अग्नि के शाप का मोचन – महाभारत का सातवाँ अध्याय (पौलोमपर्व)
“अग्नि के शाप का मोचन” नामक यह कथा महाभारत के आदिपर्व के अन्तर्गत पौलोमपर्व में आती है। यह महाभारत का सातवाँ और पौलोम पर्व का चौथा अध्याय है। इसमें कुल 29 श्लोक हैं। इस अध्याय में महर्षि भृगु के शाप से रुष्ट अग्निदेव अपने सभी कार्य बंद कर देते हैं, जिससे समस्त संसार में त्राहि-त्राहि की ध्वनि होने लगती है।
ब्रह्माजी युक्ति-पूर्वक अग्नि के शाप का मोचन कर देते हैं, जिससे अग्नि देव पुनः प्रसन्न होकर पूर्ववत अपने कार्यों का सम्पादन करने लगते हैं। पढ़ें “अग्नि के शाप का मोचन” नामक यह अद्भुत कथा। वेदव्यास जी कृत शेष महाभारत पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – महाभारत की कथा।
सौतिरुवाच
शप्तस्तु भृगुणा वह्निः क्रुद्धो वाक्यमथाब्रवीत् ।
किमिदं साहसं ब्रह्मन् कृतवानसि मां प्रति ॥ १ ॥
उग्रश्रवा जी कहते हैं—महर्षि भृगु के शाप देने पर अग्निदेव ने कुपित होकर यह बात कही—‘ब्रह्मन्! तुमने मुझे शाप देने का यह दुस्साहसपूर्ण कार्य क्यों किया है?’ ॥ १ ॥
धर्मे प्रयतमानस्य सत्यं च वदतः समम् ।
पृष्टो यदब्रवं सत्यं व्यभिचारोऽत्र को मम ।। २ ।।
‘मैं सदा धर्म के लिये प्रयत्नशील रहता और सत्य एवं पक्षपातशून्य वचन बोलता हूँ; अतः उस राक्षस के पूछने पर यदि मैंने सच्ची बात कह दी तो इसमें मेरा क्या अपराध है? ।। २ ।।
पृष्टो हि साक्षी यः साक्ष्यं जानानोऽप्यन्यथा वदेत् ।
स पूर्वानात्मनः सप्त कुले हन्यात् तथा परान् ।। ३ ।।
‘जो साक्षी किसी बात को ठीक-ठीक जानते हुए भी पूछने पर कुछ-का-कुछ कह देता—झूठ बोलता है, वह अपने कुल में पहले और पीछे की सात-सात पीढ़ियों का नाश करता—उन्हें नरक में ढकेलता है ।। ३ ।।
यश्च कार्यार्थतत्त्वज्ञो जानानोऽपि न भाषते ।
सोऽपि तेनैव पापेन लिप्यते नात्र संशयः ।। ४ ।।
‘इसी प्रकार जो किसी कार्य के वास्तविक रहस्य का ज्ञाता है, वह उसके पूछने पर यदि जानते हुए भी नहीं बतलाता—मौन रह जाता है तो वह भी उसी पाप से लिप्त होता है; इसमें संशय नहीं है ।। ४ ।।
शक्तोऽहमपि शप्तुं त्वां मान्यास्तु ब्राह्मणा मम ।
जानतोऽपि च ते ब्रह्मन् कथयिष्ये निबोध तत् ।। ५ ।।
‘मैं भी तुम्हें शाप देने की शक्ति रखता हूँ तो भी नहीं देता हूँ; क्योंकि ब्राह्मण मेरे मान्य हैं। ब्रह्मन्! यद्यपि तुम सब कुछ जानते हो, तथापि मैं तुम्हें जो बता रहा हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो— ।। ५ ।।
योगेन बहुधात्मानं कृत्वा तिष्ठामि मूर्तिषु ।
