धर्म

हनुमान बाहुक – Hanuman Bahuk

हनुमान बाहुक की रचना गोस्वामी तुलसीदास जी ने की थी। उन्होंने हिंदी रामायण की भी रचना की थी। यह रामचरित मानस के नाम से विख्यात है। हनुमान बाहुक के पीछे बड़ी ही रोचक कहानी है। बात संवत 1664 विक्रमाब्द के आस-पास की है।

तुलसीदास जी को भुजाओं में तीव्र दर्द की समस्या पैदा हो गयी। उन्होंने इसके लिए तरह-तरह का इलाज कराया। इसके बाद भी उनकी पीड़ा ठीक नहीं हुई।

अंततः गोस्वामी जी ने हनुमान जी की वंदना शुरू की। श्री राम के अनन्य भक्त हनुमान जी कृपा से उनकी व्याधि समाप्त हो गयी। यह वही स्तोत्र है।

कहते हैं कि हनुमान बाहुक पाठ से वांछित मनोरथों की पूर्ति होती है। यहाँ दी गयी हनुमान बाहुक की हिंदी टीका श्री महावीरप्रसाद मालवीय वैद्य “वीर” द्वारा रचित है। पढ़ें हनुमान बाहुक–

पढ़ें “हनुमान बाहुक”

छ्प्पय
सिंधु तरन, सिय-सोच हरन, रबि बाल बरन तनु।
भुज बिसाल, मूरति कराल कालहु को काल जनु॥
गहन-दहन-निरदहन लंक निःसंक, बंक-भुव।
जातुधान-बलवान मान-मद-दवन पवनसुव॥१॥

भावार्थ – जिनके शरीरका रंग उदयकालके सूर्यके समान है, जो समुद्र लाँघकर श्रीजानकीजीके शोकको हरनेवाले, आजानुबाहु, डरावनी सूरतवाले और मानो कालके भी काल हैं। लंकारूपी गम्भीर वनको, जो जलानेयोग्य नहीं था, उसे जिन्होंने नि:शंक जलाया और जो टेढ़ी भौंहोंवाले तथा बलवान् राक्षसोंके मान और गर्वका नाश करनेवाले हैं, तुलसीदासजी कहते हैं-वे श्रीपवनकुमार सेवा करनेपर बड़ी सुगमतासे प्राप्त होनेवाले, अपने सेवकोंकी भलाई करनेके लिये सदा समीप रहनेवाले तथा गुण गाने, प्रणाम करने एवं स्मरण और नाम जपनेसे सब भयानक संकटोंको नाश करनेवाले हैं ॥ १ ॥

स्वर्न-सैल-संकास कोटि-रवि तरुन तेज घन ।
उर विसाल भुज दण्ड चण्ड नख-वज्रतन॥
पिंग नयन, भूकुटी कराल रसना दसनानन ।
कपिस केस करकस लंगूर, खल-दल-बल-भानन॥
कह तुलसिदास बस जासु उर मारुतसुत मूरति विकट।
संताप पाप तेहि पुरुष पहि सपनेहूँ नहिं आवत निकट॥२॥

भावार्थ – वे सुवर्णपर्वत (सुमेरु)- के समान शरीरवाले, करोड़ों मध्याह्नके सूर्यके सदृश अनन्त तेजोराशि, विशालहृदय, अत्यन्त बलवान् भुजाओंवाले तथा वज्रके तुल्य नख और शरीरवाले हैं। उनके नेत्र पीले हैं, भौंह, जीभ, दाँत और मुख विकराल हैं, बाल भूरे रंगके तथा पूँछ कठोर और दुष्टोंके दलके बलका नाश करनेवाली है । तुलसीदासजी कहते है -श्रीपवनकुमारकी डरावनी मूर्ति जिसके हृदयमें निवास करती है, उस पुरुषके समीप दुःख और पाप स्वप्नमें भी नहीं आते ॥ २ ॥

झूलना
पंचमुख-छःमुख भगु मुख्य भट असुर सुर,
सर्व सरि समर समरत्य सूरो।
बाँकुरो बीर बिरुदैत बिरुदावली,
बेद बंदी बदत पैजपूरो॥
जासु गुनगाथ रघुनाथ कह जासुबल,
बिपुल जल भरित जग जलधि झूरो।
दुवन दल दमन को कौन तुलसीस है,
पवन को पूत रजपूत रुरो॥३॥

भावार्थ – शिव, स्वामिकार्तिक, परशुराम, दैत्य और देवतावृन्द सबके युद्धरूपी नदीसे पार जानेमें योग्य योद्धा हैं । वेद रूपी वंदीजन कहते हैं- आप पूरी प्रतिज्ञावाले चतुर योद्धा, बड़े कीर्तिमान् और यशस्वी हैं। जिनके गुणोंकी कथाको रघुनाथजीने श्रीमुखसे कहा तथा जिनके अतिशय पराक्रमसे अपार जलसे भरा हुआ संसार-समुद्र सूख गया । तुलसीके स्वामी सुन्दर राजपूत (पवनकुमार)-के बिना राक्षसोंके दलका नाश करनेवाला दूसरा कौन है? (कोई नहीं) ॥ ३ ॥

घनाक्षरी
भानुसों पढ़न हनुमान गए भानु मन-
अनुमानि सिसु केलि कियो फेर फारसो।
पाछिले पगनि गम गगन मगन मन,
क्रम को न भ्रम कपि बालक बिहार सो॥
कौतुक बिलोकि लोकपाल हरिहर विधि,
लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खभार सो।
बल कैंधो बीर रस, धीरज कै, साहस कै,
तुलसी सरीर धरे सबनिको सार सो॥४॥

भावार्थ – सूर्यभगवान्के समीपमें हनुमान जी विद्या पढनेके लिये गये, सूर्य देव ने मनमें बालकोंका खेल समझकर बहाना किया [कि मैं स्थिर नहीं रह सकता और बिना आमने-सामनेके पढ़ना-पढ़ाना असम्भव है] । श्री हनुमान जीने भास्करकी ओर मुख करके पीठकी तरफ पैरोंसे प्रसन्नमन आकाशमार्गमें बालकोंके खेलके समान गमन किया और उससे पाठ्यक्रममें किसी प्रकारका भ्रम नहीं हुआ। इस अचरजके खेलको देखकर इन्द्रादि लोकपाल, विष्णु, रुद्र और ब्रह्मा की आँखें चौंधिया गयीं तथा चित्तमें खलबली-सी उत्पन्न हो गयी। तुलसीदासजी कहते हैं-सब सोचने लगे कि यह न जाने बल, न जाने वीररस, न जाने धैर्य, न जाने हिम्मत अथवा न जाने इन सबका सार ही शरीर धारण किये हैं॥ ४ ॥

भारत में पारथ के रथ केथू कपिराज,
गाज्यो सुनि कुरुराज दल हल बल भो।
कह्यो द्रोन भीषम समीर सुत महाबीर,
बीर-रस-बारि-निधि जाको बल जल भो॥
बानर सुभाय बाल केलि भूमि भानु लागि,
फलँग फलँगहूँतें घाटि नभ तल भो।
नाई-नाई-माथ जोरि-जोरि हाथ जोधा जो हैं,
हनुमान देखे जगजीवन को फल भो॥५॥

