विघ्नराज – Vighnaraj (अष्टविनायक मेंगणेश जी का सप्तम रूप)
विघ्नराज अवतार अष्टविनायक (Ashtavinayak) रूपों में गणेश जी का सातवां अवतार है। भगवान् श्रीगणेश का ‘विघ्नराज’ नामक अवतार विष्णु ब्रह्म का वाचक है। वह शेष वाहन पर चलने वाला तथा ममतासुर का संहारक है।
विघ्नराजावतारश्च शेषवाहन उच्यते ।
ममतासुर हन्ता स विष्णुब्रह्मेति वाचकः॥
एक बार की बात है। भगवती पार्वती अपनी सखियों से बात करती हुई हँस पड़ीं। उनके हास्य से एक पुरुष का जन्म हुआ। वह देखते-ही-देखते पर्वताकार हो गया। पार्वती जी ने उसका नाम ममतासुर रखा। उन्होंने उससे कहा कि तुम जाकर गणेश का स्मरण करो। उनके स्मरण से तुम्हें सबकुछ प्राप्त हो जायगा। माता पार्वती ने उसे गणेशजी का षडक्षर (वक्रतुण्डाय हुम्) मन्त्र प्रदान किया। ममतासुर माता के चरणों में प्रणाम कर वन में तप करने चला गया।
वहाँ उसकी शम्बरासुर से भेंट हुई। उसने ममतासुर को समस्त आसुरी विद्याएँ सिखा दीं। उन विद्याओं के अभ्यास से ममतासुर को सारी आसुरी शक्तियाँ प्राप्त हो गयीं। इसके बाद शम्बरासुर ने उसे विघ्रराज की उपासना की प्रेरणा दी। ममतासुर वहीं बैठकर कठोर तप करने लगा। वह केवल वायुपर रहकर विघ्नराज का ध्यान तथा जप करता था। इस प्रकार उसे तप करते हुए दिव्य सहस्र वर्ष बीत गये । प्रसन्न होकर गणनाथ प्रकट हुए। ममतासुर ने विघ्नराज के चरणों में प्रणाम कर भक्ति पूर्वक उनकी पूजा की। इसके बाद उसने कहा—‘प्रभो ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे ब्रह्माण्ड का राज्य प्रदान करें। युद्ध में मेरे सम्मुख कभी कोई विघ्न न हो। मैं भगवान् शिव आदि के लिये भी सदैव अजेय रहूँ।’ भगवान् विघ्नराजने कहा—‘दैत्यराज! तुमने दुःसाध्य वर की याचना की है, फिर भी मैं उसे पूरा करूँगा ।’
वर-प्राप्त कर ममता सुर पहले शम्बर के घर गया। वर-प्राप्ति का समाचार जानकर वह परम प्रसन्न हुआ। उसने अपनी रूपवती पुत्री मोहिनी का विवाह ममतासुर से कर दिया। यह समाचार जब शुक्राचार्य को मिला तो उन्होंने धूम-धाम से ममतासुर को दैत्यों का राजा बना दिया।
एक दिन ममतासुर ने शुक्राचार्य से अपनी विश्वविजय की इच्छा व्यक्त की। शुक्राचार्यने कहा—‘राजन्! तुम दिग्विजय तो करो, लेकिन विघ्नेश्वर का विरोध कभी मत करना। विघ्नराज की कृपासे ही तुम्हें इस शक्ति और वैभव की प्राप्ति हुई है।
इसके बाद ममतासुर ने अपने पराक्रमी सैनिकों द्वारा पृथ्वी और पाताल को जीत लिया। फिर स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया। इन्द्र से उसका भीषण संग्राम हुआ। रक्त की सरिता बह चली, परन्तु बलवान् असुरों के सामने देवगण न टिक सके। स्वर्ग ममतासुर के अधीन हो गया। युद्ध क्षेत्र में उसने भगवान् विष्णु और शिव को भी पराजित कर दिया सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर ममतासुर शासन करने लगा। देवताओं को बन्दी गृह में डाल दिया गया। धर्मा चरण का नाम भी लेने वाला कोई न रहा।
सभी देवताओं ने कष्ट निवारण के लिये विघ्नराज की पूजा की। एक वर्ष की कठोर तपस्या के बाद भगवान् विघ्नराज प्रकट हुए। देवताओं ने उनसे धर्म के उद्धार तथा ममतासुर के अत्याचार से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। भगवान् विघ्नराज ने नारद को ममतासुर के पास भेजा। नारद ने उससे कहा कि तुम अधर्म और अत्याचार को समाप्त कर विघ्नराज की शरण-ग्रहण करो, अन्यथा तुम्हारा सर्वनाश निश्चित है। शुक्राचार्य ने भी उसे समझाया, पर उस अहंकारी असुर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। ममतासुर की दुष्टता से विघ्नराज क्रोधित हो गये। उन्होंने अपना कमल असुर सेना के बीच छोड़ दिया। उसकी गन्ध से समस्त असुर मूर्च्छित एवं शक्तिहीन हो गये। ममतासुर काँपता हुआ विघ्नराज के चरणों में गिर पड़ा। उनकी स्तुति करके क्षमा माँगी विघ्नराज ने उसे क्षमा कर पाताल भेज दिया। देवगण मुक्त होकर प्रसन्न हुए। चारों तरफ भगवान् विघ्नराज की जयकार होने लगी।