धर्म

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड सर्ग 43 हिंदी में – Valmiki Ramayana Balakanda Chapter – 43

भगीरथकी तपस्या से संतुष्ट हुए भगवान् शङ्कर का गंगा को अपने सिरपर धारण करके बिन्दुसरोवर में छोड़ना और उनका सात धाराओं में विभक्त हो भगीरथ के साथ जाकर उनके पितरों का उद्धार करना

श्रीराम! देवाधिदेव ब्रह्माजी के चले जाने पर राजा भगीरथ पृथ्वी पर केवल अँगूठे के अग्र भाग को टिकाये हुए खड़े हो एक वर्ष तक भगवान् शङ्करकी उपासनामें लगे रहे॥ १ ॥

वर्ष पूरा होने पर सर्वलोकवन्दित उमावल्लभ भगवान् पशुपति ने प्रकट होकर राजा से इस प्रकार कहा—॥ २ ॥

‘नरश्रेष्ठ! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हारा प्रिय कार्य अवश्य करूँगा। मैं गिरिराज कुमारी गंगा देवी को अपने मस्तकपर धारण करूँगा’॥ ३ ॥

श्रीराम! शङ्करजी की स्वीकृति मिल जानेपर हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगाजी, जिनके चरणोंमें सारा संसार मस्तक झुकाता है, बहुत बड़ा रूप धारण करके अपने वेगको दुस्सह बनाकर आकाशसे भगवान् शङ्करके शोभायमान मस्तकपर गिरीं॥ ४ १/२ ॥

उस समय परम दुर्धर गंगा देवी ने यह सोचा था कि मैं अपने प्रखर प्रवाहके साथ शङ्करजी को लिये-दिये पातालमें घुस जाऊँगी॥ ५ १/२ ॥

उनके इस अहंकारको जानकर त्रिनेत्रधारी भगवान् हर कुपित हो उठे और उन्होंने उस समय गंगाको अदृश्य कर देनेका विचार किया॥ ६ १/२ ॥

पुण्य स्वरूपा गंगा भगवान् रुद्र के पवित्र मस्तकपर गिरीं। उनका वह मस्तक जटामण्डलरूपी गुफा से सुशोभित हिमालय के समान जान पड़ता था। उसपर गिरकर विशेष प्रयत्न करने पर भी किसी तरह वे पृथ्वीपर न जा सकीं॥ ७-८ ॥

भगवान् शिवके जटा-जालमें उलझकर किनारे आकर भी गंगा देवी वहाँ से निकलने का मार्ग न पा सकीं और बहुत वर्षों तक उस जटाजूट में ही भटकती रहीं॥ ९ ॥

रघुनन्दन! भगीरथने देखा, गंगाजी भगवान् शङ्करके जटामण्डलमें अदृश्य हो गयी हैं; तब वे पुन: वहाँ भारी तपस्यामें लग गये। उस तपस्याद्वारा उन्होंने भगवान् शिवको बहुत संतुष्ट कर लिया॥ १० ॥

तब महादेवजी ने गंगा जी को बिन्दुसरोवरमें ले जाकर छोड़ दिया। वहाँ छूटते ही उनकी सात धाराएँ हो गयीं॥ ११ ॥

ह्लादिनी, पावनी और नलिनी—ये कल्याणमय जलसे सुशोभित गंगाकी तीन मंगलमयी धाराएँ पूर्व दिशाकी ओर चली गयीं॥ १२ ॥

सुचक्षु, सीता और महानदी सिन्धु—ये तीन शुभ धाराएँ पश्चिम दिशाकी ओर प्रवाहित हुई॥ १३ ॥

उनकी अपेक्षा जो सातवीं धारा थी, वह महाराज भगीरथ के रथके पीछे-पीछे चलने लगी। महातेजस्वी राजर्षि भगीरथ भी दिव्य रथपर आरूढ़ हो आगे-आगे चले और गंगा उन्हीं के पथ का अनुसरण करने लगीं। इस प्रकार वे आकाशसे भगवान् शङ्कर के मस्तक पर और वहाँ से इस पृथ्वी पर आयी थीं॥ १४-१५ ॥

