धर्म

वैभव लक्ष्मी व्रत कथा व विधि

वैभव लक्ष्मी व्रत कथा (Vaibhav Lakshmi Vrat Katha) का पाठ शीघ्र फलदायी है। किन्तु फल न दे तो तीन माह के बाद फिर से यह व्रत शुरू करना चाहिये और जब तक मनवांछित फल न मिले तब तक यह व्रत तीन-तीन महीने पर करते रहना चाहिये। कभी भी इसका फल अवश्य मिलता ही है। पढ़ें वैभव लक्ष्मी व्रत कथा तथा शास्त्रीय विधि हिंदी में-

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वैभव लक्ष्मी व्रत की शास्त्रीय विधि

मान्यता है कि इस व्रत को पूर्ण विधि-विधान से करने पर निश्चित रूप से सभी कामनाएँ पूरी हो जाती हैं। पढ़ें इसकी संपूर्ण विधि (Vaibhav Laxmi Vrat Vidhi) विस्तार से-

  1. सर्वप्रथम ‘श्री यंत्र’ को हाथ जोड़कर कर श्रद्धा पूर्वक नमस्कार करें।
  2. तत्पश्चात वैभवदात्री श्री महालक्ष्मी का मंत्र पढ़ कर प्रयान करें। जिन्हें संस्कृत में मन्त्र पढ़ने में कठिनाई हो, वे ध्यान का हिन्दी भावार्थ पढ़े। यहाँ दिये गये महालक्ष्मी के आठों स्वरूपों को नमस्कार करें। श्री लक्ष्मी जी के आठ स्वरूप इस प्रकार हैं-
    1. श्री वैभव लक्ष्मी जी माँ
    2. श्री धान्य लक्ष्मी माँ
    3. श्री अधिलक्ष्मी माँ
    4. श्री संतान लक्ष्मी माँ
    5. श्री वीर लक्ष्मी माँ
    6. श्री विजया लक्ष्मी माँ
    7. श्री गजलक्ष्मी माँ
    8. श्री गजलक्ष्मी माँ
  3. इसके पश्चात श्री महालक्ष्मी की स्तुति करें।
  4. सोने चांदी के आभूषण अथवा एक रुपये के सिक्के की धूप-दीप नैवेद्य आदि चढ़ाकर पूजा करें।
  5. इसके बाद दोनों हाथों से प्रसाद अर्पण करें।
  6. स्तुति और महिमा गाकर श्री लक्ष्मी जी की आरती उतारें
  7. तत्पश्चात हाथ जोड़कर श्री वैभव लक्ष्मी माँ से अपनी मनोकामना कहकर उसे शीघ्र पूरी करने की विनती करें।
  8. अंत में माँ का प्रसाद सभी उपस्थित जनों में बाँट दें और थोड़ा सा अपने लिये रखें।
  9. पूजा के लिए रखा लोटे का पानी तुलसी के पौधे पर चढ़ाएँ। तुलसी पौधा घर में न हो तो गाय के खूंटे अथवा सूर्य को चढ़ाएँ। चावल के दाने पक्षियों को डाल दें।
  10. यथा संभव पूरे दिन उपवास रखकर शाम को प्रसाद खायें। यदि शक्ति न हो तो एक समय ही प्रसाद खाकर भोजन करें।

उद्यापन करने का तरीका

जितने शुक्रवार को व्रत करने की मन्नत मानी हो, उसका अन्तिम शुक्रवार आने पर उद्यापन किया जाता है। उद्यापन के दिन पूजा विधि और दिनों के ही समान है। इस दिन प्रसाद में खीर एवं नारियल रखा जाता है। पूजा सम्पन्न होने पर नारियल को फोड़ लें और नारियल गिरी व खीर का प्रसाद अपने पास-पड़ोस में वितरित करें। प्रसाद के साथ ही कम-से-कम सात कुंवारी कन्याओं अथवा सौभाग्यशाली स्त्रियों को कुमकुम का टीका लगाकर श्री वैभवलक्ष्मी व्रत कथा (Vaibhav Lakshmi Vrat Katha) की एक-एक पुस्तक भेंट करें।

वैभव लक्ष्मी का व्रत करने के नियम

  • यह व्रत कोई भी स्त्री-पुरुष, छोटा या बड़ा अपनी कोई भी सद-मनोकामना पूरी करने के लिए कर सकता है।
  • यह व्रत पवित्र भाव से श्रद्धापूर्वक करना चाहिये, तभी यह व्रत उत्तम फल प्रदान करता है। बिना भाव के अथवा खिन्न मन से किया गया व्रत कोई फल प्रदान नहीं करता।
  • यह व्रत शुक्रवार के दिन किया जाता है। कोई मनोकामना मन में धारण करके 11 अथवा 21 व्रत करने की मनौती मानी जाती है।
  • यह व्रत यहाँ बताये गये शास्त्रीय विधि-विधान के अनुसार ही करना चाहिए। विधिपूर्वक व्रत न किये जाने पर कोई फल प्राप्त नहीं होता।
  • व्रत के दिन पूरे मनोभाव से श्री वैभव लक्ष्मी माँ का स्मरण करना चाहिए और मन ही मन ‘जय श्री वैभव लक्ष्मी माँ’, ‘जय श्री महालक्ष्मी माँ’ का जाप करते रहना चाहिये। ऐसा करने से मन इधर-उधर नहीं भटकता और माँ के चरणों में ध्यान बना रहता है।
  • व्रत आरम्भ करने के पश्चात किसी शुक्रवार को व्रत करने वाली स्त्री रजस्वता अथवा सूतकी हो तो वह शुक्रवार छोड़ देना चाहिए और अगले शुक्रवार को व्रत करना चाहिए। किन्तु मनौती के माने हुए व्रतों की संख्या अवश्य पूरी करनी चाहिए।
  • व्रतों के मध्य किसी शुक्रवार को यदि आप अपने घर से बाहर किसी अन्य स्थान पर हों तो भी वह शुक्रवार छोड़ कर अगले शुक्रवार से व्रत करना चाहिए।
  • यह व्रत शुद्ध व सात्विक भाव से अपने घर पर ही रह कर करना चाहिये।