भावार्थ – महाभारत में अर्जुन के रथ की पताका पर कपिराज हनुमान जी ने गर्जन किया, जिसको सुनकर दुर्योधन की सेनामें घबराहट उत्पन्न हो गयी। द्रोणाचार्य और भीष्मपितामह ने कहा कि ये महाबली पवनकुमार हैं। जिनका बल वीररसरूपी समुद्रका जल हुआ है। इनके स्वाभाविक ही बालकोंके खेलके समान धरतीसे सूर्यतकके कुदानने आकाशमण्डलको एक पगसे भी कम कर दिया था। सब योद्धागण मस्तक नवा-नवाकर और हाथ जोड़-जोड़कर देखते हैं। इस प्रकार हनुमान जी का दर्शन पानेसे उन्हें संसारमें जीनेका फल मिल गया ॥५॥

गो-पद पयोधि करि, होलिका ज्यों लाई लंक,
निपट निःसंक पर पुर गल बल भो।
द्रोन सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर,
कंदुक ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो॥
संकट समाज असमंजस भो राम राज,
काज जुग पूगनि को करतल पल भो।
साहसी समत्थ तुलसी को नाह जाकी बाँह,
लोकपाल पालन को फिर थिर थल भो॥६॥

भावार्थ – समुद्रको गोखुरके समान करके निडर होकर लंका-जैसी (सुरक्षित नगरीको) होलिकाके सदृश जला डाला, जिससे पराये (शत्रुके) पुरमें गड़बड़ी मच गयी। द्रोण-जैसा भारी पर्वत खेलमें ही उखाड़ गेंदकी तरह उठा लिया, वह कपिराजके लिये बेल-फलके समान क्रीडाकी सामग्री बन गया रामराज्यमें अपार संकट (लक्ष्मण-शक्ति)-से असमंजस उत्पन्न हुआ (उस समय जिसके पराक्रमसे) युगसमूहमें होनेवाला काम पलभरमें मुट्ठीमें आ गया। तुलसीके स्वामी बड़े साहसी और सामर्थ्यवान् हैं, जिनकी भुजाएँ लोकपालोंको पालन करने तथा उन्हें फिरसे स्थिरतापूर्वक बसानेका स्थान हुईं॥ ६ ॥

कमठ की पीठि जाके गोड़नि की गाड़ैं मानो,
नाप के भाजन भरि जल निधि जल भो।
जातुधान दावन परावन को दुर्ग भयो,
महा मीन बास तिमि तोमनि को थल भो॥
कुम्भकरन रावन पयोद नाद ईंधन को,
तुलसी प्रताप जाको प्रबल अनल भो।
भीषम कहत मेरे अनुमान हनुमान,
सारिखो त्रिकाल न त्रिलोक महाबल भो॥७॥

भावार्थ – कच्छपकी पीठमें जिनके पाँवके गड़हे समुद्रका जल भरनेके लिये मानो नापके पात्र (बर्तन) हुए। राक्षसोंका नाश करते समय वह (समुद्र) ही उनके भागकर छिपनेका गढ़ हुआ तथा वही बहुत-से बड़े-बड़े मत्स्योंके रहनेका स्थान हुआ। तुलसीदासजी कहते हैं-रावण, कुम्भकर्ण और मेघनादरूपी ईंधनको जलानेके निमित्त जिनका प्रताप प्रचण्ड अग्नि हुआ। भीष्मपितामह कहते हैं-मेरी समझमें हनुमान जी के समान अत्यन्त बलवान् तीनों काल और तीनों लोकमें कोई नहीं हुआ॥ ७ ॥

दूत राम राय को, सपूत पूत पौनको तू,
अंजनी को नन्दन प्रताप भूरि भानु सो।
सीय-सोच-समन, दुरित दोष दमन,
सरन आये अवन लखन प्रिय प्राण सो॥
दसमुख दुसह दरिद्र दरिबे को भयो,
प्रकट तिलोक ओक तुलसी निधान सो।
ज्ञान गुनवान बलवान सेवा सावधान,
साहेब सुजान उर आनु हनुमान सो॥८॥

भावार्थ – आप राजा रामचन्द्रजी के दूत, पवनदेवके सुयोग्य पुत्र, अंजनीदेवीको आनन्द देनेवाले, असंख्य सूर्योंके समान तेजस्वी, सीता जी के शोकनाशक, पाप तथा अवगुणके नष्ट करनेवाले, शरणागतोंकी रक्षा करनेवाले और लक्ष्मणजी को प्राणोंके समान प्रिय हैं। तुलसीदासजीके दुस्सह दरिद्ररूपी रावण का नाश करनेके लिये आप तीनों लोकों में आश्रय रूप प्रकट हुए हैं। अरे लोगो! तुम ज्ञानी, गुणवान्, बलवान् और सेवा (दूसरोंको आराम पहुँचाने)-में सजग हनुमान जीके समान चतुर स्वामीको अपने हृदयमें बसाओ ॥ ८॥

दवन दुवन दल भुवन बिदित बल,
बेद जस गावत बिबुध बंदी छोर को।
पाप ताप तिमिर तुहिन निघटन पटु,
सेवक सरोरुह सुखद भानु भोर को॥
लोक परलोक तें बिसोक सपने न सोक,
तुलसी के हिये है भरोसो एक ओर को।
राम को दुलारो दास बामदेव को निवास,
नाम कलि कामतरु केसरी किसोर को॥९॥

भावार्थ – दानवोंकी सेनाको नष्ट करने में जिनका पराक्रम विश्वविख्यात है, वेद यश-गान करते हैं कि देवताओंको कारागारसे छुड़ानेवाला पवनकुमारके सिवा दूसरा कौन है? आप पापान्धकार और कष्टरूपी पालेको घटानेमें प्रवीण तथा सेवकरूपी कमलको प्रसन्न करनेके लिये प्रात:कालके सूर्यके समान हैं। तुलसीके हृदयमें एकमात्र हनुमान जीका भरोसा है, स्वप्नमें भी लोक और परलोककी चिन्ता नहीं, शोकरहित है, रामचन्द्रजीके दुलारे शिवस्वरूप (ग्यारह रुद्रमें एक) केसरीनन्दनका नाम कलिकालमें कल्पवृक्षके समान है।॥ ९ ॥

महाबल सीम महा भीम महाबान इत,
महाबीर बिदित बरायो रघुबीर को।
कुलिस कठोर तनु जोर परै रोर रन,
करुना कलित मन धारमिक धीर को॥
दुर्जज को कालसो कराल पाल सज्जन को,
सुमिरे हरन हार तुलसी की पीर को।
सीय-सुख-दायक दुलारो रघुनायक को,
सेवक सहायक है साहसी समीर को॥१०॥

भावार्थ – आप अत्यंत पराक्रम की हद, अतिशय कराल, बड़े बहादुर और रघुनाथजीद्वारा चुने हुए महाबलवान् विख्यात योद्धा हैं । वज्रके समान कठोर शरीरवाले जिनके जोर पड़ने अर्थात् बल करनेसे रणस्थलमें कोलाहल मच जाता है, सुन्दर करुणा एवं धैर्यके स्थान और मनसे धर्माचरण करनेवाले हैं। दुष्टोंके लिये कालके समान भयावने, सज्जनोंको पालनेवाले और स्मरण करनेसे तुलसीके दुःखको हरनेवाले हैं। सीताजीको सुख देनेवाले, रघुनाथजीके दुलारे और सेवकोंकी सहायता करनेमें पवनकुमार बड़े ही साहसी (हिम्मतवर) हैं ॥ १० ॥