गंगाजीकी वह जलराशि महान् कलकल नाद के साथ तीव्र गति से प्रवाहित हुई। मत्स्य, कच्छप और शिंशुमार (सूँस) झुंड-के-झुंड उसमें गिरने लगे। उन गिरे हुए जलजन्तुओंसे वसुन्धराकी बड़ी शोभा हो रही थी॥ १६ १/२ ॥

तदनन्तर देवता, ऋषि, गन्धर्व, यक्ष और सिद्धगण नगर के समान आकारवाले विमानों, घोड़ों तथा गजराजोंपर बैठकर आकाशसे पृथ्वीपर गयी हुई गंगाजी की शोभा निहारने लगे॥ १७-१८ ॥

देवतालोग आश्चर्यचकित होकर वहाँ खड़े थे। जगत्में गंगावतरणके इस अद्भुत एवं उत्तम दृश्यको देखनेकी इच्छासे अमित तेजस्वी देवताओंका समूह वहाँ जुटा हुआ था॥ १९ १/२ ॥

तीव्र गतिसे आते हुए देवताओं तथा उनके दिव्य आभूषणों के प्रकाशसे वहाँ का मेघरहित निर्मल आकाश इस तरह प्रकाशित हो रहा था, मानो उसमें सैकड़ों सूर्य उदित हो गये हों॥ २० १/२ ॥

शिंशुमार, सर्प तथा चञ्चल मत्स्य समूहों के उछलने से गंगाजी के जलसे ऊपरका आकाश ऐसा जान पड़ता था, मानो वहाँ चञ्चल चपलाओंका प्रकाश सब ओर व्याप्त हो रहा हो॥ २१ १/२ ॥

वायु आदिसे सहस्रों टुकड़ोंमें बँटे हुए फेन आकाश में सब ओर फैल रहे थे। मानो शरद्-ऋतु के श्वेत बादल अथवा हंस उड़ रहे हों॥ २२ १/२ ॥

गंगाजी की वह धारा कहीं तेज, कहीं टेढ़ी और कहीं चौड़ी होकर बहती थी। कहीं बिलकुल नीचे की ओर गिरती और कहीं ऊँचे की ओर उठी हुई थी। कहीं समतल भूमिपर वह धीरे-धीरे बहती थी और कहीं-कहीं अपने ही जलसे उसके जलमें बारम्बार टक्करें लगती रहती थीं॥ २३-२४ ॥

गंगाका वह जल बार-बार ऊँचे मार्गपर उठता और पुन: नीची भूमि पर गिरता था। आकाशसे भगवान् शङ्करके मस्तकपर तथा वहाँसे फिर पृथ्वीपर गिरा हुआ वह निर्मल एवं पवित्र गंगाजल उस समय बड़ी शोभा पा रहा था॥

उस समय भूतल निवासी ऋषि और गन्धर्व यह सोचकर कि भगवान् शङ्कर के मस्तक से गिरा हुआ यह जल बहुत पवित्र है, उसमें आचमन करने लगे॥ २६ १/२ ॥

जो शापभ्रष्ट होकर आकाशसे पृथ्वीपर आ गये थे, वे गंगाके जलमें स्नान करके निष्पाप हो गये तथा उस जलसे पाप धुल जानेके कारण पुन: शुभ पुण्य से संयुक्त हो आकाश में पहुँचकर अपने लोकोंको पा गये॥

उस प्रकाश मान जलके सम्पर्क से आनन्दित हुए सम्पूर्ण जगत्को सदाके लिये बड़ी प्रसन्नता हुर्इ। सब लोग गंगा में स्नान करके पापहीन हो गये॥ २९ १/२ ॥

(हम पहले बता आये हैं कि) राजर्षि महाराज भगीरथ दिव्य रथपर आरूढ़ हो आगे-आगे चल रहे थे और गंगाजी उनके पीछे-पीछे जा रही थीं॥ ३० १/२ ॥