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उद्यापन विधि

  1. व्रत पूरे होने पर अन्तिम शुक्रवार को अर्थात् मनौती का ग्यारह अथवा इक्कीसवां शुक्रवार को इसका उद्यापन करना चाहिए। उद्यापन भी यहाँ दिये शास्त्रीय विधि-विधान के अनुसार ही करना चाहिए। अन्यथा माँ की पूर्ण कृपा प्राप्त नहीं होगी।
  2. व्रत सम्पूर्ण होने पर कम से कम सात कुंवारी कन्याओं अथवा सौभाग्यशाली स्त्रियों को कुमकुम का टीका लगाकर ‘श्री वैभव लक्ष्मी व्रत कथा’ का लिंक देना चाहिए। यह संख्या अपनी स्थिति एवं श्रद्धानुसार 11, 21, 51 या 101 तक भी बढ़ायी जा सकती है। जितना अधिक इस पेज का लिंक आप वितरित करेंगे, उतना ही अधिक श्री वैभव लक्ष्मी माँ का प्रचार होगा और माँ की कृपा भी आपको अधिक प्राप्त होगी।
  3. व्रत आरम्भ करने के बाद से ही माँ की कृपा दृष्टि पड़ना प्रारम्भ हो जाती है। व्रत पूरा होने के तीन माह के अन्दर माँ मनोकामना पूरी करती हैं। यदि किसी कारणवश आपकी मनोकामना पूरी नहीं हुई हो तो पुनः मनौती मानकर इस व्रत को करना चाहिए। माँ अवश्य ही आपकी मनोकामनाएं पूरी करेंगी।

॥ बोलो श्री वैभवलक्ष्मी माँ की जय ॥

वैभवदात्री श्री महालक्ष्मी

भगवती महालक्ष्मी मूलतः भगवान श्री विष्णु की अभिन्न शक्ति हैं और उनकी नित्य सहचरी है। पुराणों के अनुसार वे पदमवनवासिनी, सागरतनया और भृगु की पत्नी ख्याति की पुत्री होने से भार्गवी नाम से विख्यात हैं। इन्हें पद्मा, पद्मालया, श्री, कमला, रमा आदि अनेक नामों से भी पुकारा जाता है। यह वैष्णवी शक्ति है।

पुराणों के अनुसार प्रसादग्रस्त इन्द्र की राज्य लक्ष्मी महर्षि दुर्वासा के शाप से समुद्र में प्रविष्ट हो गयीं। फिर देवताओं की प्रार्थना से जब वे प्रकट हुईं तब उनका सभी देवता, ऋषि-मुनियों ने अभिषेक किया और उनके अवलोकन मात्र से सम्पूर्ण विश्व समृद्धिवासन तथा सुख-शान्ति से सम्पन्न हो गया। इससे प्रभावित होकर इन्द्र ने उनकी दिव्य स्तुति की-

त्वया विलोकिताः सद्यः शीलाद्यैरखिलैर्गुणैः।
कुलैश्वर्यैश्च युज्यन्ते पुरुषा निर्गुणा अपि॥
(विष्णुपुराण 1/9/130)

भावार्थ – श्री महालक्ष्मी की दृष्टि-मात्र से निर्गुण मनुष्य में भी शील, विद्या, विनय आदि ऐसे समस्त गुण प्राप्त हो जाते हैं, जिससे मनुष्य सभी का प्रेम एवम् अपार वैभव व सृभद्धि प्राप्त कर लेता है।

ध्यान-मंत्र

कान्त्या काञ्चनसंनिभां हिमगिरिप्रख्यैश्चतुर्भिगजैर्हस्तोत्क्षिप्तहिरण्मयामृतघटैरासिच्यामानां श्रियम।
विभ्राणां वरमब्जयुग्ममभयं हस्तै: किरीटोज्जवलां क्षौमाबद्घनितम्बबिम्बललितां वन्देरविन्दस्थिताम॥
(शारदा तिलक 8/4 )

भावार्थ – जिनका कान्ति स्वर्ण के समान प्रभायुक्त है और जिनका हिमालय के समान अत्यन्त ऊंचे चार हाथी अपने सूड़ों से अमृत कलश के द्वारा अभिषेक कर रहे हैं, जो अपने चार हाथों से क्रमशः वरमुद्रा, अभण्यमुद्रा और दो कमल धारण किये हुये हैं, जिनके मस्तक पर उज्वल वर्ण का भव्य मुकुट सुशोभित है, जिनके शरीर पर रेशमी वस्त्र सुशोभित हो रहे हैं, ऐसी कमल पर स्थित भगवती वैभवलक्ष्मी की में वन्दना करता हूँ।

श्री महालक्ष्मी स्तवन

या रक्ताम्बुजवासिनी विलासिनी चण्डांशु तेजस्विनी।
या रक्ता रुधिराम्बरा हरिसखी या श्री मनोल्हादिनी॥
या रत्नाकरमन्थनात्प्रगटिता विष्णोस्वया गेहिनी।
सा मां पातु मनोरमा भगवती लक्ष्मीश्च पद्मावती ॥

भावार्थ – जो लाल कमल में निवास करने वाली, अपूर्व कांतिवाली व असह्य तेजवाली हैं, जो रुधिर के समान लाल वस्त्र धारण किये हुए है, जो भगवान विष्णु की प्रियतमा तथा मन को उल्लास देने वाली हैं, जो समुद्रमंथन में प्रकट हुईं और भगवान विष्णु की पत्नी हैं, ऐसी परम पूजनीय देवी महालक्ष्मी! आप मेरी रक्षा करें।

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संपूर्ण वैभव लक्ष्मी व्रत कथा

एक बहुत बड़ा नगर था जिसकी जनसंख्या अत्याधिक धी। दूर-पास के अनेकानेक लोग इस नगर में काम-धंधों, नौकरी, रोजगार की तलाश में यहाँ आते थे और रोजगार पाने पर यहीं जम जाते थे। ऐसे लोग अपने काम धन्धों में ऐसे व्यस्त रहते थे कि अपने अतिरिक्त किसी की परवाह नहीं करते थे। लोभ स्वार्थ ने घर के सदस्यों से भी प्रेम व्यवहार कम कर दिया था। ममता प्यार दया सहानुभूति परोपकार जैसे संस्कार बहुत कम हो गये थे। पूजा पाठ दिखावे व स्वार्थ पूर्ति के लिए ही लोग करते थे श्रद्धापूर्वक भक्ति भाव से प्रभु भजन एवं कीर्तन नाम मात्र को ही था। हेराफेरी, बेईमानी, शराब, जुआ और व्यभिचारी आदि धर्म विरुद्ध कार्यों को ही लोग जीवन का सुख मानते थे। सदा जीवन और उच्च विचार की शिक्षा पुरानी पड़ गई थी। अब तो अधिकांश लोग ।

किसी भी प्रकार धन कमाकर ऐश करो पर विश्वास रखते थे। इसी नगर में मनोज और शीला नामक एक नवदम्पति निवास करते थे। मनोज का अपना छोटा सा कारोबार था। वह बहुत विवेकी और सुशील था। ईमानदारी से वह अपना कारोबार करता था, जिससे उसका कारोबार ठीक-ठाक चल रहा था और आराम से उनका जीवन व्यतीत हो रहा था।

मनोज की पत्नी शीला धार्मिक प्रकृति की संतोषी स्वभाव की स्त्री थी। वह किसी की बुराई में नहीं थी, परन्तु यथासंभव दूसरों की सहायता को भी तत्पर रहती थी। गृह कार्यों से बचे समय का सदुपयोग वह प्रभु भजन व कीर्तन करने अथवा धार्मिक या ज्ञानवर्द्धक पुस्तके पढ़ने में व्यतीत करती थी।