रचिबे को बिधि जैसे, पालिबे को हरि हर,
मीच मारिबे को, ज्याईबे को सुधापान भो।
धरिबे को धरनि, तरनि तम दलिबे को,
सोखिबे कृसानु पोषिबे को हिम भानु भो॥
खल दु:ख दोषिबे को, जन परितोषिबे को,
माँगिबो मलीनता को मोदक दुदान भो।
आरत की आरति निवारिबे को तिहूँ पुर,
तुलसी को साहेब हठीलो हनुमान भो॥११॥

भावार्थ – आप सृष्टि रचना के लिये ब्रह्मा, पालन करने को विष्णु, मारनेको रुद्र और जिलानेके लिये अमृतपानके समान हुए; धारण करने में धरती, अन्धकारको नसानेमें सूर्य देव, सुखानेमें अग्नि , पोषण करनेमें चन्द्रमा और सूर्य हुए; खलोंको दुःख देने और दूषित बनानेवाले, सेवकोंको संतुष्ट करनेवाले एवं माँगनारूपी मैलेपनका विनाश करनेमें मोदकदाता हुए। तीनों लोकोंमें दुःखियोंके दुःख छुड़ानेके लिये तुलसीके स्वामी श्रीहनुमान जी दृढ़प्रतिज्ञ हुए हैं॥ ११ ॥

सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि,
सानुकूल सूलपानि नवै नाथ नाँक को।
देवी देव दानव दयावने ह्वै जोरैं हाथ,
बापुरे बराक कहा और राजा राँक को॥
जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद,
ताके जो अनर्थ सो समर्थ एक आँक को।
सब दिन रुरो परै पूरो जहाँ तहाँ ताहि,
जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँक को॥१२॥

भावार्थ – सेवक हनुमान जीकी सेवा समझकर जानकीनाथने संकोच माना अर्थात् एहसानसे दब गये, शिवजी पक्षमें रहते और स्वर्गके स्वामी इन्द्र नवते हैं। देवी-देवता, दानव सब दयाके पात्र बनकर हाथ जोड़ते हैं, फिर दूसरे बेचारे दरिद्र-दुःखिया राजा कौन चीज हैं। जागते, सोते, बैठते, डोलते, क्रीड़ा करते और आनन्दमें मग्न (पवनकुमारके) सेवकका अनिष्ट चाहेगा ऐसा कौन सिद्धान्तका समर्थ है? उसका जहाँ-तहाँ सब दिन श्रेष्ठ रीतिसे पूरा पड़ेगा, जिसके हृदयमें अंजनीकुमारकी हाँकका भरोसा है॥ १२ ॥

सानुग सगौरि सानुकूल सूलपानि ताहि,
लोकपाल सकल लखन राम जानकी।
लोक परलोक को बिसोक सो तिलोक ताहि,
तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी॥
केसरी किसोर बन्दीछोर के नेवाजे सब,
कीरति बिमल कपि करुनानिधान की।
बालक ज्यों पालि हैं कृपालु मुनि सिद्धता को,
जाके हिये हुलसति हाँक हनुमान की॥१३॥

भावार्थ – जिसके हृदयमें हनुमान जीकी हाँक उल्लसित होती है, उसपर अपने सेवकों और पार्वतीजी के सहित शंकरभगवान् , समस्त लोकपाल, श्रीरामचन्द्र, जानकी और लक्ष्मणजी भी प्रसन्न रहते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं फिर लोक और परलोकमें शोकरहित हुए उस प्राणीको तीनों लोकोंमें किसी योद्धाके आश्रित होनेकी क्या लालसा होगी? दयानिकेत केसरीनन्दन निर्मल कीर्तिवाले हनुमान जीके प्रसन्न होनेसे सम्पूर्ण सिद्ध-मुनि उस मनुष्यपर दयालु होकर बालकके समान पालन करते हैं, उन करुणानिधान कपीश्वरकी कीर्ति ऐसी ही निर्मल है ॥ १३ ॥

करुनानिधान बलबुद्धि के निधान हौ,
महिमा निधान गुनज्ञान के निधान हौ।
बाम देव रुप भूप राम के सनेही, नाम,
लेत देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ॥
आपने प्रभाव सीताराम के सुभाव सील,
लोक बेद बिधि के बिदूष हनुमान हौ।
मन की बचन की करम की तिहूँ प्रकार,
तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ॥१४॥

भावार्थ – तुम दया के स्थान, बुद्धि-बलके धाम, आनंद महिमा के मन्दिर | और गुण-ज्ञानके निकेतन हो; राजा रामचन्द्र के स्नेही, शंकरजीके रूप और नाम लेनेसे अर्थ, धर्म, काम, मोक्षके देनेवाले हो। हे हनुमान जी ! आप अपनी शक्तिसे श्रीरघुनाथजीके शील-स्वभाव, लोक-रीति और वेद-विधिके पण्डित हो! मन, वचन, कर्म तीनों प्रकारसे तुलसी आपका दास है, आप चतुर स्वामी हैं। अर्थात् भीतर-बाहरकी सब जानते हैं ॥ १४ ॥

मन को अगम तन सुगम किये कपीस,
काज महाराज के समाज साज साजे हैं।
देवबंदी छोर रनरोर केसरी किसोर,
जुग जुग जग तेरे बिरद बिराजे हैं॥
बीर बरजोर घटि जोर तुलसी की ओर,
सुनि सकुचाने साधु, खलगन गाजे हैं।
बिगरी सँवार अंजनी कुमार कीजे मोहिं,
जैसे होत आये हनुमान के निवाजे हैं॥१५॥

भावार्थ – हे कपिराज! महाराज रामचन्द्रजीके कार्यके लिये सारा साज-समाज सजकर जो काम मनको दुर्गम था, उसको आपने शरीरसे करके सुलभ कर दिया। हे केशरीकिशोर! आप देवताओंको बन्दीखानेसे मुक्त करनेवाले, संग्रामभूमिमें कोलाहल मचानेवाले हैं, और आपकी नामवरी युग-युगसे संसारमें विराजती है। हे जबरदस्त योद्धा ! आपका बल तुलसीके लिये क्यों घट गया, जिसको सुनकर साधु सकुचा गये हैं और दुष्टगण प्रसन्न हो रहे हैं। हे अंजनीकुमार ! मेरी बिगड़ी बात उसी तरह सुधारिये जिस प्रकार आपके प्रसन्न होनेसे होती (सुधरती) आयी है॥ १५ ॥

सवैया
जान सिरोमनि हो हनुमान सदा जन के मन बास तिहारो।
ढ़ारो बिगारो मैं काको कहा केहि कारन खीझत हीं तो तिहारो॥
साहेब सेवक नाते तो हातो कियो सो तहां तुलसी को न चारो।
दोष सुनाये तें आगेहूँ को होशियार ह्वै हों मन तो हिय हारो॥१६॥

