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तीन चतुर पुरुष – विक्रम बेताल की कहानी

“तीन चतुर पुरुष” विक्रम और बेताल की मश्हूर कहानी है। बेताल पच्चीसी की यह कथा सिखाती है कि आँखों देखी बात ही सबसे पक्की होती है। आप अन्य कहानियाँ यहाँ पढ़ सकते हैं – विक्रम बेताल की कहानियाँ

सत्त्वशील साहसी या राजा” कहानी का उत्तर विक्रम से पाकर बेताल पुनः ग़ायब हो गया। पहले की तरह राजा विक्रमादित्य फिर उस शिंशपा (शीशम) के वृक्ष के पास जा पहुंचा। बेताल को वृक्ष से उतारकर उसने कंधे पर डाला और मौन भाव से अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा।

कुछ आगे चलने पर बेताल ने फिर मौन भंग किया और राजा से बोला, “राजन, उस योगी के कारण तुम सचमुच बहुत परिश्रम कर रहे हो। तुम्हारे परिश्रम की थकान मिटाने के लिए मैं तुम्हें एक और कथा सुनाता हूं किंतु शर्त वही रहेगी। कहानी सुनाते समय मौन ही रहना, अन्यथा मैं फिर इसी स्थान पर लौट आऊंगा।”

राजा की सहमति पर बेताल ने फिर एक कथा सुनाई, जिसका नाम है “तीन चतुर पुरुष”–

अंगदेश में ‘वृक्षघट’ नाम का एक ग्राम था जो ब्राह्मणों को दान में मिला था। वहां विष्णुस्वामी नाम का एक बहुत धनवान अग्निहोत्री ब्राह्मण रहता था। उस ब्राह्मण के तीन पुत्र थे जो अपने पिता के समान ही बुद्धिमान थे। एक बार उनके पिता ने एक यज्ञ का आयोजन किया, जिसके निमित्त उसने अपने तीनों पुत्रों से एक कछुआ लाने को कहा।

पिता की आज्ञा मानकर उसके तीनों पुत्र एक समुद्र तट पर कछुआ लाने के लिए पहुंचे। कछुआ पाकर सबसे बड़े भाई ने छोटे भाइयों से कहा, “सुनो बंधुओ, मुझे तो इस कछुए की दुर्गंध और चिकनेपन से घृणा हो रही है। अतः पिताजी के यज्ञ के लिए तुम दोनों ही इसे उठाओ और ले जाकर पिताजी को सौंप दो।”

इस पर उसके दोनों छोटे भाइयों ने कहा, “यदि तुम्हें इससे घृणा है तो हमको क्यों न होगी? अतः जब तक तुम इसे ले जाने में सहयोग नहीं करोगे, हम इसे लेकर नहीं जाएंगे।”

यह सुनकर बड़ा भाई बोला, “तुम्हें इसे लेकर जाना ही होगा। यदि तुम इसे लेकर नहीं गए तो पिताजी का यज्ञ पूरा नहीं हो सकेगा और तुम लोग नरक के भागी बनोगे।”

बड़े भाई के मुख से यह बात सुनकर उसके दोनों छोटे भाई हंसे और बोले, “भैया, तुम हमें धर्म का ज्ञान कराते हो। इस अवस्था में जो हमारा धर्म है, तुम्हारा भी तो वही है।”

छोटे भाइयों की बात सुनकर बड़ा भाई कुछ क्रुद्ध हो गया और बोला, “तुम लोग मेरी दक्षता नहीं जानते, इसलिए मैं किसी घृणित वस्तु को नहीं छू सकता।

इस पर मंझला भाई बोला, “दक्षता की बात क्या करते हो, मैं भी कुछ कम नहीं। मै तुमसे अधिक दक्ष हूं।” तब बड़े भाई ने कहा, “यदि ऐसी बात है तो हममें से सबसे छोटा इस कछुए को लेकर चले।”

