स्वामी दयानंद सरस्वती की जीवनी
Biography of Swami Dayanand Saraswati in Hindi
आर्य समाज के संस्थापक और भारतीय पुनर्जागरण के पुरोधाओं में से एक स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय आपके सम्मुख प्रस्तुत करते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है। उनका जीवन त्याग, तपस्या, देश-प्रेम और सत्य के प्रति अगाध निष्ठा का जीवन था।
स्वामी दयानंद सरस्वती की यह जीवनी “जगमगाते हीरे” नामक पुस्तक से ली गई है, जिसके लेखक साहित्यालंकार पंडित विद्याभास्कर शुक्ल हैं।
संसार के जितने महापुरुष हुए हैं उन्हीं में बाल-ब्रह्मचारी स्वामी दयानंद सरस्वती की भी गणना है। यदि उस समय स्वामी जी का जन्म न हुआ होता तो आज भारतवर्ष की क्या दशा होती, यह बतलाना मुश्किल है।
स्वामी दयानंद सरस्वती का बाल्यकाल
स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म सन् 1824 ई० में गुजरात प्रान्त के मोरवी नामक ग्राम में हुआ था। आदि नाम था मूलशंकर, उनके पिता अम्बाशंकर औदीच्य ब्राह्मण और एक प्रतिष्ठित ज़मींदार थे। आज-कल की भाँति उस समय अंग्रेज़ी शिक्षा का प्रचार न था। स्कूल कॉलेज न थे। सामयिक प्रथा के अनुसार स्वामी जी को बाल्यावस्था में रुद्री और शुक्ल यजुर्वेद का अध्ययन कराया गया। स्वामी जी की बुद्धि कुशाग्र थी; जो पढ़ाया जाता, शीघ्र ही याद कर लेते। 13 वर्ष की अवस्था में उन्होने संस्कृत की छोटी-मोटी पुस्तकें, अमर कोष आदि याद करके संस्कृत की अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली थी।
उनके पिता कट्टर शिव-भक्त थे। उसी के अनुसार उन्हें भी शिक्षा दी गई। जिससे धर्म-निष्ठा में ये अपने पिता-माता के ही तुल्य थे। चौदह वर्ष की अवस्था में माता के मना करने पर भी पिता ने बालक मूलशंकर को शिवरात्रि का निर्जल व्रत कराया। चूँकि मूलशंकर की निष्ठा सच्ची थी इससे बड़ी सावधानी से व्रत की साधना की; रात्रि को जागरण किया। शिवालय में पिता तथा अन्य पुजारी आदि सो गए, पर मूलशंकर आँखो में पानी लगा लगाकर जागते रहे कि कहीं व्रत भङ्ग न हो जावे। अर्ध रात्रि में जब सब खर्राटे भर रहे थे, तो एक चूहा आकर शिव जी पर चढ़े प्रसाद को खाने लगा और उन पर ख़ूब कूदने-फाँदने लगा। मूलशंकर यह सब दृश्य बड़े आश्चर्य के साथ देख रहे थे। चूहे के चले जाते ही उनके चित्त में विचार उठा–“क्या यही सर्व-शक्तिमान, विश्वम्भर महादेव हैं जो अपने ऊपर से उपद्रवी चूहे को भी नहीं भगा सकते? वेद शास्त्रों में इन्हीं की बड़ी महिमा गाई है?” इत्यादि।
इस विचार के उत्पन्न होते ही उन्होंने अपने पिता को जगाया और सब हाल सुनाते हुए शंकित प्रश्न किया। पिता ने डाँटने-फटकारने के अतिरिक्त कोई सन्तोषजनक उत्तर न दिया और सो गए। मूलशंकर ने उसी समय घर जाकर माता को जगाया और भोजन किया। उनके चित्त से मूर्ति-पूजा की ओर से श्रद्धा हट गई। उन्होंने निश्चय किया–“जब तक शिव जी के प्रत्यक्ष दर्शन न कर लूँगा, कोई व्रत-नियम न करूँगा।”
महर्षि दयानंद सरस्वती की आध्यात्मिक यात्रा
20 वर्ष की उम्र में स्वामी जी के चाचा की मृत्यु से उनके हृदय को बहुत चोट लगी। वैराग्य उत्पन्न हो गया। कोई जानकार पुरुष मिलता तो उससे यही प्रश्न करते–“मनुष्य अमर किस तरह हो सकता है?” उत्तर मिलता–“योगाभ्यास से”। इस उत्तर से स्वामी जी को योगाभ्यास की शिक्षा प्राप्त करने की उत्कट इच्छा उत्पन्न हुई। उन्होंने योगी की खोज के लिए पर्यटन करना निश्चय करते हुए पिता की आज्ञा चाही। पिता क्यों आज्ञा देने लगे। बल्कि उन्हें फाँसने के विचार से विवाह की युक्ति भिड़ाने लगे। स्वामी जी यह देखकर घर से भाग खड़े हुये और साधुओं का इधर-उधर संग करने लगे। लेकिन यथार्थ साधु न मिलने से चित्त को सन्तोष न हुआ। स्वामी जी की श्रद्धा इस प्रकार के साधुओं से हटने-सी लगी। इसी समय उनके पिता ने उन्हें आ पकड़ा और सिपाहियों के पहरे में घर ले चले। रास्ते में रात को जब सब सिपाही आदि सो गये, तो स्वामी जी फिर भाग निकले।
