इतिहासहिंदी कहानी

आमुख – पंचतंत्र का इतिहास

Panchatantra Ka Itihaas

पंचतंत्र ग्रंथ न सिर्फ़ भारतीय साहित्य, बल्कि संपूर्ण विश्व साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। पञ्चतन्त्र की कहानियाँ विख्यात हैं और नीतिशास्त्र की अपूर्व सीख देती हैं। पूरे संसार पर छाप छोड़ने वाली यह किताब अपने भीतर विशिष्ट इतिहास भी संजोए हुए है।

प्रस्तुत लेख में श्री वासुदेवशरण अग्रवाल पंचतंत्र का इतिहास बहुत ही दिलचस्प तरीक़े से बता रहे हैं। पंचतंत्र की रोचक कथाएँ पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – पंचतंत्र की कहानियां

पंचतंत्र संस्कृत-साहित्य की अनमोल कृति है। न केवल इस देश में किन्तु अन्य देशों में भी, विशेषतः इस्लामी जगत् और यूरोप के सभी देशों के कहानी-साहित्य को पञ्चतन्त्र से बहुत बड़ी देन प्राप्त हुई। एक भारतीय विद्वान् ने डॉ० विण्टरनित्स से प्रश्न किया, “आपकी सम्मति में भारतवर्ष की संसार को मौलिक देन क्या है।” इसके उत्तर में संस्कृत-साहित्य के पारखी विद्वान् डा० विण्टरनित्स ने कहा–”एक वस्तु, जिसका नाम मैं तुरन्त और बेखटके ले सकता हूँ, वह पशु-पक्षियों पर ढालकर रचा हुआ कहानी-साहित्य है, जिसकी देन भारत ने संसार की दी है।” कहानियों के क्षेत्र में भारतीय कहानी-संग्रहों ने विश्व-साहित्य को प्रभावित किया हैं। पशु-पक्षियों की कहानी का सबसे पुराना संग्रह “जातक कथाओं” में है जो वस्तुत: लोक में प्रचलित छोटी-बड़ी कहानियाँ थीं और नाम-मात्र के लिए जिनका सम्बन्ध बुद्ध के जीवन के साथ जोड़ दिया गया ! जातकों की कहानियाँ सीधी-सादी, बिना सँवारी हुई अवस्था में मिलती हैं। उन्हीं का जड़ाऊ रूप पंचतंत्र में देखने को मिलता है, जो एक महान् कलाकार की पैनी बुद्धि और उत्कृष्ट रचना-शक्ति का पूर्ण कलात्मक उदाहरण है।

