ताज महल को लेकर यूरोपियन पर्यटकों के वृत्तान्त
Travelogues Of European Travelers On Taj Mahal
इस अध्याय में श्री पी.एन. ओक अनेक यूरोपियन पर्यटकों तथा उनके ब्यौरों का उल्लेख कर रहे हैं, जो उस समय भारत में आए थे। पर्यटकों के इन उल्लेखों के माध्यम से ताजमहल की वास्तविकता को लेकर यहाँ शोध किया गया है।
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टॅव्हरनिए का ब्यौरा
टॅव्हरनिए नाम के फ्रांस के एक सर्राफ ने अपनी यात्रा टिप्पणी में उल्लेख किया है कि “शाहजहाँ के मुमताज को ताज-इ-मकान के निकट दफ़नाने का कारण यह था कि वहाँ आने वाले विदेशी यात्री उस दफन स्थल की तारीफ करें। वह ताज-इ-मकान छह चौक वाला बाजार था। लकड़ी न मिलने के कारण शाहजहाँ को कमानों को इंटों के ही आधार देने पड़े। कब्र पर जो रकम खर्च हुई उसमें मचाण का ख़र्चा सर्वाधिक था। कब्र का निर्माण कार्य मेरा उपस्थिति में आरम्भ होकर मेरी उपस्थिति में ही समाप्त हुआ। बीस हजार मज़दूर लगातार 22 वर्ष काम करते रहे।”
टॅव्हरनिए के पूर्वोक्त कथन का इतिहासकारों ने ग़लत अर्थ लगाया है। टॅव्हरनिए को भारतीय भाषाओं का अज्ञान होने के कारण वह बाजार को ही ताजमहल समझा। उस बाजार में आने वाले विदेशी यात्री जिस मानसिंह मंज़िल को दंग होकर देखते थे उसमें शाहजहाँ ने मुमताज को इसी उद्देश्य से दफनाया कि उस दफनस्थल का सर्वत्र बोलबाला हो। इससे यह बात स्पष्ट है कि एक बड़ा सुन्दर मानसिंह महल वहाँ आरम्भ से ही बना था। वास्तव में ताज-इ-मकान (उर्फ ताजमहल यानि तेजोमहालय) यह उस इमारत का नाम है जिसमें मुमताज की कब्र है। वह अति सुन्दर प्रेक्षणीय गुम्बद वाली इमारत थी। ऐसा स्वयं शाहजहाँ के बादशाहनामे में वर्णन है।
तथापि एक पराए अनजान सर्राफ यात्री के नाते टॅव्हरनिए बाहरले बाजार को ही ताज-इ-मकान समझकर उसके निकट वाली मुमताज की कब्र विदेशी यात्रियों का मन लुभाया करती ऐसा लिखता है। मचाण के लिए जिस शाहजहाँ को फट्टे, खम्भे आदि प्राप्य नहीं थे वह भला संगमरमरी ताजमहल क्या बनवाएगा! कमानों के ऊपर लगी मूर्तियाँ, संस्कृत शिलालेख आदि उतारकर वहाँ कुरान जड़ देने के लिए कमानों को हजारों ईंटों का आधार देना पड़ा। अतः एक प्रकार से मचाण के रूप में चौड़ी दीवार के आकार की ईंटों की राशि तेजोमहालय के चारों ओर गुम्बद तक खड़ी करनी पड़ी। उस पर खड़े होकर कुरान जड़ने का खर्चा मामूली था। उसकी तुलना में हजारों ईंटों का चौड़ा उत्तुंग मचाण खड़ा करना बड़ा खर्चीला कार्य था। अतः टॅव्हरनिए ने ठीक ही लिखा है कि कब्र पर जितना खर्चा हुआ उसमें मचाण का खर्चा अत्यधिक था।
