चैत्र में रामायण श्रवण का माहात्म्य – चौथा अध्याय
“चैत्र में रामायण श्रवण का माहात्म्य” नामक अध्याय में पढ़ें कलिक नामक व्याध और उत्तङ्क मुनिकी कथा व जानें चैत्र में रामकथा के पठन और श्रवण का महत्व।
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नारदजी कहते हैं—महर्षियो! अब मैं रामायणके पाठ और श्रवणके लिये उपयोगी दूसरे मासका वर्णन करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो। रामायणका माहात्म्य समस्त पापोंको हर लेनेवाला, पुण्यजनक तथा सम्पूर्ण दु:खोंका निवारण करनेवाला है। वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा स्त्री—इन सबको समस्त मनोवाञ्छित फल प्रदान करनेवाला है। उससे सब प्रकारके व्रतोंका फल भी प्राप्त होता है। वह दु:स्वप्नका नाशक, धनकी प्राप्ति करानेवाला तथा भोग और मोक्षरूप फल देनेवाला है। अत: उसे प्रयत्नपूर्वक सुनना चाहिये॥ १—३ ॥
इसी विषयमें विज्ञ पुरुष एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण देते हैं। वह इतिहास अपने पाठकों और श्रोताओंके समस्त पापोंका नाश करनेवाला है॥ ४ ॥
प्राचीन कलियुगमें एक कलिक नामवाला व्याध रहता था। वह सदा परायी स्त्री और पराये धनके अपहरणमें ही लगा रहता था॥ ५ ॥
दूसरोंकी निन्दा करना उसका नित्यका काम था। वह सदा सभी जन्तुओंको पीड़ा दिया करता था। उसने कितने ही ब्राह्मणों तथा सैकड़ों, हजारों गौओंकी हत्या कर डाली थी॥ ६ ॥
पराये धनका तो वह नित्य अपहरण करता ही था, देवताके धनको भी हड़प लेता था। उसने अपने जीवनमें अनेक बड़े-बड़े पाप किये थे॥ ७ ॥
उसके पापोंकी गणना करोड़ों वर्षोंमें भी नहीं की जा सकती थी। एक समय वह महापापी व्याध, जो जीव-जन्तुओंके लिये यमराज के समान भयंकर था, सौवीरनगरमें गया। वह नगर सब प्रकारके वैभवसे सम्पन्न, वस्त्राभूषणोंसे विभूषित युवतियोंद्वारा सुशोभित, स्वच्छ जलवाले सरोवरोंसे अलंकृत तथा भाँति-भाँतिकी दूकानोंसे सुसज्जित था। देवनगरके समान उसकी शोभा हो रही थी। व्याध उस नगरमें गया॥ ८-९ १/२ ॥
सौवीरनगरके उपवनमें भगवान् केशवका बड़ा सुन्दर मन्दिर था, जो सोनेके अनेकानेक कलशोंसे ढका हुआ था। उसे देखकर व्याधको बड़ी प्रसन्नता हुर्इ। उसने यह निश्चय कर लिया कि मैं यहाँसे बहुत-सा सुवर्ण चुराकर ले चलूँगा॥ १०-११ ॥
ऐसा निश्चय करके वह चोरीपर लट्टू रहनेवाला व्याध श्रीरामके मन्दिरमें गया। वहाँ उसने शान्त, तत्त्वार्थवेत्ता और भगवान्की आराधनामें तत्पर उत्तङ्क मुनिका दर्शन किया, जो तपस्याकी निधि थे। वे अकेले ही रहते थे। उनके हृदयमें सबके प्रति दया भरी थी। वे सब ओरसे नि:स्पृह थे। उनके मनमें केवल भगवान्के ध्यानका ही लोभ बना रहता था॥ १२-१३ ॥
उन्हें वहाँ उपस्थित देख व्याधने उनको चोरीमें विघ्न डालनेवाला समझा। तदनन्तर जब आधी रात हुर्इ, तब वह देवतासम्बन्धी द्रव्यसमूह लेकर चला॥ १४ ॥
