नये मठ की भूमि पर श्रीरामकृष्ण की प्रतिष्ठा
स्थान – बेलुड़, किराये का मठ
वर्ष – १८९८ ईसवी
विषय – नये मठ की भूमि पर श्रीरामकृष्ण की प्रतिष्ठा – आचार्य शंकरकी अनुदारता – बौद्ध धर्म का पतन, कारण-निर्देश – तीर्थमाहात्म्य – ‘रथेतु वामनं दृष्ट्वा’ इत्यादि श्लोक का अर्थ – भावाभाव के अतीत ईश्वर स्वरूप की उपासना।
आज स्वामीजी नये मठ की भूमि पर यज्ञ करके श्रीरामकृष्ण की प्रतिष्ठा करेंगे। प्रतिष्ठा दर्शन करने की इच्छा से शिष्य पिछली रात से ही मठ में उपस्थित है।
प्रातःकाल गंगास्नान कर स्वामीजी ने पूजाघर में प्रवेश किया। फिर पूजन के आसन पर बैठकर पुष्पपात्र में जो कुछ फूल और बिल्वपत्र थे, दोनों हाथ में सब एक साथ उठा लिये और श्रीरामकृष्णदेव की पादुकाओं पर अर्पित कर ध्यानस्थ हो गये – कैसा अपूर्व दर्शन था! उनकी धर्म प्रभाविभासित स्निग्धोज्ज्वलकान्ति से पूजागृह मानो एक अद्भुत ज्योति से पूर्ण हो गया! स्वामी प्रेमानन्द तथा अन्य स्वामीगण पूजागृह के द्वार पर खड़े रहे।
ध्यान तथा पूजा समाप्त होने के बाद नये मठ की भूमि में जाने का आयोजन होने लगा। ताँबे के जिस डिब्बे में श्रीरामकृष्णदेव की भस्मास्थि रक्षित थी, स्वामीजी स्वयं उसको अपने कन्धे पर रखकर आगे चलने लगे। शिष्य अन्य संन्यासियों के साथ पीछे पीछे चला। शंख-घण्टों की ध्वनि चारों ओर गूँज उठी। भागीरथी गंगाजी अपनी लहरों से मानो हाव-भाव के साथ नृत्य करने लगीं। मार्ग से जाते समय स्वामीजी शिष्य से बोले, ‘श्रीगुरुदेव ने मुझसे कहा था कि तू मुझे कन्धे पर चढ़ाकर जहाँ ले जायगा, मैं वहीं जाऊँगा और रहूँगा, चाहे वह स्थान वृक्ष के तले हो या कुटी हो।’ इसीलिए मैं स्वयं उनको कन्धे पर उठाकर नयी मठभूमि पर ले जा रहा हूँ। निश्चय जान लेना कि श्रीगुरुदेव ‘बहुजनहिताय’ यहाँ दीर्घ काल रहेंगे।
शिष्य – श्रीरामकृष्ण ने आपसे यह बात कब कही थी?
स्वामीजी – (मठ के साधुओं को दिखाकर) क्या इनसे कभी यह बात नहीं सुनी? काशीपुर के बाग में उन्होंने यह कहा था!
