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मदनसुन्दरी का पति – विक्रम बेताल की कहानी

“मदनसुन्दरी का पति” बेताल पच्चीसी की कहानी है। इसमें राजा विक्रम अपने तेज़ दिमाग़ से इस पहेली का हल करता है कि मदनसुन्दरी का असली पति कौन है। अन्य कहानियां पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – विक्रम-बेताल की कहानियाँ

सोमप्रभा की कथा का सही उत्तर जानकर बेताल फिर वृक्ष पर जाकर लटक गया। राजा विक्रमादित्य ने पुनः उस शिंशपा-वृक्ष से बेताल को उतारा और मौन भाव से उसे कंधे पर डालकर अपने गन्तव्य की ओर चल पड़ा।

मार्ग में फिर बेताल ने मौन भंग करके कहा, “राजन, तुम वीर हो, बुद्धिमान हो, इसीलिए मेरे प्रिय हो। अतएव मैं तुम्हें एक मनोरंजक कथा सुनाता हूं। इससे तुम्हारा ज्ञानवर्द्धन तो होगा ही, रास्ते के भय से भी तुम्हें मुक्ति मिलेगी।” बेताल ने कथा आरंभ की।

शोभावती नामक एक नगरी में एक राजा राज करता था। उसका नाम था यशकेतु। राज्य की उस राजधानी में देवी गौरी का एक उत्तम मंदिर था। मंदिर से दक्षिण में गौरी तीर्थ नाम का एक सरोवर था। वहां प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्ल-चतुर्दशी को एक मेला लगता था। भिन्न-भिन्न दिशाओं से बड़े-बड़े लोग वहां स्नान करने आया करते थे।

एक बार उक्त तिथि को ब्रह्मस्थल नाम के एक गांव का धवल नामक एक युवक धोबी वहां स्नान करने आया। उस तीर्थ में स्नान करने हेतु आई हुई, शुद्धपट की पुत्री मदनसुन्दरी को उसने देखा, और उसके रूप-सौंदर्य पर मोहित हो गया।

घर लौटकर वह बेचैन रहने लगा। उसने खाना-पीना भी छोड़ दिया। उसकी मां ने उसके बेचैन रहने का कारण पूछा तो धवल ने अपने मन की बात अपनी मां को बताई।

उसकी मां ने अपने पति को जाकर सारी बातें बताईं तो उसके पिता ने कहा, “बेटा, जिसके मिलने में कोई कठिनाई नहीं है, उसके लिए तुम इस प्रकार शोक क्यों कर रहे हो? मेरे मांगने पर शुद्धपट तुमको अपनी कन्या दे देगा क्योंकि कुल में, धन में और कर्म में हम उसके समान ही हैं। मैं उसे जानता हूं, वह भी मुझे जानता है। इसलिए यह कार्य मेरे लिए दुष्कर नहीं है।”

इस तरह बेटे को समझा-बुझाकर उसने उसे खाने-पीने के लिए राजी कर लिया। दूसरे दिन उसका पिता विमल उसे लेकर शुद्धपट के पास पहुंचा। वहां जाकर उसने अपने बेटे के लिए उसकी कन्या मांगी। उसके पिता ने आदरपूर्वक इसके लिए वचन दिया।

अगले दिन, विवाह का लग्न निश्चित करके उसने अपनी कन्या का विवाह धवल के साथ कर दिया। देखते ही जिस पर वह आसक्त हो गया था, ऐसी सुन्दरी से विवाह करके, सफल मनोरथ होकर धवल उस स्त्री सहित पिता के घर लौट आया। उन दोनों को सुखपूर्वक रहते हुए जब कुछ समय बीत गया, तब धवल का साला अर्थात् मदनसुन्दरी का भाई वहां आया।

सभी संबंधियो ने उसका आदर-सत्कार किया। बहन ने गले लगाकर उसका अभिवादन किया, फिर कुशलता पूछी। तत्पश्चात् कुछ देर विश्राम कर लेने के बाद उसके भाई ने उन लोगो से कहा, “पिताजी ने मुझे मदनसुन्दरी और मेरे बहनोई को निमंत्रित करने के लिए यहां भेजा है क्योंकि वहां देवी पूजन का उत्सव है।”

सभी संबंधियों ने उसकी बातें मान लीं और उस दिन उचित भोजन-पान के द्वारा उसका उचित स्वागत-सत्कार किया। सवेरा होने पर धवल ने अपनी पत्नी सहित अपने साले के साथ ससुराल के लिए प्रस्थान किया।

शोभावती नाम की उस नगरी के निकट पहुंचकर, धवल ने गौरी का विशाल मंदिर देखा। उसने अपने साले और पत्नी से श्रद्धापूर्वक कहा, “आओ, हम लोग माता गौरी के दर्शन कर लें।”

यह सुनकर साले ने उसे रोकते हुए कहा, “नहीं जीजाजी, अभी नहीं। अभी तो हम सब खाली हाथ हैं। पहले माता गौरी के लिए कुछ भेंट लाएंगे, तत्पश्चात् ही दर्शन करेंगे।”

“तब मैं स्वयं अकेला ही जाता है। तुम यहीं ठहरो, क्योंकि देवताओं को भेंट की अपेक्षा भक्त से श्रद्धा और विश्वास की अधिक अपेक्षा रहती है।” ऐसा कहकर धवल अकेला ही देवी दर्शन के लिए चला गया।

मंदिर में जाकर उसने श्रद्धापूर्वक देवी को नमन किया। फिर उसने सोचा, “लोग विविध प्राणियों की बलि देकर इस देवी को प्रसन्न करते हैं। मैं सिद्धि पाने के लिए अपनी ही बलि देकर इन्हें क्यों न प्रसन्न करूं?”