दूसरे दिन, दिन भर भूखे-प्यासे एक पेड़ पर बैठे रहे कि घर वाले न पकड़ पावें। रात में आगे बढ़े और अलकनन्दा के किनारे जाकर विश्राम लिया। इस ओर उन्हें अनेक साधुओं के दर्शन हुए और उन्होंने इन्हें अच्छी-अच्छी योग की क्रियाएँ बतलाईं। अलकनन्दा के तट पर पहुँचकर पहिले तो स्वामी जी ने सोचा कि इसी बर्फ़ में गलकर प्राण विसर्जित कर दें और संसार के झंझटो से पार हो जावें। फिर सोचा–आत्म-हत्या तो महापाप है, ऐसा क्यों करें। विद्याध्ययन करके ही इस जीवन को सफल क्यों न करें। यह निश्चय करके स्वामी जी घूमते फिरते मथुरा आए। मथुरा आने से पूर्व ही मूलशंकर ने संन्यास ले लिया था और मूलशंकर से स्वामी दयानंद हो गए थे।
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गुरु स्वामी विरजानंद सरस्वती से मुलाक़ात
मथुरा में एक 81 वर्ष के बूढ़े धुरन्धर विद्वान् साधु रहते थे, जिनका नाम था दण्डी विरजानन्द। विरजानन्द सरस्वती प्रज्ञा-चक्षु थे। अपने समय के संस्कृत और व्याकरण के अद्वितीय पंडित थे। साथ ही स्वभाव के बड़े तीखे और रूखे थे। ऋषि दयानंद उनके पास ललाट पर भस्म लगाए, माला धारण किए, गेरुआ वस्त्र पहिने, कमण्डलु लिए पहुँचे। स्वामी विरजानन्द उनकी बातचीत से प्रसन्न हो गए और 2॥ वर्ष में ही अपनी विद्या उन्हें दे दी।
स्वामी दयानंद ने विद्या समाप्त कर सोचा–“गुरू जी को क्या गुरु दक्षिणा दूँ? मैं साधु हूँ, मेरे पास है ही क्या, यह भी विरक्त साधु हैं, लेंगे क्या? इन्हें लौंग ज्यादा प्रिय है। वही क्यों न दूँ?” यह विचार कर स्वामी जी सवा सेर लौंगें और नारियल लेकर दण्डी विरजानन्द के पास पहुँचे। बोले–“महाराज, गुरु दक्षिणा लीजिए और आशीर्वाद दीजिए।” दण्डी जी बोले–“बच्चा, क्या गुरु दक्षिणा है।” स्वामी जी– “महाराज, मैं आपको क्या देने योग्य हूँ। लौंग-नारियल है।” गुरू जी–“मुझे यह गुरु दक्षिणा नहीं चाहिए।” स्वामी जी–“महाराज, मेरे पास और क्या है, जो मैं आपको दूँ।” गुरू जी–“बच्चा, मैं तुम से वही चीज़ माँगना चाहता हूँ जो तेरे पास है, तू दे सकता है, बोल, देगा?” स्वामी जी–“यह शरीर ही आपका है, फिर जो चीज़ मेरे पास होगी उसे देने से इन्कार कब है?” दंडी गुरू विरजानन्द ने प्रसन्न होकर कहा–“जा, बेटा! इस देश में जो अविद्या अंधकार फैला है, जो ढोंग-पाखण्ड फैला है, उसे विद्या-रूपी प्रकाश से मिटा। पढ़ा-लिखा सार्थक कर, यही माँगता हूँ। और कुछ नहीं चाहिए।” स्वामी जी ने चरणों पर सिर रक्खा। बोले–“महाराज, जो आज्ञा, ऐसा ही करूँगा। आशीर्वाद दीजिए।”
स्वामी दयानंद सरस्वती और सत्य-प्रसार का कार्य
उन्हीं दिनों हरिद्वार कुम्भ का मेला था। स्वामी जी आगरा, ग्वालियर, जयपुर, मेरठ आदि घूमते हुए हरिद्वार पहुँचे। अपार नर नारियों को भीड़ थी। जगह जगह ढोंग पुज रहा था। यह दृश्य देखकर स्वामी जी के नेत्रों में आँसू आ गए। वे सोचने लगे–“गुरु-आज्ञा का पालन मैं कैसे करूँगा।” हिम्मत हार रहे थे। रात्रि में स्वप्न हुआ, मानो कोई कह रहा है– “पुत्र, कायरता दूर कर, हिम्मत कर, सब कुछ कर सकेगा। क्या अकेला सूर्य फैले हुए संसार के अंधकार को नष्ट नहीं कर देता?” स्वामी जी प्रातःकाल उठे। मुख पर अपूर्व छटा थी; औदास्य भाव नष्ट हो चुका था। एक जगह जम गए। एक पताका गाड़ दी, जिस पर लिख दिया गया “पाखंड-खंडिनी, पताका।” स्वामी जी ने व्याख्यान देना शुरू कर दिया। कई व्याख्यान दिए।