यदि शाहजहाँ संगमरमरी ताजमहल सचमुच बनाता तो उसकी तुलना में मचाण का खर्चा अत्यल्प होता। ताज महल का निर्माण-कार्य टॅव्हरनिए की उपस्थिति में ही आरम्भ हुआ और समाप्त हुआ ऐसा टॅव्हरनिए ने लिखा है। मुमताज सन् 1631 के जून में मरी। किन्तु टॅव्हरनिए भारत में पहली बार सन् 1641 में पहुंचा। अतः मुमताज की कब्र का कार्य टॅव्हरनिए की उपस्थिति में आरम्भ हुआ यह टॅव्हरनिए का कथन झूठा साबित होता है। उसी प्रकार वह निर्माण कार्य 22 वर्षा में समाप्त हुआ यह टॅव्हरनिए की टिप्पणी भी झूठी है क्योंकि टॅव्हरनिए भारत में लगातार 22 वर्ष कभी रहा ही नहीं।
इसी कारण टॅव्हरनिए की टिप्पणी विश्वास-योग्य नहीं है। उसका यात्रा-वर्णन गपशप और धौंसबाजी से भरा रहता है, उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए ऐसा इतिहासकारों का प्रकट मत ठीक ही है। हजारों मज़दूर काम पर अवश्य लगे थे किन्तु वे ताजमहल के निर्माण के लिए नहीं बल्कि कब्र वाली मंजिल को छोड़कर शेष साढ़े सात मंजिली इमारतों के सैकड़ों कमरे, छज्जे, जीने, द्वार, खिड़कियां आदि चुनवाकर बन्द करवाने में लगे थे। इस प्रकार टॅव्हरनिए की टिप्पणी से भी यह सिद्ध होता है कि शाहजहाँ ने बना-बनाया ताजमहल जयसिंह से हड़प लिया।
पीटर मंडी और द लायट का मत
पीटर मंडी नाम का एक अंग्रेज़ पर्यटक शाहजहाँ के काल में आगरा नगर में आया था। इसने निजी संस्मरण लिखे हैं। मुमताज की मृत्यु के पश्चात् एक-डेढ़ वर्ष में ही वह विलायत को लौट गया। तथापि उसने लिखा है कि आगरा नगर तथा आसपास प्रेक्षणीय इमारतों में मुमताज तथा अकबर के दफन-स्थल प्रेक्षणीय हैं।
द लायट नाम के हालैण्ड के एक अफसर ने उल्लेख किया है कि आगरे के किले से एक मील की दूरी पर शाहजहाँ के पूर्व ही मानसिंह भवन था। शाहजहाँ के दरबारी इतिवृत्त ‘बादशाहनामा’ में उसी मानसिंह भवन में मुमताज को दफनाने की बात लिखी गई है।
बर्निए का विवरण
तत्कालीन फ्रेंच पर्यटक बर्निए ने लिखा है कि ताजमहल के (संगमरमरी) तहखाने में चकाचौंध करने वाला कोई दृश्य था। और उस कक्ष में मुसलमानों के अतिरिक्त किसी अन्य को प्रवेश नहीं करने देते थे। इससे स्पष्ट है कि वहां मयूर सिंहासन, चाँदी के द्वार, सोने के खम्भे इत्यादि थे और ऊपरले अष्टकोनी कक्ष में शिवलिंग पर पानी टपकने वाला सुवर्ण घट और संगमरमरी जालियों में जवाहरात इत्यादि थे। इतनी सारी सम्पत्ति हड़प करने के उद्देश्य से ही तो शाहजहां ने मृत मुमताज को उस मानसिंह महल में ही दफनाने की धृष्टता तथा दुराग्रह किया ताकि उस बहाने उस इमारत पर कब्जा कर अन्दर की सम्पत्ति लूटी जा सके।
मंडेलस्लो के विवरण में ताज महल के निर्माण का उल्लेख नहीं
जे० ए० मण्डेलस्लो ने मुमताज की मृत्यु के सात वर्ष पश्चात् Voyages & Travels into the East Indies नाम के निजी पर्यटन के संस्मरणों में आगरे का उल्लेख तो अवश्य किया है किन्तु ताजमहल निर्माण का कोई उल्लेख नहीं किया। टॅव्हरनिए के कथन के अनुसार 20 हजार मजदूर यदि 22 वर्ष तक ताजमहल का निर्माण करते रहते तो मॅण्डेलस्लो भी उस विशाल निर्माण कार्य का उल्लेख अवश्य करता।