पंचतंत्र के लेखक विष्णुशर्मा नामक ब्राह्मण थे। कुछ लोग इस सीधे-सादे तथ्य में अनावश्यक सन्देह करते हैं। विष्णुशर्मा के मूल ग्रन्थ के आधार पर रची हुई पंचतन्त्र की वाचनाओं में उनका नाम ग्रन्थकर्ता के रूप में दिया हुआ है, जिसके सत्य होने में सन्देह का कोई कारण नहीं दीखता। किन्तु उनके विषय में और कुछ विदित नहीं। पञ्चतन्त्र के कथामुख प्रकरण से केवल इतना आभास मिलता है कि वे भारतीय नीतिशास्त्र के पारङ्गत विद्वान् थे। जिस समय उन्होंने पंचतंत्र की रचना की, उस समय उनकी आयु अस्सी वर्ष की थी। नीतिशास्त्र का परिपक्व अनुभव उन्हें प्राप्त हो चुका था। उन्होंने स्वयं कहा है–“मैंने इस शास्त्र की रचना का प्रयत्न अत्यन्त बुद्धिपूर्वक किया है जिससे औरों का हित हो।” जिस समय उन्होंने यह ग्रन्थ लिखा उनका मन सब प्रकार के इन्द्रिय-भोगों से निवृत्त हो चुका था और अर्थोपभोग का भी कोई आकर्षण उनके लिए नहीं रह गया था। इस प्रकार के विशुद्ध-बुद्धि, निर्मल-चित्त इस ब्राह्मण ने मनु, बृहस्पति, शुक्र, पराशर, व्यास, चाणक्य आदि आचार्यों के राजशास्त्र और अर्थशास्त्रों को मथकर लोकहित के लिए पञ्चतन्त्र रूपी यह नवनीत तैयार किया। ईरानी सम्राट् खुसरो के प्रमुख राजवैद्य और मंत्री बुर्जुए ने पंचतंत्र को अमृत की संज्ञा दी है जिसके प्रभाव से मृत व्यक्ति भी जीवित हो उठते हैं। उसने किसी पुस्तक में पढ़ा कि भारतवर्ष में किसी पहाड़ पर संजीवनी औषधि है जिसके सेवन से मृत व्यक्ति जी उठते हैं। उत्कट जिज्ञासा से वह ५५० ई० के लगभग इस देश में आया और यहाँ चारों ओर संजीवनी की खोज की। जब उसे ऐसी बूटी न मिली तब निराश होकर एक भारतीय विद्वान् से पूछा, “इस देश में अमृत कहाँ है ?” उसने उत्तर दिया, “तुमने जैसा पढ़ा था, वह ठीक है। विद्वान् व्यक्ति वह पर्वत है जहाँ ज्ञान की यह बूटी होती है और जिसके सेवन से मूर्ख-रूपी मृत व्यक्ति फिर से जी जाता है। इस प्रकार का अमृत हमारे यहाँ के पञ्चतन्त्र नामक ग्रन्थ में है।” तब बुर्जुए पञ्चतन्त्र की एक प्रति ईरान ले गया और वहाँ सम्राट् के लिए उसने पहलवी भाषा में उसका अनुवाद किया। पंचतंत्र का किसी विदेशी भाषा में यह पहला अनुवाद था, पर अब यह नहीं मिलता। उसके कुछ ही वर्ष बाद लगभग ५७० ई० में पहलवी पंचतंत्र का सीरिया देश की प्राचीन भाषा में अनुवाद हुआ। यह अनुवाद अचानक उन्नीसवीं शती के मध्य-भाग में प्रकाश में आया। इसका सम्पादन और अनुवाद जर्मन विद्वानों ने किया है। यह अनुवाद मूल संस्कृत पञ्चतन्त्र के भाव और कहानियों के सबसे अधिक सन्निकट है। पहलवी अनुवाद के आधार से दूसरा अनुवाद आठवीं शती में अब्दुल्ला-इब्न-उल-मुकफ्फा ने अरबी भाषा में किया, जिसका नाम है कलील: व दिमन:, जो करटक व दमनक इन दो नामों के रूप हैं। अब्दुल्ला ने अपने अनुवाद में एक भूमिका लिखी है एवं और कई कहानियाँ भी अन्त में जोड़ दी हैं। इस रूप में यह ग्रन्थ अरबी भाषा के सबसे अधिक लोकप्रिय ग्रन्थों में से है।

अरबी अनुवाद के आधार पर पंचतंत्र के विदेशी अनुवादों का वह सिलसिला शुरू हुआ जिसने सारे यूरोप की भाषाओं को छा लिया। ग्यारहवीं शती में यूनानी भाषा में यूरोप का सबसे पुराना अनुवाद हुआ। उसी से रूसी और पूर्वी यूरोप की अन्य स्लाव भाषाओं में कितने ही अनुवाद हुए। कालान्तर में इस यूनानी अनुवाद का परिचय पश्चिमी यूरोप के देशों को हुआ और सोलहवीं शती से लेकर अनेक बार लैटिन, इटैलियन और जर्मन भाषाओं में इसके अनुवाद हुए। लगभग १२५१ ई० में अरबी पंतन्त्र का एक अनुवाद प्राचीन स्पैनिश भाषा में हुआ। हेब्रू भाषा में भी अरबी से ही एक अनुवाद पहले हो चुका था। उसके आधार पर दक्षिणी इटली के कपुआ नगर में रहने वाले जौन नामक यहूदी ने लैटिन में उसका एक अनुवाद १२६० और १२७० ई० के बीच में किया। इसका नाम था “कलीलः दमनः की पुस्तक–मानवी जीवन का कोष”। मध्यकालीन यूरोपीय साहित्य में जौन कपुआ के अनुवाद की बड़ी धूम रही और उससे पश्चिमी यूरोप के दसियों देशों ने अपनी-अपनी भाषा में पंचतंत्र के अनुवाद किये। १४८० के लगभग कपुआ वाले पञ्चतन्त्र के संस्करण का अनुवाद जर्मन भाषा में हुआ। यह इतना लोकप्रिय हुआ कि एक संस्करण के बाद दूसरा संस्करण जनता में खपता गया; यहाँ तक कि पचास वर्ष में बीस से अधिक संस्करण बिक गए। डेन्मार्क, हॉलैंण्ड, आइसलैण्ड आदि की भाषाओं में भी इस जर्मन संस्करण के अनुवाद हुए।