शिष्य – जी हाँ, हाँ। उसी समय सेवाधिकार के बारे में श्रीरामकृष्ण के गृहस्थ तथा संन्यासी भक्तों में कुछ फूट-सी पड़ गयी थी।
स्वामीजी – ‘हाँ, फूट तो नहीं कह सकते, पर मन में कुछ मैलसा जरूर आ गया था। स्मरण रखना कि जो श्रीरामकृष्ण के भक्त है, जिन्होने उनकी कृपा यथार्थ पायी है, वे गृहस्थ हो या संन्यासी, उनमें कभी कोई फूट नहीं हो सकती और न रही है। फिर भी उस थोड़ेसे मनोमालिन्य का कारण क्या था, सुनेगा? सुन, प्रत्येक भक्त अपने अपने रंग से श्रीरामकृष्ण को रँगता है और इसीलिए वह उन्हें भिन्न भिन्न भाव से देखता है तथा समझता है। मानो वे एक सूर्य है और हम लोग भिन्न भिन्न रंगों के कांच अपनी आँखों के सामने लगाकर उस एक ही सूर्य को भिन्न भिन्न रंगों का अनुमान करते हैं। इसी प्रकार से भविष्य में भिन्न भिन्न मतों का सृजन होता है; परन्तु जो सौभाग्य से अवतारी पुरुषों का साक्षात् सत्संग करते हैं, उनके जीवन-काल में ऐसे दलों का प्रायः सृजन नहीं होता। आत्माराम पुरुष की ज्योति से वे चकाचौंध हो जाते हैं; अहंकार, अभिमान, क्षुद्र बुद्धि आदि सब मिट जाते हैं। अतएव दल बनाने का कोई अवसर उनको नहीं मिलता। वे अपने अपने भावानुसार उनकी हृदय से पूजा करते हैं।
शिष्य – महाराज, तब क्या श्रीरामकृष्ण के सब भक्त उनको भगवान जानकर भी उसी एक भगवान के रूप को भिन्न भिन्न भावों से देखते हैं और इसी कारण क्या उनके शिष्य एवं प्रशिष्य छोटी छोटी सीमाओं में बद्ध होकर छोटे छोटे दल या सम्प्रदायो का सृजन कर बैठते हैं?
स्वामीजी – हाँ, इसी कारण से कुछ समय में सम्प्रदाय बन ही जायेंगे। देखो न, चैतन्यदेव के वर्तमान समय के अनुयायिओं में दो तीन सौ सम्प्रदाय हैं, ईसा के भी हजारों मत निकले है, परन्तु बात यह है कि वे सब सम्प्रदाय चैतन्यदेव और ईसा को ही मानते हैं।
शिष्य – तो ऐसा अनुमान होता है कि श्रीरामकृष्ण के भक्तों में भी कुछ समय के पश्चात् अनेक सम्प्रदाय निकल पड़ेंगे।
स्वामीजी – अवश्य निकलेंगे; परन्तु जो मठ हम यहाँ बनाते हैं उसमें सभी मतों और भावों का सामंजस्य रहेगा। श्रीगुरुदेव का जो उदार मत था उसी का यह केन्द्र होगा। महासमन्वयरूपी किरण जो यहाँ से प्रकाशित होगी, उससे सारा जगत् प्रकाशित हो जायगा।
इसी प्रकार का वार्तालाप करते हुए वे सब मठ भूमि पर पहुँचे। स्वामीजी ने कन्धे पर से डिब्बे को जमीन पर बिछे हुए आसन पर उतारा और भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया। अन्य सभी ने भी प्रणाम किया।