वास्तव में उनकी गृहस्थी एक आदर्श गृहस्थी भी आस पास के अधिकांश लोग उस परिवार की सराहना ही करते थे। किन्तु कुछ लोग, जिन्हें दूसरों की खुशी देखकर जलन होती हैं, उन्हें सुख संतोष पूर्वक जीवन-यापन करते देख मन ही मन कुढ़ते थे। वे इस प्रयास में रहते थे कि किसी भीप्रकार मनोज को गलत रास्ते पर चलाकर उसकी सम्पत्ति से स्वयं ऐश करें।

मनोज और शीला की गृहस्थी इसी प्रकार हंसी खुशी चल रही थी। पर कहावत है ‘सब दिन होत न एक समान’ मनुष्य के जीवन में दुःख-सुख, हानि-लाभ लगे रहते हैं। मनोज को भी अपने कारोबार में काफी घाटा उठाना पड़ा। उसका शायद कुछ भाग्य ही रूठ गया था। वह अपने कारोबार में हुए घाटे का जल्द से जल्द लाभ में बदलने के चक्कर में गलत लोगों से मित्रता कर बैठा। ये झूठे मित्र उसे जल्द ही करोड़पति बनने का सपना दिखाने लगे और उसे जुआ, घुड़दौड़, शराब आदि के कुचक्र में डाल दिया। जुए-शराब आदि कुटैबों में आज तक कौन धनवान हुआ है जो वह धनवान होता? मनोज करोड़पति तो बना नहीं, खाकपति अवश्य बन गया। जल्द से जल्द अमीर बनने के लालच में वह घर में थोड़ी बहुत बची धन सम्पत्ति, गहने, जेवर आदि भी गवां बैठा।

एक समय ऐसा था कि मनोज अपनी पत्नी शीला के साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहा था। कुछ ही दिनों में ऐसा समय आ गया कि उसे । दो समय के भोजन के भी लाले पड़ गये। घर में दरिद्रता और भुखमरी का साम्राज्य हो गया। इससे मनोज और चिड़चिड़ा हो गया। वह बात । बेबात पर अपनी पत्नी शीला के साथ गाली-गलौच और मारपीट करने लगा।

शीला एक सुशील और संस्कारी स्त्री थी। वह पति को अपना सर्वस्व समझती थी। पति के व्यवहार से वह दुखी तो बहुत थी किन्तु भगवान पर भरोसा रखकर वह यह सब दुःख सहने लगी। कहते है दुःख में ही भगवान याद आते हैं। सो शीला का मन भी हर समय प्रभु पर भरोसा था और विश्वास था कि भगवान उसे सुख के दिन भी अवश्य दिखायेगा।

एक दिन दोपहर को शीला दुःखी हृदय से भगवान को याद कर रही थी। कि हे प्रभो ! हम तेरे छोटे बच्चे हैं। हमारी गलतियां और अपराधों को क्षमा करो। हे भगवान ! मेरे पति को सद्बुद्धि दो। अभी वह ऐसा कह ही रही थी कि अचानक किसी ने उसके द्वार पर दस्तक दी।

शीला विचार मग्न को हो गई कि इस समय मुझ गरीब के घर कौन आ सकता है। सगे सम्बंधियों और यार दोस्तों ने पहले ही किनारा कर लिया था। फिर भी द्वार खोल दिया। देखा तो सामने एक वृद्धा खड़ी थी।

शरीर पर झुरियां थीं किन्तु चेहरे से अलौकिक तेज टपक रहा था। उनकी आँखों से करुणा और प्यार का मानो अमृत बह रहा था। शीला उस वृद्धा को पहचानती नहीं थी, फिर भी आदर के साथ उन्हें घर के अंदर ले गई। किसी को बैठाने के लिए घर में उपयुक्त आसन तक नहीं था। अतः सकुचाते हुए शीला ने एक फटी हुए चादर बिछाकर उन्हें बैठने को कहा।

से वृद्धा के आगमन वृद्धा उसी चादर पर आराम से बैठ गई। शीला के मन को कुछ शांति सी महसूस हुई। वृद्धा ने उससे पूछा, “शीला, मुझे पहचानती हो या नहीं। “

शीला बोली, “मांजी, आपको देखते ही कुछ अपनत्व सा महसूस कर रही हूं। ऐसा लगता है जैसे आप मेरे बहुत नजदीकी हो। आपको देखकर मेरा रोम-रोम खिल उठा है। जैसा प्रायः विशेष परिचित व्यक्ति से मिलने पर होता है। किन्तु मुझे कुछ याद नहीं पड़ता मैंने आपको वहां देखा-था?

वृद्धा ने अपनत्व दिखाते हुए कहा, “क्यों इतनी जल्दी भूल गई? अभी कुछ दिन पहले तो तू लक्ष्मी जी के मंदिर में शुक्रवार को भजन कीर्तन में आती थी। मैं भी उसमें जाया करती हूँ। हर शुक्रवार को मैं तुमसे वहां मिलती थी।

जब से शीला का पति मनोज गलत लोगों की संगत में बैठकर कर घर लुटाने लगा था, तभी से शीला बाहर निकलने में शर्म महसूस करने लगी थी। अतः उसने मंदिर जाना भी बंद कर दिया था। शीला ने याद करने की कोशिश की कि वह कब उस बुढ़िया मां से मिली थी, परन्तु उस कुछ याद न आया।

तभी वृद्धा बोली, ‘बेटी तू मंदिर में कितने मधुर भजन गाती थी। बहुत दिन से तू वहां नहीं आई । मैंने सोचा, चलो चलकर देखती हूं, कहीं तू बीमार तो नहीं पड़ गई। यही सोचकर यहां चली आई। वृद्धा के ममत्व भरे बचनों को सुनकर शीला का हृदय भर आया।

उसने अपनी रुलाई रोकने की कोशिश की किन्तु असफल रही और वह फूट कर रोने लगी। यह देखकर वह बुढ़िया मां उसके पास आई और सिर पर प्यार भरा हाथ फेरकर उसे ढांढस बंधाने लगी।

वृद्धा बोली, “बेटी जीवन में सुख और दुख आते ही रहते हैं । हमेशा सुख अथवा हमेशा दुःख कभी किसी पर नहीं होता। अत:दुखों से घबराना नहीं चाहिए।” शीला बोली, “मांजी, में थोड़े दुःख में कभी नहीं घबराई, किन्तु अब नहीं सहा जाता” ऐसा कहते-कहते वह फिर रोने लगी। वृद्धा फिर सांत्वना देती हुई बोली, “धैर्य धरो बेटी, और अपनी व्यथा मुझे बना, तुझे क्या दुःख खाये जा रहा है। इस प्रकार बताने से तेरा मन भी हल्का हो जाएगा। और मुझसे हो सकेगा तो तेरे दुःख दर करने का उपाय भी बता दूंगी।” वृद्धा की बात सुनकर शीला के मन को बहुत राहत मिली।