ऐसा सोचकर वह मंदिर के एकान्त गर्भगृह से एक तलवार ले आया, जिसे किसी यात्री ने पहले ही देवी को अर्पित किया था। मंदिर में लटकते हुए घंटे की जंजीर से उसने अपने केशों द्वारा अपने सिर को बांध लिया और तलवार से अपना सिर काटकर देवी को अर्पित कर दिया। गर्दन कटते ही वह भूमि पर आ गिरा।

जब वह बहुत देर तक नहीं लौटा तो उसे देखने के लिए उसका साला उस देवी के मंदिर में गया। मस्तक कटे अपने बहनोई को देखकर वह घबरा गया और उसी तरह उसने भी उस तलवार से अपना सिर काट डाला। जब वह भी लौटकर नहीं आया। तब मदनसुन्दरी का मन बहुत विकल हो गया और वह भी देवी के मंदिर में गई।

अन्दर जाकर जब उसने अपने पति और भाई का वह हाल देखा तो शोकाकुल हो वह भूमि पर गिर पड़ी और—’हाय यह क्या हुआ? मैं मारी गई।’ कहती हुई विलाप करने लगी।

इस प्रकार अचानक ही उन दोनों की मृत्यु पर शोक करती हुई, वह कुछ पल बाद उठ खड़ी हुई और सोचने लगी कि ‘अब मुझे भी जीवित रहकर क्या करना है?’

तब शरीर त्याग के लिए उद्यत वह सती स्तुति करने लगी–

“हे देवी, तुम सौभाग्य और सतीत्व की अधिष्ठात्री हो। तुम अपने पति कामरिपु (शिव) के अर्ध शरीर में निवास करती हो, तुम संसार की सभी स्त्रियों की शरणदायिनी हो! तुम दुःखों का नाश करने वाली हो। फिर तुमने मेरे पति और भाई को मुझसे क्यों छीन लिया?

मैं तो सदा तुम्हारी ही भक्ति करती रही हूँ। मेरे प्रति तुम्हारा यह कार्य उचित नहीं है। हे माँ, मैं तुम्हारी शरण में आई हूं अतः तुम मेरी प्रार्थना सुनो। दुर्भाग्य से लुटे हुए इस शरीर का अब मै त्याग करती हूं। अगले जन्म में मैं जब भी, जहां भी जन्म लूं, पति व भाई के रूप में मुझे ये ही दोनों प्राप्त हों।”

इस प्रकार स्तुतिपूर्वक देवी से निवेदन करके उसने उन्हें पुनः प्रणाम किया और तलाओं के द्वारा अशोक वृक्ष पर एक फंदा तैयार किया। फंदे को फैलाकर ज्योंही उसने अपने गले मे डाला, त्योंही आकाशवाणी हुई, “बेटी, ऐसा दुस्साहस मत करो। अल्पवयस्का होकर भी तुमने जो इतना साहस दिखलाया है, उससे मैं प्रसन्न हूं। फंदा हटा दो। तुम अपने पति और भाई के शरीरों पर उनके सिर जोड़ दो। मेरे वर से ये दोनों जीवित हो जाएंगे।”

यह सुनकर मदनसुन्दरी प्रसन्नता से अधीर हो गई। उसने अपने गले से फंदा निकाल दिया और घबराहट में बिना विचारे, उसने पति का सिर भाई के शरीर पर और भाई का सिर पति के धड़ पर जोड़ दिया।

तब देवी के वरदान से वे दोनों जीवित उठ खड़े हुए। उनके शरीर में कहीं कटने-फटने के निशान भी नहीं थे, लेकिन सिरों के बदल जाने से उनके शरीरों में संकरता आ गई थी।

अनन्तर, उन दोनों ने एक-दूसरे को अपनी-अपनी कथा सुनाकर प्रसन्नता प्राप्त की। उन्होंने भगवती गौरी को प्रणाम किया और फिर तीनों अपने इष्ट स्थानों की ओर चल पड़े।

राह में जाती हुई मदनसुन्दरी ने देखा कि उसने उनके सिरों की अदला-बदली कर दी है, तब वह घबरा गई और समझ न सकी कि उसे क्या करना चाहिए।

इतनी कथा सुनाकर बेताल ने राजा विक्रम से पूछा, “राजन, अब तुम यह बतलाओ कि शरीरों के इस प्रकार मिल जाने पर उसका पति कौन हुआ? जानते हुए भी यदि तुम न बतलाओगे तो तुम पर पहले कहा हुआ शाप पड़ेगा।”

तब बेताल के इस प्रश्न का उत्तर विक्रमादित्य ने इस प्रकार दिया, “हे बेताल, उन दोनों में से जिस शरीर पर उसके पति का सिर था, वही उसका पति है। क्योंकि सिर ही अंगों में प्रधान है और उसी से मनुष्य की पहचान होती है।”

राजा के इस प्रकार सही उत्तर देने पर बेताल उसके कंधे से उतरकर चुपचाप चला गया। राजा भी अपनी उत्तर देने की भूल स्वीकार करते हुए पुनः उसे पाने के लिए शिंशपा-वृक्ष की ओर चल पड़ा।

राजा विक्रमादित्य बेताल को लाने के लिए पुनः शिंशपा वृक्ष के नीचे पहुँच गया। उसने बेताल को उतारकर अपने कंधे पर डाला और चलना शुरू किया। बेताल ने राजा विक्रम को फिर से यह कहानी सुनानी शुरू की – सत्त्वशील साहसी या राजा?

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