अग्निहोत्रेषु सत्रेषु क्रियासु च मखेषु च ।। ६ ।।
‘मैं योगसिद्धि के बल से अपने-आपको अनेक रूपों में प्रकट करके गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि आदि मूर्तियोंमें, नित्य किये जानेवाले अग्निहोत्रों में, अनेक व्यक्तियों द्वारा संचालित सत्रों में, गर्भाधान आदि क्रियाओं में तथा ज्योतिष्टोम आदि मखों (यज्ञों) में सदा निवास करता हूँ ।। ६ ।।
वेदोक्तेन विधानेन मयि यद् हूयते हविः ।
देवताः पितरश्चैव तेन तृप्ता भवन्ति वै ।। ७ ।।
‘मुझमें वेदोक्त विधि से जिस हविष्य की आहुति दी जाती है, उसके द्वारा निश्चय ही देवता तथा पितृगण तृप्त होते हैं ।। ७ ।।
आपो देवगणाः सर्वे आपः पितृगणास्तथा ।
दर्शश्च पौर्णमासश्च देवानां पितृभिः सह ।। ८ ।।
‘जल ही देवता हैं तथा जल ही पितृगण हैं। दर्श और पौर्णमास याग पितरों तथा देवताओंके लिये किये जाते हैं ।। ८ ।।
देवताः पितरस्तस्मात् पितरश्चापि देवताः ।
एकीभूताश्च पूज्यन्ते पृथक्त्वेन च पर्वसु ।। ९ ।।
‘अतः देवता पितर हैं और पितर ही देवता हैं। विभिन्न पर्वों पर ये दोनों एक रूप में भी पूजे जाते हैं और पृथक्-पृथक् भी ।। ९ ।।
देवताः पितरश्चैव भुञ्जते मयि यद् हुतम् ।
देवतानां पितॄणां च मुखमेतदहं स्मृतम् ।। १० ।।
मुझमें जो आहुति दी जाती है, उसे देवता और पितर दोनों भक्षण करते हैं। इसीलिये मैं देवताओं और पितरों का मुख माना जाता हूँ ।। १० ।।
अमावास्यां हि पितरः पौर्णमास्यां हि देवताः ।
मन्मुखेनैव हूयन्ते भुञ्जते च हुतं हविः ।। ११ ।।
‘अमावास्या को पितरों के लिये और पूर्णिमा को देवताओं के लिये मेरे मुख से ही आहुति दी जाती है और उस आहुति के रूप में प्राप्त हुए हविष्य का वे देवता और पितर उपभोग करते हैं, सर्वभक्षी होनेपर मैं इन सबका मुँह कैसे हो सकता हूँ?’ ।। ११ ।।
सौतिरुवाच
सर्वभक्षः कथं त्वेषां भविष्यामि मुखं त्वहम् ।
चिन्तयित्वा ततो वह्निश्चक्रे संहारमात्मनः ।। १२ ।।
द्विजानामग्निहोत्रेषु यज्ञसत्रक्रियासु च ।
निरोंकारवषट्काराः स्वधास्वाहाविवर्जिताः ।। १३ ।।
विनाग्निना प्रजाः सर्वास्तत आसन् सुदुःखिताः ।
अथर्षयः समुद्विग्ना देवान् गत्वाब्रुवन् वचः ।। १४ ।।
उग्रश्रवा जी कहते हैं—महर्षियो! तदनन्तर अग्निदेव ने कुछ सोच-विचारकर द्विजों के अग्निहोत्र, यज्ञ, सत्र तथा संस्कार सम्बन्धी क्रियाओं में से अपने-आपको समेट लिया। फिर तो अग्नि के बिना समस्त प्रजा ॐकार, वषट्कार, स्वधा और स्वाहा आदि से वंचित होकर अत्यन्त दुःखी हो गयी। तब महर्षिगण अत्यन्त उद्विग्न हो देवताओं के पास जाकर बोले— ।। १२—१४ ।।
