मदनसेना की कथा – विक्रम-बेताल की कहानी
मदनसेना की कथा बेताल पच्चीसी की दसवीं कथा है। यह विक्रम बेताल की कहानी शिक्षा देती है कि वास्तविक त्यागी को कैसे पहचाना जाए। बेताल पच्चीसी की शेष कहानियाँ पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – विक्रम बेताल की कहानियाँ।
राजकुमारी अनंगरति की कहानी सुनाकर बेताल फिर ग़ायब हो गया। विक्रमादित्य ने शिंशपा-वृक्ष के पास जाकर बेताल को वृक्ष से उतारा, अपने कंधे पर डाला और वहां से चल पड़ा। जाते हुए राजा से उसकी पीठ के ऊपर बैठे हुए बेताल ने कहा, “राजन! तुम थक गए हो, इसलिए थकावट दूर करने के लिए मुझसे यह कथा सुनो।”
किसी समय वीरबाहु नाम का एक श्रेष्ठ राजा था, जो छोटे-बड़े अनेक राज्यों पर राज करता था। उसकी राजधानी अनगपुर नामक नगरी थी जो वैभव व भव्यता में कुबेर की नगरी को भी मात करती थी।
उसी नगरी में अर्थदत्त नाम का एक महाधनी व्यापारी रहता था। व्यापारी की दो संतानें थीं। बड़ा लड़का, जिसका नाम धनदत्त था और छोटी एक लड़की, जिसका नाम मदनसेना था। मदनसेना कन्याओं मे रत्न के समान थी।
एक दिन मदनसेना बगीचे में अपनी सखियों के साथ खेल रही थी। तभी धनदत्त का एक मित्र, जिसका नाम धर्मदत्त था, धनदत्त से मिलने पहुंचा। वहां बगीचे में अपनी सहेलियों के मध्य हंसी-मजाक करती हुई मदनसेना को जब उसने देखा तो बस देखता ही रह गया। धर्मदत्त उसे देखते ही उस पर आसक्त हो गया था। उसका हृदय कामदेव के बाण-समूहों से छिदकर रह गया था।
मदनसेना के शरीर से लावण्य का रस झर रहा था। उसे देखकर हठात् ही धर्मदत्त के मुख से निकल गया, “आह! अलौकिक रूप की शोभा से जगमगाने वाली इस कन्या को शायद स्वयं कामदेव ने मेरा हृदय बेधने के लिए इस तीखे तीर के रूप में बनाया है।”
वह बहुत देर तक एक पेड़ की ओट से मदनसेना के रूप का रसपान करता रहा और जब मदनसेना अपने घर के अंदर चली गई तो उसका मन उसे पाने के लिए व्यथित होने लगा। वह दुखी मन से घर लौटा और बिस्तर पर पड़ गया। उसके कई मित्रों ने उसकी इस विकलता का कारण पूछा किंतु धर्मदत्त कुछ भी न कह सका।
उस रात स्वप्न में भी वह अपनी प्रिया को ही देखता रहा और उसकी मनुहार करता रहा। किसी ने सच ही कहा है, “उत्सुक हृदय वाला मनुष्य क्या-क्या नहीं करता?”
सवेरे उठकर वह फिर उसी बगीचे में गया। वहां उसने मदनसेना को अकेली बैठा देखा। वह अपनी सखियों की प्रतीक्षा कर रही थी। उसका आलिंगन करने के इच्छा से वह उसके पास पहुंचा और उसके निकट झुककर प्रेम के कोमल वचनों से उसे रिझाने लगा।
तब मदनसेना बोली, “मैं कुमारी हूं, दूसरे की वाग्दत्ता पत्नी भी हूं। अब मैं आपकी नहीं हो सकती क्योंकि मेरे पिता समुद्रदत्त नामक व्यापारी से मेरा रिश्ता तय कर चुके हैं। थोड़े ही दिनों में मेरा विवाह होने वाला है इसलिए आप चुपचाप चले जाएं, क्योंकि कोई देख लेगा तो मुझे दोष लगेगा।”
इस प्रकार बहुत तरह से उसके समझाने पर धर्मदत्त ने कहा, “मेरा चाहे जो भी हो, मैं तुम्हारे बिना जीवित नहीं रह सकता।”
उसकी यह बात सुनकर मदनसेना इस भय से विकल हो गई कि कहीं यह बल-प्रयोग न करे। उसने कहा, “आपने अपने प्रेम से मुझे जीत लिया है किंतु पहले मेरा विवाह हो जाने दीजिए। पहले पिताजी को कन्यादान का चिर-आकांक्षित फल प्राप्त हो जाए, फिर मैं आपके पास चली आऊंगी।”
यह सुनकर धर्मदत्त ने कहा, “मैं यह नहीं चाहता कि मेरी प्रिया मुझसे पहले किसी और की हो चुकी हो, क्योंकि दूसरा जिसका रस ले चुका हो, क्या उस कमल पर भौंरा प्रीति रख सकता है?”