भावार्थ – हे हनुमान जी ! आप ज्ञानशिरोमणि हैं और सेवकोंके मनमें आपका सदा निवास है। मैं किसीका क्या गिराता वा बिगाड़ता हूँ। फिर आप किस कारण अप्रसन्न हैं, मैं तो आपका दास हूँ। हे स्वामी ! आपने मुझे सेवकके नातेसे च्युत कर दिया, इसमें तुलसीका कोई वश नहीं है। यद्यपि मन हृदयमें हार गया है तो भी मेरा अपराध सुना दीजिये, जिसमें आगेके लिये होशियार हो जाऊँ ॥ १६ ॥

तेरे थपै उथपै न महेस, थपै थिर को कपि जे उर घाले।
तेरे निबाजे गरीब निबाज बिराजत बैरिन के उर साले॥
संकट सोच सबे तुलसी लिये नाम फटै मकरी के से जाले।
बूढ भये बलि मेरिहिं बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले॥१७॥

भावार्थ – हे वानरराज! आपके बसाये हुएको शंकरभगवान् भी नहीं उजाड़ सकते और जिस घरको आपने नष्ट कर दिया उसको कौन बसा सकता है ? हे गरीबनिवाज! आप जिसपर प्रसन्न हुए, वे शत्रुओंके हृदयमें पीड़ारूप होकर विराजते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं, आपका नाम लेनेसे सम्पूर्ण संकट और सोच मकड़ीके जालेके समान फट जाते हैं। बलिहारी! क्या आप मेरी ही बार बूढ़े हो गये अथवा बहुत-से गरीबोंका पालन करते-करते अब थक गये हैं? (इसीसे मेरा संकट दूर करनेमें ढील कर रहे हैं) ॥ १७॥

सिंधु तरे बड़े बीर दले खल, जारे हैं लंक से बंक मवा से।
तैं रनि केहरि केहरि के बिदले अरि कुंजर छैल छवासे॥
तोसों समत्थ सुसाहेब सेई सहै तुलसी दुख दोष दवा से।
बानर बाज बढ़े खल खेचर, लीजत क्‍यों न लपेटि लवासे॥१८॥

भावार्थ – आपने समुद्र लाँघकर बड़े-बड़े दुष्ट राक्षसोंका विनाश करके लंका-जैसे विकट गढ़को जलाया। हे संग्रामरूपी वनके सिंह! राक्षस शत्रु बने-ठने हाथीके बच्चेके समान थे, आपने उनको सिंहकी भाँति विनष्ट कर डाला। आपके बराबर समर्थ और अच्छे स्वामीकी सेवा करते हुए तुलसी दोष और दुःखकी आगको सहन करे [यह आश्चर्यकी बात है । हे वानररूपी बाज ! बहुत-से दुष्टजनरूपी पक्षी बढ़ गये हैं, उनको आप बटेरके समान क्यों नहीं लपेट लेते ? ॥१८॥

अच्छ विमर्दन कानन भानि दसानन आनन भा न निहारो।
बारिदनाद अकंपन कुंभकरन से कुंजर केहरि बारो॥
राम प्रताप हुतासन, कच्छ, विपच्छ, समीर समीर दुलारो।
पाप तें साप तें ताप तिहूँ तें सदा तुलसी कह सो रखवारो॥१९॥

भावार्थ – हे अक्षयकुमारको मारनेवाले हनुमान जी ! आपने अशोक वाटिकाको विध्वंस किया और रावण-जैसे प्रतापी योद्धाके मुखके तेजकी ओर देखातक नहीं अर्थात् उसकी कुछ भी परवाह नहीं की। आप मेघनाद, अकम्पन और कुम्भकर्ण-सरीखे हाथियोंके मदको चूर्ण करनेमें किशोरावस्थाके सिंह हैं। विपक्षरूप तिनकोंके ढेरके लिये भगवान् रामका प्रताप अग्नितुल्य है और पवनकुमार उसके लिये पवनरूप हैं। वे पवननन्दन ही तुलसीदासको सर्वदा पाप, शाप और संताप-तीनोंसे बचानेवाले हैं ॥ १९ ॥

घनाक्षरी
जानत जहान हनुमान को निवाज्यो जन,
मन अनुमानि बलि बोल न बिसारिये।
सेवा जोग तुलसी कबहूँ कहा चूक परी,
साहेब सुभाव कपि साहिबी सँभारिये॥
अपराधी जानि कीजै सासति सहस भाँति,
मोदक मरै जो ताहि माहुर न मारिये।
साहसी समीर के दुलारे रघुबीर जू के,
बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये॥२०॥

भावार्थ – -हे हनुमान जी ! बलि जाता हूँ, अपनी प्रतिज्ञाको न भुलाइये, जिसको संसार जानता है, मनमें विचारिये, आपका कृपापात्र जन बाधारहित और सदा प्रसन्न रहता है। हे स्वामी कपिराज! तुलसी कभी सेवाके योग्य था? क्या चूक हुई है, अपनी साहिबीको सँभालिये, मुझे अपराधी समझते हों तो सहस्रों भाँतिकी दुर्दशा कीजिये, किंतु जो लड्डू देनेसे मरता हो उसको विषसे न मारिये। हे महाबली, साहसी, पवनके दुलारे, रघुनाथजीके प्यारे! भुजाओंकी पीड़ाको शीघ्र ही दूर कीजिये ॥ २० ॥

बालक बिलोकि, बलि बारें तें आपनो कियो,
दीनबन्धु दया कीन्हीं निरुपाधि न्यारिये।
रावरो भरोसो तुलसी के, रावरोई बल,
आस रावरीयै दास रावरो बिचारिये॥
बड़ो बिकराल कलि काको न बिहाल कियो,
माथे पगु बलि को निहारि सो निबारिये।
केसरी किसोर रनरोर बरजोर बीर,
बाँह पीर राहु मातु ज्यौं पछारि मारिये॥२१॥

भावार्थ – हे दीनबन्धु! बलि जाता हूँ, बालकको देखकर आपने लड़कपनसे ही अपनाया और मायारहित अनोखी दया की। सोचिये तो सही, तुलसी आपका दास है, इसको आपका भरोसा, आपका ही बल और आपकी ही आशा है। अत्यन्त भयानक कलिकालने किसको बेचैन नहीं किया ? इस बलवान्का पैर मेरे मस्तकपर भी देखकर उसको हटाइये। हे केशरीकिशोर, बरजोर वीर! आप रणमें कोलाहल उत्पन्न करनेवाले हैं, राहुकी माता सिंहिकाके समान बाहुकी पीड़ाको पछाड़कर मार डालिये॥ २१ ॥

उथपे थपनथिर थपे उथपनहार,
केसरी कुमार बल आपनो संबारिये।
राम के गुलामनि को कामतरु रामदूत,
मोसे दीन दूबरे को तकिया तिहारिये॥
साहेब समर्थ तोसों तुलसी के माथे पर,
सोऊ अपराध बिनु बीर, बाँधि मारिये।
पोखरी बिसाल बाँहु, बलि, बारिचर पीर,
मकरी ज्यों पकरि के बदन बिदारिये॥२२॥