कुछ हलचल मच गई। मेला समाप्त होते ही स्वामी जी कुछ दिन एकान्त सेवन के लिए चले गए। एकान्त सेवन के बाद प्रचार-कार्य में प्रवृत्त हुए। प्रत्येक शहर में घूम घूमकर व्याख्यानों और शास्त्रार्थों की धूम मचा दी। घूमते-घूमते स्वामी जी काशी पहुँचे। वहाँ पहुँचते ही उन्होंने हलचल पैदा कर दी। सनातन धर्म की जिन रूढ़ियों को वे पाखंड समझते थे उनका खंडन करना शुरू कर दिया। काशीवासी पंडित बहुत क्रुद्ध हुए। निश्चय हुआ कि शास्त्रार्थ हो। शास्त्रार्थ का दिन निश्चित हुआ। निश्चित दिन पर खूब भीड़ एकत्रित हुई। नामी नामी सब पंडित जमा हुए, स्वतः काशी-महाराज भी पधारे। दोपहर पश्चात् शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ। उतनी बड़ी सहस्रों मनुष्यों की भीड़ में उस (चिरस्मरणीय) दिन को निर्भय दयानंद अकेले पंडितों के प्रश्नों का उत्तर देते जाते थे। विषय था “वेदों में मूर्ति पूजा है या नहीं?” स्वामी जी का कहना था कि वेदों में मूर्ति पूजा नहीं है। स्वामी विशुद्धानन्द सरीखे दिग्गज विद्वान उपस्थित थे, पर उन लोगों ने जब देखा कि अब हम हारे, तो और साथी लोग हू-हल्ला शोर-गुल कर के उठ खड़े हुए और चल दिए। एक बार स्वामी जी ने काशी में लगातार बाईस व्याख्यान दिए।
इसी प्रकार स्वामी जी जहाँ-जहाँ जाते, व्याख्यान देते और शास्त्रार्थ का चैलेंज कर देते। जहाँ शास्त्रार्थ होता, वहीं उनके विपक्षियों को हारना पड़ता। कलकत्ते, बंबई में उनके कितने ही व्याख्यान हुए।
हत्या के षड्यंत्र
स्वामी जी के प्रचार का वृत्तान्त इतना है कि यदि सब लिखा जाय तो एक बहुत बड़ा पोथा तैयार हो जाय, क्योंकि भारत का कोई शहर ऐसा नहीं छोड़ा जिसमें कई-कई बार न गए हों और शास्त्रार्थ न किया हो तथा व्याख्यान न दिया हो। स्वामी जी के भाषण में अद्भुत शक्ति थी। उनकी बातें धार्मिक और अलंकारिक होती थीं। श्रोता तल्लीन हो जाते थे। चूंकि स्वामी जी उस समय सत्य कहने में देश के विरुद्ध थे इसलिए विरोधी अपने स्वार्थ में बाधा देखकर प्रायः उनको अपमानित करने, मारने आदि का प्रयत्न किया करते थे। कई बार तो उन्हें विष दिया गया। पर वे जान जाने पर न्यौली क्रिया द्वारा उसे निकाल फेंकते थे।
एक बार पूना में धूम-धाम से उनका जुलूस निकालने का प्रबन्ध हुआ। विरोधियों ने पहले ही सवेरे से गदर्भानन्दाचार्य की सवारी निकाली और तरह-तरह के अपशब्द बकते हुए शाम तक उसे शहर में घुमाते रहे। स्वामी जी का जुलूस निकलने पर वे लोग अंड-बंड बकने लगे। कुछ उत्तर न मिलने पर ईंट, पत्थर, कीचड़ आदि फेंकने लगे। पुलिस के प्रबन्ध करने पर ये उपद्रव शान्त हुए। अनेक स्थानों पर स्वामी जी के प्रति ऐसे ही उपद्रव किए जाते थे, पर स्वामी जी इसकी किञ्चिन्मात्र भी परवाह न करते थे। न किसी से रिपोर्ट करते थे। बल्कि हँसते हुए कह देते थे, “इसका उपाय है प्रसन्नता और शान्ति, सब आप ही शान्त हो जायंगे।” उनके विरोधी मुँह पर उन्हें गाली देते थे, पर वे हँसकर ही नम्रता पूर्वक उन्हें उत्तर देते थे।
जिन दिनों दयानंद सरस्वती भारत के नव्य संगठन में लग रहे थे, उन्हीं दिनों दिल्ली में बड़े धूम-धाम से पहला दरबार हुआ। स्वामी दयानंद जी ऐसे अवसर से कब चूकने वाले थे। वहाँ पहुँचे और भारत के भिन्न-भिन्न स्थानों से आए हुए बड़े-बड़े सभी लोगों से मिलकर अपने विचार भली-भाँति प्रकट किए।
सत्य-सिद्धान्त की स्थापना
यही नहीं कि स्वामी जी ने सनातन धर्म की रुढ़ियों का ही खण्डन किया हो। उन्होंने ईसाई और मुहम्मदीय धर्म की भी जो बातें असत्य प्रतीत हुईं, लम्बी ख़बर ली। ईसाई पादरियों और मौलवियों से भी जगह-जगह बहस मुबाहिसे हुए। उन लोगो को हार माननी पड़ी।