कपुआ के लैटिन अनुवाद से सीधे ही स्पेन, चेक और इटली की भाषाओं में अनुवाद किये गए। दोनी नामक एक लेखक ने १५५२ ई० में जो अनुवाद इटली की भाषा में तैयार किया उसी से १५७० ई० में सर टॉमस नॉथ ने अंग्रेजी का पहला पञ्चतन्त्र तैयार किया जिसका दूसरा संस्करण १६०१ ई० ही में हुआ। इस प्रकार शेक्सपियर के जीवन-काल में ही अंग्रेजी भाषा को संस्कृत-साहित्य की यह निधि अनुवाद के रूप में मिल चुकी थी। अंग्रेज़ी का यह अनुवाद संस्कृत से पहलवी, पहलवी से अरबी, अरबी से हिब्रू, हिब्रू से लैटिन, लैटिन से इटैलियन और इटैलियन से अंग्रेजी, इस प्रकार मूल ग्रन्थ की छठी पीढ़ी में था।

अरबी कलील: व दिमन: का एक अनुवाद फारसी में नसरुल्ला ने बारहवीं शती में किया। उसी से पन्द्रहवीं शती में पुनः फारसी में अनवार सुहेली के नाम से एक संस्करण तैयार हुआ। इससे भी लगभग उतनी ही भाषाओं में उतने ही अधिक संस्करण तैयार हुए जितने अरबी के कलील: व दिमन: के। तुर्की, पश्चिमी एशिया और मध्य एशिया की भाषा में भी अनवार सुहेली के अनुवाद हुए हैं। १६४४ ई० में फ्रेंच भाषा में उसका अनुवाद छपा। लोगों में यह पिलपिली साहब की कहानियों (Fables of Pilpay) के नाम से मशहूर हो गया। प्रसिद्ध फ्राँसीसी कहानी-लेखक ला फौतें ने अपने संग्रह की अनेक कहानियाँ विद्वान् पिलपिली की कथाओं से ली हैं। अस्सी वर्ष बाद १७२४ में फारसी के अनवार सुहेली के तुर्की अनुवाद हुमायूँनामा से एक दूसरा फ्रेंच अनुवाद “विदपई की भारतीय कहानियाँ” इस नाम से प्रकाशित हुआ। इन दो ग्रन्थों के मूल फ्रेंचरूप और अन्य भाषाओं में अनुवाद लोगों की बहुत पसन्द आए। यूनान, हंगरी, पोलैण्ड, हॉलैंण्ड, स्वीडन, जर्मनी और इंग्लिस्तान, इन देशों में वे अनुवाद खूब चले। अंग्रेज़ी में ‘पिलपिली’ का संस्करण पहली बार १६९९ में छपा और उसके बाद अठारहवीं सदी-भर दमादम प्रकाशित होता रहा।

पञ्चतन्त्र के विदेशों में अनुवाद-सम्बन्धी इन सूचनाओं के लिए में श्री एजर्टन द्वारा पुनः-घटित पञ्चतन्त्र (Panchatantra Reconstructed), पूना का ऋणी हूँ।

भारतवर्ष के भीतर भी पंचतंत्र की लम्बी परम्परा पाई जाटी है। मूल ग्रन्थ तो अब लुप्त हो गया है किन्तु उसके आधार पर रचे हुए अन्य कई संस्करण उपलब्ध हैं। ये प्राचीन पाठ-परम्पराएँ गिनती में आठ हैं–(१) तन्त्राख्यायिका; (२) दक्षिण भारतीय पंचतंत्र; (३) नेपाली पञ्चतन्त्र; (४) हितोपदेश; (५) सोमदेव कृत कथासरित्सागर के अन्तर्गत पञ्चतन्त्र; (६) क्षेमेन्द्र कृत बृहत्कथा-मंजरी के अन्तर्गत पंचतंत्र, (७) पश्चिमी भारतीय पञ्चतन्त्र; और (८) पूर्णभद्र कृत पञ्चाख्यान।