अग्निनाशात् क्रियाभ्रंशाद् भ्रान्ता लोकास्त्रयोऽनघाः ।
विदध्वमत्र यत् कार्यं न स्यात् कालात्ययो यथा ।। १५ ।।
‘पापरहित देवगण! अग्नि के अदृश्य हो जाने से अग्निहोत्र आदि सम्पूर्ण क्रियाओं का लोप हो गया है। इससे तीनों लोकों के प्राणी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये हैं; अतः इस विषय में जो आवश्यक कर्तव्य हो, उसे आप लोग करें। इसमें अधिक विलम्ब नहीं होना चाहिये’ ।। १५ ।।
अधिक विलम्ब नहीं होना चाहिये’ ।। १५ ।।
अथर्षयश्च देवाश्च ब्रह्माणमुपगम्य तु ।
अग्नेरावेदयञ्छापं क्रियासंहारमेव च ।। १६ ।।
तत्पश्चात् ऋषि और देवता ब्रह्मा जी के पास गये और अग्नि को जो शाप मिला था एवं अग्नि ने सम्पूर्ण क्रियाओं से जो अपने-आपको समेटकर अदृश्य कर लिया था, वह सब समाचार निवेदन करते हुए बोले— ।। १६ ।।
भृगुणा वै महाभाग शप्तोऽग्निः कारणान्तरे ।
कथं देवमुखो भूत्वा यज्ञभागाग्रभुक् तथा ।। १७ ।।
हुतभुक् सर्वलोकेषु सर्वभक्षत्वमेष्यति ।
‘महाभाग! किसी कारणवश महर्षि भृगु ने अग्निदेव को सर्वभक्षी होनेका शाप दे दिया है, किंतु वे सम्पूर्ण देवताओं के मुख, यज्ञभाग के अग्रभोक्ता तथा सम्पूर्ण लोकों में दी हुई आहुतियों का उपभोग करने वाले होकर भी सर्वभक्षी कैसे हो सकेंगे?’ ।। १७ ।।
श्रुत्वा तु तद् वचस्तेषामग्निमाहूय विश्वकृत् ।। १८ ।।
उवाच वचनं श्लक्ष्णं भूताभावनमव्ययम् ।
लोकानामिह सर्वेषां त्वं कर्ता चान्त एव च ।। १९ ।।
त्वं धारयसि लोकांस्त्रीन् क्रियाणां च प्रवर्तकः ।
स तथा कुरु लोकेश नोच्छिद्येरन् यथा क्रियाः ।। २० ।।
कस्मादेवं विमूढस्त्वमीश्वरः सन् हुताशन ।
त्वं पवित्रं सदा लोके सर्वभूतगतिश्च ह ।। २१ ।।
देवताओं तथा ऋषियों की बात सुनकर विश्वविधाता ब्रह्मा जी ने प्राणियों को उत्पन्न करने वाले अविनाशी अग्नि को बुलाकर मधुर वाणी में कहा—‘हुताशन! यहाँ समस्त लोकों के स्रष्टा और संहारक तुम्हीं हो, तुम्हीं तीनों लोकों को धारण करने वाले हो, सम्पूर्ण क्रियाओं के प्रवर्तक भी तुम्हीं हो। अतः लोकेश्वर! तुम ऐसा करो जिससे अग्निहोत्र आदि क्रियाओं का लोप न हो। तुम सबके स्वामी होकर भी इस प्रकार मूढ़ (मोहग्रस्त) कैसे हो गये? तुम संसार में सदा पवित्र हो, समस्त प्राणियों की गति भी तुम्हीं हो ।। १८—२१ ।।
न त्वं सर्वशरीरेण सर्वभक्षत्वमेष्यसि ।
अपाने ह्यर्चिषो यास्ते सर्वं भक्ष्यन्ति ताः शिखिन् ।। २२ ।।
‘तुम सारे शरीर से सर्वभक्षी नहीं होओगे। अग्निदेव! तुम्हारे अपानदेश में जो ज्वालाएँ होंगी, वे ही सब कुछ भक्षण करेंगी ।। २२ ।।