उसने बुढ़िया मां को अपनी दुखभरी कथा सुनानी शुरू की। वह बोली, “मांजी, पहले मेरे परिवार में बहुत सुख शान्ति थी। मेरे पति ई मेहनती, ईमानदार और सुशील थे। भगवान की कृपा से मेरे घर में खुशियाँ ही खुशियाँ थी। किसी भी कार्य में हमें कभी धन की कमी महसूस नहीं होती थी। अचानक हमारे भाग्य ने पलटा खाया। मेरे पति को अपने कारोबार में घाटो हुआ। अधिक धन कमाने के चक्कर में वे बुरे लोगों की संगत में आ गये। और वे जुआ, शराब रेस आदि कुटैबों में फंस गये। इस प्रकार उन्होंने अपना सब कुछ गंवा दिया। आज हम बिलकुल कंगाल हो गये। अब तक जैसे-तैसे घर की छोटी-मोटी चीजें बेचकर अपना गुजारा करते रहे। अब लो घर की सब वस्तुएं भी समाप्त हो गई। हम दर-दर की ठोकरें खाने वाले भिखारी हो गये।”

वृद्धा बोली, “बेटी, कर्म की गति बड़ी न्यारी होती है। मनुष्य यदि अच्छे कर्म करे तो उसे दुःख नहीं उठाने पड़ते । कुछ पिछले जन्मों के कारण लाभ हानि अथवा सुख दुख मनुष्य पर आते हैं। ऐसे में वह संयम से काम ले और भगवान पर भरोसा रखे तो शीघ्र ही उन दूखों से पार पा लेता है। बेटी, तेरे दिन भी अवश्य फिरेंगे। मैं तुझे उपाय बाताती हैँ। तू भगवती महालक्ष्मी की भक्त हैं वे तो स्वयं धन की देवी और प्रेम तथा करुणा की अवतार हैं। अपने भक्तों पर उनकी कृपा सदा बनी रहता है। अतः तू उन्हीं महालक्ष्मी जी का व्रत कर। वे अवश्य ही तेरा कष्ट दूर करेंगी।”

बुढ़िया मां की बात सुनकर शीला बहुत प्रसन्न हुई। उसने पूछा, “मांजी श्री महालक्ष्मी जी का व्रत कैसे किया जाता है। यह मझे समझाकर कहो ! मैं इस व्रत को अवश्य करूंगी।

बुढ़िया ने कहा, बेटी, श्री महालक्ष्मी जी का व्रत बहुत ही सरल हे इसके करने से धन-सम्पत्ति, सुख वैभव और यश प्राप्त होता है। कुंवारी कन्या को मनचाहा पति मिलें, निसंतान को संतान हो, खोई हुई वस्तु वापस मिले। कोई अन्य मनोकामनाएं भी इस व्रत को करने से पूर्ण होती हैं। धन और वैभव प्रदान करने के कारण ही देवी महालक्ष्मी को धनलक्ष्मी को धनलक्ष्मी अथवा वैभवलक्ष्मी भी कहा जाता है।

शुक्रवार देवी का दिन होता है। इसलिए यह व्रत शुक्रवार को ही किया जाता है। व्रत करने वाले को सुबह स्नानादि से निवृत्त होकर भगवति ‘महालक्ष्मी मां जय वैभवलक्ष्मी मां’ का निरन्तर जाप करते रहना चाहिए। सायंकाल अपने घर के एक कोने में चौका लगाकर अथवा साफ करके एक पटड़ा रखो। उसके ऊपर एक साफ कपड़ा बिछाकर उस पर थोड़े से चावल रखो। फिर एक लोटे में जल उन चावलों के ऊपर रखो। लोटे के ऊपर एक कटोरी रखो। उस कटोरी में सोने या चांदी का कोई आभूषण रखो। अगर कोई आभूषण न हो तो एक रुपये का सिक्का भी कटोरी में रखा जा सकता है। इसके बाद एक घी का दीपक और धूपबत्ती जलाकर रखो। एक बर्तन में थोड़ा मीठा प्रसाद के रूप में रखो। प्रसाद में बताशे अथवा गुड़ भी रखे जा सकते हैं।

पटड़े के ऊपर लोटे के पास सोने, चांदी या तांबे पर बना श्रीयंत्र भी रखो। यदि धातु का श्रीयंत्र घर में न हो तो कागज पर छपे श्रीयंत्र को भी रखा जा सकता है। भगवती लक्ष्मी मां को ‘श्रीयंत्र’ अत्याधिक प्रिय है। “पूजा करने और कथा कहने के लिए पटड़े के पास पूर्व की और मुंह करे बैठो। सबसे पहले श्रीयंत्र को हाथ जोड़कर श्रद्धापूर्वक नमस्कार करो। फिर वैभवलक्ष्मी के ध्यान मंत्र को पढ़कर भगवती महालक्ष्मी जी की स्तुति करो। जिन्हें संस्कृत में भी ध्यान व मंत्र कहने में कठिनाई हो वे सरल भाषा में भी ध्यान व स्तुति कर सकते हैं। भगवती महालक्ष्मी दिखावे की नहीं बल्कि भाव की भूखी हैं। “इसके पश्चात कटोरी में रखे, आभूषण या रुपये पर हल्की

कुमकुम और चावल चढ़ाओ। फिर दोनों हाथों से लाल रंग के पुष्प अर्पित कर प्रसाद का भोग लगाओ और धूप व दीप दिखाओ पुनः लक्ष्मी जी का स्तुति करके लक्ष्मी-महिमा गाओ और आरती उतारो। फिर मन ही मन सच्चे हृदय से जय महालक्ष्मी मां’ का ग्यारह बार उच्चारण करो। इसके बाद ग्यारह या इक्कीस शुक्रवार को व्रत करने का संकल्प लेकर अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए मां से हाथ जोड़कर विनती करो। अंत में मां का प्रसाद बांट दो। थोड़ा सा प्रसाद अपने लिए रखो। बाद में कटोरी में रखा आभूषण रुपया और श्री यंत्र उठा कर रखो। लोटे का पानी तुलसी के पौधे पर चढ़ा दो।

‘इस दिन पूरे दिन उपवास रख कर सायं काल प्रसाद खाना चाहिए। यदि इतनी शक्ति न हो तो एक बार शाम को प्रसाद खाकर सादा वैष्णव भोजन कर सकते हैं ।