(१) तन्त्राख्यायिका पंचतंत्र की काश्मीरी वाचना है। इसकी प्रतियाँ केवल काश्मीर में शारदा लिपि में मिली हैं। इसका सम्पादन डॉ० हर्टल ने किया है। उनका मत है कि इसमें पञ्चतन्त्र का असंक्षिप्त और अविकृत पाठ है, किन्तु डॉ० एजर्टन तन्त्राख्यायिका को इतना महत्व नहीं देते। तन्त्राख्यायिका की रचना का समय अनिश्चित हैं।

(२) दक्षिण भारतीय पंचतंत्र की पाठ-परम्परा में एजर्टन का विचार है कि मूल पंचतंत्र के गद्य-भाग का तीन चौथाई और पद्य-भाग का दो तिहाई सुरक्षित है। कुछ विद्वानों का तो यहाँ तक विचार है कि दक्षिण के महिलारोप्य नामक नगर का पंचतंत्र में कई बार उल्लेख होने से मूल पंचतंत्र की रचना वहाँ ही हुई होगी।

(३) नेपाली पंचन्त्र में किसी समय गद्य-पद्य दोनों थे। पीछे किसी ने पद्य-भाग अलग कर लिया जो आज भी उपलब्ध हैं। उसका गद्य-भाग लुप्त हो गया। संयोग से मूल का एक गद्य-वाक्य इसमें बचा रह गया है। इस वाचना में एक भी श्लोक ऐसा नहीं जो दक्षिण भारतीय वाचना में न हो किन्तु फिर भी जिस पाठ-परम्परा से इस वाचना का जन्म हुआ वह दक्षिण भारतीय पञ्चतन्त्र से पृथक् थी।

(४) हितोपदेश संस्कृत-साहित्य में इस समय पंचतंत्र से भी अधिक लोकप्रिय ग्रन्थ है। उसके कर्ता नारायण भट्ट ने पंचतंत्र की परम्परा में किन्तु बहुत-कुछ गद्य और पद्य-भाग की स्वतन्त्रता लेकर नौ सौ ईसवी के आसपास हितोपदेश की रचना की। पञ्चतन्त्र में पाँच तन्त्र हैं, लेकिन हितोपदेश में केवल चार विभाग हैं, यथा मित्र-लाभ, सुहृदय-भेद, विग्रह और सन्धि। पंचतंत्र का पहला मित्र-भेद नामक तन्त्र हितोपदेश में दूसरे स्थान पर है। विग्रह और सन्धि नामक विभागों की कल्पना इसमें नारायण भट्ट ने नये ढंग से की है जिनमें बहुत-सी नई कथाएँ भी जोड़ दी गई हैं। पंचतंत्र का तीसरा तन्त्र काकोलूकीय उस रूप में हितोपदेश में नहीं मिलता, किन्तु उसकी जगह कपूर द्वीप के राजा हिरणयगर्भ हंस और विन्ध्यगिरि के राजा चित्रवर्ण मयूर के बीच विग्रह और सन्धि की कथा है। पंचंत्र का चौथा तन्त्र लब्धप्रकाश हितोपदेश में नहीं मिलता और पाँचवें तन्त्र अपरिक्षितकारक की कथाएँ हितोपदेश के तीसरे और चौथे भाग में मिली हुई हैं। नारायण भट्ट ने हितोपदेश की रचना में दक्षिण भारतीय पंचतंत्र से सहायता ली। मूल पंचतंत्र के गद्य-भाग का कम-से-कम तीन-बटा-पाँच और पद्य-भाग का कम-से-कम एक-तिहाई अंश हितोपदेश में आ गया है।

(५) व (६) वृहत्कथा-मंजरी श्रौर कथासरित्सागर दोनों के अन्तर्गत शक्तियशालम्बक में पंचतंत्र की कथा आती है। किन्तु पञ्चतन्त्र के इन रूपों में मूल ग्रन्थ का कलात्मक रूप बिलकुल लुप्त हो गया है। वह निष्प्राण संक्षेप-मात्र है। वृहत्कथा के अनुसन्धानकर्ता श्री लाकोते का विचार है कि मूल वृहत्कथा में पञ्चतन्त्र का कोई स्थान न था। हो सकता है कि पंचतंत्र की लोकप्रियता के कारण पैशाची वृहत्कथा में किसी समय संस्कृत-पञ्चतन्त्र का सार ले लिया गया हो और उसके आधार पर क्षेमेन्द्र तथा सोमदेव ने फिर संस्कृत में अनुवाद किया हो। क्षेमेन्द्र ने काश्मीर में प्रचलित तन्त्राख्यायिका का भी उपयोग किया, क्योंकि मूल पंचतंत्र में अप्राप्य किन्तु क्षेमेन्द्र में प्राप्त पाँच कहानियाँ ऐसी हैं जों तन्त्राख्यायिका में पाई जाती हैं।

