स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्रीमती ओलि बुल को लिखित (15 फरवरी, 1900)
(स्वामी विवेकानंद का श्रीमती ओलि बुल को लिखा गया पत्र)
लॉस एंजिलिस,
१५ फरवरी, १९००
प्रिय धीरा माता,
यह पत्र आपको जब प्राप्त होगा, उससे पहले ही मैं सैन फ्रांसिस्को रवाना हो जाऊँगा। कार्य के सम्बन्ध में आपको सब कुछ विदित ही है। मैंने कोई विशेष कार्य नहीं किया है; किन्तु प्रतिदिन मेरा हृदय – देह एवं मन दोनों ही – अधिकतर सबल बनता जा रहा है। किसी किसी दिन मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैं सब कुछ बरदाश्त कर सकता हूँ और सब प्रकार के दुःखों को भी सहन कर सकता हूँ। कुमारी मूलर ने जो कागज का बण्डल भेजा था, उसमें कोई उल्लेखनीय कागज नहीं था। उनका पता न जानने के कारण मैंने उन्हें कुछ नहीं लिखा, इसके अलावा मुझे डर भी था।
अकेले रहने पर ही मैं अधिक अच्छी तरह से कार्य कर सकता हूँ; और जब मैं सम्पूर्णतः निःसहाय रहता हूँ, तभी मेरे देह एवं मन सबसे अधिक अच्छे रहते हैं! जब मैं अपने गुरुभाइयों को छोड़कर आठ वर्ष तक अकेला रहा था, तब कभी एक दिन के लिए भी मैं बीमार नहीं पड़ा था। अब पुनः अकेला रहने के लिए प्रस्तुत हो रहा हूँ! यह निःसन्देह एक आश्चर्य की बात है। किन्तु माँ मुझे उसी प्रकार रखना चाहती हैं – जैसे कि ‘जो’ कहती है ‘अकेले गैण्डे की तरह घूमना’ अभीष्ट है।… बेचारे तुरीयानन्द को न जाने कितना कष्ट उठाना पड़ा है, किन्तु उसने मुझे कुछ भी नहीं लिखा – वह नितान्त सरलहृदय तथा भोलाभाला है। श्रीमती सेवियर के पत्र से मालूम हुआ कि बेचारा निरंजनानन्द कलकत्ते में इतना अधिक बीमार हो गया है कि अब तक वह जीवित है अथवा नहीं, यह भी नहीं कहा जा सकता। हाँ एक बात और है, सुख-दुःख दोनों ही आपस में हाथ पकड़कर चलना पसन्द करते हैं। यह एक अद्भुत घटना है। वे मानो एक शृंखला बाँधकर चलते हैं। मेरी बहन के पत्र से विदित हुआ कि उसने जिस कन्या को पाला था, उसका देहान्त हो गया। भारत के भाग्य में मानो दुःख ही दुःख लिखा हुआ है। ठीक है, ऐसा ही होने दो! सुख-दुःख में अब किसी प्रकार की प्रतिक्रिया मुझमें नहीं होती! इस समय मानो मैं लोहे जैसा बन चुका हूँ। होने दो – ‘माँ’ की इच्छा ही पूर्ण हो!
गत दो वर्षों से मैंने जो अपनी दुर्बलता का परिचय दिया है, तदर्थ मैं अत्यन्त ही लज्जित हूँ। उसकी समाप्ति से मुझे खुशी है।
आपकी चिरस्नेहाबद्ध सन्तान,
विवेकानन्द