इस प्रकार इस व्रत को शास्त्रीय विधि के अनुसार करने से उसका फल अवश्य प्राप्त होता है। इस व्रत के प्रभाव से मनुष्य की सब विपत्तियां दूर होकर धन-वैभव की प्राप्ति होती है। कुंवारी कन्याओं को मनभावन पति मिलना है। सौभाग्यती स्त्रियों को सौभाग्य अखंड रहता है। निःसंतान दम्पत्ति को संतान की प्राप्ति होती है और भी कोई मनोकामना हो तो वह भी अवश्य पूरी होती है।”

शीला यह सब सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुई। उसने कहा, “मारजी, आपने यह जो श्री वैभवलक्ष्मी” के व्रत की विधि बताई है, उसे में अवश्य ही करूंगी। आप कृपा करके मुझे इसकी उद्यापन विधि भी समझाकर बताइये।” वृद्धा ने कहा, “बेटी इस व्रत की उद्यापन करने की विधि भी बहुत सरल है, ध्यान से सुनो। ग्यारह या इक्कीस, जितने शुक्रवार को ब्रत करने का संकल्प किया हो, उतने व्रत पूर्ण श्रद्धा” और भावनापूर्वक पूरे होने का अन्तिम शुक्रवार को उद्यापन किया जाता है। इस दिन पूजा विधि हर शुक्रवार को की गई पूजा विधि की तरह ही की जाती है। इस दिन प्रसाद के लिए नारियल गिरि और खीर का प्रसाद वितरित किया जाता है। प्रसाद के साथ कम से कम सात कुवारी या सौभाग्यवती स्त्रियों को कुमकुम का तिलक लगा कर ‘श्री वैभव लक्ष्मी व्रत कथा (Vaibhav Laxmi Vrat Katha) की एक-एक पुस्तक भेंट दी जाती है।

“अंत में फिर भगवती श्री महालक्ष्मी के विभिन्न स्वरूपों को श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़कर नमस्कार करो। और मन ही मन मां से प्रार्थना करो कि हे महालक्ष्मी मां हे धनलक्ष्मी मां ! हे वैभव लक्ष्मी मां ! मैंने सच्चे मन से आपका व्रत पूर्ण किया है। फिर भी मुझसे कोई गलती या अपराध हुआ हो उसे क्षमा करना और हमारी (जो भी आपकी मनोकामना हो उसे कहें की मनोकामना को पूर्ण करना। हमारा सबका कल्याण करना। हमारी विपत्तियों को दूर करके हमें धन-वैभव प्रदान करना। हे देवी मां। आपकी महिमा अपरम्पार है।”

बुढ़िया मां से श्री वैभवलक्ष्मी के व्रत की शास्त्रीय विधि सुनकर शीला का मन मयूर (जैसे) नाच उठा। उसे लगा मानो उसे मनमांगी मुराद मिल गई हो। उसने तत्काल अपनी आंखें बंद करके मन ही मन संकल्प लिया कि ‘हे वैभवलक्ष्मी मां ! मैं आपका इक्कीस शुक्रवार तक बुढ़िया मां द्वारा बताई गई शास्त्रीय विी के अनुसार व्रत और उद्यापन करूंगी।

इस प्रकार संकल्प करके जैसे ही शीला ने आंखें खोली तो वृद्धा मा को कमरे में नहीं पाया। उसने घर से बाहर आकर देखा किन्तु वहां भी उसे कहीं मांजी दिखाई न दी। उसे बहुत आश्चर्य हुआ कि थोड़ी ही देर में कहां गायब हो गई। वास्तव में वे साक्षात भगवती महालक्ष्मी र्थी जो अपनी भक्त शीला को बृद्धा का वेश रखकर रास्ता दिखाने आई थीं।

अगले ही दिन शुक्रवार था। शीला सुबह नहा धोकर मन ही मन जय महालक्ष्मी मां’ जय वैभव लक्ष्मी मां का जाप करने लगी। सायंकाल वह वैभव लक्ष्मी मां की पूजा करने बैठी। घर में कोई आभूषण तो था। नहीं, आभूषण के नाम पर उसकी नाक एकमात्र लॉग बाकी बची थी। उसने वही निकाल धोकर कटोरी में रखी। घर में थोड़ी शक्कर रखी थी, उसका प्रसाद बनाया और फिर बुढ़िया मां के द्वारा बताई गई शास्त्री। विधि के द्वारा वैभव लक्ष्मी माता पूजन किया। पूजन के पश्चात उसने प्रसाद अपने पति मनोज तथा अन्य लोगों को वितरित किया। अंत में स्वयं ग्रहण किया।

श्री वैभवलक्ष्मी मां का प्रसाद खाते ही मनोज के स्वभाव में परिवर्तन आने लगा। उसका चिड़चिड़ापन कम होने लगा और उसका मन कुटैबों से दूर होकर कारोबार जो पहले बिल्कुल ठप्प हो गया फिर से जमने लगा।

इक्कीसवें शुक्रवार को शीला ने बुढ़िया मां द्वारा बताई शास्त्रीय विधि के अनुसार उद्यापन किया और ग्यारह स्त्रियों को श्री वैभवलक्षमी व्रत की पुस्तकें भेंट में दी। फिर भगवती महालक्ष्मी के वैभव लक्ष्मी स्वरूप को मन ही मन प्रणाम कर प्रार्थना की कि हे वैभवलक्ष्मी मां. मैंने आपके व्रत की जो मनौती मानी थी वह आज पूर्ण हुई है। हे मां ! हमारे संकटों को दूर कर हमारा कल्याण करो। जाने अनजाने में यदि कोई हमसे अपराध हुआ हो, उसे क्षमा करना मां। हमें धन सम्पत्ति और वैभव प्रदान करना। हमें सद्बुद्धि देना। हे मां आपकी महिमा अपरम्पार है, आपकी सदा जय हो।

इस प्रकार व्रत सम्पूर्ण होने के बाद कुछ ही दिनों में मनोज के कारोबार में अच्छा लाभ होने लगा। उसने शीला को उसके जेवर बापस दिला दिये और घर में पहले जैसी सुख शान्ति आ गई। श्री वैभवलक्ष्मी मां के प्रताप को देखकर अन्य बहुत सी औरतों ने भी उनका विधिपूर्वक व्रत किया और मनभावन फल प्राप्त किये।

हे महालक्ष्मी मां, हे वैभवलक्ष्मी मां जैसे आपने शीला पर कृपा की ऐसे ही अपने अन्य भक्तों पर भी कृपा करना सबका कल्याण करना, उनको सुख शान्ति, प्रदान करना।

॥ बोलो श्री वैभवलक्ष्मी की जय ॥

श्री वैभव लक्ष्मी मां के चमत्कार

चोरी का लांछन दूर हुआ

मालती का विवाह एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। घर में किसी वस्तु की कमी न थी। पति व ससुर भी उसे बहुत चाहते थे। किन्तु अपनी सास से उसके ग्रह-गोचर नहीं मिलते थे। उसकी सास उसके काम में कमी ढूंढती और शोर मचाती पर उसके पति और ससुर हमेशा मालती का ही पक्ष लेते। इस पर सासुजी और कुढ़ जाती।