स्वामी जी अपने सिद्धान्तों के आगे बड़ी-से-बड़ी सम्पत्ति को तुच्छ समझते थे। उदयपुर के महाराजा साहब ने उनसे कहा, “स्वामी जी, आप मूर्ति-पूजा का खण्डन छोड़ दें और महादेव की गद्दी के महन्त बन जावें।” स्वामी जी ने उत्तर दिया, “यदि मुझे सम्पत्ति की इच्छा होती तो प्यारे माँ-बाप को क्यों छोड़ता, घर की ज़मींदारी क्यों लात मारता! मेरे जीवन का उद्देश्य महन्तों को गद्दी को हटाना है, न कि महन्त बनना।”
स्वामी जी हिन्दू समाज को कष्ट नहीं देना चाहते थे। वे उसका सुधार करना चाहते थे। वे दुःख-सागर संसार को सदाचार, विद्या, अज्ञानता और पाखंड से दूर करके सुख सागर बनाना चाहते थे। उन्होने आर्य समाज के नियमों में बताया है कि शारीरिक, सामाजिक और आत्मिक उन्नति करना विशेष बल है, उसे अवश्य करना चाहिए। स्वामी जी का सिद्धान्त था कि निराकार ईश्वर की उपासना करनी चाहिए। मृतकों का श्राद्ध न कर जीवित पितरों की सेवा करना ही श्राद्ध है। वर्ण व्यवस्था जन्म से न मान कर कर्म से मानना चाहिए। पीर, पैग़म्बर का मानना बुरा है। भाँति-भाँति के देवी-देवताओं की उपासना करना ग़लती है। टोने-टोटके करना मूर्खता है। मध्यकाल की बनी पुस्तकों में प्रायः बहुत-सी बातें स्वार्थवश झूठी लिखी गई हैं। अस्तु, जो बातें बुद्धि में नहीं समातीं, प्रकृति नियम से विरुद्ध और असंभव हैं; उन्हें न मानना चाहिए। एक ज़बर्दस्त पुस्तक ‘सत्यार्थप्रकाश’ लिखकर स्वामी जी ने उसमें इन सब बातों का अच्छा विवेचन किया है।
बालकों की साधारण शिक्षा से लेकर वेदों के भाष्य तक बहुत-सी अत्यन्त उपयोगी-उपयोगी पुस्तकें स्वामी जी ने लिखी हैं।
आर्य समाज का संसारव्यापी कार्य आज जो हमको दिखलाई पड़ रहा है, वह ऋषि दयानंद के ही बोए और सींचे हुए वृक्ष का फल है। स्वामी जी ने अपने उद्देश्यों में बताया है, “सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में हमेशा तत्पर रहो। यदि मेरी भी कोई बात सचमुच झूठ समझो, तो उसे कदापि न मानो।”
इसीलिए पूर्व में हमने कहा है कि यदि उस समय स्वामी जी उत्पन्न न हुए होते तो हिन्दू जाति की न मालूम आज क्या दशा होती। आधे से ज़्यादा हिन्दू मुसलमान और ईसाई दिखलाई पड़ते। बचे हुए हिन्दुओं में भी सब पीर-पैग़म्बर आदि के कारण दूसरों को ही अपना जीवन सौंपे होते। दलित हम से दूर हो गए होते। बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह ने जाति को नष्ट कर दिया होता। पुनर्विवाह के प्रचार न होने से विधवाओं की क्या दशा होती, यह लिखना व्यर्थ है। कोई धर्मशास्त्रों, वैदिक ग्रन्थो का अनुशीलन न करता। तमाम हिन्दू जाति आँखें मीचे वैदिक ग्रन्थों को नीचे दबाए बेहोश पड़ी रहती। ऊपर कुल्हाड़ा चलता रहता।
महर्षि दयानंद के अन्य विषयों पर विचार
स्वामी जी ने केवल धार्मिक ही क्रान्ति नहीं की, उन्होंने देश के अन्यान्य विषयों पर भी पर्याप्त ध्यान दिया। गोरक्षा के लिए उन्होंने काफ़ी आन्दोलन किया। गो-करुणानिधि किताब लिखी। राष्ट्र भाषा हिन्दी के स्वामी जी प्रबल समर्थक थे। गुजराती होते हुए भी उन्होंने अपनी समस्त पुस्तकें हिन्दी में ही लिखीं। हिन्दी-प्रचार की इच्छा से अन्य भाषाओं में अपनी पुस्तकों का अनुवाद अपने जीवित रहते नहीं होने दिया। वेदों का भाष्य भी हिन्दी में किया। देश की शिक्षा पर भी उन्होंने काफ़ी विवेचन किया। बतलाया कि आज-कल की शिक्षा किस प्रकार की है, पहिले किस प्रकार की थी और होनी किस प्रकार चाहिए। इस के लिए उन्होंने जन्म से ही शिक्षा का विस्तृत ढंग बतलाया है। हिन्दू-जाति की स्त्री-दशा पर भी बहुत ध्यान दिया है। विदेश यात्रा के भी स्वामी जी पूर्ण पक्षपाती थे। खाने-पीने में वे कोई भेद-भाव न रखना चाहते थे। केवल शुद्धता चाहते थे। देश को वे ब्रह्मचर्य की विशेष आवश्यकता बतलाते थे। उनके राजनैतिक विचार भी बहुत उच्च थे। वे स्वराज्य और स्वतन्त्रता के पूरे समर्थक थे। लोकसत्तात्मक राज्य के प्रतिपादक थे और उसकी रीति प्राचीन ढंग पर अच्छी बतलाते थे। इसी प्रकार स्वदेशी वस्तु-प्रचार के भी पूर्ण समर्थक थे। कहते थे, “अच्छे से अच्छे विदेशी राज्य से, अपने देश का बुरा राज्य कहीं अच्छा है।”