यह सुनकर सबसे छोटे की मूँछें तन गईं। बोला, “तुम दोनों ही मूर्ख हो, इसलिए मुझसे ऐसी आशा रखते हो। जानते नहीं कि मैं तुम दोनों से अधिक चतुर हूं। मैं शय्या दक्ष हूं।”

इस प्रकार वे तीनों भाई आपस में ही झगड़ने लगे और कछुए को छोड़कर अपने झगड़े के निबटारे हेतु उस प्रदेश के राजा के पास, विटंकपुर नामक उसके नगर की ओर चल पड़े।

राजा के महल में अंदर गए और राजा को सारा वृत्तांत सुनाया।

सुनकर राजा ने कहा, “आप तीनों यहीं ठहरिए। मैं आप तीनों की परीक्षा लूंगा।”

भोजन के समय राजा ने उन तीनों को बुलवाया और अपने रसोइए को कहकर उनके सामने नाना-प्रकार के व्यंजन परोसवाए।

दोनों छोटे भाई तो उस स्वादिष्ट भोजन को खाने लगे, किंतु बड़ा भाई भोजन की उपेक्षा कर एक ओर मुंह बनाए बैठा रहा। उसने एक ग्रास भी मुंह में न डाला।

जब राजा ने स्वयं उससे पूछा, “आर्य, भोजन तो स्वादिष्ट और सुगंधित है। आप खाते क्यों नहीं?” तो उसने उत्तर दिया, “राजन, इस भात में मुर्दे के धुएं की दुर्गंध है। इसीलिए स्वादिष्ट होने पर भी मेरी इच्छा इसे खाने की नहीं हो रही।”

उसके ऐसा कहने पर राजाज्ञा से सबने उस भात को सूंघने के बाद कहा, “उत्तम कोटि का यह चावल बिल्कुल दोषरहित है। इसमें किसी प्रकार की गंध भी नहीं है।”

भोजनदक्ष बड़े भाई ने भी उसे नाक से सूंघा, पर खाया नहीं। इस पर राजा ने उन चावलों के स्रोत का पता लगवाया कि वह कहां पैदा किए गए थे, तो पता चला कि चावल एक ऐसे खेत के थे, जो श्मशान के बिल्कुल पास था।

भोजनदक्ष का कहना बिल्कुल सच था। श्मशान में मुर्दे जलते ही हैं, उन्हीं के जलने की बदबू चावलों में रच-बस गई थी।

राजा भोजनदक्ष की योग्यता को मान गया। उसने अपने रसोइया को दूसरा भोजन बनाकर लाने का आदेश दिया। भोजन के उपरान्त राजा ने उन तीनों को अलग-अलग कमरों में भेज दिया। फिर उसने नगर की एक गणिका को बुलवा भेजा।

उस सर्वांग सुन्दरी को अच्छी तरह सजा-संवारकर राजा ने उस दूसरे, नारीदक्ष ब्राह्मण के पास भेजा। पूर्णिमा के समान मुख वाली और काम को जगाने वाली वह स्त्री, राजा के अनुचरों के साथ उस नारीदक्ष के शयन गृह में गई।

ज्योंही वह गृह में प्रविष्ट हुई, उसकी कांति से कमरा दमक उठा। किंतु उस नारीदक्ष को मूर्छा-सी आने लगी। उसने अपनी नाक दबा ली और राजा के अनुचरों से कहा, “इसे यहां से ले जाओ, नहीं तो मैं मर जाऊंगा। क्योंकि इसके भीतर से बकरी की दुर्गंध आ रही है।”

उसकी यह बातें सुनकर राजा के अनुचर उस घबराई हुई गणिका को राजा के पास ले गए और उससे सारा वृत्तांत कह सुनाया। राजा ने तत्काल ही नारीदक्ष को बुलवाकर कहा, “इस गणिका ने चंदन, कपूर आदि उत्तम सुगंधियां लगा रखी हैं, जिनकी सुगंध चारों ओर फैल रही है। यह सजी-संवरी है फिर भला इसके शरीर से बकरी की गंध कैसे आ सकती है?”