उसके यह कहने पर मदनसेना बोली, “तब विवाह होते ही पहले मैं आपके पास आऊंगी और तब अपने पति के पास जाऊंगी।”
मदनसेना के ऐसा कहने पर भी उस वणिक-पुत्र ने बिना पूरे विश्वास के उसे नहीं छोड़ा। उसने शपथ के साथ उसे सत्यवचन में बांध लिया, तब उससे छुटकारा पाकर घबराई हुई मदनसेना अपने घर गई।
विवाह का समय आने पर जब उसके विवाह का मंगल-कार्य समाप्त हुआ, तब वह पति के घर आई। हंसी-खुशी में दिन बिताकर, रात के समय, वह पति के साथ शयनकक्ष में गई।
वहां पलंग पर बैठकर भी उसने अपने पति समुद्रदत्त की आलिंगन आदि चेष्टाओं को स्वीकार नहीं किया। समुद्रदत्त ने जब अपनी मीठी-मीठी बातों से उसे रिझाने की कोशिश की तो मदनसेना की आंखों में आंसू भर आए। तब समुद्रदत्त ने यही सोचकर कि शायद इसे मैं पसंद नहीं हूं, मदनसेना से कहा, “सुन्दरी, यदि तुम्हें मैं पसंद नहीं हूं तो मुझे भी तुमसे कोई काम नहीं है, तुम्हें जो भी प्रिय हो, तुम उसी के पास चली जाओ।”
यह सुनकर मदनसेना ने सिर झुका लिया। फिर धीरे-धीरे वह बोली, “आर्यपुत्र! आप मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं किंतु मुझे आपसे कुछ कहना है। आप उसे सुनें और मुझे अभयदान दें ताकि मैं सच्ची बात आपसे कह सकूँ।”
बड़ी कठिनाई से उसके ऐसा कहने पर समुद्रदत्त ने उसका आग्रह स्वीकार कर दिया। तब वह लज्जा व विषाद से भरी भयभीत-सी बोली, “एक बार जब मैं अपने बगीचे में अकेली खड़ी थी, काम-पीड़ा से आतुर मेरे भाई के एक मित्र धर्मदत्त ने मुझे रोक लिया। जब वह जिद पर उतर आया, तब मैंने पिता को कन्यादान का फल मिल सके और निंदा भी न हो, इस विचार से उसे वचन दिया कि विवाह हो जाने पर मैं पहले उसके पास आऊंगी, तब अपने पति के पास जाऊंगी। अतः स्वामी, आप मुझे अपने सत्यवचन का पालन करने की अनुमति दें। मैं उसके पास जाकर क्षण-भर में ही आपके पास लौट आऊंगी। बचपन से मैंने जिस सत्य का पालन किया है, उसे मैं छोड़ नहीं सकती।”
उसकी बातें सुनकर समुद्रदत्त आहत-सा हो गया। लेकिन वह वचन से बंध चुका था इसलिए सोचता रहा, “अन्य पुरुष में आसक्त इस स्त्री को धिक्कार है। यह जाएगी तो अवश्य ही, फिर मैं इसे सत्य से क्यों डिगाऊं? इससे मेरा विवाह हुआ है, इसका आग्रह मुझे स्वीकार करना ही चाहिए।”
यह सब सोचकर समुद्रदत्त ने उसे जाने की अनुमति दे दी। वह उठी और अपने पति के घर से बाहर निकल गई। अंधियारी रात में मदनसेना अकेली ही जा रही थी, तभी मार्ग में किसी चोर ने दौड़कर उसका रास्ता रोक लिया।
चोर ने जब उससे पूछा, “तुम कौन हो और कहां जा रही हो?”