भावार्थ – हे केशरीकुमार ! आप उजड़े हुए (सुग्रीवविभीषण) -को बसानेवाले और बसे हुए (रावणादि)-को उजाड़नेवाले हैं, अपने उस बलका स्मरण कीजिये। हे रामदूत! रामचन्द्रजीके सेवकोंके लिये आप कल्पवृक्ष हैं और मुझ-सरीखे दीन-दुर्बलोंको आपका ही सहारा है। हे वीर! तुलसीके माथेपर आपके समान समर्थ स्वामी विद्यमान रहते हुए भी वह बाँधकर मारा जाता है। बलि जाता हूँ, मेरी भुजा विशाल पोखरीके समान है और यह पीड़ा उसमें जलचरके सदृश है, सो आप मकरीके समान इस जलचरीको पकड़कर इसका मुख फाड़ डालिये॥ २२ ॥

राम को सनेह, राम साहस लखन सिय,
राम की भगति, सोच संकट निवारिये।
मुद मरकट रोग बारिनिधि हेरि हारे,
जीव जामवंत को भरोसो तेरो भारिये॥
कृदिये कृपाल तुलसी सुप्रेम पब्बयतें,
सुधल सुबेल भालू बैठि कै विचारिये।
महाबीर बाँकुरे बराकी बाँह पीर क्‍यों न,
लंकिनी ज्यों लात घात ही मरोरि मारिये॥२३॥

भावार्थ – मुझमें रामचन्द्रजीके प्रति स्नेह, रामचन्द्रजीकी भक्ति, राम-लक्ष्मण और जानकीजीकी कृपासे साहस (दृढ़तापूर्वक कठिनाइयोंका सामना करनेकी हिम्मत) है, अतः मेरे शोक-संकटको दूर कीजिये। आनन्दरूपी बंदर रोगरूपी अपार समुद्रको देखकर मनमें हार गये हैं, जीवरूपी जाम्बवन्तको आपका बड़ा भरोसा है। हे कृपालु! तुलसीके सुन्दर प्रेमरूपी पर्वतसे कूदिये, श्रेष्ठ स्थान (हृदय)-रूपी सुबेलपर्वतपर बैठे हुए जीवरूपी जाम्बवन्तजी सोचते (प्रतीक्षा करते) हैं। हे महाबली बाँके योद्धा! मेरे बाहुकी पीड़ारूपिणी लंकिनीको लातकी चोटसे क्यों नहीं मरोड़कर मार डालते? ॥ २३ ॥

लोक परलोकहूँ तिलोक न विलोकियत,
तोसे समरथ चष चारिहूँ निहारिये।
कर्म, काल, लोकपाल, अग जग जीवजाल,
नाथ हाथ सब निज महिमा बिचारिये॥
खास दास रावरो, निवास तेरो तासु उर,
तुलसी सो, देव दुखी देखिअत भारिये।
बात तरुमूल बाँहसूल कपिकच्छू बेलि,
उपजी सकेलि कपि केलि ही उखारिये॥२४॥

भावार्थ – लोक, परलोक और तीनों लोकोंमें चारों नेत्रोंसे देखता हूँ, आपके समान योग्य कोई नहीं दिखायी देता। हे नाथ! कर्म, काल, लोकपाल तथा सम्पूर्ण स्थावर-जंगम जीवसमूह आपके ही हाथमें हैं, अपनी महिमाको विचारिये। हे देव! तुलसी आपका निजी सेवक है, उसके हृदयमें आपका निवास है और वह भारी दुःखी दिखायी देता है। वातव्याधिजनित बाहुकी पीड़ा केवाँचकी लताके समान है, उसकी उत्पन्न हुई जड़को बटोरकर वानरी खेलसे उखाड़ डालिये ॥ २४॥

करम कराल कंस भूमिपाल के भरोसे,
बकी बक भगिनी काहू तें कहा डरैगी।
बड़ी बिकराल बाल घातिनी न जात कहि,
बाँह बल बालक छबीले छोटे छरैगी॥
आई है बनाई बेष आप ही बिचारि देख,
पाप जाय सब को गुनी के पाले परैगी।
पूतना पिसाचिनी ज्यौं कपि कान्ह तुलसीकी,
बाँहपीर महाबीर तेरे मारे मरैगी॥२५॥

भावार्थ – कर्मरूपी भयंकर कंसराजाके भरोसे बकासुरकी बहिन पूतना राक्षसी क्या किसीसे डरेगी? बालकोंको मारनेमें बड़ी भयावनी, जिसकी लीला कही नहीं जाती है, वह अपने बाहुबलसे छोटे छबिमान् शिशुओंको छलेगी। आप ही विचारकर देखिये, वह सुन्दर रूप बनाकर आयी है, यदि आप-सरीखे गुणीके पाले पड़ेगी तो सभीका पाप दूर हो जायगा। हे महाबली कपिराज! तुलसीकी बाहुकी पीड़ा पूतना पिशाचिनीके समान है और आप बालकृष्ण रूप हैं, यह आपके ही मारनेसे मरेगी ॥ २५ ॥

भाल की कि काल की कि रोष की त्रिदोष की है,
बेदन बिषम पाप ताप छल छाँह की।
करमन कूट की कि जन्त्र मन्त्र बूट की,
पराहि जाहि पापिनी मलीन मन माँह की॥
पैहहि सजाय, नत कहत बजाय तोहि,
बाबरी न होहि बानि जानि कपि नाँह की।
आन हनुमान की दुहाई बलवान की,
सपथ महाबीर की जो रहै पीर बाँह की॥२६॥

भावार्थ – यह कठिन पीड़ा कपालकी लिखावट है या समय, क्रोध अथवा त्रिदोषका या मेरे भयंकर पापोंका परिणाम है, दुःख किंवा धोखेकी छाया है। मारणादि प्रयोग अथवा यन्त्र-मन्त्ररूपी वृक्षका फल है; अरी मनकी मैली पापिनी पूतना ! भाग जा, नहीं तो मैं डंका पीटकर कहे देता हूँ कि कपिराजका स्वभाव जानकर तू पगली न बने। जो बाहुकी पीड़ा रहे तो मैं महाबीर बलवान् हनुमान जीकी दोहाई और सौगन्ध करता हूँ अर्थात् अब वह नहीं रह सकती ॥ २६ ॥

सिंहिका सँहारि बल सुरसा सुधारि छल,
लंकिनी पछारि मारि बाटिका उजारी है।
लंक परजारि मकरी बिदारि बार बार,
जातुधान धारि धूरि धानी करि डारी है॥
तोरि जमकातरि मंदोदरी कठोरि आनी,
रावन की रानी मेघनाद महतारी है।
भीर बाँह पीर की निपट राखी महाबीर,
कौन के सकोच तुलसी के सोच भारी है॥२७॥

भावार्थ – सिंहिकाके बलका संहार करके सुरसाके छलको सुधारकर | लंकिनीको मार गिराया और अशोकवाटिकाको उजाड़ डाला। लंकापुरीको अच्छी तरहसे जलाकर मकरीको विदीर्ण करके बारंबार राक्षसोंकी सेनाका विनाश किया। यमराज का खड्ग अर्थात् परदा फाड़कर मेघनादकी माता और रावण की पटरानी मन्दोदरीको राजमहलसे बाहर निकाल लाये । हे महाबली कपिराज! तुलसीको बड़ा सोच है, किसके संकोचमें पड़कर आपने केवल मेरे बाहुकी पीड़ाके भयको छोड़ रखा है॥ २७॥