इसी प्रकार मालती का विवाह को दो ढाई वर्ष गुजर गये। जब मालती न तो अपनी सासु से अधिक बातें करती और न ही उसके कहे सुने पर ध्यान ही देती। उसकी सास अब भी उसे सबकी नजरों में गिराने की कोशिश में लगी रहती। किन्तु उसकी दाल नहीं गल रही थी।

एक दिन उसकी सास ने कुटिल चाल चली। घर की ताले कुजियों पर सास बहू दोनों का बराबर का अधिकार था। सास ने मालती पर आभूषणों की चोरी का लांछन लगाकर सबकी नजरों में गिराने का विचार किया। मालती को इन सब बातों की कल्पना भी नहीं थी।

मालती एक दिन अपने पति और ससुर से पूछकर और सास को बताकर दो दिन के लिए पीहर चली गई। पीछे सास ने अल्मारी से बहुत सारे आभूषण निकालकर एक प्लास्टिक की पन्नी में अच्छी प्रकार लपेट कर घर के समीप ही एक कच्ची जमीन में गड़ढा खोदकर रात में दबा दिये। तीसरे दिन जब मालती घर आई तो सास ने उससे आभूषणो के बारे में पूछा। उसे तो उसके बारे में कुछ पता ही न था, वह क्या बताता। अब तो सास की बन आई। उसने शोर मचाकर उस पर लांछन लगाया कि ‘तू क्या बतायेगी, तू उन्हें अपने पीहर में जो रख आई है। परसों सुबह तो सब आभूषण अल्मारी में ही थे। तब से न तो मैं कहीं घर से

बाहर गई हूं और न ही कोई घर में आया है। केवल तू ही अपने पीहर गई है। तो अगर तू भी नहीं ले गई तो क्या उन्हें भूत-प्रेत उठा ले गये अब तो उसके पति और ससुर को भी उस पर कुछ शक सा होने लगा। किन्तु वे बोले कुछ नहीं। यह बात घर से बाहर निकल कर पास पड़ोस से होती हुई रिश्तेदारियों तक फैलने लगी और मालती की बदनामी होने लगी। मालती इस झूठे लांछन से बहुत दुःखी और परेशान थी। उसके पति भी उससे कुछ रुखा-रुखा सा व्यवहार करने लगे थे। औरों के व्यवहार को तो वह सहन भी कर लेती पर पति का ये व्यवहार उसे असहनीय हो रहा था।

एक दिन मालती की एक सहेली उससे मिलने आई। उसे दुखी. देखकर सहेली ने कहा कि मालती तू वैभव व्रत का संकल्प लेकर ग्यारह या इक्कीस व्रत कर मां वैभव लक्ष्मी अवश्य तेरा दुख दूर करेंगी। ऐसा कहकर उसने उसे व्रत की विधि बताई और बाजार से एक श्री वैभव लक्ष्मी व्रत कथा की पुस्तक खरीद कर दी।

मालती ने अगले ही शुक्रवार को श्री वैभव लक्ष्मी के ग्यारह व्रत करने का संकल्प लिया। अभी उसे व्रत करते हुए दो ही शुक्रवार हुए थे कि एक दिन थाने से सिपाही उन्हें बुलाने आया। मालती ने अपने थे पति और ससुर को टेलिफान करक काम से बुलाया। जब वे थाने पहुंच तो पता चला कि एक रद्दी कागज बीनने वाले लड़के के पास कुछ जेवर मिले है। उन्हें पहचान लिये, ये सब उन्हीं के गुम हुए आभूषण था पूछने पर पता चला कि वह लड़का रद्दी कागज बीनता हुआ जब उसके घर के पास घूम रहा था तो उसे मिट्टी में एक प्लास्टिक की पन्ना दबी दिखाई पड़ी। जब उसने उसे निकाला तो उसमें जेवर थे। उन्हें अपने थैले में डाल कर घह जैसे ही गली में से निकला उसे सामने ही पुलिस की गाड़ी दिखाई दी। पुलिस देखकर वह घबरा गया। तलाशी लेने पर उसके पास जेवर प्राप्त हो गये वे उन्हें लेकर थाने आ गये। थानेदार द्वारा यह पूछने पर कि जेवर जमीन में कैसे आये? मालती की सास ने स्वयं ही स्वीकार कर लिया कि चोरी होने के डर से उसने ही जेवर जमीन में गाड़े थे।

इस प्रकार वैभव लक्ष्मी मां की कृपा से मालती पर लगा लांछन समाप्त हुआ और श्रद्धापूर्वक ग्यारह व्रत पूरे करके उद्यापन में 51 प्रतियाँ श्री वैभव लक्ष्मी व्रत कथा की वितरित कीं।

लड़की का विवाह हुआ

रेवती एक मध्यवर्गीय परिवार की स्त्री थी। उसकी बेटी मंजू बड़ी हो चुकी थी। उसने बी.ए. कर लिया था। किन्तु उसकी शादी नहीं हो पा रही थी। कारण एक तो वह सावंली थी, दूसरे उसके लिए भारी दहेज देने की शक्ति उसके परिवारकी नहीं थी।

धीरे-धीरे से पढ़ाई छोड़े भी दो तीन वर्ष गुजर गये। माता पिता भी उसके लिए वर ढूंढते-ढूंढते परेशान हो गये। एक दिन रेवती की ननद उनके घर आई। उसने देवता से पूछा-क्यों भाभी, अभी तक मंजू के लिए कोई लड़का नहीं मिला क्या?

रेवती क्या जवाब देती है। वह रूंआसी हो गई। ननद उसे सांत्वना देती हुई बोली-भाभी चिंता मत करो, मैं तुम्हें एक उपाय बताती हूँ। तुम भी वैभव लक्ष्मी का ग्यारह या इक्कीस व्रत करने का संकल्प लो सब कुछ महालक्ष्मी मैया पर छोड़ दो। वे सब भली करेंगी। मेरे पास श्री वैभव लक्ष्मी व्रत कथा की एक पुस्तक हैं। इसमें पूरी शास्त्रीय विधि लिखी है। वह मैं तुम्हें देती हूं।

ननद से पुस्तक लेकर रेवती ने इक्कीस व्रत श्री वैभव लक्ष्मी के करने की मन्नत मानी। दूसरे शुक्रवार को ही उनके किसी रिश्तेदार ने एक लड़का बताया। अच्छा खाता पीता परिवार था। लड़के ने एम. ए. करने के बाद कोई व्यापार शुरू किया था। वह पढ़ी लिखी समझदार लड़की चाहता था जो उसके व्यापार में हाथ बंटा सके। रेवती क परिवार को लड़का पसन्द आ गया। लड़के ने भी मंजू को देखा, उससे बातचीत की। उसे व्यवहार कुशल जानकर उसने तुरंत हां भर दी। दो-तीन माह में ही रेवती ने मंजु का विवाह कर दिया। आज वह बहुत सुखी है।