राजा के ऐसा कहने पर भी जब नारीदक्ष ने यह बात नहीं मानी, तो राजा सोच में पड़ गया। युक्तिपूर्वक उस गणिका से पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि बचपन में उसकी माता तथा भाई के मर जाने पर उसे बकरी का दूध पिलाकर पाला गया था।

तब राजा नारीदक्ष की चतुराई पर बहुत विस्मित हुआ और उसकी प्रशंसा की। अनन्तर, उसने तीसरे ब्राह्मण को, जो शय्यादक्ष था, उसकी इच्छा के अनुसार शैय्या दी। उस पलंग पर सात गद्दे बिछे हुए थे।

बहुमूल्य कक्ष में वह शय्यादक्ष पलंग पर सोया, जिस पर धुली हुई और मुलायम चादर बिछी हुई थी। अभी रात आधी ही बीती थी कि वह नींद से जाग उठा और हाथ से बगल को दबाए हुए पीड़ा से कराहने लगा।

राजा के जो अनुचर वहां थे। उन्होंने देखा कि उसके शरीर में केश का एक गहरा और कठोर दाग बन गया है। अनुचर ने जब राजा से जाकर यह बात कही तो उसने कहा, “तुम लोग जाकर देखो कि गद्दों के नीचे कुछ है या नहीं।”

उन लोगों ने एक-एक गद्दे के नीचे देखा, तो सबसे अंतिम गद्दे के नीचे पलंग पर एक केश पड़ा मिला। उसे लाकर जब राजा को दिखलाया गया तो साथ आए शैय्यादक्ष के अंग पर वैसा ही निशान देखकर राजा को विस्मय हुआ। राजा यह सोचकर बहुत देर तक आश्चर्य करता रहा कि सात गद्दों के नीचे उसे केश का दाग शय्यादक्ष के शरीर पर कैसे पड़ गया। इसी सोच-विचार में किसी तरह उसने वह रात बिताई।

दूसरे दिन राजा ने उन तीनों को उनकी अद्भुत चतुरता और सुकुमारता के लिए तीन लाख स्वर्णमुद्राएं दीं। तब वे तीनों सुखपूर्वक रहने लगे और कछुए को तथा पिता के यज्ञ में विघ्न पड़ने से जो पाप हुआ था, उसको भूल गए।

यह अद्भुत कथा सुनाकर बेताल ने विक्रमादित्य से पूछा, “राजन, इस कहानी में तीन चतुर पुरुष हैं। पहले कहे गए मेरे शाप को याद करते हुए अब तुम यह बताओ कि उन तीनों–भोजनदक्ष, नारीदक्ष और शय्यादक्ष–में से कौन अधिक चतुर था?”

यह सुनते ही राजा ने बेताल को उत्तर दिया, “बेताल! मैंने ‘तीन चतुर पुरुष’ नामक यह कथा भली-भाँति सुनी है। मैं उन तीनों में शैय्या-दक्ष को ही श्रेष्ठ समझता हूं क्योंकि उसकी बात में कुछ छिपा-ढका नहीं था। उसके अंग में केश का दाग स्पष्ट रूप से देखा गया था। दूसरों ने जो कुछ कहा, हो सकता है औरों के मुंह से शायद वे बातें उन्होंने पहले से जान ली हों।”

राजा के ऐसा कहने पर पहले की ही तरह वह बेताल उसके कंधे से उतरकर चला गया। राजा भी उसी तरह घबराए बिना उसके पीछे-पीछे चल पड़ा।

राजा विक्रमादित्य बेताल को लाने के लिए पुनः शिंशपा वृक्ष के नीचे पहुँच गया। उसने बेताल को उतारकर अपने कंधे पर डाला और चलना शुरू किया। बेताल ने राजा विक्रम को फिर से यह कहानी सुनानी शुरू की – राजकुमारी अनंगरति की कहानी

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