माघ में रामायण सुनने का फल – तीसरा अध्याय
“माघ में रामायण सुनने का फल” नामक इस अध्याय में राजा सुमति और सत्यवती के पूर्व-जन्म का इतिहास और माघ के महीने में रामायण की कथा के श्रवण का फल बताया गया है।
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सनत्कुमारने कहा—ब्रह्मर्षि नारदजी! आपने यह अद्भुत इतिहास सुनाया है। अब रामायणके माहात्म्यका पुन: विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये॥ १ ॥
(आपने कार्तिक मासमें रामायणके श्रवणकी महिमा बतायी।) अब कृपापूर्वक दूसरे मासका माहात्म्य बताइये। मुने! आपके वचनामृतसे किसको संतोष नहीं होगा!॥
नारदजीने कहा—महात्माओ! आप सब लोग निश्चय ही बड़े भाग्यशाली और कृतकृत्य हैं, इसमें संशय नहीं है; क्योंकि आप भक्तिभावसे भगवान् श्रीरामकी महिमा सुननेके लिये उद्यत हुए हैं॥ ३ ॥
ब्रह्मवादी मुनियोंने भगवान् श्रीरामके माहात्म्यका श्रवण पुण्यात्मा पुरुषोंके लिये परम दुर्लभ बताया है॥
महर्षियो! अब आपलोग एक विचित्र पुरातन इतिहास सुनिये, जो समस्त पापोंका निवारण और सम्पूर्ण रोगोंका विनाश करनेवाला है॥ ५ ॥
पूर्वकालकी बात है, द्वापरमें सुमति नामसे प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं। उनका जन्म चन्द्रवंशमें हुआ था। वे श्रीसम्पन्न और सातों द्वीपोंके एकमात्र सम्राट् थे॥
उनका मन सदा धर्ममें ही लगा रहता था। वे सत्यवादी तथा सब प्रकारकी सम्पत्तियोंसे सुशोभित थे। सदा श्रीरामकथाके सेवन और श्रीरामकी ही समाराधनामें संलग्न रहते थे॥ ७ ॥
श्रीरामकी पूजा-अर्चामें लगे रहनेवाले भक्तोंकी वे सदा सेवा करते थे। उनमें अहंकारका नाम भी नहीं था। वे पूज्य पुरुषोंके पूजनमें तत्पर रहनेवाले, समदर्शी तथा सद्गुणसम्पन्न थे॥ ८ ॥
राजा सुमति समस्त प्राणियोंके हितैषी, शान्त, कृतज्ञ और यशस्वी थे। उनकी परम सौभाग्यशालिनी पत्नी भी समस्त शुभ लक्षणोंसे सुशोभित थी॥ ९ ॥
उसका नाम सत्यवती था। वह पतिव्रता थी। पतिमें ही उसके प्राण बसते थे। वे दोनों पति-पत्नी सदा रामायणके ही पढ़ने और सुननेमें संलग्न रहते थे॥ १० ॥
सदा अन्नका दान करते और प्रतिदिन जलदानमें प्रवृत्त रहते थे। उन्होंने असंख्य पोखरों, बगीचों और बावड़ियोंका निर्माण कराया था॥ ११ ॥
महाभाग राजा सुमति भी सदा रामायणके ही अनुशीलनमें लगे रहते थे। वे भक्तिभावसे भावित हो रामायणको ही बाँचते अथवा सुनते थे॥ १२ ॥
इस प्रकार वे धर्मज्ञ नरेश सदा श्रीरामकी आराधनामें ही तत्पर रहते थे। उनकी प्यारी पत्नी सत्यवती भी ऐसी ही थी। देवता भी उन दोनों दम्पतिकी सदा भूरि-भूरि प्रशंसा करते थे॥ १३ ॥
एक दिन उन त्रिभुवनविख्यात धर्मात्मा राजा-रानीको देखनेके लिये विभाण्डक मुनि अपने बहुत-से शिष्योंके साथ वहाँ आये॥ १४ ॥
मुनिवर विभाण्डकको आया देख राजा सुमतिको बड़ा सुख मिला। वे पूजाकी विस्तृत सामग्री साथ ले पत्नीसहित उनकी अगवानीके लिये गये॥ १५ ॥
