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खुदा की अक्ल से पहचान करो

“खुदा की अक्ल से पहचान करो” कहानी में बताया गया है कि कैसे अकबर-बीरबल के ज़माने में यह कहावत बनी। अन्य कहानियाँ यहाँ पढ़ें – अकबर-बीरबल की कहानियां

बादशाहों की सभा में चित्रकारों के रहने की पुरानी प्रणाली है। अकबर बादशाह के दरबार में भी नियम-परम्परा के अनुसार कई चित्रकार विद्यमान थे। उनमें एक सर्वप्रधान था। वह प्रति चित्र के बनवाई में पाँच हजार पुरस्कार लेता था।

एक दिन उस चित्रकार के पास एक बड़ा आदमी आया और बोला, “महाशय जी! मुझे भी अपनी चित्र बनवानी है। यदि आप उसे सर्वांगपूर्ण बना सकेंगे, तो मैं आपको पन्द्रह हजार रुपया इनाम दूंगा। चित्रकार सहमत हो गया और दूसरे ही दिन से चित्र बनाना शुरू किया। इस काम के सम्पादन में उसे कई मास का अरसा लगा।

जब चित्र उसकी इच्छानुकूल तय्यार हो गया, तो उसे लेकर रईस के पास गया। वह चित्र को लेकर अपने चेहरे से भली-भाँति मिलान किया। उसमें एक स्थान पर ऐब रह गया था। साहूकार ने चित्रकार को उसे दिखलाया। वह विवश होकर दूसरा चित्र बना लाने का वचन देकर खाली हाथ लौट गया और फिर से चित्र बनाना प्रारम्भ किया। इस बार पहले से भी अधिक तत्परता से चित्र तय्यार किया। उसका विश्वास था कि इस मर्तबा साहूकार को चित्र पसंद आ जायगा। दूसरे दिन फिर चित्र को लेकर साहूकार के पास पहुँचा और पुरस्कार का दावी हुआ।

भलेमानस ने चित्र का फिर से मिलान किया। फिर भी उसके गोड़ में ऐब रह गया था। इसी प्रकार सेठ और कई बार चित्रकार को मूर्ख बनाकर लौटा चुका था। मनुष्य अपनी कामयाबी के लिये बार-बार परिश्रम करता है। जब करते-करते थक जाता है, तो उसकी हिम्मत छूट जाती है और फिर उसके किये वह काम नहीं होता। इसी प्रकार वह चित्रकार भी अपनी नाकामयाबी से हताश हो गया और अपनी अपकीर्ति जन समुदाय में बढ़ने के भय से गंगा में डूब मरने का संकल्प किया।

जिस समय गंगा तट पर पहुँचकर वह आत्मविसर्जन का उपाय सोच रहा था, उसी समय हरेच्छा से बीरबल नामी एक ब्राह्मण का दीन लड़का भी वहाँ उपस्थित था। लड़का चित्रकार के मनोगत भावों को ताड़ गया और उसे ढाढ़स देने के विचारसे पूछा, “महाशय जी, आप इतना चिन्ताग्रस्त क्यों दिखाई पड़ते हैं? जान पड़ता है चिन्ता रूपी साँपिन ने आपको डस लिया है? कृपाकर मुझसे अपने दुख का कारण साफ-साफ बतलाइये। मैं यथाशक्य उसके निवारण का प्रयत्न करूंगा।”

बालक के ऐसे विनम्र वचनों से चित्रकार की जीवन आशा पुनः जागृत हुई और अपना दुःखद समाचार कहकर सुनाया। लड़का बोला, “आप इस थोड़ी-सी बात के लिये इतना अधीर क्यों हो रहे हैं? धैर्य धारण कीजिये, मैं उसका तद्रूप चित्र बना दूंगा और फिर उसे ऐब दिखलाने का अवसर न मिलेगा। केवल थोड़ा और परिश्रम कर मुझसे उसका साक्षात्कार करा दें।”

चित्रकार लड़के को साथ लेकर उस रईस के पास गया। बीरबल उस रईस को फाँसने के लिये रास्ते में ही एक तरकीब सोच चुका था। वह बाजार से एक शीशा खरीदकर अपने साथ लेता गया। चित्रकार को देखकर उक्त रईस ने पूछा, “क्या दूसरा चित्र तय्यार हो गया?” बीरबल ने उत्तर दिया, “हाँ, तैयार करके लाया है।”

चित्रकार ने आगे बढ़कर रईस को अपना दर्पण दिखलाया। दर्पण में रईस को अपना स्वरूप ठीक ठीक दीख पड़ा, फिर उसे आना कानी करने की कोई दूसरी तरकीब नहीं सूझी। लाचार होकर कौल के अनुसार पन्द्रह हजार रुपये देने पड़े। चित्रकार बीरबल की ऐसी युक्ति से बड़ा सन्तुष्ट हुआ।

वह रुपया लेकर घर लौट गया। परन्तु बीरबल रईस का चरण पकड़कर बोला, “भगवन्! मैं आपको अब नहीं छोडूंगा, क्योंकि आप मुझे मनुष्य के रूप में देवता जान पड़ते हैं।” बीरबल की हठधर्मी से विवश होकर देवता ने प्रत्यक्ष होकर दर्शन दिया और उसको बुद्धि बढ़ने का आशीर्वाद दिया। फिर बीरबल को सन्तुष्ट कर देवता अन्तर्ध्यान हो गये। चित्र में बारंबार दोष निकालते देखकर बीरबल ने देवता को पहचान लिया था। उसी समय से लोगों की आँखे खुल गई और ऐसी जनश्रुति चल पड़ी, “खुदा की अक्ल से पहचान करो।”

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