(७) पश्चिम भारतीय पञ्चतन्त्र की परम्परा वह है जिसका एक रूप निर्णयसागर प्रेस से छपा हुआ पञ्चतन्त्र का संस्करण है। इसी का दूसरा रूप बम्बई संस्कृत सीरीज़ का संस्करण है। इस वाचना की विद्वान् लोग पंचतंत्र की सादी या अनुपवृहित वाचना (Textus simplicior) मानते हैं। इस वाचना का रूप एक सहस्र ईसवी के लगभग वन चुका था।

भारत में पञ्चतन्त्र की विविध वाचनाओं के सम्बन्ध की जानकारी के लिए में श्री योगीलाल जी संडेसरा के पंचतंत्र के उपोद्घात का ऋणी हूँ।

(८) इसी को मूल आधार मानकर पूर्णभद्र ने ११९६ ई० में पञ्चाख्यानग्रन्थ की रचना की जो मूल पंचतंत्र की विस्तृत वाचना (Textus ornatior) मानी जाती है। पूर्णभद्र का ही ऐसा संस्करण है जिसका निश्चित समय ज्ञात है। उसने लिखा है कि उसके समय में पञ्चतन्त्र की पाठपरम्परा बिखर चुकी थी तब उसने पंचतंत्र की सब उपलब्ध सामग्री को जोड़-बटोरकर उस ग्रन्थ का जीणोद्धार किया और प्रत्येक अक्षर, प्रत्येक पद, प्रत्येक वाक्य, प्रत्येक श्लोक और प्रत्येक कथा का उसने संशोधन किया। इस प्रकार प्राचीन कई परम्पराओं को एकत्र करके पूर्णभद्र ने एक नई रचना पंचाख्यान के रूप में प्रस्तुत की।

इन अनेक वाचनाओं के मूल में जो पञ्चतन्त्र था उसका स्वरूप जानने की स्वाभाविक जिज्ञासा होती है। डॉ० एजर्टन ने ऊपर लिखी समस्त सामग्री की तुलना करके पूर्णभद्र की तरह एक-एक अक्षर का तुलनात्मक विचार करके मूल पंचतंत्र का एक संस्करण तैयार किया जिसे उन्होंने पुनःघटित पंचतंत्र (Panchatantra Reconstructed) कहा है। उस पंचतंत्र की भाषा, शब्दावली, शैली, कहने का ढंग, संक्षिप्त अर्थगर्भित वाक्य-विन्यास और कथाओं का गठा हुआ ठाठ, इन सबको देखने से स्पष्ट जान पड़ता हैं कि गुप्तकाल की कोई अत्यन्त उत्कृष्ट कृति हमारे सामने आ गई है। आवश्यकता है कि मूल पंचतन्त्र के उस संस्करण की समस्त सांस्कृतिक सामग्री और शब्दावली का अध्ययन करके उसका अनुवाद भी हिन्दी-जगत् के लिए प्रस्तुत किया जाय। वह पञ्चतन्त्र निश्चय ही महान् साहित्यकार की विलक्षण कलापूर्ण रचना है जिसमें लेखक की प्रतिभा द्वारा कहानियाँ और संवाद अत्यन्त ही सजीव हो उठे हैं। डॉ० एजर्टन के शब्दों में पञ्चतन्त्र के उस मूल रूप को जब हम दूसरी वाचनाओं से मिलाते हैं तो यह बात एकदम स्पष्ट हो जाती है कि वह न केवल साहित्यिक सौन्दर्य की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ है किन्तु सबसे सुन्दर निखरी हुई और निपुणतम रचना है।