जब मुनिका अतिथि-सत्कार सम्पन्न हो गया और वे शान्तभावसे आसनपर विराजमान हो गये, उस समय अपने आसनपर बैठे हुए भूपालने मुनिसे हाथ जोड़कर कहा॥ १६ ॥
राजा बोले—भगवन्! आज आपके शुभागमनसे मैं कृतार्थ हो गया; क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष संतोंके आगमनको सुखदायक बताकर उसकी प्रशंसा करते हैं॥ १७ ॥
जहाँ महापुरुषोंका प्रेम होता है, वहाँ सारी सम्पत्तियाँ अपने-आप उपस्थित हो जाती हैं। वहाँ तेज, कीर्ति, धन और पुत्र—सभी वस्तुएँ उपलब्ध होती हैं—ऐसा विद्वान् पुरुषोंका कथन है॥ १८ ॥
मुने! प्रभो! जहाँ संत-महात्मा बड़ी भारी कृपा करते हैं, वहाँ प्रतिदिन कल्याणमय साधनोंकी वृद्धि होती है॥ १९ ॥
ब्रह्मन्! जो अपने मस्तकपर ब्राह्मणोंका चरणोदक धारण करता है, उस पुण्यात्मा पुरुषने सब तीर्थोंमें स्नान कर लिया—इसमें संशय नहीं है॥ २० ॥
शान्तस्वरूप महर्षे! मेरे पुत्र, पत्नी तथा सारी सम्पत्ति आपके चरणोंमें समर्पित है। आज्ञा दीजिये, हम आपकी क्या सेवा करें?॥ २१ ॥
ऐसी बातें कहते हुए राजा सुमतिकी ओर देखकर मुनीश्वर विभाण्डक बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने हाथसे राजाका स्पर्श करते हुए कहा॥ २२ ॥
ऋषि बोले—राजन्! तुमने जो कुछ कहा है, वह सब तुम्हारे कुलके अनुरूप है। जो इस प्रकार विनयसे झुक जाते हैं, वे सब लोग परम कल्याणके भागी होते हैं॥ २३ ॥
भूपाल! तुम सन्मार्गपर चलनेवाले हो। मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। महाभाग! तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुमसे जो कुछ पूछता हूँ, उसे बताओ॥ २४ ॥
यद्यपि भगवान् श्रीहरिको संतुष्ट करनेवाले बहुत-से पुराण भी थे, जिनका तुम पाठ कर सकते थे, तथापि इस माघमासमें सब प्रकारसे प्रयत्नशील होकर तुम जो रामायणके ही पारायणमें लगे हुए हो तथा तुम्हारी यह साध्वी पत्नी भी सदा जो श्रीरामकी ही आराधनामें रत रहती है, इसका क्या कारण है? यह वृत्तान्त यथावत्-रूपसे मुझे बताओ॥ २५-२६ ॥
राजाने कहा—भगवन्! सुनिये, आप जो कुछ पूछते हैं, वह सब मैं बता रहा हूँ। मुने! हम दोनोंका चरित्र सम्पूर्ण जगत्के लिये आश्चर्यजनक है॥ २७ ॥
साधुशिरोमणे! पूर्वजन्ममें मैं मालति नामक शूद्र था। सदा कुमार्गपर ही चलता और सब लोगोंके अहित-साधनमें ही संलग्न रहता था॥ २८ ॥
दूसरोंकी चुगली खानेवाला, धर्मद्रोही, देवतासम्बन्धी द्रव्यका अपहरण करनेवाला तथा महापातकियोंके संसर्गमें रहनेवाला था। मैं देव-सम्पत्तिसे ही जीविका चलाता था॥
गोहत्या, ब्राह्मणहत्या और चोरी करना—यही अपना धंधा था। मैं सदा दूसरे प्राणियोंकी हिंसामें ही लगा रहता था। प्रतिदिन दूसरोंसे कठोर बातें बोलता, पाप करता और वेश्याओंमें आसक्त रहता था॥ ३० ॥
इस प्रकार कुछ कालतक घरमें रहा, फिर बड़े लोगोंकी आज्ञाका उल्लङ्घन करनेके कारण मेरे सभी भार्इ-बन्धुओंने मुझे त्याग दिया और मैं दु:खी होकर वनमें चला आया॥ ३१ ॥