उस मदोन्मत्त व्याधने उत्तङ्क मुनिकी छातीको अपने एक पैरसे दबाकर हाथसे उनका गला पकड़ लिया और तलवार उठाकर उन्हें मार डालनेका उपक्रम किया॥ १५ ॥
उत्तङ्कने देखा व्याध मुझे मार डालना चाहता है तो वे उससे इस प्रकार बोले॥ १५ १/२ ॥
उत्तङ्कने कहा—ओ भले मानुष! तुम व्यर्थ ही मुझे मारना चाहते हो। मैं तो सर्वथा निरपराध हूँ॥ १६ ॥
लुब्धक! बताओ तो सही, मैंने तुम्हारा क्या अपराध किया है? संसारमें लोग अपराधीकी ही प्रयत्नपूर्वक हिंसा करते हैं। सौम्य! सज्जन निरपराधकी व्यर्थ हिंसा नहीं करते हैं॥ १७ १/२ ॥
शान्तचित्त साधु पुरुष अपने विरोधी तथा मूर्ख मनुष्योंमें भी सद्गुणोंकी स्थिति देखकर उनके साथ विरोध नहीं रखते हैं॥ १८ १/२ ॥
जो मनुष्य बारम्बार दूसरोंकी गाली सुनकर भी क्षमाशील बना रहता है, वह उत्तम कहलाता है। उसे भगवान् विष्णुका अत्यन्त प्रियजन बताया गया है॥
दूसरोंके हित-साधनमें लगे रहनेवाले साधुजन किसीके द्वारा अपने विनाशका समय उपस्थित होनेपर भी उसके साथ वैर नहीं करते। चन्दनका वृक्ष अपनेको काटनेपर भी कुठारकी धारको सुवासित ही करता है॥
अहो! विधाता बड़ा बलवान् है। वह लोगोंको नाना प्रकारसे कष्ट देता रहता है। जो सब प्रकारके संगसे रहित है, उसे भी दुरात्मा मनुष्य सताया करते हैं॥
अहो! दुष्टजन इस संसारमें बहुत-से जीवोंको बिना किसी अपराधके ही पीड़ा देते हैं। मल्लाह मछलियोंके, चुगलखोर सज्जनोंके और व्याध मृगोंके इस जगत्में अकारण वैरी होते हैं॥ २३ ॥
अहो! माया बड़ी प्रबल है। यह सम्पूर्ण जगत्को मोहमें डाल देती है तथा स्त्री, पुत्र और मित्र आदिके द्वारा सबको सब प्रकारके दु:खोंसे संयुक्त कर देती है॥
मनुष्य पराये धनका अपहरण करके जो अपनी स्त्री आदिका पोषण करता है, वह किस कामका; क्योंकि अन्तमें उन सबको छोड़कर वह अकेला ही परलोककी राह लेता है॥ २५ ॥
‘मेरी माता, मेरे पिता, मेरी पत्नी, मेरे पुत्र तथा मेरा यह घरबार’—इस प्रकार ममता व्यर्थ ही प्राणियोंको कष्ट देती रहती है॥ २६ ॥
मनुष्य जबतक कमाकर धन देता है, तभीतक लोग उसके भार्इ-बन्धु बने रहते हैं और उसके कमाये हुए धनको सारे बन्धु-बान्धव सदा भोगते रहते हैं; किंतु मूर्ख मनुष्य अपने किये हुए पापके फलरूप दु:खको अकेला ही भोगता है॥ २७ १/२ ॥
उत्तङ्क मुनि जब इस प्रकार कह रहे थे, तब उनकी बातोंपर विचार करके कलिक नामक व्याध भयसे व्याकुल हो उठा और हाथ जोड़कर बारम्बार कहने लगा—‘प्रभो! मेरे अपराधको क्षमा कीजिये’॥
उन महात्माके संगके प्रभावसे तथा भगवान्का सांनिध्य मिल जानेसे उस लुब्धकके सारे पाप नष्ट हो गये तथा उसके मनमें निश्चय ही बड़ा पश्चात्ताप होने लगा॥
वह बोला—‘विप्रवर! मैंने जीवनमें बहुत-से बड़े-बड़े पाप किये हैं; किंतु वे सब आपके दर्शनमात्रसे नष्ट हो गये॥ ३० १/२ ॥