शिलालेख का साक्ष्य
ताजमहल के हिन्दू निर्माण का साक्ष्य देने वाला काले पत्थर पर उत्कीर्ण एक संस्कृत शिलालेख लखनऊ के वस्तु-संग्रहालय (Museum) के ऊपरितम मंजिल में धरा हआ है। वह सन 1155 का है। उसमें राजा परमर्दिदेव के मन्त्री सलक्षण द्वारा यह कहा गया है कि “स्फटिक जैसा शुभ्र इन्दुमौलीश्वर (शंकर) का मंदिर बनाया गया। (वह इतना सुन्दर था कि) उसमें निवास करने पर शिवजी को कैलास लौटने की इच्छा ही नहीं रही। वह मन्दिर आश्विन शुक्ल पंचमी, रविवार को बनकर तैयार हुआ। ताजमहल के उद्यान में काले पत्थरों का एक मण्डप था ऐसा एक ऐतिहासिक उल्लेख है। उसी में वह संस्कृत शिलालेख लगा था ऐसा अनुमान है। उस शिलालेख को कनिंगहम ने जान-बूझकर बटेश्वर शिलालेख कहा है ताकि इतिहासज्ञों को भ्रम में डाला जा सके और ताजमहल के हिन्दू निर्माण का रहस्य गुप्त रहे। आगरे से 70 मील की दूरी पर बटेश्वर में वह शिलालेख नहीं पाया गया था। अतः उसे बटेश्वर शिलालेख कहना अंग्रेजी षड्यन्त्र है।
शाहजहाँ ने ताजमहल परिसर में जो तोड़मरोड़ और हेराफेरी की उसका एक सूत्र सन् 1874 में प्रकाशित पुरातत्व खाते (आर्किओलोजिकल सर्वे आफ इण्डिया) के वार्षिक वृत्त के चौथे खण्ड में पृष्ठ 216-217 पर अंकित है। उसमें लिखा है कि हाल में आगरे के वस्तुसंग्रहालय के आँगन में जो चौखुंटा काले बसस्ट प्रस्तर का स्तम्भ खड़ा है। वह स्तम्भ तथा उसी की जोड़ी का दूसरा स्तम्भ उसके शिखर तथा चबुतरे सहित कभी ताजमहल के उद्यान में प्रस्थापित थे। इससे स्पष्ट है कि लखनऊ के वस्तुसंग्रहालय में जो संस्कृत शिलालेख है वह भी काले पत्थर का होने से ताजमहल उद्यानमण्डप में प्रदर्शित था।
गरता है कि आपने ने अनुवादित हिंदी का प्रयोग किया है, अचिछा होता अगर आप कम से कम एक बार खुद पढ़ कर देखते। खैर, कोई बात नहीं.
अब हिंदी में फिर से बहुत सारे ब्लॉग हो गये हैं। मैंने अपने हिंदी ब्लॉग हिंदीडायरी पर फिर से काम करना शुरु कर दिया है। अगर आप हिंदी मे पढ़ने के शौकीन हैं तो एक बार जरूर पधारें।
टिप्पणी के लिए धन्यवाद मनीषा जी। आप सही कह रही हैं। यह श्री पीएन ओक की विख्यात किताब The Taj Mahal is a Temple Palace का ही हिंदी अनुवाद है। हालाँकि यह अनुवाद टीम हिंदीपथ द्वारा नहीं किया गया है, बल्कि पुस्तक ही अनुदित है जिसे आप यहाँ पढ़ रही हैं। इसी तरह हिंदी पथ पढ़ती रहें और अपने विचारों से हमें अवगत कराती रहें।
आपके ब्लॉग की सामग्री रुचिपूर्ण और पठनीय है। हिंदी भाषा में अधिक-से-अधिक पठनीय सामग्री इंटरनेट पर हो, यही हमारी इच्छा तथा ध्येय है। निश्चित ही आपका ब्लॉग इस दिशा में एक सकारात्मक क़दम है। इस कार्य के लिए आपको अनेकानेक साधुवाद!