क्रव्यादा च तनुर्या ते सा सर्वं भक्षयिष्यति ।
यथा सूर्यांशुभिः स्मृष्टं सर्वं शुचि विभाव्यते ।। २३ ।।
त्वदर्चिर्निर्दग्धं सर्वं शुचि भविष्यति ।
त्वमग्ने परमं तेजः स्वप्रभावाद् विनिर्गतम् ।। २४ ।।
स्वतेजसैव तं शापं कुरु सत्यमृषेर्विभो ।
देवानां चात्मनो भागं गृहाण त्वं मुखे हुतम् ।। २५ ।।
‘इसके सिवा जो तुम्हारी क्रव्याद मूर्ति है (कच्चा मांस या मुर्दा जलाने वाली जो चिता की आग है) वही सब कुछ भक्षण करेगी। जैसे सूर्य देव की किरणों से स्पर्श होने पर सब वस्तुएँ शुद्ध मानी जाती हैं, उसी प्रकार तुम्हारी ज्वालाओं से दग्ध होने पर सब कुछ शुद्ध हो जायगा। अग्निदेव! तुम अपने प्रभाव से ही प्रकट हुए उत्कृष्ट तेज हो; अतः विभो! अपने तेज से ही महर्षि के उस शाप को सत्य कर दिखाओ और अपने मुख में आहुति के रूप में पड़े हुए देवताओं के तथा अपने भाग को भी ग्रहण करो’ ।। २३—२५ ।।
सौतिरुवाच
एवमस्त्विति तं वह्निः प्रत्युवाच पितामहम् ।
जगाम शासनं कर्तुं देवस्य परमेष्ठिनः ।। २६ ।।
उग्रश्रवा जी कहते हैं—यह सुनकर अग्नि देव ने पितामह ब्रह्माजी से कहा—‘एवमस्तु (ऐसा ही हो)।’ यों कहकर वे भगवान् ब्रह्माजी के आदेश का पालन करने के लिये चल दिये ।। २६ ।।
देवर्षयश्च मुदितास्ततो जग्मुर्यथागतम् ।
ऋषयश्च यथापूर्वं क्रियाः सर्वाः प्रचक्रिरे ।। २७ ।।
इसके बाद देवर्षिगण अत्यन्त प्रसन्न हो जैसे आये थे वैसे ही चले गये। फिर ऋषि-महर्षि भी अग्निहोत्र आदि सम्पूर्ण कर्मों का पूर्ववत् पालन करने लगे ।। २७ ।।
दिवि देवा मुमुदिरे भूतसङ्घाश्च लौकिकाः ।
अग्निश्च परमां प्रीतिमवाप हतकल्मषः ।। २८ ।।
देवता लोग स्वर्ग लोक में आनन्दित हो गये और इस लोक के समस्त प्राणी भी बड़े प्रसन्न हुए। साथ ही शाप-जनित पाप कट जाने से अग्निदेव को भी बड़ी प्रसन्नता हुई ।। २८ ।।
एवं स भगवाञ्छापं लेभेऽग्निर्भृगुतः पुरा ।
एवमेष पुरावृत्त इतिहासोऽग्निशापजः ।
पुलोम्नश्च विनाशोऽयं च्यवनस्य च सम्भवः ।। २९ ।।
इस प्रकार पूर्वकाल में भगवान् अग्निदेव को महर्षि भृगु से शाप प्राप्त हुआ था। यही अग्नि-शाप सम्बन्धी प्राचीन इतिहास है। पुलोमा राक्षस के विनाश और च्यवन मुनि के जन्म का वृत्तान्त भी यही है ।। २९ ।।
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि अग्निशापमोचने सप्तमोऽध्यायः ।। ७ ।।
इस प्रकार श्री महाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत पौलोमपर्व में अग्नि के शाप का मोचन सम्बन्धी सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। ७ ।।