‘प्रभो! मेरी बुद्धि सदा पापमें ही डूबी रहती थी। मैंने निरन्तर बड़े-बड़े पापोंका ही आचरण किया है। उनसे मेरा उद्धार किस प्रकार होगा? मैं किसकी शरणमें जाऊँ॥ ३१ १/२ ॥
‘पूर्वजन्मके किये हुए पापोंके फलसे मुझे व्याध होना पड़ा है, यहाँ भी मैंने पापोंके ही जाल बटोरे हैं। ये पाप करके मैं किस गतिको प्राप्त होऊँगा?’॥ ३२ १/२ ॥
महामना कलिककी यह बात सुनकर ब्रह्मर्षि उत्तङ्क इस प्रकार बोले॥ ३३ १/२ ॥
उत्तङ्कने कहा—महामते व्याध! तुम धन्य हो, धन्य हो, तुम्हारी बुद्धि बड़ी निर्मल और उज्ज्वल है; क्योंकि तुम संसारसम्बन्धी दु:खोंके नाशका उपाय जानना चाहते हो॥ ३४ १/२ ॥
चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में तुम्हें भक्तिभावसे आदरपूर्वक रामायण की नवाह कथा सुननी चाहिये। चैत्र में रामायण श्रवण का माहात्म्य अनन्त है। उसके श्रवणमात्रसे मनुष्य समस्त पापोंसे छुटकारा पा जाता है॥ ३५-३६ ॥
उस समय कलिक व्याधके सारे पाप नष्ट हो गये। वह रामायणकी कथा सुनकर तत्काल मृत्युको प्राप्त हो गया॥ ३७ ॥
व्याधको धरतीपर पड़ा हुआ देख दयालु उत्तङ्क मुनि बड़े विस्मित हुए। फिर उन्होंने भगवान् कमलापतिका स्तवन किया॥ ३८ ॥
रामायणकी कथा सुनकर निष्पाप हुआ व्याध दिव्य विमानपर आरूढ़ हो उत्तङ्क मुनिसे इस प्रकार बोला॥ ३९ ॥
‘विद्वन्! आपके प्रसादसे मैं महापातकोंके संकटसे मुक्त हो गया। अत: मैं आपके चरणोंमें प्रणाम करता हूँ। मैंने जो किया है, मेरे उस अपराधको आप क्षमा कीजिये’॥ ४० ॥
सूतजी कहते हैं—ऐसा कहकर कलिकने मुनिश्रेष्ठ उत्तङ्कपर देवकुसुमोंकी वर्षा की और तीन बार उनकी परिक्रमा करके उन्हें बारम्बार नमस्कार किया॥ ४१ ॥
तत्पश्चात् अप्सराओंसे भरे हुए सम्पूर्ण मनोवाञ्छित भोगोंसे सम्पन्न विमानपर आरूढ़ हो वह श्रीहरिके परम धाममें जा पहुँचा॥ ४२ ॥
अत: विप्रवरो! आप सब लोग रामायणकी कथा सुनें। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में प्रयत्न-पूर्वक रामायण की अमृतमयी कथा का नवाह-पारायण अवश्य सुनना चाहिये, क्योंकि चैत्र में रामायण श्रवण का माहात्म्य बहुत है॥ ४४ १/२ ॥
इसलिये रामायण सभी ऋतुओंमें हितकारक है। इसके द्वारा भगवान्की पूजा करनेवाला पुरुष मनसे जो-जो चाहता है, उसे नि:संदेह प्राप्त कर लेता है॥ ४४ १/२ ॥
सनत्कुमार! तुमने जो रामायणका माहात्म्य पूछा था, वह सब मैंने बता दिया। अब और क्या सुनना चाहते हो?॥ ४५-४५ ॥
इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराणके उत्तरखण्डमें नारद-सनत्कुमारसंवादके अन्तर्गत रामायणमाहात्म्यके प्रसंगमें चैत्रमासमें रामायण सुननेके फलका वर्णन नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ॥ ४॥
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