श्रीराम! उस समय समस्त देवता, ऋषि, दैत्य, दानव, राक्षस, गन्धर्व, यक्षप्रवर, किन्नर, बड़े-बड़े नाग, सर्प तथा अप्सरा—ये सब लोग बड़ी प्रसन्नताके साथ राजा भगीरथके रथके पीछे गंगाजीके साथ-साथ चल रहे थे। सब प्रकारके जलजन्तु भी गंगाजीकी उस जलराशिके साथ सानन्द जा रहे थे॥ ३१-३२ १/२ ॥

जिस ओर राजा भगीरथ जाते, उसी ओर समस्त पापों का नाश करने वाली सरिताओंमें श्रेष्ठ यशस्विनी गंगा भी जाती थीं॥ ३३ १/२ ॥

उस समय मार्गमें अद्भुत पराक्रमी महामना राजा जह्नु यज्ञ कर रहे थे। गंगाजी अपने जल-प्रवाह से उनके यज्ञमण्डप को बहा ले गयीं॥ ३४ १/२ ॥

रघुनन्दन! राजा जह्नु इसे गंगाजीका गर्व समझकर कुपित हो उठे; फिर तो उन्होंने गंगाजीके उस समस्त जलको पी लिया। यह संसारके लिये बड़ी अद्भुत बात हुर्इ॥ ३५ १/२ ॥

तब देवता, गन्धर्व तथा ऋषि अत्यन्त विस्मित होकर पुरुष प्रवर महात्मा जह्नु की स्तुति करने लगे॥ ३६ १/२ ॥

उन्होंने गंगाजी को उन महात्मा नरेशकी कन्या बना दिया। (अर्थात् उन्हें यह विश्वास दिलाया कि गंगाजीको प्रकट करके आप इनके पिता कहलायेंगे।) इससे सामर्थ्यशाली महातेजस्वी जह्नु बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने कानोंके छिद्रोंद्वारा गंगाजीको पुन: प्रकट कर दिया, इसलिये गंगा जह्नुकी पुत्री एवं जाह्नवी कहलाती हैं॥ ३७-३८ ॥

वहाँसे गंगा फिर भगीरथके रथका अनुसरण करती हुर्इ चलीं। उस समय सरिताओं में श्रेष्ठ जाह्नवी समुद्रतक जा पहुँचीं और राजा भगीरथके पितरोंके उद्धाररूपी कार्यकी सिद्धिके लिये रसातलमें गयीं॥ ३९ १/२ ॥

राजर्षि भगीरथ भी यन्त पूर्वक गंगाजी को साथ ले वहाँ गये। उन्होंने शापसे भस्म हुए अपने पितामहोंको अचेत-सा होकर देखा॥ ४० १/२ ॥

रघुकुलके श्रेष्ठ वीर! तदनन्तर गंगाके उस उत्तम जलने सगर-पुत्रोंकी उस भस्मराशिको आप्लावित कर दिया और वे सभी राजकुमार निष्पाप होकर स्वर्गमें पहुँच गये॥ ४१ ॥

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके बालकाण्डमें तैंतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ४३॥

सुरभि भदौरिया

सात वर्ष की छोटी आयु से ही साहित्य में रुचि रखने वालीं सुरभि भदौरिया एक डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी चलाती हैं। अपने स्वर्गवासी दादा से प्राप्त साहित्यिक संस्कारों को पल्लवित करते हुए उन्होंने हिंदीपथ.कॉम की नींव डाली है, जिसका उद्देश्य हिन्दी की उत्तम सामग्री को जन-जन तक पहुँचाना है। सुरभि की दिलचस्पी का व्यापक दायरा काव्य, कहानी, नाटक, इतिहास, धर्म और उपन्यास आदि को समाहित किए हुए है। वे हिंदीपथ को निरन्तर नई ऊँचाइंयों पर पहुँचाने में सतत लगी हुई हैं।

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