मुस्कराता जाऊँगा
“मुस्कराता जाऊँगा” स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया ‘नवल’ द्वारा हिंदी खड़ी बोली में रचित कविता है। इस कविता की रचना 12 फ़रवरी सन् 1967 को की गयी थी। इसमें कवि कठिन परिस्थितियों में भी मुस्कुराने की बात कह रहा है। पढ़ें और आनंद लें इस कविता का–
सौ-सौ बज्र गिरें ऊपर से मैं मुस्काता जाऊँगा ।
भूतल सुलग रहा हो फिर भी मैं बढ़ता ही जाऊँगा।
मैं ऐसा पपिहा हूँ जिसने कभी नहीं जल को माँगा,
प्यासे रह करके भी मैंने कभी नहीं प्रण को त्यागा।
मेरी मज़बूरी से कोई लाभ उठा न पायेगा,
मेरे उठे कदम को कोई भी लौटा न पायेगा,
फेस करके व्यालों में भी मैं, अपनी बीन बजाऊँगा ।
सौ-सौ बज्र गिरें ऊपर से मैं मुस्काता जाऊँगा।
मैं वह दीपक नहीं बुझा जो आँधी में तूफानों में,
मैं वह पग भी नहीं रुका जो शूलों में चट्टानों में।
मैं वह नद हूँ जिसे गोद में पर्वत बाँध नहीं पाये,
मैं वह विद्युत हूँ जिसको बादल भी साध नहीं पाये,
यह धरती क्या आसमान में भी मैं राह बनाऊँगा।
सौ-सौ बज्र गिरैं ऊपर से मैं मुस्काता जाऊँगा ।
अन्धकार मुँह छिपा भागता ऐसा प्रखर प्रकाश हूँ,
नाश सृजन बनकर चलता जब ऐसा मधुर विकास हूँ।
मैंने बदला भाग्य उठे जब पग मंजिल की ओर को,
धरती क्या मैं नाप चुका हूँ आसमान के छोर को।
मरकर भी मैं अमर रहा हूँ सबको पाठ पढ़ाऊँगा।
सौ-सौ बज्र गिरें ऊपर से मैं मुस्काता जाऊँगा।
दिनांक 12-2-67
स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया हिंदी खड़ी बोली और ब्रज भाषा के जाने-माने कवि हैं। ब्रज भाषा के आधुनिक रचनाकारों में आपका नाम प्रमुख है। होलीपुरा में प्रवक्ता पद पर कार्य करते हुए उन्होंने गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, सवैया, कहानी, निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाकार्य किया और अपने समय के जाने-माने नाटककार भी रहे। उनकी रचनाएँ देश-विदेश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। हमारा प्रयास है कि हिंदीपथ के माध्यम से उनकी कालजयी कृतियाँ जन-जन तक पहुँच सकें और सभी उनसे लाभान्वित हों। संपूर्ण व्यक्तित्व व कृतित्व जानने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – श्री नवल सिंह भदौरिया का जीवन-परिचय।