तब डरती हुई मदनसेना ने कहा, “तुम्हें इससे क्या प्रयोजन? मेरा रास्ता छोड़ दो। यहां मुझे कुछ काम है।”
चोर ने कहा, “मैं तो चोर हूं, तुम मुझसे छुटकारा कैसे पा सकती हो?” यह सुनकर मदनसेना बोली, “तब तुम मेरे गहने ले लो।”
चोर ने कहा, “अरी भोली, इन पत्थरों को लेकर मैं क्या करूंगा? तुम्हारा मुख चंद्रकान्त मणि के समान है, काले केश नागमणि के मानिंद हैं, कमर हीरे के समान है, शरीर सोने जैसा है, अवयव पद्मराग मणि के समान हैं। तुम स्वयं एक जीती-जागती अप्सरा हो। मैं तुम्हें किसी तरह नहीं छोड़ूंगा।”
चोर के ऐसा कहने पर उस वणिक पुत्री ने विवश होकर अपना वृत्तांत सुनाने के बाद उस चोर से प्रार्थना करते हुए कहा, “क्षण भर के लिए तुम मुझे क्षमा करो। तुम यहीं ठहरो, तब तक मैं अपना वचन पूरा करके शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी। मैं अपने इस वचन का उल्लंघन नहीं करूंगी।”
यह सुनकर उस चोर ने उसे सच्चाई पर अटल रहने वाली समझा और उसे छोड़ दिया, तत्पश्चात् वह चोर वहीं रुककर उसके लौटने की प्रतीक्षा करने लगा।
मदनसेना धर्मदत्त के पास पहुंची। वह मदनसेना को जी-जान से चाहता था। उसे इस प्रकार रात्रि के समय अपने पास आई हुई देखकर उसने सारा वृत्तांत पूछा, सोचने के बाद वह बोला, “मदनसेना, तुम्हारी सच्चाई से मैं संतुष्ट हूं लेकिन अब तुम पराई स्त्री हो। अतः इससे पहले कि तुम्हें कोई देख ले, तुम जहां से आई हो, वहीं वापस चली जाओ।”
इस प्रकार धर्मदत्त ने जब उसे छोड़ दिया, तब वह उस चोर के पास आई जो मार्ग में उसकी प्रतीक्षा कर रहा था।
चोर के यह पूछने पर कि “तुम जहां गई थीं, वहां का हालचाल सुनाओ।” मदनसेना ने वह सारी बातें सुनाईं जो धर्मदत्त ने कही थीं।
तब उस चोर ने उससे कहा, “यदि ऐसी बात है, तो मैं भी तुम्हें छोड़ देता हूं। मैं तुम्हारी सच्चाई से संतुष्ट हूं। तुम अपने गहनों के साथ अपने घर जाओ।”
इस तरह चोर ने भी उसे छोड़ दिया और उसकी सुरक्षा के लिए उसके साथ-साथ चला। मदनसेना अपने शील की रक्षा कर सकी थी इसलिए वह प्रसन्नतापूर्वक अपने घर, पति के पास लौट आई।
छिपकर उस सती ने अपने घर में प्रवेश किया और प्रसन्नतापूर्वक अपने पति के निकट गई। उसे देखकर जब उसके पति ने पूछा, तो उसने सारा वृत्तांत उसे बतला दिया।
समुद्रदत्त ने जब देखा कि उसके चेहरे की कांति कुम्हलाई नहीं है, न ही उसके शरीर पर किसी पर-पुरुष से मिलने का कोई चिन्ह है और उसका मन भी शुद्ध है तो उसने मदनसेना को अखंडित चरित्र वाली सती स्त्री मानकर उसका सम्मान किया। अनन्तर, वह उसके साथ सुखपूर्वक सफल दाम्पत्य जीवन निर्वाह करने लगा।
उस श्मशान में यह कथा सुनाकर बेताल ने राजा विक्रमादित्य से फिर यों कहा, “राजन, अब यह बतलाओ कि उस चोर और उन दोनों वणिक-पुत्रों में से त्यागी कौन था? यदि जानते हुए भी तुम इस प्रश्न का उत्तर न दोगे तो तुम्हारा सिर सौ टुकड़ों में फट जाएगा।”
मौन त्यागकर राजा ने बेताल से कहा, “हे योगेश्वर, त्यागी उनमें से वह चोर ही था, दोनों वणिक-पुत्र नहीं। समुद्रदत्त ने उसके विवाहित होने पर ही उसे त्याज्य समझकर उसका त्याग किया था। वह कुलीन वणिक अपनी स्त्री को दूसरे के प्रति आसक्त जानकर भी कैसे अपनाता? दूसरे वणिक का हृदयावेग समय पाकर मंद हो गया था, फिर उसे इस बात का डर भी हुआ होगा कि सारी बातें जानकर उसका पति सवेरा होने पर राजा से कह देगा, तो राजा उसे दंड दिए बिना नहीं मानेगा। अतः उसने भी मदनसेना को छोड़ दिया। लेकिन चोर को तो कोई डर नहीं था। वह तो गुप्तरूप से पहले ही पाप-कर्म में लगा हुआ था। उसने जो आभूषण सहित पाई हुई स्त्री को छोड़ दिया, इससे वही सच्चा त्यागी था।”
बेताल को अपने प्रश्न का सही उत्तर मिल गया। अतः वह पहले की भांति ही राजा के कंधे से फिसलकर वापस शिंशपा-वृक्ष की ओर उड़ गया। राजा भी अपना असीम धैर्य खोए बिना, उसे ले आने के लिए पुनः उस ओर चल पड़ा।
राजा विक्रमादित्य बेताल को लाने के लिए पुनः शिंशपा वृक्ष के नीचे पहुँच गया। उसने बेताल को उतारकर अपने कंधे पर डाला और चलना शुरू किया। बेताल ने राजा विक्रम को फिर से यह कहानी सुनानी शुरू की – राजा धर्मवज की कहानी