इसके बाद स्वामीजी पूजा के लिए बैठ गये। पूजा के अन्त में यज्ञाग्नि प्रज्वलित करके हवन किया और संन्यासी गुरुभाइयों की सहायता से स्वयं क्षीर पकाकर श्रीरामकृष्ण को भोग चढ़ाया। ऐसा स्मरण होता है कि उस दिन स्वामीजी ने कुछ गृहस्थों को दीक्षा भी दी थी। जो कुछ भी हो, फिर पूजा सम्पन्न होने पर स्वामीजी ने समागतों को आदर से बुलाकर कहा, “आज आप लोग तन-मन-वाक्य द्वारा श्रीगुरुदेव से ऐसी प्रार्थना कीजिये जिससे महायुगावतार श्रीरामकृष्ण ‘बहुजनहिताय बहुजनसुखाय’ इस पुण्यक्षेत्र पर अधिष्ठित रहें और इसे सब धर्मों का अपूर्व समन्वय-केन्द्र बनाये रखें।” हाथ जोड़कर सभी ने प्रार्थना की। पूजा सम्पूर्ण होने पर स्वामीजी ने शिष्य से कहा, “श्रीगुरुदेव के इस डिब्बे को लौटा ले जाने का अधिकार हम लोगों (संन्यासियों) में से किसी को नहीं है; क्योंकि हमने ही यहाँ श्रीगुरुदेव की स्थापना की है। अतएव तू इस डिब्बे को अपने मस्तक पर रखकर मठ (नीलाम्बर बाबू की वाटिका) को ले चल।” शिष्य को डिब्बे का स्पर्श करने में हिचकिचाते देख स्वामीजी बोले, “डरो मत, उठा लो, मेरी आज्ञा है।” तब शिष्य ने बड़े आनन्द से स्वामीजी की आज्ञा को शिरोधार्य कर डिब्बे को अपने सिर पर उठा लिया। अपने गुरु की आज्ञा से उस डिब्बे को स्पर्श करने का अधिकार पाने पर उसने अपने को कृतार्थ माना। आगे आगे शिष्य, उसके पीछे स्वामीजी और उनके पीछे बाकी सब चलने लगे। रास्ते में स्वामीजी उससे बोले, “श्रीगुरुदेव तेरे सिर पर सवार होकर तुझे आशीर्वाद दे रहे हैं। आज से सावधान रहना, किसी अनित्य विषय में अपना मन न लगाना।” एक छोटासा पुल पार करते समय स्वामीजी शिष्य से फिर बोले, “देखो, यहाँ खूब सावधानी और सतकर्ता से चलना।”
इस प्रकार सब लोग निर्विघ्न मठ में पहुँचकर हर्ष मनाने लगे। स्वामीजी अब शिष्य से कथा-प्रसंग करने लगे, “श्रीगुरुदेव की इच्छा से आज उनके धर्मक्षेत्र की प्रतिष्ठा हो गयी। बारह वर्ष की चिन्ता का बोझ आज सिर से उतर गया। अब मेरे मन में क्या क्या भाव उदय हो रहे हैं, सुनेगा? यह मठ विद्या एवं साधना का एक केन्द्र-स्थान होगा। तुम्हारे समान सब धार्मिक गृहस्थ इस भूमि के चारों ओर अपने घर-बार बसाकर बसेंगे और बीच में त्यागी संन्यासी लोग रहेंगे। मठ के दक्षिण की ओर इंग्लैंड तथा अमरीका के भक्तों के लिए गृह बनाये जायेंगे। यदि ऐसा बन जाय तो कैसा होगा?
शिष्य – आपकी यह कल्पना बड़ी अद्भुत है।
स्वामीजी – कल्पना क्यों? समय आने पर यह सब अवश्य हो जायगा। मैं तो इसकी नींव मात्र डाल रहा हूँ। बाद में और न जाने क्या क्या होगा? कुछ तो मैं कर जाऊँगा और कुछ विचार (ideas) तुम लोगों को दे जाऊँगा! भविष्य में तुम उन सब को कार्य रूप में परिणत करोगे। बड़ी बड़ी मीमांसा (principles) को सुनकर रखने से क्या होगा? प्रतिदिन उनको कार्यान्वित करना चाहिए। शास्त्रों की लम्बी लम्बी बातों को केवल पढ़ने से क्या होगा? पहले उन्हें समझना चाहिए। फिर अपने जीवन में उनकों परिणत करना चाहिए। समझे? इसी को कहते हैं (practical religion) व्यावहारिक धर्म।