स्वामी दयानंद सरस्वती की महासमाधि
स्वामी जी जिन उद्देश्यों और सिद्धान्तों का प्रचार करते थे, उन्हीं के अनुरूप उनका जीवन था। वे बाल ब्रह्मचारी थे। सच्चे देश-सुधारक और धर्मोपदेष्टा थे। जोधपुर में वैदिक-धर्म प्रचार के ही कारण, द्वेषियों ने सिखा-पढ़ा कर स्वामी जी के रसोइया से दूध में पिसा हुआ काँच मिलवा कर उनको पीने को दिलवा दिया। स्वामी जी पी गए। काँच का असर होते ही सारे शरीर में फफोले निकल आए। स्वामी जी अजमेर पहुँचे। वहाँ सब प्रकार से उनकी चिकित्सा की गई। पर काँच ने अपना काम पूरा कर दिया था। सब चिकित्साएँ व्यर्थ हुई। 60 वर्ष की अवस्था में दिवाली के दिन नव्य भारत को मानसिक मुक्ति प्रदान करने वाले, हिन्दू-समाज के संरक्षक, धर्मवीर स्वामी दयानंद सरस्वती इस नश्वर शरीर को छोड़कर अनन्त की गोद में चले गये।
स्वामी जी के रसोइये को रुपये का लालच दिलाकर विष दिलाया गया था। जब स्वामी जी को यह मालूम हुआ और रसोइया भी घबड़ा गया, तो स्वामी जी ने उसे बुलाया और पूछा, “तूने यह पाप क्यों किया? उसने आँखों में आँसू भरकर कहा, “रुपये के लालच से।” स्वामी जी ने पूछा, “कितने रुपयों का लोभ तुझे दिया गया?” रसोइया, “पाँच सौ रुपये का।” स्वामी जी ने कहा, “पर अब तो तू पकड़ा जायगा और तुझे फाँसी की सज़ा होगी, रुपये भी न भोग सकेगा और जीवन से भी हाथ धोएगा, क्यों?” रसोइया, “महाराज, मैंने बड़ा पाप किया है। अब तो वह फल मेरे करम में ही बदा है।” स्वामी जी ने पास में रक्खी हुई पाँच सौ रुपयों की थैली उठाई और रसोइये को हाथ में देते हुए कहा, “ले, जिस लोभ से तूने यह पाप किया, वह इच्छा पूरी कर, इसे लेकर चुपचाप जल्दी कहीं पहाड़ों की तरफ़ भाग जा। देर न कर, वरना पकड़ा जायगा। फिर मैं न बचा सकूँगा।” रसोइया रुपया लेकर भाग गया।
स्वामी जी की गुरु-भक्ति
स्वामी दयानंद पूरे गुरु-भक्त थे। गुरु विरजानन्द के कुल कार्य वे अपने हाथ से करते थे। घर साफ़ करते, नहलाते, कौपीन धोते, चरण चाँपते–सभी काम करते थे।
दंडी विरजानन्द प्रज्ञाचक्षु तो थे ही। एक दिन स्वामी जी ने घर में बुहारी लगाई और जल्दी में कूड़ा बाहर न फेंक सके। वहीं देहरी के पास जमा कर दिया। दंडी जी जब वहाँ से निकले तो कूड़े पर पैर पड़ गया। उन्होंने स्वामी जी को बुलाया। पास आने पर बिना कुछ पूछेताछे डंडा उठाकर ज़ोर-से मारा और बोले, “कूड़ा यहाँ क्यों जमा किया?” स्वामी जी ने सिर्फ़ इतना कहा, “महाराज, अपराध हुआ क्षमा करें।” डंडा कन्धे पर लगा था। कन्धा फूल आया। स्वामी जी अपने अपराध पर पश्चात्ताप करने लगे और रात में जब पैर दाब चुके, तो बोले, “गुरु महाराज, मुझे तो ज़रा भी चोट नहीं लगी, पर डंडा घुमाने से कहीं आपके हाथ में तो चोट नहीं आ गई? मुझ से बड़ा कसूर हुआ। अब कभी ऐसा न करूंगा।”
दूसरे लोगों को जब पिटने का यह हाल मालूम हुआ, तो उन्होंने दंडी जी के पास जाकर कहा, “दंडी जी, स्वामी दयानंद को आप इस प्रकार न मारा कीजिए। उसका कंधा बहुत फूल आया है। सब शिष्यों में एक वही होनहार, यशस्वी, विद्वान और आपका सच्चा सेवक है। यदि कहीं रुष्ट हो कर चला गया, तो न केवल आपको कष्ट होगा, बल्कि एक सुयोग्य शिष्य आपके हाथ से निकल जायगा।” स्वामी दयानंद को मालूम हुआ कि लोगों ने मेरे विषय में ऐसा ऐसा कहा है, तो स्वामी जी उन लोगों से बड़े बिगड़े, डाँटा-फटकारा और कहा, “ख़बरदार, यदि आप लोग मेरे विषय में आगे से इस प्रकार कुछ उनसे कहेंगे, तो ठीक न होगा।”
