न गतिप्रवाहों के बचे हुए अंश या संस्कार-समष्टि मानो संचित-सी रहती है, उसे मूलाधार कहते हैं, और उस कुण्डलीकृत क्रियाशक्ति को कुंडलिनी कहते हैं। सम्भवतः गति-शक्तियों का अवशिष्ट अंश भी इसी जगह कुण्डलिकृत होकर संचित है, क्योंकि वाह्य वस्तुओं पर दीर्घ काल चिन्तन और आलोचना के बाद, शरीर के जिस स्थान पर यह मूलाधार चक्र (सम्भवतः Sacral Plexus) अवस्थित है, उसे गरम होते देखते हैं।
अब यदि इस कुण्डलिनी शक्ति को जगाकर उसे ज्ञातभाव से सुषुम्ना नाली में से प्रवाहित करते हुए एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र को ऊपर लाया जाये, तो वह ज्यों-ज्यों विभिन्न केन्द्रों पर क्रिया करेगी, त्यों-त्यों प्रबल प्रतिक्रिया की उत्पत्ति होगी। जब शक्ति का बिल्कुल सामान्य अंश किसी स्नायु-तंतु के भीतर से प्रवाहित होकर विभिन्न केन्द्रों से प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है, तब वही स्वप्न अथवा कल्पना के नाम से अभिहित होता है। किन्तु जब मूलाधार में संचित विपुलायतन शक्तिपुंज दीर्घकालव्यापी तीव्र ध्यान के बल से उद्बुद्ध होकर सुषुम्ना-मार्ग में भ्रमण करता है और विभिन्न केन्द्रों पर आघात करता है, तो उस समय जो प्रतिक्रिया होती है, वह बड़ी ही प्रबल है। वह स्वप्न अथवा कल्पनाकालीन प्रतिक्रिया से तो अनन्तगुनी श्रेष्ठ है ही, पर जाग्रत्कालीन विषय-ज्ञान की प्रतिक्रिया से भी अनंतगुनी प्रबल है। यही अतीन्द्रिय अनुभूति है। फिर जब वह शक्तिपुंज समस्त ज्ञान के, समस्त अनुभूतियों के केन्द्रस्वरूप मस्तिष्क में पहुँचता है, तब सम्पूर्ण मस्तिष्क और उसके अनुभव-संपन्न प्रत्येक परमाणु से मानो प्रतिक्रिया होने लगती है। इसका फल है ज्ञान का पूर्ण प्रकाश या आत्मानुभूति। कुंडलिनी शक्ति जैसे-जैसे एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र को जाती है, वैसे-ही-वैसे मन का मानो एक-एक परदा खुलता जाता है और तब योगी इस जगत् की सूक्ष्म या कारण अवस्था की उपलब्धि करते हैं। और तभी विषय-स्पर्श से उत्पन्न हुई संवेदना और उसकी प्रतिक्रिया-रूप जो जगत् के कारण हैं, उनका यथार्थ स्वरूप हमें ज्ञात हो जाता है। अतएव तब हम सारे विषयों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं; क्योंकि कारण को जान लेने पर कार्य का ज्ञान अवश्य आयेगा।
इस प्रकार हमने देखा कि कुंडलिनी को जगा देना ही तत्त्वज्ञान, ज्ञानातीत अनुभूति या आत्मानुभूति का एकमात्र उपाय है। कुण्डलिनी को जाग्रत करने के अनेक उपाय हैं–किसी की कुण्डलिनी भगवान के प्रति प्रेम के बल से ही जाग्रत् हो जाती है, किसी की सिद्ध महापुरुषों की कृपा से और किसी की सूक्ष्म ज्ञान-विचार द्वारा। लोग जिसे अलौकिक शक्ति या ज्ञान कहते हैं, उसका जहाँ कहीं कुछ प्रकाश दिख पड़े, तो समझना होगा कि वहाँ कुछ परिमाण में यह कुंडलिनी शक्ति सुषुम्ना के भीतर किसी तरह प्रवेश कर गई है। तो भी इस प्रकार की अलौकिक घटनाओं में से अधिकतर स्थलों में देखा जायगा कि उस व्यक्ति ने बिना जाने एकाएक ऐसी कोई साधना कर डाली है, जिससे उसकी कुंडलिनी शक्ति अज्ञातभाव से कुछ परिमाण में स्वतंत्र होकर सुषुम्ना के भीतर प्रवेश कर गई है। जिस किसी प्रकार की उपासना हो, वह ज्ञातभाव से अथवा अज्ञातभाव से, उसी एक लक्ष्य पर पहुँचा देती है। अर्थात् उससे कुंडलिनी जाग्रत् हो जाती है। जो सोचते हैं कि मैंने अपनी प्रार्थना का उत्तर पाया, उन्हें मालूम नहीं कि प्रार्थना-रूप मनोवृत्ति के द्वारा वे अपनी ही देह में स्थित अनंत शक्ति के एक बिन्दु को जगाने में समर्थ हुए हैं। अतएव मनुष्य बिना जाने जिसकी विभिन्न नामों से, डरते-डरते और कष्ट उठाकर उपासना करता है, उसके पास किस तरह अग्रसर होना होगा, यह जान लेने पर समझ में आ जायगा कि वह प्रत्येक व्यक्ति के अन्तर में प्रकृत जीवंत शक्ति के रूप में विराजमान है और अनंत सुख की जननी है–योगीगण संसार के सामने उच्च कंठ से यही घोषणा करते हैं। अतएव राजयोग यथार्थ धर्म-विज्ञान है। वह सारी उपासना, सारी प्रार्थना, विभिन्न प्रकार की साधना पद्धति और समुदय अलौकिक घटनाओं की युक्तिसंगत व्याख्या है।
- पाठक यह ध्यान रखें कि यह बात बेतार-का-तार के आविष्कार के पूर्व ही स्वामी विवेकानंद द्वारा कही गई थी।
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