डॉ० मोतीचन्द्र का प्रस्तुत अनुवाद पश्चिम भारतीय पंचतंत्र की वाचना के अनुसार प्रकाशित निर्णयसागर संस्करण को आधार मानकर किया गया है। यही संस्करण इस समय सबसे अधिक सुलभ और लोकप्रिय है। हिन्दी में पञ्चतन्त्र के पहले भी कई अनुवाद किये गए थे जो पुरानी हिन्दी पुस्तकों की खोज में प्राप्त हुए हैं। खेद है कि अभी तक पंचतंत्र की उस परम्परा पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। आधुनिक समय में भी पंचतंत्र के कुछ अनुवाद हिन्दी में हुए हैं। प्रस्तुत अनुवाद की विशेषता यह है कि इसमें मुहावरेदार हिन्दी भाषा का अधिक-से-अधिक प्रयोग किया गया है जिससे पञ्चतन्त्र के नोक-झोंक-भरे संवादों और ओजपूर्ण प्रसंगों का सौन्दर्य बहुत ही खिल गया है। हिन्दी-अनुवाद प्राय: स्वतन्त्र जँचता है; संस्कृत के सहारे उसे नहीं चलना पड़ता। आशा है यह अनुवाद पंचतंत्र के हिन्दी-अनुवादों के लिए एक नई शैली और दिशा का पथ-प्रदर्शन करेगा। वैसे तो यह कहा जा सकता है कि राइडरकृत पंचतंत्र के अंग्रेजी अनुवाद में भाषा और भाव दोनों के नुकीलेपन का जो आदर्श बन गया है उस तक पहुँचने के लिए हिन्दी में अभी कितने ही प्रयत्न करने होंगे। विशेषतः हमें तब तक सन्तोष न मानना चाहिए जब तक पञ्चतन्त्र के संस्कृत-श्लोकों का अनुवाद हिन्दी के वैसे ही चोखे, नुकीले और पैने पद्यों में न हो जाय।

मूल की भाषा या अनुवादों के गुणों के अतिरिक्त पंचतंत्र का जो सच्चा महत्व और दृष्टिकोण है उसकी ओर भी ध्यान देना आवश्यक है। विष्णु शर्मा ब्राह्मण ने सिंहनाद करते हुए घोषणा की थी कि पंचतंत्र की युक्ति से छः महीने के भीतर वह राजपुत्रों को नीति-शास्त्र में पारंगत बना देगा। उसकी दृष्टि में पंचतंत्र वह ग्रन्थ है जिसके नीतिशास्त्र को जान लेने पर और कहानियों की सहायता से उसमें रम जाने पर कोई व्यक्ति जीवन की होड़ में हार नहीं मान सकता, फिर चाहे इन्द्र ही उसका वैरी क्यों न हो ! राइडर ने अत्यन्त भावपूर्ण शब्दों में अपने अनुवाद की भूमिका में लिखा है–“पंचतंत्र एक नीतिशास्त्र या नीति का ग्रन्थ है। नीति का अर्थ हैं जीवन में बुद्धिपूर्वक व्यवहार। पश्चिमी सभ्यता को इसके लिए कुछ लज्जित होना पड़ता है कि अंग्रेजी, फ्रेंच, लैटिन या ग्रीक उसकी किसी माषा में नीति के लिए कोई ठीक पर्याय नहीं है। … सर्वप्रथम, नीति इस बात को मानकर चलती है कि मनुष्य विचारपूर्वक अपने लिए एकाकी जीवन का मार्ग छोड़कर सामाजिक जीवन का मार्ग चुनता है। दूसरे, नीति-प्रधान दृष्टिकोण इस प्रश्न का सराहनीय उत्तर देता है कि मनुष्यों के बीच में रहकर जीवन का अधिक-से-अधिक रस किस प्रकार प्राप्त किया जाय। … नीतिप्रधान जीवन वह हैं जिसमें मनुष्य की समस्त शक्तियों और सम्भावनाओं का पूरा विकास हो, अर्थात् एक ऐसे जीवन की प्राप्ति जिसमें आत्मरक्षा, धन-समृद्धि, संकल्पमय कर्म, मित्रता और उत्तम विद्या, इन पाँचों का इस प्रकार समन्वय किया जाय कि उससे आनन्द की उत्पत्ति हो। वह जीवन का सम्भ्रान्त आदर्श हैं जिसे पञ्चतन्त्र की चतुराई और बुद्धि से भरी हुई पशु-पक्षियों की कहानियों के द्वारा अत्यन्त कलात्मक रूप में रखा गया है।”

— वासुदेवशरण अग्रवाल

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी पथ
error: यह सामग्री सुरक्षित है !!