तेरो बालि केलि बीर सुनि सहमत धीर,
भूलत सरीर सुधि सक्र रवि राहु की।
तेरी बाँह बसत बिसोक लोक पाल सब,
तेरो नाम लेत रहैं आरति न काहु की॥
साम दाम भेद विधि बेदहू लबेद सिधि,
हाथ कपिनाथ ही के चोटी चोर साहु की।
आलस अनख परिहास कै सिखावन है,
एते दिन रही पीर तुलसी के बाहु की॥२८॥

भावार्थ – हे वीर! आपके लड़कपनका खेल सुनकर धीरजवान् भी भयभीत हो जाते हैं और इन्द्र, सूर्य तथा राहुको अपने शरीरकी सुध भुला जाती है। आपके बाहुबलसे सब लोकपाल शोकरहित होकर बसते हैं और आपका नाम लेनेसे किसीका दुःख नहीं रह जाता। साम, दान और भेद नीतिका विधान तथा वेद-लवेदसे भी सिद्ध है कि चोर-साहुकी चोटी कपिनाथके ही हाथमें रहती है। तुलसीदासके जो इतने दिन बाहुकी पीड़ा रही है सो क्या आपका आलस्य है अथवा क्रोध, परिहास या शिक्षा है॥ २८॥

टूकनि को घर घर डोलत कँगाल बोलि,
बाल ज्यों कृपाल नत पाल पालि पोसो है।
कीन्ही है सँभार सार अँजनी कुमार बीर,
आपनो बिसारि हैं न मेरेह्न भरोसो है॥
इतनो परेखो सब भान्ति समरथ आजु,
कपिराज सांची कहां को तिलोक तोसो है।
सासति सहत दास कीजे पेखि परिहास,
चीरी को मरन खेल बालकनिको सो है॥२९॥

भावार्थ – हे गरीबोंके पालन करनेवाले कृपानिधान! टुकड़ेके लिये दरिद्रतावश घर-घर मैं डोलता-फिरता था, आपने बुलाकर बालकके समान मेरा पालन-पोषण किया है। हे वीर अंजनीकुमार! मुख्यतः आपने ही मेरी रक्षा की है, अपने जनको आप न भुलायेंगे, इसका मुझे भी भरोसा है। हे कपिराज ! आज आप सब प्रकार समर्थ हैं, मैं सच कहता हूँ, आपके समान भला तीनों लोकोंमें कौन है? किंतु मुझे इतना परेखा (पछतावा) है कि यह सेवक दुर्दशा सह रहा है, लड़कोंका खेलवाड़ होनेके समान चिड़ियाकी मृत्यु हो रही है और आप तमाशा देखते हैं॥ २९॥

आपने ही पाप तें त्रिपात तें कि साप तें,
बढ़ी है बाँह बेदन कही न स॒हि जाति है।
औषध अनेक जन्त्र मन्त्र टोटकादि किये,
बादि भये देवता मनाये अथीकाति है॥
करतार, भरतार, हरतार, कर्म काल,
को है जगजाल जो न मानत इताति है।
चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो राम दूत,
ढील तेरी बीर मोहि पीर तें पिराति है॥३०॥

भावार्थ – मेरे ही पाप वा तीनों ताप अथवा शाप से बाहुक पीड़ा बढ़ी है, वह न कही जाती और न सही जाती है। अनेक ओषधि, यन्त्र- मन्त्र- 1. टोटकादि किये, देवताओंको मनाया, पर सब व्यर्थ हुआ, पीड़ा बढ़ती ही जाती है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कर्म, काल और संसारका समूह-जाल कौन ऐसा है जो आपकी आज्ञाको न मानता हो। हे रामदूत ! तुलसी आपका दास और आपने इसको अपना सेवक कहा है। हे वीर ! आपकी यह ढील मुझे इस पीड़ासे भी अधिक पीड़ित कर रही है॥ ३० ॥

दूत राम राय को, सपूत पूत वाय को,
समत्व हाथ पाय को सहाय असहाय को।
बाँकी बिरदावली बिदित बेद गाइयत,
रावन सो भट भयो मुठिका के धाय को॥
एते बडे साहेब समर्थ को निवाजो आज,
सीदत सुसेवक बचन मन काय को ।
थोरी बाँह पीर की बड़ी गलानि तुलसी को,
कौन पाप कोप, लोप प्रकट प्रभाय को॥३१॥

भावार्थ – आप राजा रामचन्द्रके दूत, पवनदेवके सत्पुत्र, हाथ-पाँवके समर्थ और निराश्रितोंके सहायक हैं। आपके सुन्दर यशकी कथा विख्यात है, वेद गान करते हैं और रावण-जैसा त्रिलोकविजयी योद्धा आपके घूँसेकी चोटसे घायल हो गया। इतने बड़े योग्य स्वामीके अनुग्रह करनेपर भी आपका श्रेष्ठ सेवक आज तन-मन- वचन से दुःख पा रहा है। तुलसीको इस थोड़ी-सी बाहु-पीड़ाकी बड़ी ग्लानि है, मेरे कौन-से पापके कारण वा क्रोधसे आपका प्रत्यक्ष प्रभाव लुप्त हो गया है? ॥३१ ॥

देवी देव दनुज मनुज मुनि सिद्ध नाग,
छोटे बड़े जीव जेते चेतन अचेत हैं।
पूतना पिसाची जातुधानी जातुधान बाग,
राम दूत की रजाई माथे मानि लेत हैं॥
घोर जन्त्र मन्त्र कूट कपट कुरोग जोग,
हनुमान आन सुनि छाड़त निकेत हैं।
क्रोध कीजे कर्म को प्रबोध कीजे तुलसी को,
सोध कीजे तिनको जो दोष दुख देत हैं॥३२॥

भावार्थ – देवी, देवता, दैत्य, मनुष्य, मुनि, सिद्ध और नाग आदि छोटे-बड़े जितने जड़-चेतन जीव हैं तथा पूतना, पिशाचिनी, राक्षसी-राक्षस जितने कुटिल प्राणी हैं, वे सभी रामदूत पवनकुमारकी आज्ञा शिरोधार्य करके मानते हैं। भीषण यन्त्र- मन्त्र, धोखाधारी, छलबाज और दुष्ट रोगोंके आक्रमण हनुमान जीकी दोहाई सुनकर स्थान छोड़ देते हैं। मेरे खोटे कर्मपर क्रोध कीजिये, तुलसीको सिखावन दीजिये और जो दोष हमें दुःख देते हैं उनका सुधार करिये ॥३२॥

तेरे बल बानर जिताये रन रावन सों,
तेरे घाले जातुधान भये घर घर के।
तेरे बल राम राज किये सब सुर काज,
सकल समाज साज साजे रघुबर के॥
तेरो गुनगान सुनि गीरबान पुलकत,
सजल बिलोचन बिरंचि हरिहर के।
तुलसी के माथे पर हाथ फेरो कीस नाथ,
देखिये न दास दुखी तोसो कनिगर के॥३३॥

भावार्थ – आपके बलने युद्ध में वानरों को रावण से बताया और आपके ही नष्ट करनेसे राक्षस घर-घरके (तीन-तेरह) हो गये। आपके ही बलसे राजा रामचन्द्रजीने देवताओंका सब काम पूरा किया और आपने ही रघुनाथजीके समाजका सम्पूर्ण साज सजाया। आपके गुणोंका गान सुनकर देवता रोमांचित होते हैं और ब्रह्मा, विष्णु, महेशकी आँखोंमें जल भर आता है। हे वानरोंके स्वामी ! तुलसीके माथेपर हाथ फेरिये, आप-जैसे अपनी मर्यादाकी लाज रखनेवालोंके दास कभी दु:खी नहीं देखे गये॥ ३३ ॥