इस प्रकार अनेक प्रसंग होते-होते श्रीशंकराचार्य का प्रसंग आरम्भ हुआ। शिष्य आचार्य शंकर का बड़ा ही पक्षपाती था; यहाँ तक कि उसको उन पर दीवाना कहा जा सकता था। वह सब दर्शनों में शंकरप्रतिष्ठित अद्वैत मत को मुकुटमणि समझता था। और यदि कोई श्रीशंकराचार्य के उपदेशों में कुछ दोष निकालता था तो उसके हृदय में सर्पदंश की सी पीड़ा होने लगती थी। स्वामीजी यह जानते थे और उनको यह पसन्द नहीं था कि कोई किसी मत का दीवाना बन जाय। वे जब भी किसी को किसी विषय का दीवाना देखते थे, तभी उस विषय के विरुद्ध पक्ष में सहस्रों अमोघ युक्तियों से उस दीवानेपनरूपी बांध को चूर्ण चूर्ण कर देते थे।
स्वामीजी – शंकर की बुद्धि क्षुर-धार के समान तीव्र थी। वे विचारक थे और पण्डित भी, परन्तु उनमें उदार भावों की गम्भीरता अधिक नहीं थी और ऐसा अनुमान होता है कि उनका हृदय भी उसी प्रकार था। इसके अतिरिक्त उनमें ब्राह्मणत्व का अभिमान बहुत था। एक दक्षिणी ब्राह्मण थे, और क्या? अपने वेदान्त भाष्य में कैसी बहादुरी से समर्थन किया है कि ब्राह्मण के अतिरिक्त अन्य जातियों को ब्रह्मज्ञान नहीं हो सकता। उनके विचार की क्या प्रशंसा करूँ! विदुरजी का उल्लेख कर उन्होंने कहा है कि पूर्व जन्म में ब्राह्मण शरीर होने के कारण वह (विदुर) ब्रह्मज्ञ हुए थे। अच्छा, यदि आजकल किसी शूद्र को ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो तो क्या शंकर के मतानुसार कहना होगा कि वह पूर्वजन्म में ब्राह्मण था? क्यों ब्राह्मणत्व को लेकर ऐसी खींचातानी करने का क्या प्रयोजन है। वेद ने तो प्रत्येक त्रैवर्णिक को ही वेदपाठ और ब्रह्मज्ञान का अधिकारी बताया है। तो फिर इस विषय के निमित्त वेद के भाष्य में ऐसी अद्भुत विद्या का प्रकाश करने का कोई प्रयोजन न था। फिर उनके हृदय के भाव का विचार करो। उन्होंने कितने बौद्ध श्रमणकों को आग में झोंक मार डाला! इन बौद्ध लोगों की भी कैसी बुद्धि थी कि तर्क में हारकर आग में जल मरे। शंकराचार्य के ये कार्य, संकीर्ण दीवानेपन से निकले हुए पागलपन के अतिरिक्त और क्या हो सकते हैं; दूसरी ओर बुद्धदेव के हृदय का विचार करो। ‘बहुजनहिताय बहुजनसुखाय’ का तो कहना ही क्या, वे एक बकरी के बच्चे की जीवनरक्षा के लिए अपना जीवन-दान देने को सदा प्रस्तुत रहते थे। कैसा उदार भाव, कैसी दया! – एक बार सोचो तो। शिष्य – क्यों महाराज, क्या बुद्धदेव के इस भाव को भी और एक प्रकार का पागलपन नहीं कह सकते? एक पशु के निमित्त अपने प्राण देने को तैयार हो गये!