इक्कीसवां शुक्रवार आने पर रेवती ने पूर्ण श्रद्धा और भक्तिभाव से श्री वैभवलक्ष्मी मां का उद्यापन किया और 21 श्री वैभव लक्ष्मी व्रत कथा का लिंक शेअर किया। ऐसा है ‘श्री वैभवलक्ष्मी मां’ के व्रत का चमत्कार।

वैभव लक्ष्मी व्रत कथा से संतान हुई

उषा के विवाह को हुए आठ नौ वर्ष हो गये थे, लेकिन उसके कान बच्चे की किलकारी सुनने को भी तरस रहे थे इस बीच उसने टोने-टोटके, झाड़-फूंक, गंडे ताबीज यानि जिसने जो बताया वह सब कर लिया। फिर भी उसकी कोख सूनी की सूनी रही।

उसकी सास उसे बात-बात पर बांझ होने का ताना देती और उसके पति पर दूसरा विवाह करने के लिए दबाव डालती। कहती तेरी बहू तो बांझ है, इससे तो तेरी वंश बेल ही समाप्त हो जाएगी। तू कहे तो मैं दूसरी बहू ले आंऊ जिससे तेरा नाम चल सके। सास की इन बातों से उषा बहुत दुखी और चिंतित रहती थी।

एक दिन उषा के घर के पास एक मंदिर में कीर्तन हो रहा था। उषा भी कीर्तन में गई हुई थी। पर उसका मन कीर्तन में नहीं लग रहा था। उसके पास बैठी एक वृद्धा ने उसकी स्थिति देख उसकी परेशानी का कारण पूछा। उसके बताने पर वृद्धा बोली, ‘बेटी तुम वैभवलक्ष्मी मां के ग्यारह या इक्कीस व्रत करो। मां तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूरी करेगी।

उषा ने बाजार से वैभव लक्ष्मी व्रत कथा की पुस्तक खरीदी और फिर इक्कीस व्रत करने का संकल्प किया। एक दिन भगवती वैभवलक्ष्मी की प्रेरणा से वह अस्पताल गई। वहाँ की बड़ी डाक्टरनी ने उसकी विशेष जांच पड़ताल की। फिर उन्होंने उसके पति को बुलाकर उसका भी पूर्ण डाक्टरी मुआयना किया और फिर दोनों का तीन माह तक नियमित इलाज चला।

उषा इससे पूर्व भी दो बार इस अस्पताल में स्वयं को दिखा चुकी थी उस समय उसे थोड़ी जांच करके टरका दिया गया था इस बार हाक्टरों ने उनका तीन माह तक इलाज के बाद आश्वासन दिया विशेष। उषा ने इक्कीसर्वे शुक्रवार को पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ मां का उद्यापन करने के तीसरे माह में श्री वैभवलक्ष्मी मां के प्रताप से वह गर्भवती हुई। इस दौरान वह गर्भ गीता का पाठ भी करती रही। समय आने पर उसके पुत्र उत्पन्न हुआ। उषा के पति और सास ने विशेष खुशियां मनाई। एक शुक्रवार को उषा ने पुनः श्री वैभव लक्ष्मी मां का व्रत किया और पूजा करते हुए अपने पुत्र को उनके चरणों में लिटा दिया और आशीर्वाद ग्रहण किया। उन्होंने मां की कृपा मानकर अपने बच्चे का नाम वैभव सिंह रखा। जैसी मां ने उषा पर कृपा की वैसे ही सब पर करे।

अच्छी नौकरी प्राप्त हुई

कमला के पुत्र गजेन्द्र ने जब एम.एस.सी. अच्छे नम्बरों से पास की कि तो सारे घर में खुशियां छा गई। अब गजेन्द्र ने नौकरी के लिए भागदौड़ शुरू कर दी। रोजगार कार्यालय में भी नाम लिखा दिया। आशा थी कि अच्छे नम्बरों से एम.एस.सी. पास की है, अतः कहीं न कहीं नौकरी मिल ही जाएगी पर उसकी कहीं सिफारिश नहीं थी और न ही किसी को रिश्वत देने के लिए धन ही था। गजेन्द्र को नौकरी ढूंढते-ढूंढते एक वर्ष से अधिक हो गया। पर अभी तक कोई नौकरी न मिली थी। किसी की समझ में नहीं आ रहा पी। कि क्या करें क्या न करें।

तभी कमला ने किसी पड़ोसन से वैभव लक्ष्मी व्रत कथा के बारे में सुना। उसने मां के ग्यारह व्रत का संकल्प लिया और पड़ोसन से श्री वैभव लक्ष्मी व्रत कथा की पुस्तक मांग कर विधिपूर्वक यह व्रत प्रारम्भ किया। इसके साथ ही उसने ‘जय महालक्ष्मी मां’ ‘जय धनलक्ष्मी मां जय महालक्ष्मी मां का निरंतर जाप भी प्रारम्भ किया। तीन चार दिन में उसे एक बड़ा लिमिटेड फर्म से साक्षात्कार पत्र प्राप्त हुआ। दो माह के अंदर ही उसे उस फर्म में नियुक्ति पत्र प्राप्त हो गया।

इस प्रकार कमला का उद्यापन पूरे होने तक गजेन्द्र को नौकरी प्राप्त हुई। गजेन्द्र और उसकी मां ने पूर्ण श्रद्धाभक्ति से व्रत कथा की पुस्तकें बांटी। इस प्रकार श्री वैभवलक्ष्मी मां के प्रताप से गजेन्द्र को अच्छी नौकरी प्राप्त हुई।

व्यापार में वृद्धि हुई

श्री अशोक कुमार का रेडीमेड कपड़ों का बहुत बड़ा और अच्छा कारखाना था। काफी अच्छी आमदनी थी। छोटा सा उसका परिवार था। उसकी पत्नी राधा और दो बच्चे थे। उनकी पत्नी बहुत सुशील और धर्मभीरू थी। दोनों बच्चे पब्लिक स्कूल में पढ़ रहे थे।

अचानक अशोक का भाग्य धोखा दे गया। एक दिन रात को जब कारखाना बंद था उसमें बिजली के शोर्ट सर्किट से आग लग गई। कारखाने में लाखों रुपये का कपड़ा और सिले-सिलाए वस्त्र थे। वे सब और सिलाई की मशीने तक हिसाब-किताब के सब कागजात जल कर राख हो गये। वह तो लगभग बर्बाद ही हो गया। इस अपूर्णिय क्षति से वह टूट गया। उसका किसी काम में मन नहीं लगता था। उसकी पत्नी राधा ने अपने पति को बहुत सांत्वना दी घर में रख कुछ धन जेवर बेचकर उसने कारखाने के लिए कुछ मशीनें भी खरीदवा दी। किन्तु फिर भी काम जम नहीं पाया।