वहाँ प्रतिदिन मृगोंका मांस खाकर रहता था और काँटे आदि बिछाकर लोगोंके आने-जानेका मार्ग अवरुद्ध कर देता था। इस तरह अकेला बहुत दु:ख भोगता हुआ मैं उस निर्जन वनमें रहने लगा॥ ३२ ॥
एक दिनकी बात है, मैं भूखा-प्यासा, थका-माँदा, निद्रासे झूमता हुआ एक निर्जन वनमें आया। वहाँ दैवयोगसे वसिष्ठजी के आश्रमपर मेरी दृष्टि पड़ी॥ ३३ ॥
उस आश्रमके निकट एक विशाल सरोवर था, जिसमें हंस और कारण्डव आदि जलपक्षी छा रहे थे। मुनीश्वर! वह सरोवर चारों ओरसे वन्य पुष्प-समूहोंद्वारा आच्छादित था॥ ३४ ॥
वहाँ जाकर मैंने पानी पिया और उसके तटपर बैठकर अपनी थकावट दूर की। फिर कुछ वृक्षोंकी जड़ें उखाड़कर उनके द्वारा अपनी भूख बुझायी॥ ३५ ॥
वसिष्ठके उस आश्रमके पास ही मैं निवास करने लगा। टूटी-फूटी स्फटिक-शिलाओंको जोड़कर मैंने वहाँ दीवार खड़ी की॥ ३६ ॥
फिर पत्तों, तिनकों और काष्ठोंद्वारा एक सुन्दर घर बना लिया। उसी घरमें रहकर मैं व्याधोंकी वृत्तिका आश्रय ले नाना प्रकारके मृगोंको मारकर उन्हींके द्वारा बीस वर्षोंतक अपनी जीविका चलाता रहा॥ ३७ १/२ ॥
तदनन्तर मेरी ये साध्वी पत्नी वहाँ मेरे पास आयीं। पूर्वजन्ममें इनका नाम काली था। काली निषादकुलकी कन्या थी और विन्ध्यप्रदेशमें उत्पन्न हुर्इ थी। उसके भार्इ-बन्धुओंने उसे त्याग दिया था। वह दु:खसे पीड़ित थी। उसका शरीर वृद्ध हो चला था॥ ३८-३९ ॥
ब्रह्मन्! वह भूख-प्याससे शिथिल हो गयी थी और इस सोचमें पड़ी थी कि भोजनका कार्य कैसे चलेगा? दैवयोगसे घूमती-घामती वह उसी निर्जन वनमें आ पहुँची, जिसमें मैं रहता था॥ ४० ॥
गर्मीका महीना था। बाहर इसे धूप सता रही थी और भीतर मानसिक संताप अत्यन्त पीड़ा दे रहा था। इस दु:खिनी नारीको देखकर मेरे मनमें बड़ी दया आयी॥ ४१ ॥
मैंने इसे पीनेके लिये जल तथा खानेके लिये मांस और जंगली फल दिये। ब्रह्मन्! काली जब विश्राम कर चुकी, तब मैंने उससे उसका यथावत् वृत्तान्त पूछा॥ ४२ ॥
महामुने! मेरे पूछनेपर उसने जो अपने जन्म-कर्म निवेदन किये थे, उन्हें बताता हूँ। सुनिये—उसका नाम काली था और वह निषादकुलकी कन्या थी॥ ४३ ॥
विद्वन्! उसके पिताका नाम दाम्भिक (या दाविक) था। वह उसीकी पुत्री थी और विन्ध्यपर्वतपर निवास करती थी। सदा दूसरोंका धन चुराना और चुगली खाना ही उसका काम था॥ ४४ ॥
एक दिन उसने अपने पतिकी हत्या कर डाली, इसीलिये भाई-बन्धुओंने उसे घरसे निकाल दिया। ब्रह्मन्! इस तरह परित्यक्ता काली उस दुर्गम एवं निर्जन वनमें मेरे पास आयी थी॥ ४५ ॥
उसने अपनी सारी करतूतें मुझे इसी रूपमें बतायी थीं। मुने! तब वसिष्ठजीके उस पवित्र आश्रमके निकट मैं और काली—दोनों पति-पत्नीका सम्बन्ध स्वीकार करके रहने और मांसाहारसे ही जीवन-निर्वाह करने लगे॥ ४६ १/२ ॥
एक दिन हम दोनों जीविकाके निमित्त कुछ उद्यम करनेके लिये वहाँ वसिष्ठजीके आश्रमपर गये। महात्मन्! वहाँ देवर्षियोंका समाज जुटा हुआ था। वही देखकर हमलोग उधर गये थे। माघ में रामायण सुनने का फल बहुत है और वहाँ माघ मास में प्रतिदिन ब्राह्मण लोग रामायणका पाठ करते दिखायी देते थे॥ ४७-४८ ॥