स्वामीजी – परन्तु उनके उस दीवानेपन से इस संसार के कितने जीवों का कल्याण हुआ यह भी तो देखो। कितने आश्रम बने, कितने विद्यालय खुले, कितनी पशुशालाएँ स्थापित हुई, स्थापत्य विद्या का कितना विकास हुआ, यह सब भी तो सोचो! बुद्धदेव के जन्म होने के पूर्व इस देश में क्या था? तालपत्र की पोथियों में कुछ धर्मतत्त्व था, सो भी बिरले ही मनुष्य उनको जानते थे। लोग इसको कैसे नित्य कार्य में परिणत करें यह बुद्धदेव ने ही सिखलाया। वे ही वास्तव में वेदान्त के स्फूर्ति-देवता थे।
शिष्य – परन्तु महाराज, यह भी है कि वर्णाश्रमधर्म को तोड़कर भारत में हिन्दू धर्म के विप्लव की सृष्टि वे ही कर गये हैं और इसीलिए कुछ ही दिनों में उनका धर्म भारत से निकाल दिया गया। यह बात भी सत्य प्रतीत होती है।
स्वामीजी – बौद्ध धर्म की ऐसी दुर्दशा उनकी शिक्षा के कारण नहीं हुई, पर हुई उनके शिष्यों के दोष से। दर्शनशास्त्रों की अत्यधिक चर्चा से उनके हृदय की उदारता कम हो गयी। तत्पश्चात् क्रमशः वामाचारियों के व्यभिचार से बौद्ध धर्म मर गया। ऐसी बीभत्स वामाचार-प्रथा का उल्लेख वर्तमान समय के किसी तन्त्र में भी नहीं है! बौद्ध धर्म का एक प्रधान केन्द्र ‘जगन्नाथ क्षेत्र’ था। वहाँ के मन्दिर पर जो बीभत्स मूर्तियाँ खुदी हुई हैं, उनको देखने से ही इन बातों को जान जाओगे। श्रीरामानुजाचार्य तथा महाप्रभु चैतन्यदेव के समय से यह पुरुषोत्तम क्षेत्र वैष्णवों के अधिकार में आया है। वर्तमान समय में महापुरुषों की शक्ति से इस स्थान ने एक और नया रूप धारण किया है।
शिष्य – महाराज, शास्त्रों से तीर्थस्थानों की विशेष महिमा जान पड़ती है। यह कहाँ तक सत्य है?
स्वामीजी – समस्त ब्रह्माण्ड जब नित्य आत्मा ईश्वर का ही विराट शरीर है, तब विशेष विशेष स्थानों के माहात्म्य में आश्चर्य की क्या बात है? विशेष स्थानों पर उनका विशेष विकास है। कहीं पर आप ही से प्रकट होते हैं और कहीं कहीं शुद्धसत्त्व मनुष्य के व्याकुल आग्रह से प्रकट होते हैं। साधारण मनुष्य जिज्ञासु होकर वहाँ पहुँचने पर सहज में फल प्राप्त करते हैं। इसलिए तीर्थादि का आश्रय लेने से समय पर आत्मा का विकास होना सम्भव है।
फिर भी यह तुम निश्चय जानो कि इस मानव-शरीर की अपेक्षा और कोई बड़ा तीर्थ नहीं है। इस शरीर में जितना आत्मा का विकास हो सकता है उतना और कहीं नहीं। श्रीजगन्नाथजी का जो रथ है वह भी मान इसी शरीररूपी रथ का एक स्थूल रूप है। इसी शरीररूपी रथ में हमें आत्मा का दर्शन करना होगा। तूने तो पढ़ा ही है कि ‘आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु’। ‘मध्ये वामनमासीनं विश्वे देवा उपासते’ में जो वामनरूपी आत्मा के दर्शन का वर्णन किया है, वही ठीक जगन्नाथ दर्शन है। इसी प्रकार ‘रथे च वामनं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते’ का भी अर्थ यही है कि तेरे शरीर में जो आत्मा है उसका दर्शन यदि तू कर लेगा तो फिर तेरा पुनर्जन्म नहीं होगा। परन्तु अभी तो तू इस आत्मा की उपेक्षा करके अपने इस विचित्र जड़ शरीर को ही सर्वदा ‘मैं’ समझा करता है। यदि लकड़ी के रथ में भगवान को देखकर ही जीव की मुक्ति हो जाती तब तो प्रत्येक वर्ष करोड़ों मनुष्यों को ही मुक्तिलाभ हो जाता – और फिर आजकल तो जगन्नाथजी पहुँचने के लिए रेल की भी सुविधा हो गयी है! फिर भी जगन्नाथजी के सम्बन्ध में साधारण भक्तों का जो विश्वास है उसके बारे में मैं यह नहीं कहता हूँ कि वह कुछ भी नहीं अथवा मिथ्या है और सचमुच एक श्रेणी के लोग ऐसे हैं भी जो इसी मूर्ति का अवलम्बन लेकर धीरे धीरे उच्च तत्त्व को प्राप्त हो जाते हैं; अतएव इस मूर्ति का आश्रय लेकर भगवान की विशेष शक्ति जो प्रकाशित हो रही है इसमें भी किसी प्रकार का सन्देह नहीं है।
शिष्य – महाराज, फिर, क्या मूर्ख और बुद्धिमान का धर्म अलग अलग है?