एक दिन राधा की पड़ोसन ने श्री वैभवलक्ष्मी व्रत का उद्यापन किया था। उसने राधा को तिलक लगाकर वैभवलक्ष्म व्रत कथा की एक पुस्तक भेंट की। और खीर नारियल गिरी का प्रसाद दिया। वहां सब औरतों ने मां वैभव लक्ष्मी व्रत कथा के प्रताप और चमत्कारों के बारे में चर्चा की। तत्पश्चात सब अपने-अपने घर को चली गई।

श्री वैभवलक्ष्मी मां की अपूर्व कृपा जानकर राधा बहुत प्रभावित हुई। उसने पुस्तक को पूर्ण रूप से पढ़ा और फिर स्वयं भी उनका व्रत करने का निर्णय लिया। अगले ही शुक्रवार से इक्कीस शुक्रवार श्री वैभवलक्ष्मी व्रत करने की मनौती मानकर व्रत प्रारम्भ कर दिये।

दूसरे शुक्रवार से ही व्रत का प्रभाव दिखाई देने लगा। अशोक का मन अपने काम में लगने लगा और कारखाने में भी काम की गति बढ़ने लगी। पांचवे शुक्रवार को अशोक को एक नई पार्टी मिली जिसने उसे एक्सपोर्ट क्वालिटी के कपड़ों का एक बड़ा आर्डर दिया। इस काम में बचत दूसरे कामों से अच्छी थी। इस प्रकार इक्कीस शुक्रवार बीतने तक उसका व्यापार पहले से भी अधिक उन्नति कर गया। अशोक पूरे आत्म विश्वास मेहनत और लगन से अपने कारोबार को संभालने लगा था। राधा ने इक्कीसवे शुक्रवार को पूरे विधि-विध न और श्रद्धा भक्ति से श्री वैभवलक्ष्मी मां के व्रत का उद्यान किया और श्री वैभव लक्ष्मी व्रत कथा की अपने पास-पड़ोस और रिश्तेदारों में बाँटी।

जैसी ही वैभवलक्ष्मी मां ने अशोक और राधा पर कृपा दृष्टि की वैसी ही मां सब पर प्रसन्न होकर कृपा करें।

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असाध्य रोग से मुक्ति मिली

रत्ना एक छोटे से गांव में रहती थी। उसके घर में खेती-बारी ठीक थी। अतः खानपान में कोई कमी नहीं थी। घर में 2 गायें और 1 भैस थी। अतः घी, दूध की भी कोई कमी नहीं थी। रत्ना के एक पुत्र और दो पुत्रियां थी। उसका पुत्र जब 11 वर्ष का था तब उसे किसी बीमारी ने घेर लिया।

उसे पड़ोस के गांव के एक वेद्य को दिखाया गया कई दिन क इलाज के बाद भी स्थिति सुधरने के बजाय बिगड़ती गई। इस बीच झाड फुंक और ऊपरी हवा के लिए ओझा को भी दिखाया। पर कहीं भी लाभ नहीं हुआ। हारकर निकट के शहर में एक डाक्टर को दिखाया। डाक्टर ने भी कई दिन दवाई बदल-बदल कर दी। पर उससे भी कोई विशेष अंतर दिखाई नहीं दिया।

एक दिन रत्ना और उसका पति अपने पुत्र को जब शहर लेकर जा रहे थे तो रास्ते में उन्हें एक स्त्री मिली। स्त्री को बच्चे की दयनीय हालत देखकर बहुत दया आई। रत्ना ने जब बताया कि इस पर कोई दवाई असर नहीं कर रही है तो औरत ने कहा कि बहन अगर तुम मानो तो मैं एक उपाय बताऊं। रत्ना बोली, “बहन, मेरा तो यही एकमात्र पुत्र है। इसके लिए मैं भारी से भारी कप्ट उठाने को तयार हूँ।” बहन स्त्री बोली, “बहन, भारी तो नहीं, बहुत सरल सा उपाय ह। तुम भगवती मां वैभव लक्ष्मी के 11 या 21. शुक्रवार का व्रत करने की मन्नत मानो। इसके व्रत कथा की पुस्तक बाजार में मिलती है। उसमें व्रत व उद्यापन की सब विधि है। मुझे पूरा विश्वास है कि मां भगवती वैभव लक्ष्मी इसे अवश्य अच्छा करेंगी।

रत्ना ने उसी समय श्री वैभवलक्ष्मी मां के ग्यारह व्रत करने की मन्नत मानी। शहर में जाकर उसने पहले श्री वैभवलक्ष्मी व्रत कथा की पुस्तक खरीदी फिर वे डाक्टर के पास पहुंचे। डाक्टर ने वही वाली दवाई दो दिन के लिए ओर दे दी।

इस दवाई से पहले थोड़ा सा भी फर्क नहीं आया था। किन्तु अव पहली खुराक लेते ही आराम दिखाई देने लगा। दो दिन से उसे बहुत फायदा हुआ। डाक्टर ने अब दवाई आगे दे दी। इस बीच शुक्रवार आने पर रत्ना ने व्रत रखा और पुस्तक में लिखी शास्त्रीय विधि से पूजा की उसका पुत्र पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गया।

रत्ना ने श्रद्धा और विश्वासपूर्वक श्री वैभवलक्ष्मी मां के ग्यारह व्रत पूरे किये और उद्यापन में 21 लोगों को श्री वैभव लक्ष्मी व्रत कथा बांटी।

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ऐसी है श्री वैभवलक्ष्मी मां की महिमा

श्री वैभव लक्ष्मी व्रत में आरती करने के बाद इस श्लोक का पठन करने से शीघ्र फल मिलता है-

यत्राभ्यागवदानमान चर प्रक्षालनं भोजनं।
सत्सेवा पितृदेवार्चन विधि: सत्यंगवां पालनम्॥
धान्या नामपि सग्रहो न कलहश्चित्त्ता तृरूपा प्रिया।
दृष्टा प्रहा हरि वसामि कमला तस्मिन् गृहे निष्फला॥

भावार्थ – जहां मेहमान की आव-भगत करने में आती है… उनको भोजन कराया जाता है, जहां सज्जनों की सेवा की जाती है, जहाँ निरंतर भाव से भगवान की पूजा और अन्य धर्मकार्य किए जाते हैं, जहाँ सत्य का पालन किया जाता है, जहाँ गलत कार्य नहीं होते, जहाँ गायों की रक्षा होती है, जहाँ दान देने के लिए धान्य का संग्रह किया जाता है, जहाँ क्लेश नहीं होता, जहाँ पत्नी संतोषी और विनयी होती है, ऐसी जगह पर मैं सदा निश्चल रहती हूं। इनके सिवाय किसी जगह पर कभी कभार दृष्टि डालती हूं।

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सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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