आस्तीक का जन्म – महाभारत का पंद्रहवाँ अध्याय (आस्तीक पर्व)
“आस्तीक का जन्म” नामक यह कथा महाभारत महाकाव्य के आदि पर्व के अन्तर्गत आस्तीकपर्व में आती है। इसमें पिछले अध्याय में आयी जरत्कारु के विवाह के बाद की कहानी आरम्भ होती है। किस तरह जरत्कारु के पुत्र आस्तीक का जन्म होता है और वे सर्पसत्र से सभी नागों की रक्षा करते हैं। पढ़ें “आस्तीक का जन्म” नामक यह सुंदर कथा। महाभारत के अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – महाभारत कथा।
सौतिरुवाच
मात्रा हि भुजगाः शप्ताः पूर्वं ब्रह्मविदां वर ।
जनमेजयस्य वो यज्ञे धक्ष्यत्यनिलसारथिः ।। १ ।।
उग्रश्रवा जी कहते हैं—ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ शौनक! पूर्व काल में नाग-माता कद्रू ने सर्पों को यह शाप दिया था कि तुम्हें जनमेजय के यज्ञ में अग्नि भस्म कर डालेगी ।। १ ।।
तस्य शापस्य शान्त्यर्थं प्रददौ पन्नगोत्तमः ।
स्वसारमृषये तस्मै सुव्रताय महात्मने ।। २ ।।
स च तां प्रतिजग्राह विधिदृष्टेन कर्मणा ।
आस्तीको नाम पुत्रश्च तस्यां जज्ञे महामनाः ।। ३ ।।
उसी शाप की शान्ति के लिये नागप्रवर वासुकि ने सदाचार का पालन करने वाले महात्मा जरत्कारु को अपनी बहिन ब्याह दी थी। महामना जरत्कारु ने शास्त्रीय विधि के अनुसार उस नाग-कन्या का पाणिग्रहण किया और उसके गर्भ से आस्तीक नामक पुत्र को जन्म दिया ।। २-३ ।।
तपस्वी च महात्मा च वेदवेदाङ्गपारगः ।
समः सर्वस्य लोकस्य पितृमातृभयापहः ।। ४ ।।
आस्तीक वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान्, तपस्वी, महात्मा, सब लोगों के प्रति समानभाव रखनेवाले तथा पितृकुल और मातृकुल के भय को दूर करने वाले थे ।। ४ ।।
अथ दीर्घस्य कालस्य पाण्डवेयो नराधिपः ।
आजहार महायज्ञं सर्पसत्रमिति श्रुतिः ।। ५ ।।
तस्मिन् प्रवृत्ते सत्रे तु सर्पाणामन्तकाय वै ।
मोचयामास तान् नागानास्तीकः सुमहातपाः ।। ६ ।।
तदनन्तर दीर्घ काल के पश्चात् पाण्डव वंशीय नरेश जनमेजय ने सर्पसत्र नामक महान् यज्ञ का आयोजन किया, ऐसा सुनने में आता है। सर्पों के संहार के लिये आरम्भ किये हुए उस सत्र में आकर महातपस्वी आस्तीक ने नागों को मौत से छुड़ाया ।। ५-६ ।।
भ्रातॄंश्च मातुलांश्चैव तथैवान्यान् स पन्नगान् ।
पितॄंश्च तारयामास संतत्या तपसा तथा ।। ७ ।।
उन्होंने मामा तथा ममेरे भाइयों को एवं अन्यान्य सम्बन्धों में आने वाले सब नागों को संकट मुक्त किया। इसी प्रकार तपस्या तथा संतानोत्पादन द्वारा उन्होंने पितरों का भी उद्धार किया ।। ७ ।।
व्रतैश्च विविधैर्ब्रह्मन् स्वाध्यायैश्चानृणोऽभवत् ।
देवांश्च तर्पयामास यज्ञैर्विविधदक्षिणैः ।। ८ ।।
ऋषींश्च ब्रह्मचर्येण संतत्या च पितामहान् ।
अपहृत्य गुरुं भारं पितॄणां संशितव्रतः ।। ९ ।।
जरत्कारुर्गतः स्वर्गं सहितः स्वैः पितामहैः ।
आस्तीकं च सुतं प्राप्य धर्मं चानुत्तमं मुनिः ।। १० ।।
जरत्कारुः सुमहता कालेन स्वर्गमेयिवान् ।
एतदाख्यानमास्तीकं यथावत् कथितं मया ।
प्रब्रूहि भृगुशार्दूल किमन्यत् कथयामि ते ।। ११ ।।
ब्रह्मन्! भाँति-भाँति के व्रतों और स्वाध्यायों का अनुष्ठान करके वे सब प्रकार के ऋणों से उऋण हो गये। अनेक प्रकार की दक्षिणा वाले यज्ञों का अनुष्ठान करके उन्होंने देवताओं, ब्रह्मचर्य व्रत के पालन से ऋषियों और संतान की उत्पत्ति द्वारा पितरों को तृप्त किया। कठोर व्रत का पालन करने वाले जरत्कारु मुनि पितरों की चिन्ता का भारी भार उतारकर अपने उन पितामहों के साथ स्वर्गलोक को चले गये। आस्तीक-जैसे पुत्र तथा परम धर्म की प्राप्ति करके मुनिवर जरत्कारु ने दीर्घ काल के पश्चात् स्वर्गलोक की यात्रा की। भृगुकुलशिरोमणे! इस प्रकार मैंने आस्तीक के उपाख्यान का यथावत् वर्णन किया है। बताइये, अब और क्या कहा जाय? ।। ८—११ ।।
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सर्पाणां मातृशापप्रस्तावे पञ्चदशोऽध्यायः ।। १५ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीक पर्व में सर्पों को मातृशाप प्राप्त होने की प्रस्तावना से युक्त पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १५ ।।