स्वामी दयानंद सरस्वती – एक निर्भीक वक्ता
स्वामी जी निर्भीक वक्ता थे। वे कोई बात स्पष्ट कहने में कभी न चूकते थे। एक बार बरेली में व्याख्यान दे रहे थे। कलेक्टर साहब भी उसमें उपस्थित थे। स्वामी जी ने बहुत-सी ऐसी खरी और सच्ची-सच्ची बातें कहीं, जो कलेक्टर साहब के विरुद्ध पड़ती थीं। सब के चले जाने पर कुछ शुभचिन्तकों ने स्वामी जी से कहा, “कलेक्टर साहब के सामने आपने उनके विरुद्ध बातें की, इस प्रकार की बातें न कहा करें, नहीं तो मुमकिन है वे पीछे कोई झगड़ा खड़ा कर दें।” स्वामी जी उस समय तो चुप रहे। दूसरे दिन फिर व्याख्यान हुआ। कलेक्टर साहब इस दिन भी आए। स्वामी जी ने उन्हें आया देख कर कहा, “लोग मुझसे कहते हैं कि कलेक्टर साहब आया करते हैं। व्याख्यान में सच्ची बातें मत कहा कीजिए। ज़रा वैसे बोला कीजिए। अब मैं स्पष्ट कहता हूँ कि कलेक्टर, कमिश्नर क्या, यदि राजा-महाराजा भी आवें तो भी सच्ची बात कहने से मैं बाज़ न आऊँगा। सत्य के कहने के लिये मुझे मृत्यु का भी दण्ड मिले तो सहर्ष स्वीकार करूँगा। लेकिन सत्य के कहने से न रुकूँगा। आत्मा अजर अमर है। कौन-सा कलेक्टर या कमिश्नर है, जो मेरी आत्मा को मार सकता है या तलवार से काट सकता है।” कलेक्टर साहब इस स्पष्टवादिता से नाराज़ होने की बजाय और अधिक ख़ुश हुए तथा स्वामी जी के प्रति अपनी श्रद्धा प्रदर्शित की।
स्वामी जी की दयालुता
एक बार स्वामी जी के विरोधियों ने उनके रसोइये को भड़काकर भोजन में विष दिलवा दिया। यह बात स्वामी जी जान गए। उन्होंने तो न्यौली क्रिया करके उस ज़हर को निकाल दिया, परन्तु रसोइया डर के मारे भाग खड़ा हुआ। स्वामी जी के कुछ भक्तों को जब यह बात मालूम हुई तो उन्होंने उसकी रिपोर्ट जाकर तहसीलदार को दी। तहसीलदार ने रसोइये का पता लगाकर उसे पकड़ मंगाया। हथकड़ी बेड़ी डाल दी गई। तहसीलदार सिपाहियों सहित उसको साथ लेकर प्रसन्न होते हुए स्वामी जी के पास आये और बोले, “महाराज, अपराधी सामने खड़ा है। यह दुष्ट आपको ज़हर देकर भाग गया था। अब पकड़ आया है। आज्ञा दीजिए, इसे क्या सज़ा दी जाय?” स्वामी जी ने हँसते हुए उत्तर दिया, “भाई, तुम से ज़हर देने की बात किसने कही? मैंने तो कोई रिपोर्ट की नहीं। फिर इस बेचारे को क्यों पकड़ा? ख़ैर, इसको इसी समय छोड़ दो। मैं संसार को क़ैद कराने नहीं, क़ैद से छुड़ाने आया हूँ।” स्वामी जी के वचन सुनते ही सब निस्तब्ध हो उनकी ओर देखने लगे। आहिस्ते से अपराधी की हथकड़ी बेड़ी खोल दी गई। वह बजाय भागने के स्वामी जी के चरणों में पड़ा दिखलाई पड़ा।
स्वामी जी धर्म-प्रचार में बिलकुल निर्भीक थे। कभी उन्हें सत्य के प्रचार में जीवन की आशङ्का पैदा ही नहीं हुई। एक बार एक स्थान पर पाखण्डी पंडितों से स्वामी जी का शास्त्रार्थ हुआ। स्वामी जी ने उन्हें बुरी तरह से परास्त किया। इस पर वे लोग इतने बिगड़े कि स्वामी जी को मारने के लिए दो तीन आदमी तैयार किए। जब स्वामी जी के भक्तों को यह पता लगा तो उन्होंने आकर उनसे निवेदन किया, “महाराज, आप बाहर अकेले न निकला करें। न अकेले ठहरें। चलिए बस्ती में चलकर हम लोगो के घर ठहरिए, क्योंकि दुष्ट लोग आपको मारने की फ़िराक में हैं; संभव है अकेले पाकर समय-असमय आक्रमण कर बैठें।”
स्वामी जी खिलखिला कर हँसे और बोले, “क्या ख़ूब, आज आप लोग कहते हैं कि अकेले रहा न करें, कल कहेंगे कि घर ही से न निकला करें, परसो कहेंगे टट्टी भी बाहर न जाया करें। फिर कहेंगे कि धर्म-प्रचार ही करना बन्द कर दीजिए। भला इस प्रकार कैसे काम चलेगा। यदि मैं इस प्रकार की धमकियों से डरने लगूँ तो काम ही न चले। अस्तु, आप लोग इस विषय में मेरी चिन्ता न कीजिए। मैं अपनी रक्षा आप कर लूँगा।”