पालो तेरे ट्रक को परेहू चूक मूकिये न,
कूर कौड़ी दूको हों आपनी ओर हेरिये।
भोरानाथ भोरे ही सरोष होत थीरे दोष,
पोषि तोषि थापि आपनो न अव डेरिये॥
अँबुतू हों अँबु चूर, अँबु तू हों डिंभ सो न,
बूझिये बिलंब अवलंब मेरे तेरिये ।
बालक बिकल जानि पाहि प्रेम पहिचानि,
तुलसी की बाँह पर लामी लूम फेरिये॥३४॥

भावार्थ – आपके टुकड़ोंसे पला हूँ, चूक पड़नेपर भी मौन न हो जाइये। मैं कुमार्गी दो कौड़ीका हूँ, पर आप अपनी ओर देखिये। हे भोलानाथ! अपने भोलेपनसे ही आप थोड़े दोषसे रुष्ट हो जाते हैं, सन्तुष्ट होकर मेरा पालन करके मुझे बसाइये, अपना सेवक समझकर दुर्दशा न कीजिये। आप जल हैं तो मैं मछली हूँ, आप माता हैं तो मैं छोटा बालक हूँ, देरी न कीजिये, मुझको आपका ही सहारा है। बच्चेको व्याकुल जानकर प्रेमकी पहचान करके रक्षा कीजिये, तुलसीकी बाँहपर अपनी लंबी पूँछ फेरिये (जिससे पीड़ा निर्मूल हो जावे) ॥ ३४॥

घेरि लियो रोगनि, कुजोगनि, कुलोगनि ज्यौं,
बासर जलद घन घटा धुकि धाई है।
बरसत बारि पीर जारिये जवासे जस,
रोष बिनु दोष धूम मूल मलिनाई है ॥
करुनानिधान हनुमान महा बलवान,
हेरि हँसि हाँकि फूंकि फौंजै ते उड़ाई है।
खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि,
केसरी किसोर राखे बीर बरिआई है॥३५॥

भावार्थ – रोगों, बुरे योगों और दुष्ट लोगोंने मुझे इस प्रकार घेर लिया है जैसे दिनमें बादलोंका घना समूह झपटकर आकाशमें दौड़ता है। पीड़ारूपी जल बरसाकर इन्होंने क्रोध करके बिना अपराध यशरूपी जवासेको अग्निकी तरह झुलसकर मूर्च्छित कर दिया। हे दयानिधान महाबलवान् हनुमान जी! आप हँसकर निहारिये और ललकारकर विपक्षकी सेनाको अपनी फूँक से उड़ा दीजिये। हे केशरीकिशोर वीर! तुलसीको कुरोगरूपी निर्दय राक्षसने खा लिया था, आपने जोरावरीसे मेरी रक्षा की है ॥ ३५ ॥

सवैया
राम गुलाम तु ही हनुमान,
गोसाँई सुसाँई सदा अनुकूलो।
पाल्यो हों बाल ज्यों आखर दू,
पितु मातु सों मंगल मोद समूलो॥
बाँह की बेदन बाँह पगार,
पुकारत आरत आनॉँद भूलो।
श्री रघुबीर निवारिये पीर,
रहौं दरबार परो लटि लूलो॥३६॥

भावार्थ – हे गोस्वामी हनुमान जी! आप श्रेष्ठ स्वामी और सदा श्रीरामचन्द्रजीके सेवकोंके पक्षमें रहनेवाले हैं। आनन्द-मंगलके मूल दोनों अक्षरों (राम-नाम)-ने माता-पिताके समान मेरा पालन किया है। हे बाहुपगार (भुजाओंका आश्रय देनेवाले)! बाहुकी पीड़ासे मैं सारा आनन्द भुलाकर दु:खी होकर पुकार रहा हूँ। हे रघुकुलके वीर! पीड़ा को दूर कीजिये, जिससे दुर्बल और पंगु होकर भी आपके दरबारमें पड़ा रहूँ॥ ३६ ॥

घनाक्षरी
काल की करालता करम कठिनाई कीधी,
पाप के प्रभाव की सुभाय बाय बावरे।
बेदन कुरभाँति सो सही न जाति राति दिन,
सोई बाँह गही जो गही समीर डाबरे ॥
लायो तरु तुलसी तिहारो सो निहारि बारि,
सींचिये मलीन भो तयो है तिहँ तावरे।
भूतनि की आपनी पराये की कृपा निधान,
जानियत सबही की रीति राम रावरे॥३७॥

भावार्थ – न जाने काल की भयानकता है कि कर्म की कठिनाई है, पापका प्रभाव है अथवा स्वाभाविक बातकी उन्मत्तता है। रात-दिन बुरी तरहकी पीड़ा हो रही है, जो सही नहीं जाती और उसी बाँहको पकड़े हुए है जिसको पवनकुमारने पकड़ा था । तुलसीखरूपी वृक्ष आपका ही लगाया हुआ है। यह तीनों तापोंकी ज्वालासे झुलसकर मुरझा गया है, इसकी ओर निहारकर कृपारूपी जलसे सींचिये। हे दयानिधान रामचन्द्रजी! आप भूतोंकी, अपनी और विरानेकी सबकी रीति जानते हैं ॥ ३७ ॥

पाँय पीर पेट पीर बाँह पीर मुंह पीर,
जर जर सकल पीर मई है।
देव भूत पितर करम खल काल ग्रह,
मोहि पर दवरि दमानक सी दई है॥
हौं तो बिनु मोल के बिकानो बलि बारे हीतें,
ओट राम नाम की ललाट लिखि लई है।
कुँभज के किंकर बिकल बूढ़े गोखुरनि,
हाय राम राय ऐसी हाल कहूँ भई है॥३८॥

भावार्थ – पाँवकी पीड़ा, पेटकी पीड़ा, बाहुकी पीड़ा और मुखकी पीड़ा – सारा शरीर पीड़ा माय होकर जीर्ण-शीर्ण हो गया है। देवता, प्रेत, पितर, कर्म, काल और दुष्टग्रह-सब साथ ही दौरा करके मुझपर तोपोंकी बाड़-सी दे रहे हैं। बलि जाता हूँ। मैं तो लड़कपनसे ही आपके हाथ बिना मोल बिका हुआ हूँ और अपने कपालमें रामनामका आधार लिख लिया है। हाय राजा रामचन्द्रजी! कहीं ऐसी दशा भी हुई है कि अगस्त्य मुनिका सेवक गायके खुरमें डूब गया हो॥ ३८॥

बाहुक सुबाहु नीच लीचर मरीच मिलि,
मुँह पीर केतुजा कुरोग जातुधान है।
राम नाम जप जाग कियो चहों सानुराग,
काल कैसे दूत भूत कहा मेरे मान है॥
सुमिरे सहाय राम लखन आखर दौऊ,
जिनके समूह साके जागत जहान है।
तुलसी सँभारि ताडका सँहारि भारि भट,
बेधे बरगद से बनाई बानवान है॥३९॥