स्वामीजी – हाँ, यदि ऐसा न होता तो शास्त्रों में अधिकार के बारे में जो इतनी चर्चा, इतना निर्देश तथा वर्णन आदि किया गया है वह फिर क्यों होता? सब कुछ सत्य ही है। फिर भी आपेक्षिक सत्य भिन्न भिन्न मात्राओं का होता है। मनुष्य जिसे सत्य कहता है वह सब इसी प्रकार का है – कोई अल्प मात्रा में सत्य होता है, कोई अधिक मात्रा में। नित्य सत्य तो केवल एकमात्र भगवान ही हैं। यही आत्मा जड़ वस्तुओं में भी व्याप्त है – यद्यपि नितान्त सुप्तावस्था में। यही जीव-नामधारी मनुष्य में किसी अंश में जागृत (Conscious) हो जाती है। फिर श्रीकृष्ण, बुद्धदेव, भगवान शंकराचार्य आदि में वही पूर्ण भाव से जागृत (Superconscious) हो जाती है। इसके परे और एक अवस्था है जिसको भाव या भाषा द्वारा प्रकट नहीं कर सकते – ‘अवाङ्मनसगोचरम्’।
शिष्य – महाराज, किसी किसी भक्त-सम्प्रदाय का ऐसा मत है कि भगवान के साथ कोई एक भाव या सम्बन्ध स्थापित करके साधना करनी चाहिए। वे लोग आत्मा की महिमा आदि पर कोई ध्यान नहीं देते। और जब इस सम्बन्ध में कोई चर्चा होती है तो वे कहते हैं कि ‘यह सब चर्चा छोड़कर सर्वदा भाव में ही रहो’।
स्वामीजी – हाँ, उनके लिए उनका यह कहना भी ठीक है। ऐसा ही करते करते एक दिन उनमें भी ब्रह्म जागृत हो उठेगा। हम संन्यासी भी जो कुछ करते हैं वह भी एक प्रकार का ‘भाव’ ही हैं। हमने संसार का त्याग किया है; अतएव माँ, बाप, स्त्री, पुत्र इत्यादि जो सांसारिक सम्बन्ध हैं उनमें से किसी एक का भाव ईश्वर पर आरोपित कर साधना करना हमारे लिए कैसे सम्भव हो सकता है? हमारी दृष्टि से ये सब संकीर्ण बातें हैं। सचमुच, सब भावों से अतीत भगवान की उपासना करना बड़ा कठिन है। परन्तु बताओ तो सही यदि हम अमृत नहीं पा सकते तो क्या विषपान करने लगें? इसी आत्मा के सम्बन्ध में तू सदैव चर्चा कर, श्रवण कर, मनन कर। इस प्रकार अभ्यास करते करते कुछ समय के बाद देखेगा कि तुझमें ब्रह्मरूपी सिंह जागृत हो उठेगा। तू इन सब भावकल्पनाओं से परे चला जा। सुन, कठोपनिषद् में यम ने क्या कहा है –
‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’ – उठो, जागो और श्रेष्ठ पुरुषों के पास जाकर ज्ञान प्राप्त कर लो।
इस प्रकार यह प्रकरण समाप्त हुआ। मठ में प्रसाद पाने की घण्टी हो गयी और स्वामीजी के साथ शिष्य भी प्रसाद ग्रहण करने के लिए चला गया।