तीन चार दिन बाद एक आदमी तलवार लेकर स्वामी जी को आधी रात के समय मारने आया। आहट पाते ही स्वामी जी की नींद खुल गई। उन्होंने ज़ोर से जो ‘हुँ’ की हुंकार की, तो वह डरकर भागा। उस दिन से उनके पास किसी दुष्ट ने आने की हिम्मत तक न की।
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अन्तिम घटनाएँ
स्वामी जी जब जोधपुर धर्म-प्रचारार्थ जाने को तैयार हुए तो लोगों ने समझाया, “वहाँ के लोग बड़े दुष्ट होते हैं, पूरे उज्जड होते हैं, फिर रियासती घिस-घिस ठहरी। बचकर आना मुश्किल होगा। वे दुष्ट आपको मार डालेंगे, हम लोगों की प्रार्थना है कि आप वहाँ जाने का विचार तक छोड़ दें।” स्वामी जी ने निर्भीकता पूर्वक उत्तर दिया, “मैं जोधपुर सत्य-धर्म-प्रचार को जाऊँगा, अवश्य जाऊँगा। चाहे वहाँ के लोग मेरी एक-एक अँगुली की पोर के सौ-सौ टुकड़े करके मोमबत्ती की तरह भले ही जला दें, पर मैं प्रचार से नहीं रुक सकता। शाहपुराधीश ने कहा, “यदि आप नहीं मानते तो जाइए, परन्तु एक प्रार्थना स्वीकार कीजिए कि वहाँ वेश्याओं का खण्डन न कीजिएगा। स्वामी जी ने गम्भीरता के साथ उत्तर दिया, “भला पाप-वृक्षों को मैं नख-शाखों से काटूँगा? कैंची से कलम करूँगा जिससे और बढ़े? मैं उन्हे पैनी तलवार से समूल नष्ट कर दूंगा।”
स्वामी जी जोधपुर गए। जोधपुर जाना ही उनकी मृत्यु का कारण हुआ। पर वे अपने व्रत से न टले।
स्वामी जी का शरीर जैसा विशाल और डील-डौल वाला था, वैसा ही बल भी था। किसी को उनकी ओर एक टक देखने का भी साहस न पड़ता था। एक बार दो पठानों ने मारने के लिए उनका पीछा किया। स्वामी जी ने जान लिया। वे बिना पीछे देखे चुपचाप आगे बढ़ते गए। पठान भी पीछा किए थे, सोच रहे थे कि एकान्त पाते ही दौड़ कर हमला कर देंगे। चलते-चलते एक नदी पड़ी। स्वामी जी बीच नदी में जाकर नहाने के बहाने शरीर मलने लगे। पठानों ने समझा यह अच्छा मौक़ा है; पास आए ही थे कि स्वामी जी ने पीछे घूम लपककर दोनों को पकड़ लिया और इधर-उधर बगल में दबाकर बोले, “बोलो, कहो तो ज़ोर से दबा कर अभी तुम लोगों के प्राण पखेरू उड़ा दूँ?” अब तो वे गिड़गड़ाने लगे, “हम तौबा करते हैं, ख़ुदा के लिए जान बख़्शो। आगे कभी ऐसा गुनाह न करेंगे”–यह कहकर उन्होंने अपनी-अपनी कटारें जल में फेंक दीं। स्वामी जी ने “ख़बरदार! याद रक्खो कभी किसी के मारने का विचार करना बड़ा पाप है” कहते हुए उन्हें छोड़ दिया और चल दिए।
स्वामी दयानंद सरस्वती और ब्रह्मचर्य की शक्ति
एक बार एक राजा साहब दो घोड़ों की गाड़ी में बैठकर स्वामी जी से मिलने आए। बातचीत होते-होते राजा साहब बोले, “आपका शरीर देखने में जैसा मोटा-ताज़ा, हट्टा-कट्टा और भव्य है, क्या इसमें बल भी वैसा ही है? आप तो ब्रह्मचारी हैं, ख़ूब बल होना चाहिए।” स्वामी जी ने उस समय तो उन्हें कुछ उत्तर न दिया, पर जब वे बातचीत कर के चल दिए तो थोड़ी दूर निकल जाने पर स्वामी जी ने लपककर पीछे से जाकर उनकी गाड़ी के पहिए का डंडा पकड़ लिया। गाड़ी सहसा रुक गई। कोचवान ने कितने ही कोड़े जमाए, पर घोड़े वहीं उछलते कूदते रहे। आगे एक पैर भी न बढ़ सके। राजा साहब को बड़ा आश्चर्य हुआ कि क्या बात है। पीछे फिर कर देखा तो देखते हैं कि स्वामी जी गाड़ी का पहिया पकड़े हुए खड़े हैं। फ़ौरन गाड़ी से उतर कर राजा साहब स्वामी जी के चरणों में गिर पड़े और बोले, “अपराध क्षमा कीजिए, मैं समझ गया आप में अपरिमित बल है।”
स्वामी दयानंद सरस्वती के अन्य प्रेरक प्रसंग