भावार्थ – बाहुकी पीड़ारूप नीच सुबाहु और देहकी अशक्तिरूप मारीच राक्षस और ताकारूपिणी मुखकी पीड़ा एवं अन्यान्य बुरे रोगरूप राक्षसोंसे मिले हुए हैं। मैं रामनामका जपरूपी यज्ञ प्रेमके साथ करना चाहता हूँ, पर कालदूतके समान ये भूत क्या मेरे काबूके हैं ? (कदापि नहीं।) संसारमें जिनकी बड़ी नामवरी हो रही है वे (रा और म) दोनों अक्षर स्मरण करनेपर मेरी सहायता करेंगे। हे तुलसी! तू ताड़काका वध करनेवाले भारी योद्धाका स्मरण कर, वह इन्हें अपने बाणका निशाना बनाकर बड़के फलके समान भेदन (स्थानच्युत) कर देंगे ॥ ३९ ॥

बालपने सूधे मन राम सनमुख भयो,
राम नाम लेत माँगि खात टूक टाक हीं।
परयो लोक रीति में पुनीत प्रीति राम राय,
मोह बस बैठो तोरि तरकि तराक हाँ॥
खोटे खोटे आचरन आचरत अपनायो,
अंजनी कुमार सोध्यो रामपानि पाक हाँ ।
तुलसी गुर्साँई भयो भोंडे दिन भूल गयो,
ताको फल पावत निदान परिपाक हीं॥४०॥

भावार्थ – मैं बाल्यावस्थासे ही सीधे मनसे श्रीरामचन्द्रजीके सम्मुख हुआ, मुँहसे रामनाम लेता टुकड़ा-टुकड़ी माँगकर खाता था। (फिर युवावस्थामें) लोकरीतिमें पड़कर अज्ञानवश राजा रामचन्द्रजीके चरणोंकी पवित्र प्रीतिको चटपट (संसारमें) कूदकर तोड़ बैठा। उस समय खोटे-खोटे आचरणोंको करते हुए मुझे अंजनीकुमारने अपनाया और रामचन्द्रजीके पुनीत हाथोंसे मेरा सुधार करवाया। तुलसी गोसाईं हुआ, पिछले खराब दिन भुला दिये, आखिर उसीका फल आज अच्छी तरह पा रहा हूँ॥ ४० ॥

असन बसन हीन बिषम बिषाद लीन,
देखि दीन टूबरो करे न हाय हाय को।
तुलसी अनाथ सो सनाथ रघुनाथ कियो,
दियो फल सील सिंधु आपने सुभाय को॥
नीच यहि बीच पति पाइ भरु हाईगो,
बिहाइ प्रभु भजन बचन मन काय को।
ता तें तनु पेषियत घोर बरतोर मिस,
फूटि फूटि निकसत लोन राम राय को॥४१॥

भावार्थ – जिसे भोजन-वस्त्रसे रहित भयंकर विषादमें डूबा हुआ और दीन-दुर्बल देखकर ऐसा कौन था जो हाय-हाय नहीं करता था, ऐसे अनाथ तुलसीको दयासागर स्वामी रघुनाथजीने सनाथ करके अपने स्वभावसे उत्तम फल दिया। इस बीचमें यह नीच जन प्रतिष्ठा पाकर फूल उठा (अपनेको बड़ा समझने लगा) और तन-मन-वचनसे रामजीका भजन छोड़ दिया, इसीसे शरीरमेंसे भयंकर बरतोरके बहाने रामचन्द्रजीका नमक फूट-फूटकर निकलता दिखायी दे रहा है ॥ ४१ ॥

जीओ जग जानकी जीवन को कहाइ जन,
मरिबे को बारानसी बारि सुर सरि को|
तुलसी के नल मोदक हैं ऐसे ठाँऊ,
जाके जिये मुये सोच करिहैं न लरि को॥
मो को झूँटो साँचो लोग राम कौ कहत सब,
मेरे मन मान है न हर को न हरि को।
भारी पीर दुसह सरीर तें बिहाल होत,
सोऊ रघुबीर बिनु सके टूर करि को॥४२॥

भावार्थ – जानकी-जीवन रामचन्द्रजी का दास कहलाकर संसार में जीवित रहूँ और मरनेके लिये काशी तथा गंगाजल अर्थात् सुरसरितीर है। ऐसे स्थानमें (जीवन-मरणसे) तुलसीके दोनों हाथों में लड्डू है, जिसके जीने-मरनेसे लड़के भी सोच न करेंगे सब लोग मुझको झूठा-सच्चा रामका ही दास कहते हैं और मेरे मनमें भी इस बातका गर्व है कि मैं रामचन्द्रजीको छोड़कर न शिवका भक्त हूँ, न विष्णु का। शरीर की भारी पीड़ा से विकल हो रहा हूँ, उसको बिना रघुनाथ जी के कौन दूर कर सकता है? ॥ ४२ ॥

सीतापति साहेब सहाय हनुमान नित,
हित उपदेश को महेस मानो गुरु कै।
मानस बचन काय सरन तिहारे पाँय,
तुम्हरे भरोसे सुर मैं न जाने सुर कै॥
ब्याधि भूत जनित उपाधि काहु खल की,
समाधि की जै तुलसी को जानि जन फुर कै।
कपिनाथ रघुनाथ भोलानाथ भूतनाथ,
रोग सिंधु क्यों न डारियत गाय खुर कै॥४३॥

भावार्थ – हे हनुमान जी! स्वामी सीतानाथजी आपके नित्य ही सहायक हैं और हितोपदेशके लिये महेश मानो गुरु ही हैं। मुझे तो तन, मन, वचनसे आपके चरणोंकी ही शरण है, आपके भरोसे मैंने देवताओंको देवता करके नहीं माना। रोग व प्रेतद्वारा उत्पन्न अथवा किसी दुष्टके उपद्रवसे हुई पीड़ाको दूर करके तुलसीको अपना सच्चा सेवक जानकर इसकी शान्ति कीजिये। हे कपिनाथ, रघुनाथ, भोलानाथ और भूतनाथ! रोगरूपी महासागरको गायके खुरके सामान क्यों नहीं कर डालते?॥ ४३ ॥

कहों हनुमान सों सुजान राम राय सों,
कृपानिधान संकर सों सावधान सुनिये।
हरष विषाद राग रोष गुन दोष मई,
बिरची बिरज्जी सब देखियत दुनिये ॥
माया जीव काल के करम के सुभाय के,
करैया राम बेद कहें साँची मन गुनिये।
तुम्ह तें कहा न होय हा हा सो बुझैये मोहिं,
हों हूँ रहों मौनही वयो सो जानि लुनिये॥४४॥

भावार्थ – मैं हनुमान जी से, सुजान राजा रामसे और कृपानिधान शंकरजीसे कहता हूँ, उसे सावधान होकर सुनिये। देखा जाता है कि विधाताने सारी दुनियाको हर्ष, विषाद, राग, रोष, गुण और दोषमय बनाया है। वेद कहते हैं कि माया, जीव, काल, कर्म और स्वभावके करनेवाले रामचन्द्रजी हैं। इस बातको मैंने चित्तमें सत्य माना है। मैं विनती करता हूँ, मुझे यह समझा दीजिये कि आपसे क्या नहीं हो सकता। फिर मैं भी यह जानकर चुप रहूँगा कि जो बोया है वही काटता हूँ॥ ४४ ॥

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