उस समय हमलोग निराहार थे और पुरुषार्थ करनेमें समर्थ होकर भी भूख-प्याससे कष्ट पा रहे थे। अत: बिना इच्छाके ही वसिष्ठजीके आश्रमपर चले गये थे। फिर लगातार नौ दिनोंतक भक्तिपूर्वक रामायणकी कथा सुननेके लिये हम दोनों वहाँ जाते रहे। मुने! उसी समय हम दोनोंकी मृत्यु हो गयी॥ ४९-५० ॥
हमारे उस कर्मसे भगवान् मधुसूदनका मन प्रसन्न हो गया था, अत: उन्होंने हमें ले आनेके लिये दूत भेजे॥ ५१ ॥
वे दूत हम दोनोंको विमानमें बिठाकर भगवान्के परम पद (उत्तम धाम) में ले गये। हम दोनों देवाधिदेव चक्रपाणिके निकट जा पहुँचे*॥ ५२ ॥
वहाँ हमने जितने समयतक बड़े-बड़े भोग भोगे थे, वह बता रहे हैं। सुनिये—कोटि सहस्र और कोटि शत युगोंतक श्रीरामधाममें निवास करके हमलोग ब्रह्मलोकमें आये। वहाँ भी उतने ही समयतक रहकर हम इन्द्रलोकमें आ गये॥ ५३-५४ ॥
मुनिश्रेष्ठ! इन्द्र लोक में भी उतने ही कालतक परम उत्तम भोग भोगनेके पश्चात् हम क्रमश: इस पृथ्वीपर आये हैं॥ ५५ ॥
यहाँ भी रामायण के प्रसाद से हमें अतुल सम्पत्ति प्राप्त हुर्इ है। मुने! अनिच्छासे रामायणका श्रवण करनेपर भी हमें ऐसा फल प्राप्त हुआ है॥ ५६ ॥
धर्मात्मन्! यदि नौ दिनोंतक भक्ति-भावसे रामायणकी अमृतमयी कथा सुनी जाय तो वह जन्म, जरा और मृत्युका नाश करनेवाली होती है॥ ५७ ॥
विप्रवर! सुनिये, विवश होकर भी जो कर्म किया जाता है, वह रामायणके प्रसादसे परम महान् फल प्रदान करता है॥ ५८ ॥
नारदजी कहते हैं—यह सब सुनकर मुनीश्वर विभाण्डक राजा सुमतिका अभिनन्दन करके अपने तपोवनको चले गये॥ ५९ ॥
विप्रवरो! अत: आपलोग देवाधिदेव चक्रपाणि भगवान् श्रीहरिकी कथा सुनिये। रामायणकथा कामधेनुके समान अभीष्ट फल देनेवाली बतायी गयी है॥ ६० ॥
माघ मास के शुक्ल पक्ष में प्रयत्नपूर्वक रामायण की नवाह्न कथा सुननी चाहिये। माघ में रामायण सुनने का फल बहुत है। वह सम्पूर्ण धर्मोंका फल प्रदान करनेवाली है॥ ६१ ॥
यह पवित्र आख्यान समस्त पापोंका नाश करनेवाला है। जो इसे बाँचता अथवा सुनता है, वह भगवान् श्रीरामका भक्त होता है॥ ६२ ॥
इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराणके उत्तरखण्डमें नारदसनत्कुमारसंवादके अन्तर्गत रामायणमाहात्म्यके प्रसंगमें माघमासमें रामायणकथाश्रवणके फलका वर्णन नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ॥ ३॥
* यहाँ जिस परम पदसे लौटनेका वर्णन है, वह ब्रह्मलोकसे भिन्न कोई उत्तम लोक था, जहाँ भगवान् मधुसूदनके सांनिध्य तथा श्रीरामके दर्शन-सुखका अनुभव होता था, इसे साक्षात् वैकुण्ठ या साकेत नहीं मानना चाहिये; क्योंकि वहाँसे पुनरावृत्ति नहीं होती। अनिच्छासे कथा-श्रवण करनेके कारण उन्हें अपुनरावर्ती लोक नहीं मिला था।
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