स्वामी जी उत्तर देने में कभी न चूकते थे। कोई बात आते ही फ़ौरन ही उसका उत्तर देते थे। एक बार एक संन्यासी जो स्वामी जी के प्रचार के कारण बहुत क्रुद्ध होकर उनसे लड़ने आया था; आते ही अंट-संट बकता हुआ बोला, “तुम संन्यासी नहीं धूर्त्त, ठग हो। भला संन्यासी को धातु छूना कहाँ लिखा है, जो तुम अपने पास पैसा रखे हुए हो। थाली में भोजन करते हो। दूसरों को धोख़ा देते फिरते हो, शरम नहीं आती।” स्वामी जी हँसे और बड़ी सरलता से मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, “हाँ, स्वामिन्, आप ठीक कहते हैं। मैं तो धातु छूता हुआ जब-कब पैसा भी ज़रूर रख लेता हूँ; थाली में भोजन भी कर लेता हूँ, आप सच्चे संन्यासी हैं, आप तो धातु स्पर्श करते न होंगे। आप के ये बाल भी निश्चय ही उस्तरे से न बने होंगे, क्योंकि वह धातु है। कहिए महाराज स्वामी जी, किस चीज़ से ये बाल बनाए गए हैं?” अब तो उस संन्यासी के मुख से बात न निकली, लज्जित होकर सिर नीचा किए हुए चुपचाप वहाँ से खिसक गया।
ऐसे ही एक बार कुछ चालाक धूर्त्तों ने आपस में सलाह की कि चलो स्वामी जी को चलकर शर्मिन्दा करें। उनसे चलकर पूछें कि आप ज्ञानी हैं या अज्ञानी। यदि उन्होंने कहा हम ज्ञानी हैं तो हम लोग कहेंगे आप बड़े अभिमानी हैं। यदि उन्होंने कहा–हम अज्ञानी हैं, तो हम लोग कहेंगे कि यदि आप अज्ञानी हैं तो बड़ी-बड़ी बातें क्यों बनाते हैं, अज्ञानी को उपदेश करने का कब अधिकार है? इस प्रकार निश्चय कर वे लोग स्वामी जी के पास पहुंचे। आवभगत करके उनके पास बैठ गए, फिर वही प्रश्न पूछा। स्वामी जी ताड़ गए, फ़ौरन बोले, “देखो, मैं जीवात्मा होने से बहुत से विषयों में तो अज्ञानी हूँ, पर बहुत-सी बातें शास्त्रों द्वारा जानता हूँ। इस दृष्टि से ज्ञानी हूँ।” वे लोग उत्तर पाकर लज्जित हो गए और चुपचाप चले गए!
नास्तिक का रूपान्तरण
श्री गुरुदत्त विद्यार्थी एम० ए० बड़े विद्वान्, प्रसिद्ध फ़िलासफ़र और एक कट्टर नास्तिक थे। स्वामी जी से उन्हें इतनी घृणा थी कि वे उनका मुख देखना तक पाप समझते थे। जब स्वामी जी मृतप्राय थे तो गुरुदत्त को मालूम हुआ। उन्होंने सोचा, “चलकर देखना चाहिए कि पापी कितने कष्ट से मरता है। आज उसका छटपटाना तो देख लूँ।” बड़ी प्रसन्नता से गुरुदत्त स्वामी जी के स्थान पर पहुँचे। मरणासन्न ऋषि प्रसन्नमुख इधर-उधर खड़े लोगों को उपदेश दे रहे थे। सारे शरीर में फफोले थे, पर आस-पास भी कहीं ‘आह’ का शब्द न था। मालूम होता था कोई स्वस्थ पुरुष हँस-हँस कर उपदेश कर रहा है। “ईश्वर तेरी इच्छा पूर्ण हो, ॐ” कहते हुए स्वामी जी ने अन्तिम निश्वास छोड़ दी। चारों ओर से आँसुओं की सरिता बह चली। केवल एक व्यक्ति था जो दूर कोने में खड़ा एकटक ऋषि-मुख की ओर देख रहा था। आँसू का नाम न था, पर मुख पर एक नए प्रकार की गंभीरता थी। वह कह रहा था, “मैं पुस्तकों पर नहीं, अपने जीवन के पृष्ठों पर ऋषि दयानंद के चरित को लिख रहा हूँ।” अब वह नास्तिक गुरुदत्त आस्तिक गुरुदत्त हो गए थे।
अभी तीन वर्ष हुए स्वामी दयानंद सरस्वती की शताब्दी जयन्ती मथुरा में बड़ी धूम-धाम से मनाई गई थी। ऐसा उत्सव 100-50 वर्ष के भीतर शायद ही कहीं मनाया गया हो। चार लाख मनुष्यों की अपार भीड़ थी। जापान, अमेरिका, अफ्रीका, इङ्गलैण्ड तक से प्रतिनिधि आए थे। सभी सम्प्रदायियों के निबन्ध-व्याख्यान आदि हुए थे। परस्पर मिलन, संभाषण, कार्यविधि, प्रबन्ध आदि के दृश्य देखने लायक़ थे। बिलकुल सतयुग का नज़ारा मालूम होता था। एक अपूर्व दृश्य था। शताब्दी के सभापति स्वामी श्रद्धानन्द जी ने कहा था, “या तो मैं इतिहास में अशोक के समय ऐसे उत्सवों का होना पढ़ा करता हूँ या यह शताब्दी उत्सव देखा है।” शताब्दी उत्सव के सफलता पूर्वक सम्पन्न होने का एक मात्र कारण था आर्य समाज के स्तम्भ, सच्चे संन्यासी श्री नारायण स्वामी जी का अपूर्व साहस, अद्भुत कार्य-क्षमता और तत्परता तथा देशानुराग।
ऐसे महान समाजसेवी स्वामी दयानन्द सरस्वती को शत शत नमन