अर्घ्य चढ़ाऊँ
“अर्घ्य चढ़ाऊँ” स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया ‘नवल’ द्वारा हिंदी खड़ी बोली में रचित कविता है। इस कविता की रचना सन् 1964 में की गयी थी। इसमें कवि विरह की अकुलाती वेदना व्यक्त कर रहा है। पढ़ें और आनंद लें इस कविता का–
तुम आओ तो गीत सुनाऊँ।
ओ चिरमीत ! तुम्हें खो करके
युग-युग से मैं भटक रहा हूँ
तृषित अधर प्राणों में हलचल
जग-जग को भी खटक रहा हूँ।
अब जीवन नैराश्य बना है
किस को करुण पुकार सुनाऊँ ?
अब तक मैंने यही सुना है
तुम पुकार सुनकर आते हो
अपने जग की पीड़ाओं को
आकर स्वयं मिटा जाते हो।
अविरल आँखें बरस रही हैं
किन चरणों पर अर्घ्य चढ़ाऊँ ?
व्याकुल अन्तर आज प्रतीक्षा
करते-करते हार चुका है।
आशाओं का दीपक बाधाओं
की झंझा देख बुझा है
गहन निशा में भटक रहा हूँ
किस को अब आधार बनाऊँ?
मेरी पूजा और तपस्या
देखो विफल न होने पाये।
मुझसे जग कुछ भी कह ले
पर तुम पर कुछ आरोप न आये
तुम्हें छोड़ भावों की निधि का
किस को स्वामी आज बनाऊँ?
उर की तंत्री में खिंचाव है,
उत्सुक मधुर गीत गाने को।
आओ प्रियतम एक बार फिर
अपने जन को अपनाने को
ये पूजा के गीत बताओ
किस के आगे बैठ सुनाऊँ
(सन् 1964)
स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया हिंदी खड़ी बोली और ब्रज भाषा के जाने-माने कवि हैं। ब्रज भाषा के आधुनिक रचनाकारों में आपका नाम प्रमुख है। होलीपुरा में प्रवक्ता पद पर कार्य करते हुए उन्होंने गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, सवैया, कहानी, निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाकार्य किया और अपने समय के जाने-माने नाटककार भी रहे। उनकी रचनाएँ देश-विदेश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। हमारा प्रयास है कि हिंदीपथ के माध्यम से उनकी कालजयी कृतियाँ जन-जन तक पहुँच सकें और सभी उनसे लाभान्वित हों। संपूर्ण व्यक्तित्व व कृतित्व जानने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – श्री नवल सिंह भदौरिया का जीवन-परिचय।